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Wednesday, September 05, 2007

प्रतियोगिता की छठवीं कविता


आज हम अगस्त माह की यूनिकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता से वह कविता लेकर आये हैं जिसने छठवाँ स्थान प्राप्त किया। इस कविता के रचनाकार 'विपिन चौहान 'मन'' का चेहरा भी आपलोगों के नया नहीं है। लुत्फ़ उठाइए।

कविता- अभिलाषा....अंतिम दर्शन की

कवयिता- विपिन चौहान 'मन', आगरा


आज मुझे आलिंगन देकर मुक्त करो हर भार से...
प्रियतम मेरा हाथ पकड़ कर ले चल इस मझधार से...

नयन मौन हैं किन्तु प्रणय की प्यास संजोये बैठे हैं..
भाव हृदय के स्मृतियों में अब तक खोये बैठे हैं...
तुमसे तृष्णा पाई है तृप्ति तुमसे अभिलाषित है..
विगत दिवस आकुल श्वासों में..खुद को बोये बैठे हैं..
निरीह हूँ लेकिन तुमसे तुमको माँग रहा अधिकार से..
प्रियतम मेरा हाथ पकड़ कर ले चल इस मझधार से..

मेरे स्वप्न तुम्हारी हठ की हठता पर नतमस्तक हैं...
कुछ प्रश्न प्रतीक्षक बने खड़े जिनके उत्तर आवश्यक हैं..
"मन" सोच रहा निज जीवन का सारांश तुम्हें ही कह डालूँ..
ये सत्य है जग को मालूम है, पर उत्तम कहो कहाँ तक है..
मेरे संशय को दो विराम , तुम अर्थपूर्ण उद्‌गार से..
प्रियतम मेरा हाथ पकड़ कर ले चल इस मझधार से..

आयाम छुये थे कभी प्रेम ने निच्छलता ,सम्मान के..
भेंट चढ गये सभी हौसले , झूठे निष्ठुर अभिमान के.
अब कौन दलीलों से व्याकुल उर की इच्छायें बहलाऊँ..
मेरी आस का दीपक लड़ते-लड़ते बस हार गया तूफान से..
ये अन्तिम जीवन सन्ध्या थी..अब चलता हूँ तेरे द्वार से..
काश तू मेरा हाथ पकड़ मुझे ले जाता मझधार से..
मुझे ले जाता मझधार से.....
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८, ८॰५२८४०९
औसत अंक- ८॰२६४२०४
स्थान- तेरहवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-७, ८॰२६४२०४ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰६३२१०२
स्थान- नौवाँ
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तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-गीतिमूलक रचनाओं में छंद के निर्वाह के प्रति सचेत रहना होता है। रचना में छंद-भंग पर अभी और अभ्यास करना होगा। प्रवाह टूटता-सा है। व्याकरण व भाषा के लिए भी बहुत सचेत होने की आवश्यकता है। कविता की सहजता अच्छी है।
अंक- ५
स्थान- पाँचवाँ या छठवाँ
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अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
शिल्प और प्रवाह प्रसंशनीय है। कवि प्रसंशा का पात्र है कि उसकी शब्दों पर गहरी पकड़ है। “काश तू मेरा हाथ पकड़, ले जाता मझधार से” यह भाव पूर्णत: स्थापित हुआ है..गहराई है।
कला पक्ष: ७/१०
भाव पक्ष: ७/१०
कुल योग: १४/२०
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पुरस्कार- डॉ॰ कविता वाचक्नवी की काव्य-पुस्तक 'मैं चल तो दूँ' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :

आशीष "अंशुमाली" का कहना है कि -

मेरे संशय को दो विराम , तुम अर्थपूर्ण उद्‌गार से..
एक आकुल उद्गार। कविता बहुत प्रीतिकर लगी।
विपिन जी, पुत्ररत्‍न की बधाई स्‍वीकारें।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

विपिन जी,

गीत की जितनी प्रसंशा की जाये कम है।

अब कौन दलीलों से व्याकुल उर की इच्छायें बहलाऊँ..
मेरी आस का दीपक लड़ते-लड़ते बस हार गया तूफान से..
ये अन्तिम जीवन सन्ध्या थी..अब चलता हूँ तेरे द्वार से..
काश तू मेरा हाथ पकड़ मुझे ले जाता मझधार से..
मुझे ले जाता मझधार से.....

निराशा की बातें अवश्य है किंतु वह पाठक को बहुत गहरे ले जाती हैं। इस अत्यंत उत्कृष्ट रचना के लिये आप बधाई के पात्र हैं।

आपको पुत्ररत्न की प्राप्ति की कोटिश: शुभकामनायें।

RAVI KANT का कहना है कि -

विपिन जी,
अतिसुन्दर! मै तो आकंठ डूब गया आपके गीत में!
विषय, शब्द-चयन एवं भाव सभी उत्तम हैं। अधिक क्या कहुँ? वाणी मूक हो जाती है।

anuradha srivastav का कहना है कि -

विपिन जी बहुत सुन्दर रचना । खासतौर पर ये पंक्तियाँ-
आयाम छुये थे कभी प्रेम ने निच्छलता ,सम्मान के..
भेंट चढ गये सभी हौसले , झूठे निष्ठुर अभिमान के.
हमारी ऒर से भी पुत्र रत्न की प्राप्ति पर हार्दिक बधाई।

praveen pandit का कहना है कि -

विपिन जी!
कई बार शब्द कम हो जाते हैं उद्गार प्रकट करने के लिये.आज भी यही हो रहा है.
भाव-सरिता मे ऐसे बह रहा हूं कि निकलने का भी मन नहीं कर रहा 'मन'.

सस्नेह
प्रवीण पंडित

शोभा का कहना है कि -

प्रिय विपिन
बहुत ही प्यारी कविता लिखी है तुमने । प्रथम दो काव्यांश बहुत सुन्दर हैं किन्तु अन्तिम
बन्ध में कसाव कुछ कम हुआ है । यद्यपि भाव वहाँ भी विभोर कर देने वाला है ।
थोड़ा और ध्यान दें तो आनन्द आ जाएगा । सस्नेह

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बहुत बहुत सुंदर विपिन जी ..डूब गई इस की हर्फ़ पंक्ति में भाव बहुत ही सुंदर है

आयाम छुये थे कभी प्रेम ने निच्छलता ,सम्मान के..
भेंट चढ गये सभी हौसले , झूठे निष्ठुर अभिमान के.

इतनी सुंदर रचना के लिए बधाई

Unknown का कहना है कि -

प्रिय विपिन जी, आपकी शब्दों पर पकड और भाषा चयन बहुत ही उत्क्रष्ट एवं सराहनीय है! विशेष रूप से पन्क्तियाँ -
नयन मौन हैं किन्तु प्रणय की प्यास संजोये बैठे हैं..
भाव हृदय के स्मृतियों में अब तक खोये बैठे हैं...
तुमसे तृष्णा पाई है तृप्ति तुमसे अभिलाषित है..

मेरी आस का दीपक लड़ते-लड़ते बस हार गया तूफान से..
ये अन्तिम जीवन सन्ध्या थी..अब चलता हूँ तेरे द्वार से..

अत्यधिक प्रभावित करतीं हैं तथा पाठकों को आपसे जो अभिलाषित था वह सभी कुछ उन्हें आपसे इस कविता में मिला है!
धन्यवाद्!

Kamlesh Nahata का कहना है कि -

bahut bahut acchi kaavita hai...
zaroor likhte rahiye....

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

इतनी प्रवाहमयी कविता लिखने की क्षमता है आपमें फ़िर भी आपने लगता है अभ्यास नहीं किया है। इस कविता में छंद-भंग है। मैं एक उदाहरण लेता हूँ-

नयन मौन हैं किन्तु प्रणय की प्यास संजोये बैठे हैं..

इसे लिखा जा सकता था-

नयन मौन, किन्तु प्रणय की प्यास संजोये बैठे हैं

या

मौन नयन, किन्तु प्रणय की प्यास संजोये बैठे हैं

आपकी इस कविता पर डॉ॰ कुमार विश्वास का प्रभाव दिखाई दे रहा है। फ़िर भी कविता प्रसंशनीय है।

विश्व दीपक का कहना है कि -

बहुत हीं प्रभावी रचना है मन जी।
बधाई स्वीकारें।

गीता पंडित का कहना है कि -

विपिन जी,

गीत अतिसुन्दर!....

शब्द-चयन अतिसुन्दर!.

भाव अतिसुन्दर!.....

धन्यवाद्!

उत्कृष्ट रचना के लिये
बधाई

सस्नेह

SahityaShilpi का कहना है कि -

विपिन जी!
देरी से टिप्पणी के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ. कविता बहुत सुंदर लगी, परंतु अभी और सुधार की गुंज़ाइश है. बधाई स्वीकार करें.

Anita kumar का कहना है कि -

विपिन जी इतनी मर्मस्पर्शि कविता के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें। बहुत खूब लिखी है।
आयाम छुये थे कभी प्रेम ने निच्छलता ,सम्मान के..
भेंट चढ गये सभी हौसले , झूठे निष्ठुर अभिमान के.
अब कौन दलीलों से व्याकुल उर की इच्छायें बहलाऊँ..
मेरी आस का दीपक लड़ते-लड़ते बस हार गया तूफान से..
ये अन्तिम जीवन सन्ध्या थी..अब चलता हूँ तेरे द्वार से..
काश तू मेरा हाथ पकड़ मुझे ले जाता मझधार से..
मुझे ले जाता मझधार से.....


बहुत सुन्दर भाव हैं

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