तुम अकेले नहीं, और भी हैं इस दुनिया में सताये हुये
होंठों पर तब्बसुम लिये मगर दिल पर चोट खाये हुये
तुम्हारी बात से कयामत के बाद फ़िर दिल में दर्द उठा
इक ज़माने से दुनिया से थे ये जख़्म हम छिपाये हुये
धुआँ-धुआँ सी ज़िन्दगी में कोई आग हो क्या ज़रूरी है
जले तो हैं मगर न जाने कौन सी आग के जलाये हुये
सफ़र में अब भी हूँ मगर नहीं तलाश मंज़िलों की मुझे
वजह वो लोग हैं हमसफ़र मेरे बाद मंजिलों को पाये हुये
क्या कहूँ आज मैं कैसी उलझनों में हूँ यहाँ आकर फँसा
यह सारे जाल खुद हैं मेरे अपने हाथों से बनाये हुये
बिछड़ रहे हो अगर तो कोई दुश्मनी की बात न करना
क्या ख़बर कौन महफ़िल में आ जाये बिन बुलाये हुये
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
"धुंआ धुंआ सी जिन्दगी में कोई आग हो क्या जरूरी है
जले तो हैं मगर न जाने कौन सी आग के जलाये हुये"
"क्या कहूं आज मै कैसी उलझनो में हूं यहां आकर फ़ंसा
यह सारे जाल खुद हैं मेरे अपने हाथों से बनाये हुये"
बहुत खूब, अनुभवी कलम कुछ ऐसा ही लिखती है मोहिन्दर जी
मन छू लिया आपने
सस्नेह
गौरव शुक्ल
होंठों पर तब्बसुम लिये मगर दिल पर चोट खाये हुये
धुंआ धुंआ सी जिन्दगी में कोई आग हो क्या जरूरी है
जले तो हैं मगर न जाने कौन सी आग के जलाये हुये
क्या कहूं आज मै कैसी उलझनो में हूं यहां आकर फ़ंसा
यह सारे जाल खुद हैं मेरे अपने हाथों से बनाये हुये
बिछड रहे हो अगर तो कोई दुशमनी की बात न करना
क्या खबर कौन महफ़िल में आ जाये बिन बुलाये हुये
bahut aache...waah kya baat hai....
"तुम अकेले नही और भी हैं इस दुनिया में सताये हुये"
"धुंआ धुंआ सी जिन्दगी में कोई आग हो क्या जरूरी है"
"बजह वो लोग हैं हमसफ़र मेरे बाद-मंजिलों को पाये हुये"
"यह सारे जाल खुद हैं मेरे अपने हाथों से बनाये हुये"
"बिछड रहे हो अगर तो कोई दुशमनी की बात न करना
क्या खबर कौन महफ़िल में आ जाये बिन बुलाये हुये"
वाह!!!!
आपकी पूरी रचना ही उद्धरित करने की इच्छा हो रही थी। इतनी गंभीर, गहरी और स्तरीय रचना..सहमत हूँ गौरव जी से कि आपकी अनुभवी कलम का यह चमत्कार है। बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मोहिन्दर जी एक शेर याद आ रहा है, शायद वशीर साहब का है।
बडा गुमान था हमें मौसम के खास होने का।
.....अब वही वजह बना है दिल उदास होने का।।
"तुम अकेले नही और भी हैं इस दुनिया में सताये हुये"
अगर ये कहूं कि पूरी तरह से रंजन जी से सहमत हूं तो गलत न होगा।
एक एक शे'र सीधे हाल-ए-दिल बयां करता महसूस होता है । पूरे मनोयोग से लिखी गज़ल, जिसका हर शे'र अपने आप मे अनूठा है ।
धन्यवाद ञापित करता हूं ।
आर्यमनु
बहुत खूब मोहिन्दर भाई! हर बार की तरह आपकी ये गज़ल भी अपनी खूबसूरती और भावों की गहराई से सीधे पाठक के दिल में उतर जाती है.
तुम अकेले नहीं,और भी हैं इस दुनिया में सताये हुये
होंठों पर तब्बसुम लिये मगर दिल पर चोट खाये हुये
या फिर ये शेर:
धुआँ-धुआँ सी ज़िन्दगी में कोई आग हो क्या ज़रूरी है
जले तो हैं मगर न जाने कौन सी आग के जलाये हुये
बहुत बहुत बधाई.
धुआँ-धुआँ सी ज़िन्दगी में कोई आग हो क्या ज़रूरी है
जले तो हैं मगर न जाने कौन सी आग के जलाये हुये
बिछड़ रहे हो अगर तो कोई दुश्मनी की बात न करना
क्या ख़बर कौन महफ़िल में आ जाये बिन बुलाये हुये
बहुत खूब मोहिन्दर जी। अच्छा लिखा है।
बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है मोहिंदर जी आपकी .. कई शेर दिल को छू गये
सफ़र में अब भी हूँ मगर नहीं तलाश मंज़िलों की मुझे
वजह वो लोग हैं हमसफ़र मेरे बाद मंजिलों को पाये हुये.....
बहुत खूब...... बधाई
तुम अकेले नहीं, और भी हैं इस दुनिया में सताये हुये
होंठों पर तब्बसुम लिये मगर दिल पर चोट खाये हुये
सफ़र में अब भी हूँ मगर नहीं तलाश मंज़िलों की मुझे
वजह वो लोग हैं हमसफ़र मेरे बाद मंजिलों को पाये हुये
क्या कहूँ आज मैं कैसी उलझनों में हूँ यहाँ आकर फँसा
यह सारे जाल खुद हैं मेरे अपने हाथों से बनाये हुये
बहुत खूब मोहिन्दर जी। एक सुंदर गज़ल पढवाने के लिए बधाई स्वीकारें।
"धुंआ धुंआ सी जिन्दगी में कोई आग हो क्या जरूरी है
जले तो हैं मगर न जाने कौन सी आग के जलाये हुये"
"क्या कहूं आज मै कैसी उलझनो में हूं यहां आकर फ़ंसा
यह सारे जाल खुद हैं मेरे अपने हाथों से बनाये हुये"
बहुत खूब! मन को छूते हुए शे'र, खूबसूरत ग़ज़ल!
बधाई!
धुआँ-धुआँ सी ज़िन्दगी में कोई आग हो क्या ज़रूरी है
जले तो हैं मगर न जाने कौन सी आग के जलाये हुये।
मोहिन्दर जी, जब भी हम बड़ी बहर की गज़ल लिखते हैं
तो कई बार बहाव कुछ कम समझ में आता है।
वैसे आप ने काफी नियन्त्रण रखा है।
थोड़ा और ध्यान देंगे तो बेहतर होगा।
इस तरह की ग़ज़लों को न पसंद करने का कोई कारण भी नहीं हो सकता। और जबकि शे'रों भे गहराई भी हो तो प्रवाह भी उतना मायने नहीं रखता यहाँ तो आपकी ग़ज़ल में बिलकुल पारम्परिक प्रवाह है, पढ़कर मज़ा तो आयेगा ही।
धुआँ-धुआँ सी ज़िन्दगी में कोई आग हो क्या ज़रूरी है
जले तो हैं मगर न जाने कौन सी आग के जलाये हुये
यह अंदाज़ कातिलाना है ग़ालिब
गजलकार मोहिन्दर जी सबसे पहले आप बधाई स्वीकार करें कहिये क्यों तो समझ जाईये...आपकी गजल अच्छे अच्छों के दिल में घर कर गई है...इसी बात के लिये...
सुनीता(शानू)
आपकी गजलें भी कमाल करती हैं
बुझे बुझे से चेहरॊं में उल्लास भरती हैं
First of all, CONGRATULATIONS.....
क्या कहूँ आज मैं कैसी उलझनों में हूँ यहाँ आकर फँसा
यह सारे जाल खुद हैं मेरे अपने हाथों से बनाये हुये
बिछड़ रहे हो अगर तो कोई दुश्मनी की बात न करना
क्या ख़बर कौन महफ़िल में आ जाये बिन बुलाये हुये
Mohinderji,
These are the beautiful lines of the poem. Jyadatar yahi hota hai, apni hi bune hue jaalon mein hi hum is tarah se fanste hai ki bus fir fanste hi chale jaate hai. Aur rahi baat dushmani ki, ekdam sahi hai pata nahi kab kis mahfil mein hum bin bulaye hi aa jaye aur aap hamara saamna na kar sako....
Beautiful lines.
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