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Tuesday, September 23, 2008

लहू सभी का है जब एक तो ये मज़हब क्या


क्यों अपने शहर के माहौल से हिरासाँ हूँ
ख़ुद अपने साए से लोगो रहा पशेमाँ हूँ

कहीं पे कोई ठिकाना नहीं मिला मुझ को
सबब ये कह रहे हैं सब कि मैं मुसलमाँ हूँ

जवाब जिन के न दे पाये हैं मसीहा भी
उन्हीं सवालों से अक्सर रहा गुरेज़ाँ हूँ

शह्र में घूमना फिरना है मेरी फितरत पर
यूँ अपने आप में चलता हुआ सा ज़िन्दाँ हूँ

हरेक शख्स के मज़हब से यूँ तो उल्फत है
ये कह रहे हैं खिरदमंद बहुत नादाँ हूँ

धुआँ ये नफरतों का ता-फलक पहुँचता देख
मैं अपनी आंखों से किस कद्र तो परेशाँ हूँ

लहू सभी का है जब एक तो ये मज़हब क्या
इसेक बात पे मैं अज़ल से ही हैराँ हूँ

खलल में डाल दी जिस ने तेरी इबादत तक
मुझे लगा है मसीहा कि मैं वो शैताँ हूँ

(अर्थ: हिरासाँ = भयभीत, पशेमाँ = शर्मिंदा, गुरेज़ाँ = भागा हुआ, फितरत = स्वभाव, ज़िन्दाँ = जेल, खिरदमंद = अक्लमंद, ता-फलक = आसमान तक, लहू = रक्त, अज़ल = सृष्टि रचना काल, खलल = विघ्न, )

--प्रेमचंद सहजवाला

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14 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

कि मैं वो शैताँ हूँ आप वाकई शैतान हैं जब देखो मुसलमानों के इबादत पर औंधे पड़े मिलते हो जाओ खतना करवाओ कौन रोकता है कमलादास भी इन्तजार में बैठी है बुरका पहने बुढापे मेंयाही होता है कभी तुलसी को लपेटते हो कभी ख़ुद रिरयाते हो असहाज्वालाजी सारी दुनिया परेशां है इन से आपको क्या किसी दोशीजा से मुहब्बत वगैरा तो नहीं है paratham paathak

neelam का कहना है कि -

सहजवाला जी अच्छी प्रस्तुति

Anonymous का कहना है कि -

जावेद अखतर हूँ , शबाना आजमी भी हूँ
अजहरुद्दीन हूँ, सलमान खान हूँ मैं
मगर सहजावाला अधिक जानते हैं
ठिकाना मेरा पहचानते हैं
इन जैसों ही से मैं शर्मिन्दा हूँ

यही मेरा घर ना कि जापान हूँ

ये क्यों मेरा परिचय कि मैं मुसलमाँ हूँ

Alok Shankar का कहना है कि -

खलल में डाल दी जिस ने तेरी इबादत तक
मुझे लगा है मसीहा कि मैं वो शैताँ हूँ

bahut sundar prem ji

Nikhil का कहना है कि -

जल्दी में लिखी गई ग़ज़ल है....दो-तीन शेरों के मायने बिल्कुल एक-से हैं.....
फ़िर भी शिल्प और शब्द-चयन में आपका कोई जवाब नहीं....
निखिल

Unknown का कहना है कि -

सहजवाला जी,
गजल मे शब्दो का चयन बहुत ही अच्छा है, यह काफिया "आँ" निभाना बहुत मुशकिल होता है, आपने अच्छी तरह निभाया है
लेकिन आपकी इस गजल मे मुझे कुछ कम प्रभाव लग रहा है

Unknown का कहना है कि -

@गुमनाम(anonymous) जी, यदि आपको किसी की कमी निकालनी है तो सामने आकर निकालिये इस तरह छुप कर किसी को बुरा भला कहना अच्छी बात नही होती....

सुमित भारद्वाज

Nikhil का कहना है कि -

क्यों अपने शहर के माहौल से हिरासाँ हूँ
ख़ुद अपने साए से लोगो रहा पशेमाँ हूँ

कहीं पे कोई ठिकाना नहीं मिला मुझ को
सबब ये कह रहे हैं सब कि मैं मुसलमाँ हूँ
ये बहुत ही नायाब पंक्तियाँ हैं....आज के समय की त्रासदी...

जवाब जिन के न दे पाये हैं मसीहा भी
उन्हीं सवालों से अक्सर रहा गुरेज़ाँ हूँ
एक बेहद ज्वलंत सवाल वाले शेर के बाद इस शेर से बचा जा सकता था..इसके बगैर भी पूरी रचना मुकम्मल होती....

शह्र में घूमना फिरना है मेरी फितरत पर
यूँ अपने आप में चलता हुआ सा ज़िन्दाँ हूँ
पहले शेर के आस-पास इसके भी मायने घूम रहे हैं....

हरेक शख्स के मज़हब से यूँ तो उल्फत है
ये कह रहे हैं खिरदमंद बहुत नादाँ हूँ

धुआँ ये नफरतों का ता-फलक पहुँचता देख
मैं अपनी आंखों से किस कद्र तो परेशाँ हूँ
ये पहला शेर होता तो क्या बात होती...फ़िर शायद शेर न. ३/४ से मुक्ति मिल जाती....

लहू सभी का है जब एक तो ये मज़हब क्या
इसेक बात पे मैं अज़ल से ही हैराँ हूँ

खलल में डाल दी जिस ने तेरी इबादत तक
मुझे लगा है मसीहा कि मैं वो शैताँ हूँ

आख़िर में प्रेम जी फ़िर निखर आए हैं....

सादर,
निखिल

Nikhil का कहना है कि -

क्यों अपने शहर के माहौल से हिरासाँ हूँ
ख़ुद अपने साए से लोगो रहा पशेमाँ हूँ

कहीं पे कोई ठिकाना नहीं मिला मुझ को
सबब ये कह रहे हैं सब कि मैं मुसलमाँ हूँ
ये बहुत ही नायाब पंक्तियाँ हैं....आज के समय की त्रासदी...

जवाब जिन के न दे पाये हैं मसीहा भी
उन्हीं सवालों से अक्सर रहा गुरेज़ाँ हूँ
एक बेहद ज्वलंत सवाल वाले शेर के बाद इस शेर से बचा जा सकता था..इसके बगैर भी पूरी रचना मुकम्मल होती....

शह्र में घूमना फिरना है मेरी फितरत पर
यूँ अपने आप में चलता हुआ सा ज़िन्दाँ हूँ
पहले शेर के आस-पास इसके भी मायने घूम रहे हैं....

हरेक शख्स के मज़हब से यूँ तो उल्फत है
ये कह रहे हैं खिरदमंद बहुत नादाँ हूँ

धुआँ ये नफरतों का ता-फलक पहुँचता देख
मैं अपनी आंखों से किस कद्र तो परेशाँ हूँ
ये पहला शेर होता तो क्या बात होती...फ़िर शायद शेर न. ३/४ से मुक्ति मिल जाती....

लहू सभी का है जब एक तो ये मज़हब क्या
इसेक बात पे मैं अज़ल से ही हैराँ हूँ

खलल में डाल दी जिस ने तेरी इबादत तक
मुझे लगा है मसीहा कि मैं वो शैताँ हूँ

आख़िर में प्रेम जी फ़िर निखर आए हैं....

सादर,
निखिल

Anonymous का कहना है कि -

मुझे तो बहुत अच्छी लगी ग़ज़ल
सादर
रचना

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

जो शे’र सबसे ज्यादा पसंद आया:

लहू सभी का है जब एक तो ये मज़हब क्या
इसेक बात पे मैं अज़ल से ही हैराँ हूँ ...

धन्यवाद

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

निखिल जी के विश्लेषण मैं भी इत्तेफाक रखता हूँ।

फिर भी मुझे ग़ज़ल काफी पसंद आई। अच्छी बात यह है कि आपके शे'रों में इतिहास और वर्तमान दोनों दिखता है। आपका पका हुआ अनुभव हम तक मिसरों के माध्यम से पहुँचता है।

वीनस केसरी का कहना है कि -

दिल को छूती चन्द लाइने जिनको पढ कर सुकून मिला

वीनस केसरी

Anonymous का कहना है कि -

achha laga padhkar.
ALOK SINGH "SAHIL"

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