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Tuesday, July 03, 2007

दस क्षणिकायें -- दिल के कुछ टुकड़े




बेकलेजा आदमी..

अबकी जब बहुत दर्द कलेजे में उठेगा
हम कलेजा चबा जाएंगे अपना
पोर-पोर चीर देती टीसों से तो बेहतर है
बेकलेजा आदमी..

२२.०४.१९९५

मेरे साये..

जैसे ही आईना देखा, चौंक गया,
मेरा चेहरा कहीं नहीं था, कहीं नहीं..
सिर धुनता दीवारों पर मैं चीख उठा
खंडहर पर बैठे चमगादड़ उड़ कर भागे
डर कर मकड़ी धागे पर कुछ और चढ़ी
आँखें मिच-मिच करते उल्लू अलसाये
खिल-खिल कर के हँसी गहनतम खामोशी
कितने फैल गये देखो मेरे साये..


९.११.१९९५

मौत

मेरे कलेजे को कुचल कर
तुम्हारे मासूम पैर जख़्मी तो नहीं हुए?
मेरे प्यार
मेरी आस्थाएँ सिसक उठी हैं,
इतना भी यकीन न था तुम्हें
कह कर ही देखा होता कि मौत आये तुम्हें
कलेजा चीर कर
तुम्हें फूलों पर रख आता......

२८.०५.१९९७

खामोश मौत

वो जो तड़प भी नहीं पाते हैं
उनसे क्या पूछते हो मौत क्या है,
तड़प कर जिनमें सह लेने का साहस आ जाता हो,
उनसे क्या पूछते हो मौत क्या है....
मेरी साँस लेती हुई लाश से पूछो
कि तड़पन की शिकन को दाँतों से दाब कर
मुस्कुरा कर
यह कह देना "जहाँ रहो खुश रहो"
फ़िर एक गहरी खामोश मौत मर जाना
कैसा होता है..

२८.०५.१९९७

बच्चों सा

मैं अपने सब्र की शरारत से हैरां हूँ
इतना बड़ा पत्थर कलेजे पर ढो लाया
और अब टूटे हुए कलेजे पर
टूटे हुए खिलौने सा रूठता है..
बच्चों-सा

७.१२.१९९५

सागर

देखा है क्या सागर तुमने
फ़िर ठहरो आईना देखो
पलकों के भीतर अपने ही
सीपी बन जाओ चाहो तो
या अनंत गहरे में डूबो..

१८.११.१९९६

पुनर्जन्म

तुम्हारे इन्तज़ार में एक उम्र गुज़ार दी मैनें
मुझे अब पुनर्जन्म का यकीन हो चला है
क्योंकि न मैं जीता रहा
न जी सके हो तुम मुझसे दूर
एक उम्र खामोशियों की जो गुजरती है अब
कभी तो हमें जिला जायेगी
तुम्हारे क़रीब ही मेरी रूह को साँस आयेगी..


२०.११.१९९६

नहीं हूँ..

एक दिल ही तो था
जो अब नहीं है
एक तुम ही तो थे
जो अब नहीं हो
मैं न तब था
न अब हूँ..

२०.११.१९९६

खोज

मेरी छाती से कोई नस खींच कर
वह दौड़ता ही रहा
और मैं खोजता रहा दिल अपना..

६.१२.१९९६

जनमजले

ज़िन्दगी ने बेहद खामोशी से कहा
नहीं, तुम्हें पूरा हक था कि मेरे स्वप्न देख सको,
लेकिन मैं पंछी हूँ, नदी हूँ और हवा हूँ
मैंने अपनी हथेली बढ़ा कर
चाँद छू लेना चाहा,
आसमान फुनगी पर जा बैठा और हँस कर बोला..
फ़िर कोशिश कर जनमजले


२८.०५.१९९७


*** राजीव रंजन प्रसाद


आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

20 कविताप्रेमियों का कहना है :

Gaurav Shukla का कहना है कि -

राजीव जी

जीता ही जलाओगे आप कि कुछ टूट गया है :-)
एक बार फिर आपने पूरी १० सम्पूर्ण कवितायें डाल दी हैं....
हमारी तो १० दिन की फुरसत


"अबकी जब बहुत दर्द कलेजे में उठेगा
हम कलेजा चबा जायेंग अपना
पोर पोर चीर देती टीसों से तो बेहतर है
बेकलेजा आदमी.."

क्या कहें? निःशब्द ही रहने दें

"जैसे ही आईना देखा, चौंक गया,
मेरा चेहरा कहीं नहीं था, कहीं नहीं..
....
कितने फैल गये देखो मेरे साये"

अनुपम, क्या-क्या कह जाते हैं आप?

"कह कर ही देखा होता कि मौत आये तुम्हे
कलेजा चीर कर
तुम्हे फूलो पर रख आता"

वाह!
"तङप कर जिनमे सह लेने का साहस आ जाता हो,
उनसे क्या पूछते हो मौत क्या है.." , स्पर्श किया है इन पंक्तियों ने

सब्र की शरारत से तो मैं भी हैरान हो गया,

"पलकों के भीतर अपने ही
सीपी बन जाओ चाहो तो
या अनंत गहरे में डूबो.."

"एक उम्र खामोशियों की जो गुजरती है अब
कभी तो हमें जिला जायेगी"

"एक दिल ही तो था
जो अब नहीं है
एक तुम ही तो थे
जो अब नहीं हो
मैं न तब था
न अब हूँ"

मात्र दो पंक्तियों में इतना कुछ?

"मेरी छाती से कोई नस खींच कर
वह दौडता ही रहा
और मैं खोजता रहा दिल अपना.."

"चाँद छू लेना चाहा,
आसमान फुनगी पर जा बैठा "

अभी तक बाहर नहीं आ पाया हूँ आपके इस सागर से, फिलहाल बाहर आने की इच्छा भी नहीं है
अत्यन्त अद्भुत क्षणिकायें हैं...

सस्नेह
गौरव शुक्ल

Mohinder56 का कहना है कि -

मैं गौरव जी की टिप्पणी से सहमत हूं राजीव जी.
ये क्षणिकायें गहन विचारों के मनथन का परिणाम हैं
अपने आप में एक एक क्षणिका एक सम्पूर्ण कविता है.

आर्य मनु का कहना है कि -

"पोर पोर टीस से तो अच्छा है बेकलेजा आदमी"
बातों ही बातों मे क्या खूब कह गये रंजन जी आप तो॰॰॰
खामोश मौत, पुनर्जन्म का तो कहना ही क्या।
कलेजा सामने रख दिया आपने तो रंजन जी ।
सभी रचनायें अपने आप में श्रेष्ठ है, बेकलेजा आदमी सबसे उम्दा लगी ।
इन्हे क्षणिकायें कहना उचित न होगा।
क्योकि, जो आपके द्वारा लिखा गया है, वे हर एक शब्द मे पूरी की पूरी कवितायें है ।
मंगलकामनायें प्रेषित करता हूं ।
आर्यमनु

SahityaShilpi का कहना है कि -

राजीव जी, आपकी क्षणिकायें अपने आप में इतनी सुंदर और पूर्ण हैं कि उनके बारे में कुछ कहने योग्य मैं खुद को नहीं पाता. वैसे भी गौरव जी ने जो कुछ कहा है, उसके बाद कुछ नया कहने को शब्द कम से कम मुझे नहीं मिल रहे.
इसलिये सिर्फ आपका धन्यवाद कर सकता हूँ कि आपने इतनी सुंदर क्षणिकायें युग्म के माध्यम से हमें पढ़ायीं.

Anupama का कहना है कि -

Guruji....aapki saari shanikaayen bahut sundar hain....aapki kavita subah subah na paakar hum to ghabra gaye....ab samajh aaya deri kyun hui....

Sanjeet Tripathi का कहना है कि -

बहुत खूब!!
आपकी यह क्षणिकाएं अपने आप में संपूर्णता का बोध कराती हैं!!

Pabbllooo.... का कहना है कि -

बहुत ही अदभुत................
"मैं ना तब था,
ना अब हूँ"
शुभ कामनाएँ
दर्द चू रहा है शब्दो से
हरफ़ ब हरफ़ क्षनिकाएँ और गहनतम हो गयी है
शुभ कामना स्वरूप मेरी तरफ़ से एक क्षणिका
"मौन,
तेरी थाह लेने को,
शब्द बनकर लगाऊं डुबकी,
काल जल मे"

Anonymous का कहना है कि -

बहुत ही अदभुत................
"मैं ना तब था,
ना अब हूँ"
शुभ कामनाएँ
दर्द चू रहा है शब्दो से
हरफ़ ब हरफ़ क्षनिकाएँ और गहनतम हो गयी है
शुभ कामना स्वरूप मेरी तरफ़ से एक क्षणिका
"मौन,
तेरी थाह लेने को,
शब्द बनकर लगाऊं डुबकी,
काल जल मे"

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

आपके दिल के टुकड़े इधर आकर चुभ गए हैं और अब निकलने का नाम ही नहीं ले रहे। दर्द जितना ज्यादा होता है, उसे अभिव्यक्त करना उतना ही मुश्किल होता है लेकिन आप को पढ़के यह कभी नहीं लगता। अब क्या चुनूं इसमें से?
मन करता है कि ये सारा दर्द आपसे उधार ले लूं और अबके जब होली आएगी ना...अपने दर्द के साथ होलिका में आपका दर्द भी जला दूं। पर मुझे पता है, ना आप कभी इस कलेजे को चबाके बेकलेजा हो पाएंगे और दुख के विश्व में पुनर्जन्म भी उतना आसान नहीं है।
शायद आपको कुछ बेहतर लगे... मैं भी टूटे हुए कलेजे पर टूटे हुए खिलौने सा रूठता हूं।

एक दिल ही तो था
जो अब नहीं है
एक तुम ही तो थे
जो अब नहीं हो
मैं न तब था
न अब हूँ..

Nikhil का कहना है कि -

rajivji,
bahut pyari khsanikaayein hain...........
पलकों के भीतर अपने ही
सीपी बन जाओ चाहो तो
या अनंत गहरे में डूबो.."

एक तुम ही तो थे
जो अब नहीं हो
मैं न तब था
न अब हूँ

itni sadhi huyi lines likhne ke liye tapasyaa karni padti hain.....wah-wah...

nikhil anand giri
9868062333

रंजू भाटिया का कहना है कि -

यूँ तो आप हमेशा ही बहुत ख़ूबसूरत लिखते हैं ...यह क्षणिकायें भी बहुत सुंदर है

तुम्हारे इन्तज़ार में एक उम्र गुज़ार दी मैनें
मुझे अब पुनर्जन्म का यकीन हो चला है
क्योंकि न मैं जीता रहा
न जी सके हो तुम मुझसे दूर
एक उम्र खामोशियों की जो गुजरती है अब
कभी तो हमें जिला जायेगी
तुम्हारे क़रीब ही मेरी रूह को साँस आयेगी..


यह तो मुझे अपने दिल के बहुत क़रीब लगी ...बहुत ही सुंदर है हर पंक्ति

विश्व दीपक का कहना है कि -

राजीव जी, इस बार तो 11 dimension दीख रहे हैं। ११ कविताएँ एक बार में हीं आपने हमें पढा दी हैं। दो दिन तो इन्हें समझने में हीं चला गया। तब जाकर कुछ सुकून मिला है ।

पोर-पोर चीर देती टीसों से तो बेहतर है
बेकलेजा आदमी..

काश अपना कलेजा चबा पाते हम !

मेरा चेहरा कहीं नहीं था, कहीं नहीं..

इंसां नकाबपोश है अब, चेहरा दीखे कहाँ से।

कह कर ही देखा होता कि मौत आये तुम्हें
कलेजा चीर कर
तुम्हें फूलों पर रख आता......

निर्दोष एवं कोमल प्रेम ।

यह कह देना "जहाँ रहो खुश रहो"
फ़िर एक गहरी खामोश मौत मर जाना
कैसा होता है..

दर्द को करीब से जाना है आपने।

और अब टूटे हुए कलेजे पर
टूटे हुए खिलौने सा रूठता है..
बच्चों-सा
गज़ब का शिल्प है।

एक उम्र खामोशियों की जो गुजरती है अब
कभी तो हमें जिला जायेगी
तुम्हारे क़रीब ही मेरी रूह को साँस आयेगी..

नि:शब्द हूँ । कुछ कह ना पाऊँगा।

एक दिल ही तो था
जो अब नहीं है
एक तुम ही तो थे
जो अब नहीं हो
मैं न तब था
न अब हूँ..

समर्पण की पराकाष्ठा ।

मेरी छाती से कोई नस खींच कर
वह दौड़ता ही रहा
और मैं खोजता रहा दिल अपना..

आसमान फुनगी पर जा बैठा और हँस कर बोला..
फ़िर कोशिश कर जनमजले

नतमस्तक हूँ आपके सामने।

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

बहुत खूब, एक से बढ़कर एक मोती संजोये है

Anonymous का कहना है कि -

राजीवजी,

आप हर बार कुछ न कुछ ऐसी बात कह जाते हैं जो अन्दर तक असर करती है, जैसे -

"पोर-पोर चीर देती टीसों से तो बेहतर है
बेकलेजा आदमी..."

बहुत बड़ी बात कह दी है आपने, बधाई!!!

पंकज का कहना है कि -

राजीव जी, आप की क्षणिकाएँ काफी अच्छी लगीं।
तारीखों को देखकर पता चला कि आप भी इस रोग के काफी दिनों से मारे हुए हैं।

श्रवण सिंह का कहना है कि -

" निःशब्द "
स्तब्ध
अदभुत
आज गर्व हो रहा है मुझे अपने आप पर और अपने बौद्धिक पाठक होने की हैसियत पर कि इतनी मशक्कत करने के बाद इस रचना की दसो आयाम को उन्ही अनुभूतियों से मै समझ पाया। बेकलेजे आदमी और साँस लेती लाश की समानता को उस शिद्दत से महसूस करना.... पीड़ाजन्य अनुभूति थी। राजीव जी, एक अस्तित्ववादी मानसिकता का जो खाका आपने खीच डाला , उसके लिये सार्त्र ,कामू की गलियाँ छानने की अब हमे आवश्यकता नही। माँ सरस्वती से यही कामना है कि जल्दी से आपकी लेखनी की माया हम पे चलाए और हम यूँही मंत्रमुग्ध हो और भावनाबद्ध रहें।

साभार,

श्रवण

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

बिना कलेज़े का आदमी इतनी गहराई वाली क्षणिकाएँ कैसे लिख सकता है! क्षणिकाओं के तो आप उस्ताद हैं ही, ज्यादा क्या कहना।

Unknown का कहना है कि -

राजीव जी आप कि चंद लाइनो में सबकुछ कह दिया । बहुत "एक दिल ही तो था
जो अब नहीं है
एक तुम ही तो थे
जो अब नहीं हो
मैं न तब था
न अब हूँ"
अच्छा लिखा है आपने

सुनीता शानू का कहना है कि -

कितना दर्द समेटा है दिल में थौड़ा दोस्त उधार दे दो...हर कविता लिखने का अन्दाज अलग...और पढने का तो अन्दाज ही निराला है...क्या कहें बस एक बात इतना सुन्दर कैसे लिखते हो?

सुनीता(शनू)

Admin का कहना है कि -

यह क्षणिकाएं नही दिल के बिखरे हुए टुकडें हैं जिन्हे नुमाईश पे रखा गया है।

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)