फटाफट (25 नई पोस्ट):

Saturday, April 04, 2009

दोहा गाथा सनातन: दोहा कक्षा: ११ दोहा का कुनबा बड़ा


दोहा का कुनबा बड़ा, सुता कुण्डली जान.
दोहा इसे मना रहा, यह करती है मान.
यह करती है मान निराली चाल मोहती.
हरेक अदा इसकी, दोहा-मन रही मोहती.
कहे 'सलिल' कविराय कुण्डली ने मन मोहा.
यह संतति जिसमें मिल जाते 'रोला'-'दोहा'.


दोहा से परिचय निरंतर प्रगाढ़ हो रहा है तो उसके परिवार से निकटता होना स्वाभाविक है. आज हमारे निकट आ रही हैं दोहा की सखी कुण्डली जिन्हें 'कुण्डलिनी' या 'कुंडलि' भी कहा जाता है. दोहा और उसकी संगिनी 'रोला' मिलकर इसे जन्म देते हैं. इसकी पहली दो पंक्तियाँ 'दोहा' होती हैं जबकि बाद की ४ पंक्तियाँ 'रोला' होती हैं' यह दोहा और रोला के मेल से बनती है. दोहा को तो हम बहुत-कुछ जानने लगे हैं. अब रोला को जान लें तो कुण्डली इठलाती-खेलती हमसे हिल-मिल जायेगी.

रोला को लें जान
रोला के ४ पद तथा ८ चरण होते हैं. ११ - १३ पर यति होती है. दोहा की १३ - ११ पर यति के पूरी तरह विपरीत. अंत में गुरु ( दीर्घ / बड़ी) मात्रा होती हैं. आइये, रोला की कुछ भंगिमाएँ देखें-

सब होवें संपन्न, सुमन से हँसें-हँसाये
दुखमय आहें छोड़, मुदित रह रस बरसायें.
भारत बने महान, युगों तक सब यश गायें.
अनुशासन में बँधे रहें, कर्त्तव्य निभायें,

भाव छोड़ कर, दाम, अधिक जब लेते पाया.
शासन-नियम-त्रिशूल झूल उसके सर आया.
बहार आया माल, सेठ नि जो था चांपा.
बंद जेल में हुए, दवा बिन मिटा मुटापा.

नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है.
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला- रत्नाकर है.
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल-तारे मंडल हैं
बंदी जन खग-वृन्द शेष फन सिहासन है.

रोला को लें जान, छंद यह- छंद-प्रभाकर.
करिए हँसकर गान, छंद दोहा- गुण-आगर.
करें आरती काव्य-देवता की- हिल-मिलकर.
माँ सरस्वती हँसें, सीखिए छंद हुलसकर.


दोहा से तो सभी परिचित हैं. उक्त रोला के पहले एक दोहा लगादें तो कुण्डली बन जाती है.. कुण्डली में दोहा के अंतिम चरण को रोला का पहला चरण बनाना आवश्यक है किन्तु आजकल कुछ कवि इस नियम का पालन करने में कठिनाई होने पर इसे माने बिना कुण्डली लिख रहे हैं.परम्परानुसार कुण्डली का/के प्रारम्भिक शब्द अथवा प्रथम च्ररण को यथावत या पलटकर अंत में प्रयोग करने का विधान है पर ऐसा करने में असफल रहने पर कमजोर कवि इस नियम को माने बिना भी कुण्डली रच देते हैं किन्तु नियम न मानना कमजोरी ही कहा जाता है. ६ पदों की कुडली के ५वे पद में कवि का नाम देने की प्रथा है. 'कह गिरधर कविराय' तो सबको स्मरण है ही. कुण्डली के ६ पदों में सर हर एक में २४ मात्राएँ होती हैं किन्तु पहले दो पदों में यति (विराम, ठहराव) १३-११ पर तथा बाद के ४ पदों में ११-१३ पर होती है.

कुण्डली मरकर बैठे हुए सर्प का और पूंछ लगभग एक साथ होती है इसी तरह कुंडली के प्रारंभिक तथा अंतिम शब्द या शब्द-समूह समान होने चाहिए. मनुष्य की कुण्डलिनी जागृत होने पर ऊर्जा का जैसा प्रवाह निःसृत होता है, उसी की तरह इस कुण्डलिनी छंद का शब्द प्रवाह होता है. कुण्डलिनी के समर्थ कवि गिरिधर की नीतिपरक कुण्डलियाँ अपनी मिसाल आप हैं-

गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय.
जैसे कागा- कोकिला, शब्द सुने सब कोय.
शब्द सुने सब कोय कोकिला सबै सुहावन.
दोऊ को एक रंग, काग सब भये अपावन.
कह गिरिधर कविराय सुनो हे ठाकुर मन के.
बिन गुन लहे न कोय, सहस नर गाहक गुन के..

दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान.
चंचल जल दिन चारि को, ठाऊँ न रहत निदान.
ठाऊँ न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै.
मीठे बचन सुने, बिनय सब ही की कीजै.
कह गिरिधर कविराय, अरे! यह सब घट तौलत.
पाहून निशि-दिन चारि, रहत सब ही के दौलत.


समकालिक कवियों में हरदोई निवासी ज्येष्ठ कवि शिवगुलाम सिंह 'केहरी' ने सामाजिक क्रांति, केहरी की राय तथा नायिका भेद आदि कुण्डली संग्रह रचे हैं. भोजपुरी में उनकी एक कुण्डली में वसंत का मनोरम चित्रण देखिये. कुण्डलीकार ने प्राकृतिक दृश्यावली के अनुरूप सटीक बीमों तथा प्रतीकों का प्रयोग कर प्रकृति को जीवंत कर दिया है.

मेला केकी कीर पिक, चारण लगत अनंत.
सरसों की सेना सहित, आवत ररव वसंत.
आवत राव वासन, दुलावत चामर केला.
बौराने जान आम, पवन डोलत अलबेला.
'केहरी' लाख हुलसत, वसन किसलय को रेला.
मंत्री हँसत गुलाब,मित्र मधुकर मन-मेला.


छंदाचार्य ओमप्रकाश बरसैंया 'ओमकार' की निम्न कुण्डली (बुन्देली) में अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन पर कटाक्ष का आनंद लीजिये.

निकसन की निकसन लगी, हवा-सबा ओ हिंद.
सोची, लेवी, पीछ सब, रचें कौन छल-छिंद?
ठाऊँ न रहत निदान, जाँघ उघरी ढक जावे.
पोल खुली सो खुली बात बिगरी बन जावे.
मिली धुल में नित, प्रीत को परखो है कन.
हँसिया गुर में भरो, छली पूरौ है निक्सन.


अहमदाबाद के कवि आत्म प्रकाश के कुण्डली संग्रह 'कस्तूरी कुण्डलि बसे' (३३३ कुण्डलियाँ) से एक कुण्डली देखिये-

ईश्वर से है आरजू, दे मुझको भी ज्ञान.
छंदों में मैं रख सकूं, बिम्बों का भी ध्यान.
बिम्बों का भी ध्यान, ज़रूरी है कविता में.
जैसे लहरें उठती रहती हैं सरिता में.
कह 'कुमार' यह गुण मुझमें भी हो जगदीश्वर.
तू जो चाहे वह सब हो सकता है ईश्वर.


'कस्तूरी कुण्डलि बसे' की पाण्डुलिपि संशोधित करने के पश्चात् इसका पुरोवाक मैंने कुण्डली में ही लिखा है. संभवतः पहली बार कुण्डली छंद का प्रयोग कर समूचा पुरोवाक लिखा गया जिसमें कुण्डली का वैशिष्ट्य, kundaleekar की भाषा-शैली, कृति की अंतर्वस्तु आदि की विस्तृत चर्चा कुण्डली में ही की गयी. इस पुरोवाक से दो कुण्डलियाँ देखिये-

कस्तूरी कुंडली बसे. तब हो आत्मप्रकाश.
जगे न कुंडली चक्र तो, हो जीवन का नाश.
हो जीवन का नाश, न हरि दर्शन हो पाता.
भवसागर का भँवर युगों रहता भटकाता.
छंद वेश ले, भटके लेकर दंड-कमंडल.
'सलिल' सम्हाल जाग्रत कर ले कस्तूरी कुंडल.

गति-यति, लय-रस, भाव हैं, कविता का श्रृगार.
अलंकार औ' बिम्ब से आता नवल निखार.
आता नवल निखार, सराहें विद्वदजन मिल.
श्रोता को आनंद मिले, पाठक जाएँ खिल.
कथ्य सपाट न कह, कविता में तभी रहे रति.
'सलिल' काव्य वह श्रेष्ठ, रहे जिससे निर्मल मति.


आज की इस कक्षा में कुंडली की यह चर्चा समर्पित है सीमा सचदेव जी को. राम नवमी के पुण्य पर्व पर इस कक्षा का समापन राम रक्षा स्तोत्र के काव्यानुवाद की प्रस्तुति से किया जा रहा है. आप सब भाव-भक्ति से इसका गायन कर भगवान राम की कृपा तथा दोहा की काव्यानुवाद क्षमता का परिचय पा सकें यही कामना है.


श्री राम रक्षा स्तोत्र

विनियोग

श्री गणेश-विघ्नेश्वर, रिद्धि-सिद्धि के नाथ .
चित्र गुप्त लख चित्त में, नमन करुँ नत माथ.
ऋषि बुधकौशिक रचित यह, रामरक्षास्तोत्र.
दोहा रच गाये सलिल, कायथ कश्यप गोत्र.
कीलक हनुमत, शक्ति सिय, देव सिया-श्री राम.
जाप और विनियोग यह, स्वीकारें अभिराम.


ध्यान

दीर्घबाहु पद्मासनी, हों धनु-धारि प्रसन्न.
कमलाक्षी पीताम्बरी, है यह भक्त प्रपन्न.
नलिननयन वामा सिया, अद्भुत रूप-सिंगार.
जटाधरी नीलाभ प्रभु, ध्याऊँ हो बलिहार.

श्री रघुनाथ-चरित्र का, कोटि-कोटि विस्तार.
एक-एक अक्षर हरे, पातक- हो उद्धार. १.
नीलाम्बुज सम श्याम छवि, पुलिनचक्षु का ध्यान.
करुँ जानकी-लखन सह, जटाधारी का गान.२
खड्ग बाण तूणीर धनु, ले दानव संहार.
करने भू-प्रगटे प्रभु, निज लीला विस्तार. ३
स्तोत्र-पाठ ले पाप हर, करे कामना पूर्ण.
राघव-दशरथसुत रखें, शीश-भाल सम्पूर्ण. ४
कौशल्या-सुत नयन रखें, विश्वामित्र-प्रिय कान.
मख-रक्षक नासा लखें, आनन् लखन-निधान. ५
विद्या-निधि रक्षे जिव्हा, कंठ भरत-अग्रज.
स्कंध रखें दिव्यायुधी, शिव-धनु-भंजक भुज. ६
कर रक्षे सीतेश-प्रभु, परशुराम-जयी उर,
जामवंत-पति नाभि को, खर-विध्वंसी उदर. ७
अस्थि-संधि हनुमत प्रभु, कटि- सुग्रीव-सुनाथ.
दनुजान्तक रक्षे उरू, राघव करुणा-नाथ. ८
दशमुख-हन्ता जांघ को, घुटना पुल-रचनेश.
विभीषण-श्री-दाता पद, तन रक्षे अवधेश. ९
राम-भक्ति संपन्न यह, स्तोत्र पढ़े जो नित्य.
आयु, पुत्र, सुख, जय, विनय, पाए खुशी अनित्य.१०
वसुधा नभ पाताल में, विचरें छलिया मूर्त.
राम-नाम-बलवान को, छल न सकें वे धूर्त. ११
रामचंद्र, रामभद्र, राम-राम जप राम.
पाप-मुक्त हो, भोग सुख, गहे मुक्ति-प्रभु-धाम. १२
रामनाम रक्षित कवच, विजय-प्रदाता यंत्र.
सर्व सिद्धियाँ हाथ में, है मुखाग्र यदि मन्त्र.१३
पविपंजर पवन कवच, जो कर लेता याद.
आज्ञा उसकी हो अटल, शुभ-जय मिले प्रसाद.१४
शिवादेश पा स्वप्न में, रच राम-रक्षा स्तोत्र.
बुधकौशिक ऋषि ने रचा, बालारुण को न्योत. १५
कल्प वृक्ष, श्री राम हैं, विपद-विनाशक राम.
सुन्दरतम त्रैलोक्य में, कृपासिंधु बलधाम. १६
रूपवान, सुकुमार, युव, महाबली सीतेंद्र.
मृगछाला धारण किये, जलजनयन सलिलेंद्र. १७.
राम-लखन, दशरथ-तनय, भ्राता बल-आगार.
शाकाहारी, तपस्वी, ब्रम्हचर्य-श्रृंगार. १८
सकल श्रृष्टि को दें शरण, श्रेष्ठ धनुर्धर राम.
उत्तम रघु रक्षा करें, दैत्यान्तक श्री राम. १९
धनुष-बाण सोहे सदा, अक्षय शर-तूणीर.
मार्ग दिखा रक्षा करें, रामानुज-रघुवीर. २०
राम-लक्ष्मण हों सदय, करें मनोरथ पूर्ण.
खड्ग, कवच, शर,, चाप लें, अरि-दल के दें चूर्ण. २१
रामानुज-अनुचर बली, राम दाशरथ वीर.
काकुत्स्थ कोसल-कुँवर, उत्तम रघु, मतिधीर. २२
सीता-वल्लभ श्रीवान, पुरुषोतम, सर्वेश.
अतुलनीय पराक्रमी, वेद-वैद्य यज्ञेश. २३
प्रभु-नामों का जप करे, नित श्रद्धा के साथ.
अश्वमेघ मख-फल मिले, उसको दोनों हाथ.२४
पद्मनयन, पीताम्बरी, दूर्वा-दलवत श्याम.
नाम सुमिर ले 'सलिल' नित, हो भव-पार सुधाम. २५
गुणसागर, सौमित्राग्रज, भूसुतेश श्रीराम.
दयासिन्धु काकुत्स्थ हैं, भूसुर-प्रिय निष्काम. २६ क
अवधराज-सुत, शांति-प्रिय, सत्य-सिन्धु बल-धाम.
दशमुख-रिपु, रघुकुल-तिलक, जनप्रिय राघव राम. २६ख
रामचंद्र, रामभद्र, रम्य रमापति राम.
रघुवंशज कैकेई-सुत, सिय-प्रिय अगिन प्रणाम. २७
रघुकुलनंदन राम प्रभु, भरताग्रज श्री राम.
समर-जयी, रण-दक्ष दें, चरण-शरण श्री धाम.२८
मन कर प्रभु-पद स्मरण, वाचा ले प्रभु-नाम.
शीश विनत पद-पद्म में, चरण-शरण दें राम.२९
मात-पिता श्री राम हैं, सखा-सुस्वामी राम.
रामचंद्र सर्वस्व मम, अन्य न जानूं नाम. ३०
लखन सुशोभित दाहिने, जनकनंदिनी वाम.
सम्मुख हनुमत पवनसुत, शतवंदन श्री राम.३१
जन-मन-प्रिय, रघुवीर प्रभु, रघुकुलनायक राम.
नयनाम्बुज करुणा-समुद, करुनाकर श्री राम. ३२
मन सम चंचल पवनवत, वेगवान-गतिमान.
इन्द्रियजित कपिश्रेष्ठ दें, चरण-शरण हनुमान. ३३
काव्य-शास्त्र आसीन हो, कूज रहे प्रभु-नाम.
वाल्मीकि-पिक शत नमन, जपें प्राण-मन राम. ३४
हरते हर आपद-विपद, दें सम्पति, सुख-धाम.
जन-मन-रंजक राम प्रभु, हे अभिराम प्रणाम. ३५
राम-नाम-जप गर्जना, दे सुख-सम्पति मीत.
हों विनष्ट भव-बीज सब, कालदूत भयभीत. ३६
दैत्य-विनाशक, राजमणि, वंदन राम रमेश.
जयदाता शत्रुघ्नप्रिय, करिए जयी हमेश. ३७ क
श्रेष्ठ न आश्रय राम से, 'सलिल' राम का दास.
राम-चरण-मन मग्न हो, भव-तारण की आस. ३७ ख
विष्णुसहस्त्रनाम सम, पावन है प्रभु-नाम
रमे राम के नाम में, सलिल-साधना राम. ३८
मुनि बुधकौशिक ने रचा, श्री रामरक्षास्तोत्र..
सिया-राम-चरणार्पित, भव-भक्तिमय ज्योत.
'शांति-राज'-हित यंत्र है, श्री रामरक्षास्तोत्र.३९
आशा होती पूर्ण हर, प्रभु हों सत्य सहाय.
तुहिन श्वास हो नर्मदा, मन्वंतर गुण गाय.. ४०
राम-कथा मंदाकिनी, रामकृपा राजीव.
राम-नाम जप दे दरश, राघव करुणासींव. ४१


आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

14 कविताप्रेमियों का कहना है :

Mumukshh Ki Rachanain का कहना है कि -

सुन्दर, ज्ञानवर्धक प्रस्तुति.

चन्द्र मोहन गुप्त

निर्मला कपिला का कहना है कि -

आपकी इस दोहा कुन्डली ने भी मन मोह लिया है धन्यवाद अगली कक्षा का भी इंतज़ार रहेगा

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

आचार्य जी,
दोहा और रोला की बेटी 'कुंडलिनी' से परिचय कराने का बहुत धन्यबाद. बहुत सुंदर लगीं सबकी प्रस्तुतियाँ.

manu का कहना है कि -

आज पढाया आपने कैसा अदभुत पाठ
सभी लगें गंभीर से करते थे जो ठाठ

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

आचार्य जी, प्रणाम
फिर मैं अपने को न रोक सकी. इस बार जरूर कुछ कमेन्ट दीजिये, कृपया.

हल्दी-गाँठ पाय चूहा, ना पंसारी होय.
बिल्ली समझे आँख मूँद,देख सके ना कोय.
जल बिन सींचे बीज, न पेड़ कभी बन पायें
बौर बिन वृक्षों पर, कोयल गीत ना गायें.
दूध नहाया काग, न हंस कभी हो पाये.
पढ़कर बस दो अक्षर, न ही पंडित कहलाये.

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

मनु जी,
आपका दोहा पढ़कर तो मैं दंग रह गयी हूँ. तारीफ़ करने के लिए शब्द ढूंढ रही हूँ. शायद नीलम जी से हेल्प लेनी पड़ेगी. मैं अब भी मुंह खोले देख रही हूँ. क्या बाकई में आपने ही इसे रचा है या फिर आचार्य जी ने आपको इनाम में दिया है? लगता है कि आप बाजी मार ले गये. मात्राएँ और लघु-गुरु भी सब के सब लगता है कि सही जगह पर हैं, वैसे गुरु जी सर्वोपरि हैं. मैं तुच्छ सी एक वस्तु हूँ जिसे कोई भी ज्ञान नहीं है इस क्षेत्र में. फिर भी बोले जा रही हूँ.(कभी-कभी ऐसा भी होता है).

manu का कहना है कि -

शन्नो जी मत सोचिये तुच्छ स्वयं को आप
गिनती मात्रा chhand का जारी रखिये जाप

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

आचार्यजी ,
अनेक नमन |

इस विधा की शुरुवात के लिए धन्यवाद |
मेरी ओर से एक सुझाव - अपनी लेख में एक भाग ( section) रखिये - " नियम " | जिसमे अंको से साथ नियम दीजिये | फ़िर शेष सारी बातें | इससे दोहराने में आसानी होगी |
जैसे -

कुण्डलिनी परिचय -
नियम -
उदाहरण -
अन्य बातें -
गृहकार्य जांच -

कुछ इस तरह से | क्या आप को यह सही लग रहा है ?

आपका,
अवनीश तिवारी

सीमा सचदेव का कहना है कि -

नमस्कार आचार्य जी ,
पिछले कुछ दिनो से बहुत व्यस्त चल रही थी , इस लिए आज ही दोहा गाथा पढने का अवसर मिला और हैरानी तो तब हुई जब आपने इसे हमें समर्पित कर दिया ,जिसका ज्ञान शून्य-मात्र भी नहीं है | कम से कम मै अपने आप को इस सम्मान के लिए तुच्छ मानती hoo|मुझे समझ ही नही आ रहा कि मुझे क्या कहना चाहिए |
कुण्डली मुझे शुरु से ही बहुत प्रिय है और दोहा ,रोला और मात्रा का नियम जानते हुए भी मात्राओं में तालमेल नहीं बैठा पाती हूँ |आप तो अच्छी तरह समझते हैं हमारी कमजोरी को |
मुझे एक बात जानने की बडी उत्सुकता है और आपने भी कहा है न कि कुण्डली की पाँचवीं पंक्ति मे कवि का नाम लिखने का नियम है , अगर नाम नही लिखा जाता है तो क्या वह नियम का उल्लंघन होगा ?
दूसरी बात कि जैसे एक दोहा और रोला कुण्डली मे आता है और दोहे के अंतिम चरण की दोहराई रोला के प्रथम चरण मे होती है तो एक प्रवाह बनता है या कहें कि कुण्डली बनती है | आपने रोला का उदाहरण देकर बताया कि इसके ऊपर दोहा लगा दें तो कुण्डली बन आएगी जैसे:-

नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है.
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला- रत्नाकर है.
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल-तारे मंडल हैं
बंदी जन खग-वृन्द शेष फन सिहासन है.

ऊपरोक्त पंक्तियों का अपना अर्थ है ,इसमे कवि का नाम भी नही है और दोहा भी लगाएं तो कैसे ? मतलब भाव और शब्दों में बंधकर कि उसका अंतिम चरण "नीलाम्बर परिधान " पर ही खत्म हो |
मुझे इतना जानने की उत्सुक्ता है कि अगर रोला की शुरुआत दोहा के अंतिम चरण से नहीं होती तो क्या वह भी नियम का उलंघन होगा |

अजित गुप्ता का कोना का कहना है कि -

रोला को लें जान, छंद यह- छंद-प्रभाकर.
करिए हँसकर गान, छंद दोहा- गुण-आगर.
करें आरती काव्य-देवता की- हिल-मिलकर.
माँ सरस्वती हँसें, सीखिए छंद हुलसकर.

आचार्य जी
इनमें अन्तिम चरण में दीर्घ मात्रा कहाँ है? कृपया स्‍पष्‍ट करें।

Anonymous का कहना है कि -

Just get lost

Anonymous का कहना है कि -

Just get lost

Anonymous का कहना है कि -

Just get lost

shyam gupta का कहना है कि -

डा अजित जी यह रोला का निश्चित नियम नहीं है....देखिये गिरिधर् जी की अन्तिम कुन्डली में भी दीर्घ नहीं है...

दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान.
चंचल जल दिन चारि को, ठाऊँ न रहत निदान.
ठाऊँ न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै.
मीठे बचन सुने, बिनय सब ही की कीजै.
कह गिरिधर कविराय, अरे! यह सब घट तौलत.
पाहून निशि-दिन चारि, रहत सब ही के दौलत.

--इसी प्रकार प्रथम शब्द की भी अन्तिम शब्द-आव्रत्ति आवश्यक नहीं है...देखिये..

पुष्पों की वर्षा करें, राधा पर घन- श्याम,
छवि कदम्ब के ब्रिक्ष की सुलसित ,ललित ललाम ।
सुलसित ललित ललाम, गोप गोपी हरषायें,
ललिता, कुसुमा ,राधाजी, मन अति सुख पायें।
विह्वल भाव वश,देव दनुज किन्नर नर नागर ,
करें पुष्प-वर्षा राधा पर , नट्वर- नागर ॥

राधाजी के अन्ग को, परसें पुष्प लजायं,
भाव विह्वल हो नमन कर ,सादर पग गिरि जायं।
सादर पग गिरि जायं,लखि चरण शोभा न्यारी ,
धन्य-धन्य हें पुष्प, श्याम-लीला बलिहारी ,
तरु कदम्ब हरषायं,देखि गुन कान्हा जी के,
क्रीडा करते श्याम, ’श्याम ’ सन्ग राधाजी के॥

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)