लेखक-जगदीश रावतानी
दिनकर जी नवजागरण के प्रतीक, क्रांतिकारी युगद्रष्टा साहित्यकार थे. उनकी रचनाओं में उनके महान व्यक्तित्व की झलक सहज ही मिल जाती है. दिनकर जी को कविता लिखने का शौक बचपन से ही था. परन्तु तब उन्हें केवल राष्ट्रीय कविता ही पसंद थी. तब छायावाद उनकी समझ से परे था. दिनकर जी को कविता लिखने की प्रेरणा नाटक और रामलीला देख कर मिली. 'मिटटी की ओर' में दिनकर स्वयं लिखते हैं - जब प्रताप में भारतीय आत्मा की 'तिलक' शीर्षक कविता छपी थी, तब मैं 10-12 साल का था, किंतु मुझे भली भाँति याद है कि वह कविता मुझे अत्यन्त पसंद आई थी और मैं ने उन्हें कंठस्थ कर बहुत से लोगों को भी सुनाया था. आगे चल कर मेरी मनोदशा के निर्माण में उस तथा भारतीय आत्मा की अन्य कविताओं ने बहुत प्रभाव डाला.
मैं यहाँ उनकी चंद कवितायें पाठकों के लिए पेश कर रहा हूँ. जो अपने आप स्पष्टता से पाठकों की समझ आ जाती हैं. उनको परिभाषित करना या समझाना कवि की शान में गुस्ताखी होगी. बस इतना ही कहना चाहूँगा कि हर रचनाकार अपने समय के दौरान हो रही घटनाओं को एक आधार बना कर या प्रेरणा ले कर लिखता है और तभी उसे ख़ास तौर से उस वक्त के समाज से स्वीकृति भी मिलती है. दिनकर जी की कवितायें भी समय और परिस्थितियों से अछूती नहीं थी. तभी तो हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई तथा सन् 1974 में जयप्रकाश नारायण जी के आन्दोलन के दौरान रामधारी सिंह दिनकर जी की जोश और साहस से परिपूर्ण कवितायें हर दिल में हिम्मत, बहादुरी और बलिदान की भावना भरने में कामयाब रही.
फेंकता हूँ लो, तोड़ मरोड़
अरी निष्ठुरे! बीन के तार,
उठा चांदी का उज्जवल शंख
फूंकता हूँ भैरव हुंकार.
नहीं जीते जी सकता देख
विश्व पे झुका तुम्हारा भाल,
वेदना मधु का भी कर पान
आज उगलूँगा गरल कराल.
या
आहें उठी दीन कृषकों की
मजदूरों की तड़प, पुकारें
अरी, गरीबों के लोहू पर
खड़ी हुई तेरी दीवार.
दिनकर जी के चाहने वालों की एक लम्बी सूची है. मगर विरोधी भी कम नहीं रहे. पर समझने की बात यह है कि विरोध ईर्ष्या का परिणाम भी हो सकता है. हाँ यह बात सभी मानते हैं कि दिनकर जी का गुस्सा बहुत तेज़ था तथा वे बेहद 'मूडी' किस्म के व्यक्ति भी थे. मगर मैं उनके जज्बाती होने को भी सकारात्मक दृष्टि से देखता हूँ. क्यों कि उनका गुस्सा समाज और व्यवस्था में फैली हुई विषमताओं के प्रति था.
परन्तु उनके द्वारा लिखे गए एक पत्र को पढ़ कर मैं बेहद चकित हुआ कि क्या एक सकारात्मक और रचनात्मक दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति की सोच में इतना बड़ा अन्तर आ सकता है. पत्र नीचे प्रस्तुत है -
प्रिय पंडित जी,
...मैं बचपन में आवश्यकता से तो उतना नहीं, मगर गरीब परिवार में जन्म लेने के कारण शौक से गाय-भैंसें चराया करता था. पुरुषार्थ के बल पर यहाँ दिल्ली यानी संसद तक पहुँचा. गरीबी की बाधा मैंने मानी नहीं और दो भाइयों की छः और अपनी दो बेटियों का विवाह भतीजों की शिक्षा दीक्षा के क्रम में अपने व्यक्तिगत सुख को बढ़ने नहीं दिया. मेरा सारा जीवन यज्ञ में बीता है, दो भाइयों को चिंता मुक्त रखने का यज्ञ, आठ लड़कियों के विवाह का यज्ञ. किंतु बड़े पुण्य ने छोटे पापों से मेरी रक्षा नहीं की. अब भली भाँति समझ रहा हूँ कि विपत्ति किसे कहते हैं , लोभ काम और कीर्ति का सुख लूटने का क्या दंड है. भगवान ने आग में गाड़ कर मेरा अंहकार तोड़ दिया. अपनी जिन पंक्तियों से मैं दूसरों को धीरज बंधाता था, प्रेरणा देता था, वे पंक्तियाँ मेरे लिए बेकार हैं. सहारा है तो केवल माता कौशल्या के वचन का:
सो सब सहिब जो देव सहावा.
आपका
रामधारी सिंह दिनकर
हिन्दी काव्य के इस युग-पुरूष को मेरा शत शत प्रणाम.
और साथ ही देखिए-सुनिए राष्ट्रकवि की १००वीं जयंती पर बोलते हुए वरिष्ठ साहित्यकार बलदेव वंशी को-
आवाज़ पर अमिताभ मीत की आवाज़ में दिनकर की दो कविताएँ ('हाहाकार' और 'बालिका से वधू') सुनें।
कलम आज उनकी जय बोल- शोभा महेन्द्रू की प्रस्तुति
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
यह क्रंदन , यह अश्रु मनुज की
आशा बहुत बड़ी है
बतलाता है यह ,
मनुष्यता अब तक नही मरी है
फूलों पर आँसू के मोती,
और अश्रु में आशा
मिटटी के छोटे जीवन की
नपी तुली परिभाषा
- कुरुक्षेत्र
चल रहा महाभारत का रण
जल रहा धरित्री का सुहाग
फट कुरुक्षेत्र में खेल रही
नर के भीतर की कुटिल आग
बाजियों गजो की लोथो में
गिर रहे मनुज के सहज अंग
बह रहा चतुष्पद और द्विपद का
रुधिर मिश्र हो एक संग..
गत्वर गौरय्य सुघर भूधर से
लिये रक्त रंजित शरीर
थे जूझ रहे कोंन्तेय कर्ण
क्षण क्षण करते गर्जन गम्भीर
दोनो रण कुशल धनुर्धर नर
दोनो समबल दोनो समर्थ
दोनो पर दोनो की अमोघ
थी विषिख वृष्टि हो रही व्यर्थ
इतने मे शर के लिये कर्ण ने
देखा ज्यों अपना निषंग
तरकश में से फुंकार उठा
कोई प्रचंड विषधर भुजंग
कहता कि कर्ण में अश्व्सेन
विश्रित भुजगों का स्वामी हूँ
जन्म से पार्थ का शत्रू हूँ
तेरा बहुविधि हितकामी हूँ
एक बार कर कृपा चढा शर
उस शव्या तक जाने दे
इस महाशत्रु को स्यन्दन में
मुझको अभी सुलाने दे
.
.
.
तेरी सहायता से जय पाऊँ
अनायास पा जाउंगा
आने वाली मानवता को
लेकिन क्या मुख दिखलाउगा
लोग कहेंगें दान किया
किन्तु कर्ण ने क्षार किया
प्रतिभट के वध के लिये
नीच ने सर्पों का सह्हाय लिया..
-रश्मिरथी
रावतानी जी का बहुत बहुत आभार
राष्ट्रकवि को शत शत नमन
'दिनकर' थे सचमुच में दिनकर
नित रोज उगाते कविताये..
थीं ओजपूर्ण और तेजयुक्त
अति क्रांतिमय सब उपमायें...
पढते पढते कविताओं के
जब होठ फडकने लगते थे..
फिर तेज सराते चित्रो में
आखों मे उबलने लगते थे..
दिल के अन्दर के ज्वाला सी
रह रह के भडकने लगती थी
फिर दबी हुई जो शांति क्राति
भीषण हो तडकने लगती थे
ऐसी कवि वर की शैली थी
प्रभाव रहेगा जीवन भर
शत शत प्रणाम शत शत प्रणाम
हे राष्ट्रकवि मेरे 'दिनकर'
"समर शेष है, जनगंगा को खुलकर लहराने दो...
शिखरों को डूबने, मुकुटों को बह जाने दो...
पथरीली ऊँची ज़मीन है तो उसको तोडेंगे..."
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोडेंगे..."
दिनकर जी की ये पंक्तियाँ हमेशा मेरे साथ रहती हैं....दिनकर के पोते (मेरे पिताजी की स्मृतियों के मुताबिक) उनके सहपाठी थे....
बरौनी जंक्शन के पहले सिमरिया घाट पर बना राजेंद्रनगर पुल पहले नहीं था...हम जब अपने घर ट्रेन से जाते थे और रास्ते में वो पुल पड़ता है तो पापा अक्सर अपने बचपन की यादें बांटते हैं....दिनकर हिन्दयुग्म के लिए प्रेरणा-पुरूष हैं...जब "हिन्दी को खून चाहिए" लिख रहा था, तो भी दिनकर की मिटटी का होना बखूबी याद था....हम लोग धन्य हैं कि दिनकर की मिटटी से ज्यादा नजदीक रहे.....
ये लिंक भी देखें...
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2004/09/040923_poet_dinkar.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2008/09/080922_dinkar_centenary.shtml
जगदीश रावतानी जी
आपका लेख अच्छा लगा
दिनकर जी का पत्र दिल को छू गया
सुमित भारद्वाज
मैं तो चाहने वालों में से हूँ। इस तरह के आलेखों के समय-समय पर प्रकाशन से वरिष्ठ कलमकारों के बारे में नये लेखकों-पाठकों को तरह-तरह की दृष्टि मिलती है। जगदीश जी आपका बहुत आभार।
राष्ट्रकवि को नमन्
मेरा दुर्भाग्य है कि मैंने कभी उन्हें नहीं पढ़ा.. और अगर कभी १-२ पंक्तियाँ पढ़ी भी हों तो याद नहीं।
जगदीश जी, आपसे रविवार को मुलाकात हुई..
कुछ ऐसा कर जा जमाने में..कि जमाने को जमाना लगे भुलाने में.. ये पंक्तियाँ अब तक मेरे दिमाग में घूम रहीं हैं...
आपने दिनकर जी की कविता व पत्र से परिचय कराया.. बहुत अच्छा लगा।
आपका मार्गदर्शन आगे भी हमें चाहिये।
धन्यवाद
कवि भी एक व्यक्ति होता है जिसका परिवार भी होता है और ज़िम्मेदारियाँ भी
श्रध्धेय दीनकर जी मेरे ताऊजी की पुत्री गायत्री दीदी की शादी के समय हमारे घर पधारे थे
और बहुत प्रसन्न थे, उनका खुला, हास्य और गौर वर्ण चेहरा आज भी स्मृतियोँ मेँ अँकित है
मेरे नमन !!
~~ ये आलेख बढिया लगा
- लावण्या
बहुत अच्छा लेख है
पर उन्होंने ये पात्र किसे लिखा था?
जगदीश जी बहुत ही संक्षेप ने आपने जो कह दिया, और जिस प्रकार युग्म ने आज राष्ट्कवि को याद किया है यकीनन कबीले तारीफ है, विडीयो ठीक से सुनाई नही दे रहा है अगर क्लीयर होता तो अच्छा था
अपने प्रिय कवि दिनकर जी के बारे में पढ़कर खुशी हुई,धन्यवाद.
हैप्पी बर्थडे गुरु जी.
आलोक सिंह "साहिल"
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