मेरे हाथों में अपने मुस्तक़बिल की तलाश है तुमको
मेरी हथेली में सूर्ख छालों के सिवा कुछ भी नहीं
तेरी कातर निगाहें माँगती हैं मुझ से जवाब कितने
और मेरे पास नामुराद सवालों के सिवा कुछ भी नहीं
दिल चाहता है तेरी मांग, मुसर्रत के रंगों से भर दूं
क्या करूं मेरे पास मलालों के सिवा कुछ भी नहीं
क्या हो, कोई पूछे मुझ से, कौन तुझे पहचानता है
मेरे पास तो, गुमनाम हवालों के सिवा कुछ भी नहीं
वो नजारे, जो दिलकश नज़र आते हैं, खुशी में तुम को
वही रंज में, बिखरे हुये ख्यालों के सिवा कुछ भी नहीं
शब्दार्थ-
मुस्तक़बिल- भविष्य, आनेवाला कल/काल
नामुराद- अभागा
मुसर्रत- प्रसन्नता, खुशी
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
मोहिन्दर जी,
उर्दू पर आपकी पकड अच्छी है। आपके कथ्य की गहरायी के युग्म पर कई कायल हैं, जिनमें से एक मैं भी हूँ।
"मेरी हथेली में सूर्ख छालों के सिवा कुछ भी नहीं"
"नामुराद सवालों के सिवा कुछ भी नहीं"
"मेरे पास मलालों के सिवा कुछ भी नहीं"
"बिखरे हुये ख्यालों के सिवा कुछ भी नहीं"
नितांत असाधारण पंक्तियाँ लिखी हैं आपने। बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
तेरी कातर निगाहें माँगती हैं मुझ से जवाब कितने
और मेरे पास नामुराद सवालों के सिवा कुछ भी नहीं
बहुत ही सुंदर...
क्या हो, कोई पूछे मुझ से, कौन तुझे पहचानता है
मेरे पास तो, गुमनाम हवालों के सिवा कुछ भी नहीं
बहुत ख़ूब .....
वो नजारे, जो दिलकश नज़र आते हैं, खुशी में तुम को
वही रंज में, बिखरे हुये ख्यालों के सिवा कुछ भी नहीं
बेहद ख़ूबसूरत लिखी है आपने मोहिंदेर ज़ी... बहुत बधाई आपको।
मोहिन्दर जी,
काबिलेतारीफ़ है ये गजल। मनोभावों को सुन्दर शब्द दिया है आपने। ये पंक्ति बेहद यथार्थपरक लगी-
वो नजारे, जो दिलकश नज़र आते हैं, खुशी में तुम को
वही रंज में, बिखरे हुये ख्यालों के सिवा कुछ भी नहीं
बधाई।
गज़ल बहुत अच्छी लगी।
तेरी कातर निगाहें माँगती हैं मुझ से जवाब कितने
और मेरे पास नामुराद सवालों के सिवा कुछ भी नहीं
मोहिन्दर जी,
बहुत सुंदर लिखा है आपने..पहली दो पंक्तियों पर ही फ़िदा हो गया मैं..
मेरे हाथों में अपने मुस्तक़बिल की तलाश है तुमको
मेरी हथेली में सूर्ख छालों के सिवा कुछ भी नहीं
धन्यवाद,
तपन शर्मा
दिल चाहता है तेरी मांग, मुसर्रत के रंगों से भर दूं
क्या करूं मेरे पास मलालों के सिवा कुछ भी नहीं
मोहिन्दर जी बहुत खूब लिखा । कहीं भी लय टुटती सी नहीं लगी ।
मोहिन्दर जी
गज़ल बहुत ही अच्छी लिखी है । स्वतंत्रता दिवस पर इसकी प्रासंगिकता
अधिक बढ़ गई है । सब कुछ जानते समझते हुए भी एक आम आदमी कुछ
नहीं कर सकता । जो हो रहा है उसे बस देखभर सकते हैं ।
शायद कभी कोई इस सब को बदल भी सके । शुभकामनाओं सहित
तेरी कातर निगाहें माँगती हैं मुझ से जवाब कितने
और मेरे पास नामुराद सवालों के सिवा कुछ भी नहीं
क्या हो, कोई पूछे मुझ से, कौन तुझे पहचानता है
मेरे पास तो, गुमनाम हवालों के सिवा कुछ भी नहीं
वो नजारे, जो दिलकश नज़र आते हैं, खुशी में तुम को
वही रंज में, बिखरे हुये ख्यालों के सिवा कुछ भी नहीं
aachi gazal hai...aache shayar hain...dil ko tatolne wale sher likhe hain.
मोहिन्दर जी!
खूबसूरत गज़ल के लिये बधाई! भाव और शब्द, दोनों के लिहाज़ से एक अच्छी गज़ल है.
आपने एक जगह ’मुसर्रत’ शब्द का प्रयोग किया है, जबकि मेरे विचार से सही शब्द ’मसर्रत’ होना चाहिये.
अजय जी,
मुझे लगता है मुसर्रत और मसर्रत, दोनों का एक ही अर्थ होता है।
मुझे उर्दू ज्यादा नहीं आती है, इसीलिये मैंने इस साइट से पता लगाया है।
http://www.geocities.com/urdudict/dict/dict_m.htm
Masarrat - Happiness, Joy
Musarrat - Joy, Jollity
धन्यवाद,
तपन शर्मा
तपन जी
आपका बहुत बहुत शुक्रिया... टिप्पणी के लिये भी और मुसर्रत और मसरत का भेद खत्म करने के लिये भी...
अरे वाह मोहिन्दर जी,
अबकी बार वाकई मज़ा आ गया।
मोहिन्दर जी ,
उर्दू की मुझे ज्यादा समझ नहीं पर इतना कह सकता हूँ कि आपको इसपर अधिकार हासिल है
आपकी लेखनी आसमान को छूने के लिए बहुत तेजी से बढ़ रही है।
हर शेर उम्दा है और भाव भी बहुत गहरे हैं।
मेरे हाथों में अपने मुस्तक़बिल की तलाश है तुमको
मेरी हथेली में सूर्ख छालों के सिवा कुछ भी नहीं
दिल चाहता है तेरी मांग, मुसर्रत के रंगों से भर दूं
क्या करूं मेरे पास मलालों के सिवा कुछ भी नहीं
वो नजारे, जो दिलकश नज़र आते हैं, खुशी में तुम को
वही रंज में, बिखरे हुये ख्यालों के सिवा कुछ भी नहीं
सब बहुत अद्भुत।
ग़ज़ल काफ़ी अच्छी है शिल्प की दृष्टी से
भाव भी अच्छे है...........
आनंदित हो उठा मै
तेरी कातर निगाहें माँगती हैं मुझ से जवाब कितने
और मेरे पास नामुराद सवालों के सिवा कुछ भी नहीं
साधुवाद एवं शुभकामनाएँ
मोहिंन्दर जी नमस्कार...
बहुत ही उम्दा गज़ल लिखी है आप ने...
अभी तक मैं आप से परिचित नही था..
और अब लगता है किसी परिचय की जरूरत नहीं रह गयी है..
आप की गज़ल ने खुद आप का परिचय दे दिया है..
बे-मिसाल और ला-जवाब...
बहुत कुछ सीखने को मिलेगा मुझे आप से..
धन्यबाद..
"मेरे हाथों में अपने मुस्तक़बिल की तलाश है तुमको
मेरी हथेली में सूर्ख छालों के सिवा कुछ भी नहीं"
मोहिन्दर जी
बहुत ही सुन्दर प्रारम्भ किया आपने , बरबस ही वाह निकलती है
"तेरी कातर निगाहें माँगती हैं मुझ से जवाब कितने
और मेरे पास नामुराद सवालों के सिवा कुछ भी नहीं"
एक एक शेर असर डालने वाला है
उम्दा गज़ल
बहुत बहुत बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
मेरे हाथों में अपने मुस्तक़बिल की तलाश है तुमको
मेरी हथेली में सूर्ख छालों के सिवा कुछ भी नहीं
दमदार शुरूआत। आपने जिस शेर से गजल का इस्तेकबाल किया है , उसे पढते हीं सुखनवर के इल्म के इमकान का पता चलता है।[:)]( ज्यादा उर्दू हो गया)
बहुत खूबसूरत भाव हैं मोहिन्दर जी। हर एक शेर पुख्ता है, वजनदार है।
दिल चाहता है तेरी मांग, मुसर्रत के रंगों से भर दूं
क्या करूं मेरे पास मलालों के सिवा कुछ भी नहीं
दिल बाग-बाग हो गया।
बधाई स्वीकारें।
और क्या कहू..
चढ गयी है ठढ हड्डीयो की कोर तक
और मेरे पास बुझते अलावो के सिवा कुछ भी नही.
अवनीश गौतम्
तेरी कातर निगाहें माँगती हैं मुझ से जवाब कितने
और मेरे पास नामुराद सवालों के सिवा कुछ भी नहीं
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वो नजारे, जो दिलकश नज़र आते हैं, खुशी में तुम को
वही रंज में, बिखरे हुये ख्यालों के सिवा कुछ भी नहीं
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल!
बधाई मोहिन्दरजी.
आपके पहले के ग़ज़लों में भी भावों की कमी नहीं थी। लेकिन अब शिल्प में परिपक्वता आती जा रही है। बधाई!
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