उस हंसी का मूल्य...
उन मुस्काती आंखों का मर्म....
...कैसे जान पाता?
तन पर कपड़े न थे
धंसी आंखें...कंकाली बदनवाले पुत्र को
बदहाल पिता ने गोद में
उठा रखा था
और उसके कंधे पर सिर रखे
वो पिता के मजबूत-सुरक्षित घेरे में
शायद सबकुछ पा रहा था...
...इसलिए मुस्कुरा रहा था...
इसलिए कहकहे लगा रहा था...
पिता भी अपने साये में
पलते अपने नए रूप को देख निहाल था
उसे अपने तंगहाली का कोई मलाल नहीं
ज़िंदगी के उसर क्षणों से
जब वो इतने रस पा रहा हो...
...तो क्यो फ़िक्रमंद हो?
…तो क्यों कोई और कामना हो?
…तो क्यों झखे खुशी को?
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 कविताप्रेमियों का कहना है :
abhishek ji bahut hi sundar kavita hai. khastor par antim teen panktiyan. kabhi waqt mile to mere blog par bhi aayen.
बहुत खूब,,,अभिषेक जी
आए दिन यहाँ वहाँ दिखने वाली बात को बखूबी ढाला है आपने....
सकारात्मकता के साथ....
सब के लिए उपयोगी...
ज़िंदगी के उसर क्षणों से
जब वो इतने रस पा रहा हो...
...तो क्यो फ़िक्रमंद हो?
…तो क्यों कोई और कामना हो?
…तो क्यों झखे खुशी को?
अति सुन्दर अभिव्यक्ति।
अभिषेक जी ,
सुंदर अभिव्यक्ति के मध्यम से पिता -पुत्र के रिश्ते को दर्शाया है..पिता कि बाँहों में सुरक्षा की भावना और पिता का अपने बेटे में अपने रूप को देखना...
पढ़ना अच्छा लगा.
बधाई
बहुत अच्छी रचना है |
गरीबी के बीच संबंधों का सृजन |
याद आ रहा है एक शेर -
अब मैं राशन के कतारों में नज़र आता हूँ ,
अपने खेतों से बिछड़ने की सजा पता हूँ ,
इतनी महंगाई है की बाज़ार से कुछ लाता हूँ ,
अपने बच्चों में उसे बाँट शर्माता हूँ ...
बधाई
अवनीश तिएअरी
वो पिता के मजबूत-सुरक्षित घेरे में
शायद सबकुछ पा रहा था...
behad samvedansheel abhivyakti
बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति! बहुत-२ बधाई!
रिश्तों के अपनेपन में सुख ढूढती मार्मिक अभिव्यक्ति
संवेदनशील सुंदर !!!
बहुत अच्छा लिखा है आप ने एक अच्छी सोच के साथ
सादर
रचना
ज़िंदगी के उसर क्षणों से
जब वो इतने रस पा रहा हो...
...तो क्यो फ़िक्रमंद हो?
…तो क्यों कोई और कामना हो?
…तो क्यों झखे खुशी को?
कविता बहुत अच्छी लगी
प्रथम पाठक की बधाई लें.
BEAUTIFUL ..
THANKS For sharing with US.
a beautiful poem on father-son relationship
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)