क्षितिज – जहां नभ-धरा
मिलते-से प्रतीत होते हैं
वर्षा की सुसज्जित बूंदें
दूरी को पाटती-सी हैं
एक सामीप्य...एक मिलन की
अनुभूति करवाती हैं
जैसे
मंदिर का पुजारी
अपने स्तुति से
आस्तिक और श्रद्धेय के
निकटता का आडम्बर करता है
और तृष्णा धरी रह जाती है
जैसे
नदी के दोनों किनारे
मिलने को आतुर हो
और मिलन की चाह मे कई बार
सूखने की सीमा तक चले आते हैं
अंतर निरंतर रहता है
अस्तित्व मिटने पर भी
विरह शेष रह जाती है
फिर भी
वर्षा का उपक्रम जारी है...
पुजारी का मंत्रोच्चार भी...
सूखी-भरी नदियों का प्रवाह भी!
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी रचना...भिन्न द्रष्टिकोण से चिंतन करने को प्रेरित करती है.
फिर भी
वर्षा का उपक्रम जारी है...
पुजारी का मंत्रोच्चार भी...
सूखी-भरी नदियों का प्रवाह भी!
बहुत सुंदर है बन्धु |
अवनीश तिवारी
अच्छी लगी
खासकर ,,,
मंदिर का पुजारी,,,,,,
,,,,,और तृष्णा
धरी रह जाती है,,,,,
बहुत बढ़िया कविता अभिषेक जी।
जैसे
नदी के दोनों किनारे
मिलने को आतुर हो
और मिलन की चाह मे कई बार
सूखने की सीमा तक चले आते हैं
वाकई-खूबसूरत अभिव्यक्ति
श्याम सखा‘श्याम’
वर्षा का उपक्रम जारी है...
पुजारी का मंत्रोच्चार भी...
सूखी-भरी नदियों का प्रवाह भी!
सुन्दर भाव सजाये हैं अभिषेक जी
सादर !!
well written poem
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