कल ही प्रतियोगिता के परिणाम आये हैं और हमने सभी प्रतिभागियों के नाम प्रकाशित किये हैं। हमारा प्रयत्न रहा है कि हम अधिक से अधिक कविताओं को हिन्द-युग्म पर जगह दे पायँ। और वैसे भी निर्णय अपने स्थान पर है और कविता की आत्मा अपने स्थान पर। आज हम पाँचवें स्थान की कविता लेकर उपस्थित हुए हैं।
कविता- मैं
कवयित्री- अनिता कुमार, मुम्बई
मैं मास्टर चाबी हूँ,
जब असल चाबी कहीं इधर-उधर हो जाती है,
मैं काम आती हूँ,
मैं वो थाली हूँ,
जिसमें सहानुभूति के कुछ ठीकरे
बड़े सलीके से सजा कर परोसे जाते हैं,
मैं वो लकड़ी हूँ,
जो साँप पीटने, टेक लगाने के काम आती हूँ,
कुछ न मिले, तो हाथ सेंकने के काम आती हूँ,
मैं आले में सजी धूल फाँकती गुड़िया हूँ,
जिस पर घर वालों की नजर मेहमानों के साथ पड़ती है,
मैं पैरों में पड़ी धूल हूँ,
जो आँधीं बन कर अब तक तुम्हारी आखों में नहीं किरकी,
मैं कल के रस्मों रिवाज भी हूँ, और आज का खुलापन भी,
मैं 'आजकल' हूँ,
जिसके 'आज' के साथ 'कल' का पुछल्ला लगा है,
जिसे जब चाहा 'आज' के आगे रख दिया,
मैं आकड़ों का हिस्सा हूँ,
पर कैसे कह दूँ कि हाड़-माँस नहीं,
ममतामयी माँ
बड़े प्यार से थाली सजाती है,
दाल-सब्जी परोसती है,
बेटे ने रोटी माँगी,
माँ ने माथा चूमा, अपने भाग्य को सराहा,
देसी घी में डूबी रोटी परोसी,
मुझसे पूछा, खाती क्यों नहीं,
मैं ने कहा, किस से खाऊँ,
रोटी तो दी ही नहीं,
माँ ने आखें तरेरीं, मुँह बिचकाया और कहा,
लालची कहीं की, मरती क्यों नहीं
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८॰०१५६२५, ८॰८२१४२८
औसत अंक- ८॰४१८५२६
स्थान- नवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-७, ८॰४१८५२६ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰७०९२६३
स्थान- आठवाँ
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तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-अच्छा लिखा है। प्रतीक में नयापन है।क्रमश: निखार के लिए और - और अभ्यास ही असल कुंजी है व अपनी परम्परा को गम्भीरता से पढ़ना।
अंक- ५
स्थान- पाँचवाँ या छठवाँ
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अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
विषय को कवि नें बहुत अच्छा निभाया है। सारे बिम्ब सुस्पष्ट है और सबसे अंतिम पंक्ति कविता की प्राण।
कला पक्ष: ७/१०
भाव पक्ष: ७॰१/१०
कुल योग: १४॰१/२०
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पुरस्कार- डॉ॰ कविता वाचक्नवी की काव्य-पुस्तक 'मैं चल तो दूँ' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
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23 कविताप्रेमियों का कहना है :
अनिता जी बहुत बहुत बधाई, बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता है, अपने मेरी उम्मीदें बढ़ा दी. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर
प्रिय अनिता जी,
जबरदस्त कविता बन पड़ी है.. भावो का अच्छा चित्रण किया है आपने। बिम्बो का अच्छा प्रयोग!
मास्टर चाभी,थाली,लकड़ी,गुड़िया,धूल ,आज-कल,और आँकड़ो का हिस्सा बनी एक शख्सियत अपने वजूद को तलाशते एक अन्तस की पुकार तो थी ही;दिल तक पहुँच भी रही थी।अंत मे रोटी के बिना खाती लालची रूह ने तो रूला ही दिया।
कुछ लाइने याद आ रही हैं-
"सूरत से मूरत लगती है,
छली गई किस्मत लगती है,
बिना पता का बन्द लिफाफा,
हर लड़की एक खत लगती है।"
आपको साधुवाद इतने अच्छी रचना के लिए।आगे आपकी ऐसी दिल को छू लेने वाली रचनाओ का इंतजार रहेगा।
साभार,
श्रवण
अनिता जी बहुत गहरे घाव कर गयी आपकी रचना,
सच ही कहा है मै आजकल हूँ
इस आजकल के चक्कर ने और बुरा हाल कर दिया है, जब चाहे हमे आज के साथ तौला जाता और जब चाहे कल की दुहाई दे दी जाती है।
मै वो दर्द हूँ,
जो रो भी नही सके
हँस भी न सके
मै वो वक्त हूँ
जो खूद से नही
औरो के इशारे पर चलता है
आपको आगे भी पढ़ने को मिलत रहे... इस इंतजार के साथ
शुक्रिया
मैं ने कहा, किस से खाऊँ,
रोटी तो दी ही नहीं,
माँ ने आखें तरेरीं, मुँह बिचकाया और कहा,
लालची कहीं की, मरती क्यों नहीं
अनिता कुमार जी आपकी कविता लाजवाब है। मर्मस्पर्शी और सत्य भी..। बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत ही सुंदर लिखी है आपने यह कविता .
मुझसे पूछा, खाती क्यों नहीं,
मैं ने कहा, किस से खाऊँ,
रोटी तो दी ही नहीं,
माँ ने आखें तरेरीं, मुँह बिचकाया और कहा,
लालची कहीं की, मरती क्यों नहीं
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता है...अनिता जी
सजीव जी, श्रवन जी, गरिमा जी, राजीव जी …आप जैसे वरिष्ट कवियों के प्रोत्साहन से मन अति प्रसन्न हो गया, हौसलाअफ़्जाई के लिए कोटि कोटि धन्यवाद
अनिता जी!
सुंदर और बेहद प्रभावी रचना के लिये बधाई स्वीकारें. रचना मन को झकझोर गई.
अनिता जी,
मर्मस्पर्शी रचना के लिए बधाई।
मैं 'आजकल' हूँ,
जिसके 'आज' के साथ 'कल' का पुछल्ला लगा है,
जिसे जब चाहा 'आज' के आगे रख दिया
अतिसुन्दर!
मुझसे पूछा, खाती क्यों नहीं,
मैं ने कहा, किस से खाऊँ,
रोटी तो दी ही नहीं,
माँ ने आखें तरेरीं, मुँह बिचकाया और कहा,
लालची कहीं की, मरती क्यों नहीं
आपकी और भी रचनाऒं का इंतज़ार रहेगा।
बहुत बढ़िया ! कहने के लिए शब्द ही नहीं हैं , आपने तो हर संवेदनशील नारी के मन की हर बात कह दी है ।
घुघूती बासूती
रंजू जी, अजय यादव जी,रविकांत जी एवम घुघूति जी। आप जैसे दिग्ग्ज कवियों से प्रोत्साहन पा कर मैं गदगद हूँ, आगे भी ऐसे ही स्नेह की अभिलाषी हूँ…धन्यवाद
अनीता जी कविता पढ़कर यह सहज़ ही समझ में आ जाता है की हमारे जज़ों पर अंतिम निर्णय करते समय क्या बीतती होगी |सारे बिंब और उपमाएँ नये हैं नये होने से भी अधिक महत्वपूर्ण यह सीधे ह्रदय तक पहुँचते हैं |
कविता अंत तक बंधे रखती है और अंत की पंक्तियाँ सचमुच कविता को उत्कर्ष प्रदान करती हैं |
बधाई....
विपुल जी
धन्यवाद, हमें प्रसन्नता है कि आप को हमारी कविता अच्छी लगी
अनिता जी,
अंतिम २ पंक्तियाँ चोट कर गई।
माँ ने आखें तरेरीं, मुँह बिचकाया और कहा,
लालची कहीं की, मरती क्यों नही...
और कहने को कुछ शेष नहीं रह जाता।
बहुत धन्यवाद, जो ये कविता पढ़ने को मिली।
तपन शर्मां
अगर मैं यह कहूं कि हिन्दयुग्म पर आप एक बदलाव लेकर आईं है तो शायद कुछ गलत न होगा!!
अच्छा लगा यह बदलाव!!
अनिता जी मर्मस्पर्शी कविता ।खासतौर पर "आजकल" -मैं 'आजकल' हूँ,
जिसके 'आज' के साथ 'कल' का पुछल्ला लगा है,
जिसे जब चाहा 'आज' के आगे रख दिया
आशा है भविष्य में भी बेहतरीन रचना पढने को मिलेगी ।
तपन जी, सजीत जी, हमें प्रसन्न्ता है कि आप दोनों को ये कविता अच्छी लगी। धन्यवाद
अनिता जी
एक सुन्दर रचना के लिए बधाई । एक स्त्री के जीवन को बहुत बारीकी से
देखा और चित्रित किया है । वर्ष में दो बार देवी की पूजा करने वाले समाज
में उसका होना आज भी अभिशाप समझा जाता है । आपने बहुत सुन्दर प्रतीकों का
प्रयोग किया है । बहुत-बहुत बधाई
सभी मित्रों की टिप्पणियां देखीं, कुछ नहीं बचता कहने को..
सचमुच भावपूर्ण रचना..
छू गयी..
अनिता जी,
आपकी यह कविता भावपूर्ण भी है और सत्य के करीब भी। महिला-उत्थान के लिए वचनबद्ध संस्थाओं को अपनी यह रचना सौंपिए, उन्हें और कटु सत्य पता चलेंगे। यह महिला-मन या महिला-स्थिति की मात्र अभिव्यक्ति ही नहीं है, बल्कि विद्रोह का सशक्त हस्ताक्षर है।
हमें आगे आपसे और बेहतर कविताओं की अपेक्षा रहेगी।
अनुराधा जी,शोभा जी, भुपेन्द्र जी
आप के प्रोत्साहन के लिए मैं नतमस्तक हूँ, आप ने 'आजकल' के प्रतीक को सही पह्चाना है। मै शुक्रगुजार हूँ आप सबकी
शेलेश जी
आप को कविता अच्छी लगी जान कर अच्छा लगा, आप सही कह रहें हैं , हमारे पास कुछ महिला मडंल की प्राथना आ चुकी है, इस कविता को उनको देने के लिए, ऐसे ही हमारा मनोबल बढ़ाते रहिए बस यही प्राथना है
अनिता जी,
अच्छा लगा आपको पढ़ कर
सुंदर और बेहद
मर्मस्पर्शी रचना के लिए
बधाई
आपको
congratualtions Anita madam,I feel very happy that your poetry has secured a much respectable position and after reading it... I liked it very much. It was easy to understand simple language and quiet imaginative. :)
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