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Sunday, June 08, 2008

...पापा के नाम


मुझे याद है,
जब मेरी ठुड्डी पर थोडी-सी क्रीम लगाकर,
तुम दुलारते थे मुझे,
एक उम्मीद भी रहती होगी तुम्हारे अन्दर,
कि कब हम बड़े हों,
और दुलार सकें तुम्हे,

आज भी ठीक से नहीं बन पता शेव,
ठुड्डी पर उग आई है दाढी,
उग आए हैं तुम्हारे रोपे गए पौधे भी,
(भइया और मैं...)
मैं बड़ा होता रहा तुम्हे देखकर,
तुम्हारी उम्र हमेशा वही रही...

तुमने कभी नहीं माँगा,
मेरे किए गए खर्च का हिसाब,
एक विश्वास की लकीर हमने,
खींच-ली मन ही मन,
कि,
जब कभी कोई नहीं होता मेरे साथ,
मेरे आस-पास,
तुम दूर से ही देते हो हौसला,
साठ की उम्र में भी तुम,
बन जाते हो मेरे युवा साथी,
पता नहीं मैं पहुँच पाता हूँ कि नहीं,
तुम तक,
जब सो जाती है माँ,
और तुम उनींदे-से,
बतिया रहे होते हो अपनी थक चुकी पीठ-से,
काश, मैं दबा पाता तुम्हारे पाँव हर रोज़!!

अक्सर मन होता है कि,
पकड़ लूँ दिन की आखिरी ट्रेन
और अगली सुबह हम खा सकें,
एक ही थाली में...

तुम कभी शहर आना तो
दिखलाऊं तुम्हे,
कैसे सहेज रहे हैं हम तुम्हारी उम्मीदें,
धुएं में लिपटा शहर किसे अच्छा लगता है...

मैं सोचता हूँ,
कि मेरा डॉक्टर या इंजिनियर बनना,
तुम्हे कैसे सुख देगा,
जबकि हर कोई चाहता है कि,
कम हो मेरी उपलब्धियों की फेहरिस्त.....
मैं सोचता हूँ,
हम क्या रेस-कोर्स के घोडे हैं,
(भइया और मैं...)
कि तुम लगाते हो हम पर,
अपना सब कुछ दांव..

तुम्हारी आँखें देखती हैं सपना,
एक चक्रवर्ती सम्राट बनने का,
तुमने छोड़ दिए हैं अपने प्रतीक-चिन्ह,
(भइया और मैं....)
कि हम क्षितिज तक पहुँच सकें,
और तुम्हारी छाती चौड़ी हो जाए
क्षितिज जितनी..

रोज़ सोचता हूँ,
भेजूँगा एक ख़त तुम्हे,
मेरी मेहनत की बूँद से चिपकाकर,
और जब तुम खोलो,
तुम्हारे लिए हों ढेर सारे इन्द्रधनुष,
कि तुम मोहल्ले भर में कर सको चर्चा...
और माँ भी बिना ख़त पढे,
तुम्हारी मुस्कान की हर परत में,
पढ़ती रहे अक्षर-अक्षर....

निखिल आनंद गिरि

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18 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

आपकी बातो ने भावुक कर दिया...काश समय लौद आता

Anonymous का कहना है कि -

निखिल बाबू
ज़ज़्बों का लफ़्ज़ों मे इज़्हार, इज़्हारे ख़्याल का सबसे मुश्किल सिन्फ़ है। जहां लफ़्ज़ों को एक पीराये मे सलीके से पीरोना होता है। आपकी कविता में लफ़्ज़ों की ये जादूगरी पूरी आब ओ ताब के साथ मौजूद है। सम्बन्धों एवं भावनाओं की ऐसी सहज अभिव्यक्ति कम देखने को मिलती है।

"मैं सोचता हूँ,
कि मेरा डॉक्टर या इंजिनियर बनना,
तुम्हे कैसे सुख देगा,
जबकि हर कोई चाहता है कि,
कम हो मेरी उपलब्धियों की फेहरिस्त.....
मैं सोचता हूँ,
हम क्या रेस-कोर्स के घोडे हैं,
(भइया और मैं...)
कि तुम लगाते हो हम पर,
अपना सब कुछ दांव..

तुम्हारी आँखें देखती हैं सपना,
एक चक्रवर्ती सम्राट बनने का,
तुमने छोड़ दिए हैं अपने प्रतीक-चिन्ह,
(भइया और मैं....)
कि हम क्षितिज तक पहुँच सकें,
और तुम्हारी छाती चौड़ी हो जाए
क्षितिज जितनी.."

निस्संदेह कविता की ये पन्क्तियां इस उत्तर आधुनिक युग में पिता पुत्र के सम्बन्धों की व्यापकता एवं जटिलता की सफ़ल व्याख्या करती हैं

मियां हमें फ़ख्र है के हम इन बेशक़िमती लफ़्ज़ों के क़ारी हैं

गौहर हयात
गोपालगंज,बिहार

Harihar का कहना है कि -

रोज़ सोचता हूँ,
भेजूँगा एक ख़त तुम्हे,
मेरी मेहनत की बूँद से चिपकाकर,
और जब तुम खोलो,
तुम्हारे लिए हों ढेर सारे इन्द्रधनुष,
पिता पुत्र सम्बन्ध पर सुन्दर कविता निखिल जी !

mehek का कहना है कि -

बहुत ही मर्म sprashi कविता badhai

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बहुत ही भावुक कर देने वाली कविता लिखी है आपने निखिल ..

Sajeev का कहना है कि -

और जब तुम खोलो,
तुम्हारे लिए हों ढेर सारे इन्द्रधनुष,
कि तुम मोहल्ले भर में कर सको चर्चा...
और माँ भी बिना ख़त पढे,
तुम्हारी मुस्कान की हर परत में,
पढ़ती रहे अक्षर-अक्षर....
पिता को संबोधित पत्र में भी तुमने माँ का चहरा मात्र दो पंक्तियों में उजागर कर दिया....बहुत खूब...

Anonymous का कहना है कि -

अब हम क्या कहें,भावुक कर दिया आपकी अनुभूतियों ने.
आलोक सिंह "साहिल"

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

लाजवाब ! पिता के लिए पुत्र का एक पावन प्रणाम है |

-- अवनीश तिवारी

सीमा सचदेव का कहना है कि -

निखिल जी आपने जता दिया कि हम माँ से ही नही अपने पापा से भी उतना ही प्यार करते है और पापा की भावनाएं हमारे लिए माँ से कम नही है | कितनी बार पढी आपकी कविता और लगा आपने मेरे ही मन की भावनाएं उडेल दी है, इस कविता को पढ़कर टू कोई भी यही कहेगा ....बहुत ही भावुक , मर्मस्पर्शी कविता ....बधाई

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

evendraअच्छी रचना के लिए बधाई-----।
--देवेन्द्र पाण्डेय।

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

अच्छी रचना के लिए बधाई-----।
--देवेन्द्र पाण्डेय।

Unknown का कहना है कि -

तुम्हारी आँखें देखती हैं सपना,
एक चक्रवर्ती सम्राट बनने का,
तुमने छोड़ दिए हैं अपने प्रतीक-चिन्ह,
(भइया और मैं....)
कि हम क्षितिज तक पहुँच सकें,
और तुम्हारी छाती चौड़ी हो जाए
क्षितिज जितनी..

बहुत ही बढिया कविता लगी।
दिल को छूने वाली

सुमित भारद्वाज।

Pooja Anil का कहना है कि -

निखिल जी,

बहुत ही सुंदर भावान्जली है अपने पिता के लिए . वक्त गुजरता जाता है , परिवेश बदलता जाता है , हम बड़े होते रहते हैं, पापा वैसे ही खड़े रहते हैं , जैसे बचपन में हमारे लिए हमेशा हाजिर रहते थे , बस हमारे सोचने के लिए यही बचता है कि क्या हम उन्हें उनके हिस्से की खुशी दे पाये ??? अगर कविता के जरिये भी हम उन्हें एक मुस्कराहट दे पाये तो कविता लिखना सफल हुआ. और आपकी कविता तो अतिशय भावुक कर देने वाली है , बस बार बार पढने को मन करता है .

बहुत बहुत बधाई

^^पूजा अनिल

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

बेहद संवेदनशील..

***राजीव रंजन प्रसाद

सुरेन्द्र गिरि का कहना है कि -

धन्य हुआ मैं तुम्हारी कविता पढ़कर
तेरे किए गए खर्च का ब्योरा नही माँगा होनहार समझकर
रोज़ याद आते हो जब मेरे पाँव-पीठ दुखते हैं
पुरानी थपथपाहट याद कर सो जाता हूँ
आस लगी है, निराश मत करना बेटा
ट्रेन पाकर कर आ जाना
बड़ी उम्मीद है तुम्हारे उज्जवल भविष्य पर
निराश मत करना...

सस्नेह,

...तुम्हारे पापा

Anonymous का कहना है कि -

kuch shabd hi nahi hain mere pas kavita k liye.pita k liye itna sara sneh dekh kar hi hriday gadgad ho jata hai aur aankhe var aati hain.yah kavita mere dil ko chu jati hai.

गौहर हयात का कहना है कि -

"...पापा के नाम"

कविता और कवि का सौभाग्य है कि पापा ने इसे अपनी राय से नवाज़ा है लेकिन इसका अल्मिया है कि ये काव्यात्मक पाठ मौलिक नहीं लगता।बेहतर होता कि ये मौलिक रुप में सामने आता।

SURENDRA का कहना है कि -
धन्य हुआ मैं तुम्हारी कविता पढ़कर
तेरे किए गए खर्च का ब्योरा नही माँगा होनहार समझकर
रोज़ याद आते हो जब मेरे पाँव-पीठ दुखते हैं
पुरानी थपथपाहट याद कर सो जाता हूँ
आस लगी है, निराश मत करना बेटा
ट्रेन पाकर कर आ जाना
बड़ी उम्मीद है तुम्हारे उज्जवल भविष्य पर
निराश मत करना...

सस्नेह,

...तुम्हारे पापा

June 09, 2008 7:20 PM

neelam का कहना है कि -

पापा की संवेदना से कविता की मौलिकता कहाँ समाप्त हो जाती है ?
गौहर जी हम आपकी बात से कतई इत्तेफाक नहीं रख सकते |

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