अमृत के प्याले से वंचित
शिव को नियति ने दिया विष
बंट चुके क्षण समस्त उत्सव के
वैराग्य ही उसको हुआ शेष
नृत्य तांडव, नेत्र रक्तिम,
जटाधारी हुआ शंकर....विषाद से
फिर करता वो सृजन कैसे?
संहार इसलिए ही ध्येय हुआ
हुआ प्रारंभ जब तांडव
लगा खुलने नयन त्रय
कदाचित् स्रष्टा को कौंधा
नीलकंठ के अवसाद का
विभक्त किया कोटि ज्योति में
छींट डाला संसार में
हर युग में होने लगा जन्म
मानव रूपों में शिवांश का
रहने लगी है धरा त्रस्त
जब-तब खुल उठता है त्रिनेत्र
स्थिति विकट हुई प्रलय सदृश्य
हा! अभी शेष होने को है
कोटि सहस्त्र ज्योति के अंश
क्षीण हो चुकी धरा है
कदाचित् झेलने को और दंश
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4 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत खूब..आभिषेक
साधारण शब्दों में लिखते तो कविता हो भी सकती थी।
रचना वैचारिक दिशाहीनता की शिकार है. शंका + अरि = शन्कारि = शंकर. शंकर शिवता अर्थात कल्याण के पर्याय है. शंका से विषाद उपजता है. शंकर तो विषाद के अरि = शत्रु हैं फिर 'जटाधारी हुआ शंकर....विषाद से' जटाधारी को विषपान हेतु किसी ने बाध्य नहीं किया...वह स्वयमेव सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय, विषपानकर नीलकंठ हुए. शिवांश दंश देते नहीं दंश्मुक्त करता है. कम का दंश निर्मूल किया शिव ने. पौराणिक मिथकों की नव व्याख्या उनके अर्थ को अनर्थ करे क्या यह उचित है?
nice lines
क्षीण हो चुकी धरा है
कदाचित् झेलने को और दंश
Really morals, values, love for nature n fellow human beings have gone done so much.
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