मकान का वो हिस्सा
जो चहल-पहल से दूर
घर के दायरे से परे
आंगन के पिछवाड़े का कोना
जहां झाड़ियां बिना इजाज़त
बेमन से उग आई हैं
शायद कुछ जानवरों का
आना-जाना लगा रहता हो
पर घर के पूर्वजों का बसेरा
यकीनन वही है!
मकान में दरवाज़े से लेकर
दरो-दीवार तक
सब नये-से हैं
सिर्फ वही हिस्सा पुराना-सा
बिना लोहे का जंग खाया हुआ
जकड़ा-सा दिखता है
हां! उस तरफ से जाकर देखने पर
मकान भी
खंडहर-सा लगता है
कई बार तो वो कोना
आदमी-सा शक्ल बनाए
घूरता है...कई बार
रोता...भींगता...भिंगोता....
सिसकता...रूलाता...और न जाने
कितने हरकतों से
वो मकान को ज़िन्दा रखे हुए है....
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
मकान के कोने का बहुत अच्छा और दिल को छूने वाला चित्रण ,,,,,
एक तस्वीर सी सामने रख दी है आपने,,,,,
बधाई ,,,
कई बार तो वो कोना
आदमी-सा शक्ल बनाए
घूरता है...कई बार
रोता...भींगता...भिंगोता....
सिसकता...रूलाता...और न जाने
कितने हरकतों से
वो मकान को ज़िन्दा रखे हुए है....
behad samvedansheel panktiyan ,achchi abhivyakti
कोना होना क्या-कैसा होता है, आपने बखूबी व्यक्त किया है. संवेदनशील मन बिन बोली बातें भी समझ और बता सका है.
aacharya ji ,
aapki tabiyat shaayad theek nahi,itni sanchipt tipaani ,???????????????
नीलम जी! जिस पर सदय, रहें- हुआ वह धन्य.
बडभागी है 'सलिल' सा, सचमुच आज न अन्य.
सचमुच आज न अन्य, न सीमा है खुशियों की.
कवितायें भी आज हुईं, रुचिकर गुझियों सी.
'सलिल'-साधना सफल नेह नर्मदा नहाकर..
बडभागी है वही, सदय नीलम जी जिस पर.
aacharya ji ,
humne to kavita ki tippni ke baare me kaha tha ,khair
abhi shabd doondh rahi hoon ,kin shabdon me shukriya kahoon aapko .
पाटनी जी भी बच गए,,,,,
इन्होने भी आम शब्द इस्तेमाल किये हुए हैं,,,,,
your poems convey deep sentiments and great thinking.....liked the following lines very much :
घर के दायरे से परे
आंगन के पिछवाड़े का कोना
जहां झाड़ियां बिना इजाज़त
बेमन से उग आई हैं
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