राम!
किस किनारे तुम्हारी ध्वजा डालूँ?
मुँह बाए खड़े बेहया शेर,
किस ओर धर्म की अजा डालूँ?
इस घाट
मलमल के वादों पर
जम्हाई लेती कुछ दलीलें हैं
जो तुम्हें हर पाँच साल पर
घसीटती हैं
बंधुआ मजदूर की तरह,
राम मेरा है! राम मेरा है!
और तुम घसीटू
छिलते हो, छिलते हो,
फिर भी नहीं हिलते हो,
हाय राम!!
गाड़ के रख दिया है तुम्हें
पत्थर के चिथड़ों में,
मंदिर बनाँएगे, मंदिर बनाएँगे,
अरे काहे का मंदिर,
"बहुरूपियों!
राम को पहले दिल में तो जगह दो।
तशरीफ़ अगर कुर्सी की प्यासी है तो
कम-से-कम अपने बूते पर
चार बेतें तो चुनकर लाओ।
निठल्लों!
जो मूक है, जो शांत है,
हर बार उसी की जिह्वा
लमारने में लग जाते हो।
और लगो भी क्यों ना,
तुम जानते हो कि
राम कभी वाम नहीं होता,
तुम कितना भी छल लो उसे
वो नहीं छलेगा तुम्हें।"
राम!
अब भी संभल लो,
जान लो कि
मलमल वाले
खटमल से भी बदतर होते हैं
जिधर आठ याम काटते हैं,
उसे काटने में
आठ लम्हा भी नहीं गंवाते।
वहीं दूसरे घाट पर
राम!
अवध का वध करने पर आमदा
पचास साल पुरानी एक तलवार है
जो हाथों-हाथ
उस दौर से इस दौर तक
बिकती रही है,
हर बार तुम्हारी दुहाई देती है
लेकिन हर बात तुम्हें
एक नाजायाज औलाद की तरह
दुत्कार देती है।
वे जो आज खुद को
रामराज्य के हिमायती कहते हैं,
वो ये भी नहीं मानते कि
तुम कभी लंका गए थे,
कोई "सेतुसमुद्रम" गढा था तुमने;
तुम कभी अवधपुरी के बाशिंदे थे,
इसलिए कोई बुतखाना भी था वहाँ,
अरे सच तो ये है कि
वे "निरपेक्ष" होना चाहते हैं!!!!
"अरे ढोंगियों!
काहे की निरपेक्षता
निरपेक्ष होने का अर्थ ये नहीं
कि अपने बाप की हीं नशबंदी कर दो,
दूसरी नस्ल अपनी आबरू की शाख
तुम्हें काटने दे,
इसके लिए अपनी नस्ल की हीं जड़ उखाड़ फेंको।"
हे राम!
तुम बरसों से
इनके राज्य के "ब्रांड एम्बेंसडर" रहे हो
और "ब्रांड एम्बेंसडर" की औकात
एक हँसते-खेलते पुतले से ज्यादा की नहीं होती,
पैसे लो, हँसो, लुभाओ
और "काम" के बाद
अगले कोठे पर चले जाओ,
छि: राम!
क्या ऎसे कापुरूषों के
हाथ की कठपुतली रहोगे तुम।
नहीं ना?
राम!
आज के "हिन्दुस्तान" की
बदकिस्मती है कि
"हिन्दुस्तान" अब
छोटा-सा दरिया भर रह गया है
साहस और स्वाभिमान का अथाह समुंदर
अब सूख गया है
और इस सूखे दरिये पर
लाखों नए घाट उग आए हैं।
सोचो,
जब दो घाट हीं तु्म्हारी अन्त्येष्टि के लिए काफी हैं,
तो बाकियों के क्या कहने!
अब तुम हीं कहो,
इस कलियुग में
किस किनारे तुम्हारी ध्वजा डालूँ?.........
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
तन्हाजी !
एक झकझोरती हुई रचना ।
बहुत खूब..
इसमें बहुत धार है।
और इस सूखे दरिये पर
लाखों नए घाट उग आए हैं
बहुत दिनों के बाद आपने कोई कविता लिखी है, लेकिन बहुत दमदार लिखी है।
इक घाट बना मन मंदिर में ,
ध्वजा मेरी तुम फहरा दो,
जो विश्व भूमि को साहस दे ,
मेरे नाम का परचम लहरा दो,
मैं प्रस्तर नहीं, कायर नहीं,
तव दर्पण हूँ, अवलोकन कर,
उठा जो प्रश्न भारत वर्ष का ,
स्व शौर्य का परिकलन कर,
साहस तुम्ही और वीर तुम
है प्रश्न तुम में और हल भी तुम
राम
तनहा जी,
आपकी कविता पढ़कर वाकई राम की हालत पर दोबारा सोचने को मजबूर हुआ,,जितना अब तक सोचता था उस से कहीं बढ़कर आज राम का दर्द महसूस किया ,,,,,और तुम घसीटू ,,छिलते हो छिलते हो,,,,राम कभी वाम नहीं होता ,,,,वो नहीं छलेगा तुम्हें,,,चाहे तुम उसे कितना भी छल लो,,,,,,एक बहुत पुराने टीवी धारावाहिक में राम के मुंह से निकला एक डायलोग आज बरसों बाद अचानक ही याद अ गया,,,,,,,,
" ठगना अपराध है, ठगे जाना नहीं,,,,,"
निरपेक्ष होने का ये मतलब तू नहीं के अपने ही बाप की,,,,
बहुत तीक्षण ,,,,
जब दो ही घात काफी है तुम्हारी अंत्येष्टि के लिए,,,,,
मार्मिक,,,,,,
इस रचना पर to बधाई भी नहीं दी जा रही ,,,,,
अरे वाह,
हमसे पहले राम जी ने चिपका दिया अपना कमेंट,,,,,,
मजा आ गया तनहा जी,,,,
अब आप बधाई स्वीकारें ,,,,,
अच्छी लगी ये टिपण्णी,,,,,
बहुत बहुत सही,सटीक...वर्तमान का कटु यथार्थ जिसके नीचे चुपचाप पिसते जाने को बाध्य भक्त और भगवान्.....
बाकी सारे तो झंडे उठाकर चला रहे अपनी दुकान............
तन्हा जी,
इस रचना में तो राम जी को आपने एकदम दयनीय स्थिति में ला कर खडा कर दिया. वैसे तात्कालिक समय के लिए सटीक रचना है. आक्रोश और बेचारगी दोनों स्पष्ट हैं.
बधाई
पूजा अनिल
विचारोत्तेजक रचना.
Liked this one someone posted in comment more than the original one.
इक घाट बना मन मंदिर में ,
...
है प्रश्न तुम में और हल भी तुम
राम
The original is basically a passive poem, a complain. The concept of political misuse of religious figures has been very lovable to poets because it attracts immediate attention towards the poet and a vent to public frustration.
It is negative poetry.
VD I have seen better stuffs from you... this just didn't click. I am sorry, if this hurts.
- Nishant
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