किसी इलेक्ट्रान की तरह
क़ैद हूँ मैं
अपनी ही कक्षा में
झूम रहा हूँ चारों ओर
बस यूँ ही...
बेमतलब !
कोई नहीं समझता
सिवाए बादलों से भरी
उस काली रात के...
पता है उसे
कि दिन काटता है मुझे,
नफ़रत है मुझे हर उजाले से
तभी तो...
चाँद को छुपा कर आती है वो
किसी काले कंबल में !
घुटनों पर सिर टिकाए,
डबडबाई आँखों से
अतीत में झाँकता हूँ..
फिर बेचैन हो
काले आकाश को ताकते हुए
सोचता हूँ...
छत से नहीं कूदना है मुझे!
बस...
एक यही तो शौक बचा है अब!
जाकर ले आता हूँ मैं
फ्रेम में सजी एक तस्वीर
और फिर
खींचकर मारता हूँ उसे
दीवार पर...
फिर उठाकर,
चिपका लेता हूँ सीने से
और फूटकर रोता हूँ
देर तक !
अचानक...
सन्नाटे को चीरते
हवाई जहाज़ को देख
लगता है,
उसे हाथों से पकड़
दे मारू ज़मीन पर!
बावला हो गया हूँ..
मुझे पकड़कर,
मेरी नसों में
जबरन...
भर दी है किसी ने
प्यार की कोकीन!
सुना तो था
नशा खराब चीज़ है
अब छटपटा रहा हूँ मैं
नशे के लिए...!
लगता है मुझे
बस सुनता ही रहूं मैं
तन्हाई में डूबे गीत!
कोई भी खुशियों वाला गाना,
कभी ना बजे रेडियो पर!
आधी रात को
बरस रहा है पानी
मूसलाधार...
अपनी छत की मुंडेर पर बैठा मैं
देख रहा हूँ,
अपनी ज़िंदगी की तरह ही
सुनसान सड़क!
कोई नही दीखता यहाँ
दूर दूर तक...
मेरी तन्हाई,
कस्में,वादे
वो कंगन,घड़ी,चुनरी
सारे सपने,अरमान,यादें
सभी कुछ...
बिल्कुल
तरबतर हैं यहाँ !
पास की खिड़की से झाँकती
कुछ आँखें
देख रही हैं मुझे,
उन्हे लगता है
पागल हूँ मैं!
आकाश में चमकती बिजली,
सुना है गिरती है कभी-कभी
सोचता हूँ- मुझ पर क्यों नहीं?
रात भर बहाए अश्क,
सुबह समेट लेता हूँ मैं
और गीला कर देता हूँ
भावनाओं का काग़ज़...
फिर ख्वाबों के टूटे क्लिप से
उसे दबाकर..
लटका देता हूँ
ज़िंदगी के
ज़ंग लगे तार पर!
कि गमों की धूप से
सूख जाए ये...
और उभर आए इस पर
मेरी सबसे उदास कविता !
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
16 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत खूब विपुल जी,अच्छा
आलोक सिंह "साहिल"
विपुल जी आपमें विपुल सम्भावनायें हैं। अच्छा लिखते हैं। लगे रहिये, सबसे उदास कविता अपने आप बह निकलेगी।
बावला हो गया हूँ..
मुझे पकड़कर,
मेरी नसों में
जबरन...
भर दी है किसी ने
प्यार की कोकीन!
सुना तो था
नशा खराब चीज़ है
अब छटपटा रहा हूँ मैं
नशे के लिए...!
bahut hi badhiya,badhai
चाँद को छुपा कर आती है वो
किसी काले कंबल में !
घुटनों पर सिर टिकाए,
डबडबाई आँखों से
अतीत में झाँकता हूँ..
फिर बेचैन हो
काले आकाश को ताकते हुए
सोचता हूँ...
छत से नहीं कूदना है मुझे!
वाह विपुल जी ! आपकी कविता में बिम्ब लाजवाब हैं भाव उदासी के काव्यात्मक हैं बधाई!
कविता काफी बडी है पर पाठको को बाँधने मे सक्षम है
अच्छी कविता लगी
सुमित भारद्वाज
मेरी यादाश्त कमजोर सी है | जितना याद है, आपकी एक सर्वोत्तम रचना लगी मुझे |
अनेक अनेक बधाई |
- अवनीश तिवारी
I am visiting this blog for first time and found it very intersting...will keep coming.
यदि दर्द को कुछ प्यारे से ढंग से व्यक्त किया जाए तो अच्छा. इस कविता में दर्द raw material की तरह आ कर melodrama सा बन गया है.
कविता कई सारे उतार-चढावों से भरी है। लेकिन अंत आते-आते अपने साथ ले जाने में सक्षम साबित होती है। मेरी फेवरेट सब्जेक्ट "केमिस्ट्री" से तुमने शुरूआत की है,इसलिए शुरू में हीं मुझे अपना बना लेती है, थोड़ी पार्सिआलटी तो चल हीं सकती है ;)
और अंत का क्या कहूँ!! नए बिंब...क्लिप, जंग लगा तार, धूप......मुझे बेहद अचछे लगें। गौरव की हीं तरह अपना अलग रास्ता बनाने लगे हो। लगे रहो।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
-एक उदास कविता- तो अच्छी है पर एक नवयुवक के हॄदय में इतने उदासी के भाव ! अच्छा नहीं लगा । न उदास रहो न उदास करो। मस्त रहो मस्ती करो।---देवेन्द्र पाण्डेय।
कविता थोडी छोटी होती तो ज्यादा असर पैदा करती....
ये ठीक है कि पाठक कवि से सहानुभूति रखता है मगर कब तक....कहीं-कहीं एक ही दर्द को अलग-अलग उपमाओं में परोसा गया है, जो कविता की दृष्टि से शिल्प कमज़ोर करता है....(आपकी कलम की दक्षता पर किसे शक है....)
"मेरी नसों में
जबरन...
भर दी है किसी ने
प्यार की कोकीन!
सुना तो था
नशा खराब चीज़ है
अब छटपटा रहा हूँ मैं
नशे के लिए...!"
ये बहुत सटीक पंक्ति लगी....
ये भी बहुत नया प्रयोग रहा...
"सन्नाटे को चीरते
हवाई जहाज़ को देख
लगता है,
उसे हाथों से पकड़
दे मारू ज़मीन पर!"
हम भी खूब उदास हुए आपके शब्दों के साथ-साथ...
एक और सुंदर कविता रची है आपकी कलम ने विपुल जी ..अच्छी लगी बहुत बधाई
रात भर बहाए अश्क,
सुबह समेट लेता हूँ मैं
और गीला कर देता हूँ
भावनाओं का काग़ज़...
फिर ख्वाबों के टूटे क्लिप से
उसे दबाकर..
लटका देता हूँ
ज़िंदगी के
ज़ंग लगे तार पर!
कि गमों की धूप से
सूख जाए ये...
और उभर आए इस पर
मेरी सबसे उदास कविता !
बहुत ही सुंदर भाव व्यक्त किए है आपने ....बधाई
रात भर बहाए अश्क,
सुबह समेट लेता हूँ मैं
और गीला कर देता हूँ
भावनाओं का काग़ज़...
फिर ख्वाबों के टूटे क्लिप से
उसे दबाकर..
लटका देता हूँ
ज़िंदगी के
ज़ंग लगे तार पर!
कि गमों की धूप से
सूख जाए ये...
और उभर आए इस पर
मेरी सबसे उदास कविता !
वाह!!! तुम्हारी बेहतरीन रचनाओं में से एक..
***राजीव रंजन प्रसाद
r gone mad or wat?
baap re baap....
hats off to u my dear.....
its wondrful dat i don hav any words .....kya kahoon
ab sab ne to to thodi thodi kar ke poori kavita likh dali hai neeche...mai koun sa padyansh uthaoon....
tujhe call karta hoon abhi.....
छत से नहीं कूदना है मुझे!
बस...
एक यही तो शौक बचा है अब!
"Vipulism" term coin karne ka dil kar raha hai ab to :)
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)