कल एक पाठिका ने हिन्द-युग्म से शिकायत की- "यदि हम महिला दिवस वाली कविताओं को बाद में जोड़ते हैं, तो लिस्ट लम्बी तो होती ही है, पाठक उसे पुराना समझकर नहीं पढ़ते हैं। जबकि इस विशेषांक में २० कविताएँ हो चुकी हैं, लेकिन इसे बहुत से लोगों ने नहीं पढ़ा"। उन्होंने सलाह दी कि नई कविताओं को इस पोस्ट पर ऊपर स्थान दें, अपडेट करके केवल पुनः प्रकाशित करने से नहीं होगा।
इसलिए हम कल यानी 13 मार्च 2008 के 18:19 बजे ममता गुप्ता द्वारा भेजी गई कविता 'हौसलों का आसमान' की सूचना ऊपर लगा रहे हैं। और पाठकों से निवेदन कर रहे हैं कि कृपया पूरी सूची को ध्यान से पढ़े, बहुत सी कविताएँ आपका इंतज़ार कर रही हैं।
आज सुबह 8:17 पर सुरिन्दर रत्ती ने 'नारी' पर ग़ज़लनुमा रचना भेजी है। हमें खुशी है कि महिला सप्ताह के आखिरी दिन भी लोग इसे पढ़ रहे हैं, सोच रहे हैं और लिख भी रहे हैं।
महिला दिवस पर पाठक अपने विचार जिस प्रकार से देने को उत्सुक दिख रहे हैं। उससे हिन्द-युग्म ने निर्णय लिया है शुक्रवार 14 मार्च 2008 तक हम महिला सप्ताह मनायेंगे। जैसे ही कोई नई रचना इस विषय पर हम प्रकाशित करेंगे, इस पोस्ट को सबसे ऊपर लगाते रहेंगे। आप कमेंट के रूप में अपने विचार रखते रहें।
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। दुनिया में हर जगह महिलाओं की दशा-दुर्दशा पर चर्चा हो रही है। चूँकि यह अभिव्यक्ति का मंच है, तो हम स्त्री रचनाकारों को अपनी आवाज़ उठाने का मौका दे रहे हैं। वरिष्ठ कवयित्री रंजना भाटिया ने वृहस्पतिवार 6 मार्च को अपनी संगिनी नामक कविता में स्त्री जैसी भी है अच्छी है कहके अपने विचार रखें। कल सजीव सारथी ने रेडलाइट एरिया की लड़कियों के दर्द को अपनी कविता में उकेरा लेकिन उनकी शिकायत रही कि अधिकतम पाठक उनकी कविता का मर्म नहीं समझ पाये। आज सुबह-सुबह कवयित्री शोभा महेन्द्रू ने इस दिवस पर अपने उद्गार कहे। अभी कुछ देर पूर्व हमें दो कविताएँ प्राप्त हुईं। दोनों अलग-अलग शेड की हैं। एक कवयित्री पंखुड़ी कुमारी स्त्री के वर्तमान से संतुष्ट नहीं है क्योंकि वो मानती है कि वर्तमान की नारी मात्र शोषित, पीड़ित और दमित है। दूसरी कवयित्री सीमा सचदेव स्त्री के वर्तमान से संतुष्ट है और उसे महान, पूजनीय और वंदनीय मानती हैं। एक और कवि पंकज रामेन्दु मानव जिन्होंने नारी की पूजा और वंदना की कविता भेजी है, उसे भी आपके सम्मुख रख रहे हैं। शायद यह एक बहस का मुद्दा बन सकता है। पाठक अपने विचार दें।
कितनी खुशी की बात है कि अभी-अभी हमने महिला दिवस पर कुछ कविताएँ पोस्ट की, और दुनिया में जगह-जगह बैठे कवियों ने अपने उद्गार व्यक्त करने शुरू कर दिये।
13:05 पर हमें कवि योगेश समदर्शी ने अपनी कविता 'नारी' भेजी है।
13:31 पर डॉ॰ अनुराग आर्या ने औरत पर कुछ छोटी कविताएँ भेजी है।
15:30 पर कवयित्री डॉ॰ मीनू ने भी इस दिवस पर सातवी बेंटी का दर्द लिख भेजा।
19:00 बजे श्रीकांत मिश्र 'कांत' की एक कविता मिली जिसमें उन्होंने माँ के आधुनिकतम रूप पर असंतोष ज़ाहिर किया है।
23:01 पर नागेन्द्र पाठक ने एक कविता प्रेषित किया, जिसमें इन्होंने कन्या की वर्तमान स्थिति पर चिंता जताने के साथ-साथ उसकी महानता भी गिनाई है।
23:31 पर कवि दीप जगदीप की कविता 'बेटी' हमें प्राप्त हुई, जिसे वो सुबह 11 बजे ही भेजने वाले थे लेकिन नेटवर्क की समस्या के कारण न भेज सकें।
00:02, 9 मार्च 2008, आज का दिन कवयित्री सुनीता यादव की पोस्टिंग का दिन होता है। आज जब उन्होंने माँ पर कविता डालनी चाही तो हमने उन्हें इसी विशेष अंक में डालने का अनुरोध किया। तो यह ताज़ी कविता माँ जैसी कोई नहीं को रेखांकित करती है।
00:08, 9 मार्च 2008 - सतीश ने महिला दिवस को बिलकुल नये अंदाज़ में परिभाषित किया है।
12:10 पर देवेन्द्र कुमार मिश्र ने एक कविता भेजी जिसमें उन्होंने क्रूरों को सावधान होने को कहा है।
16:25- विवेक कुमार पाण्डेय गाँव के हैं और गाँव की लड़कियों का दर्द बयाँ कर रहे हैं।
10 मार्च 2008 को 18:30 बजे प्रेमचंद सहजवाला ने विवेक कुमार पाण्डेय की कविता के जवाब में एक कविता शहर की लड़कियाँ लिख भेजी है।
21:17 बजे हमें डॉ॰ महेन्द्र भटनागर की कविता प्राप्त हुई 'नयी नारी'।
11 मार्च 2008 की सुबह 9:07 बजे विनय के॰ जोशी द्वारा रचित महिला दिवस और महिला श्रमिक पर व्यंग्य मिला। हिन्द-युग्म का वर्तमान हैडर पीयूष पण्डया ने बनाया है।
हमें 11 मार्च 2008 को ऑरकुट पर कानपुर के एक ग्राफ़िक्स डिज़ाइनर मिले जिनका नाम है राहुल पठक, इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति को अपनी डिज़ाइन के सहारे दिखाया है।
12 मार्च 2008 को 16:44 पर युवा कवयित्री अंजु गर्ग ने एक कविता भेजी है, जिसमें उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
मुझे आवाज उठाने दो
मुझे आवाज उठाने दो,
हाशिये से अब तो मुझे
मुख्य पटल पे आने दो।
कब तक आँसू पीती रहूँ
अब तो उसे बहाने दो।
अबला बनकर बहुत अत्याचार सहा,
अब तो बला बन जाने दो।
कितनी अग्निपरीक्षायें लोगे मेरी
कभी मुझे भी तो आजमाने दो।
आधी आबादी की पूरी हकीकत
अब दुनिया को बतलाने दो।
मुझे आवाज उठाने दो.....
आरक्षण से मुझे मत दबाओ
खुद अपनी जगह बनाने दो,
हमें भी हक़ है आजादी का
समाज के बँधन से मुक्त हो जाने दो।
मुझे आवाज उठाने दो.....
ज्योति बन कर कब तक फूँक सहूँ
अब तो ज्वाला बन जाने दो।
सीता सावित्री बहुत हुआ
अब तो काली कहलाने दो।
मुझे आवाज उठाने दो.....
पुरूषों की पाशविकता से
अब तो पिंड छुड़ाने दो।
नीची नजरों से बहुत ज़ुल्म सहा
अब दुनिया से नज़र मिलाने दो।
मुझे आवाज उठाने दो.....
चाहरदीवारी भी अब सुरक्षित नहीं
उससे बाहर आ जाने दो,
सुनती रही अब तक आज्ञा
अब तो आदेश सुनाने दो।
मुझे आवाज उठाने दो.....
आजादी के सपने को
हमें भी साकार बनाने दो,
वीरों के बलिदानों को
हमें भी भुनाने दो।
मुझे आवाज उठाने दो.....
कुछ नहीं कर सकते तो
इतना कर दो,
माँ की कोख से कम से कम
बाहर तो आ जाने दो।
मुझे आवाज उठाने दो.....
-पंखुड़ी कुमारी
नारी शक्ति
हे विश्व की सँचालिनी
कोमल पर शक्तिशालिनी
प्रणाम तुम्हें नारी शक्ति
क्या अद्भुत है तेरी भक्ति
तू सहनशील और सदविचार
चुपचाप ही सह जाती प्रहार
तुझसे ही तो जग है निर्मित
परहित के लिए तुम हो अर्पित
तुमने कितने ही किए त्याग
दी अपने अरमानों को आग
जिन्दा रही ब दूसरो के लिए
नि:स्वार्थ ही उपकार किए
खुशियाँ बाँटी बेटी बनकर
माँ-बाप हुए धन्य जनकर
अर्धांगिनी बनकर किए त्याग
समझा उसको भी अच्छा भाग
माँ बन काली रातें काटी
बच्चे को चिपका कर छाती
जीवन भर करती रही सघर्ष
चाहा बस इक प्यारा सा घर
नहीं पता चला बीता जीवन
हर बार ही मारा अपना मन
....................
....................
ऐसी ही होती है नारी
वही दे सकती जिन्दगी सारी
उस नारी के नाम इक नारी दिवस
खुश हो जाती है इसी में बस
नही उसका दिया जाता कोई पल
नारी तुम हो दुनिया का बल
तुझमें ही है अद्भुत हिम्मत
तेरी शक्ति के आगे झुका मस्तक।
-सीमा सचदेव
हे नारी !
प्रेम हो तुम, स्नेह हो
वात्सल्य हो, दुलार हो
मीठी सी झिड़की हो, प्यार हो,
भावनाओं में लिपटी फटकार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।
प्रसव वेदना सहती ममता हो
विरह वेदना सहती ब्याहता हो,
सरस्वती, लक्ष्मी भी तुम हो
तुम ही काली का अवतार हो,
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।
कैकयी हो, कौशल्या हो,
मंथरा भी तुम, तुम ही अहिल्या हो.
वृक्षों से लिपटी बेल हो,
कहीं सख़्त, सघन देवदार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।
सती तुम ही, सावित्री तुम हो
जीवन लिखने वाली कवियत्री हो,
दोहा, छंद , अलंकार तुम ही
तुम ही मंगल सुविचार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।
नदी हो तुम कलकल बहती,
धरती हो तुम हरियाली देती,
जल भी तुम हो, हल भी तुम हो,
तुम जीवन का आधार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।
जीवन का पर्याय हो तुम
आंगन, कुटी, छबाय हो तुम
यत्र तुम ही, तत्र तुम ही,
तुम ही सर्वत्र हो
ईश्वर की पवित्र पुकार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।
गेंहू तुम हो, धानी तुम ही
तुम मीठा सा पानी हो,
जब भी सुनते अच्छी लगती
ऐसी एक कहानी हो,
कविता में शब्दों सी गिरती
एक अविरल धार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।
जन्म दिया तुम ही ने सबको
तुम ही ने तो पाला है
पहला सबक लेते हैं जिससे
वो तेरी ही पाठशाला है
एक पंक्ति में,
तुम जीवन का आधार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।
-पंकज रामेन्दू मानव
नारी
नारी अबला,
ना री, पगली.
नारी भोग्या,
ना री, पगली.
नारी का अपमान हुआ,
ना री, पगली ना
उसका तन बदनाम हुआ
ना री, बहना ना.
औरत पर अत्याचार,
क्या केवल पुरुष करे है,
कर ना बहना सोच विचार.
क्या कोई मर्द मिला तुझको
जो अपनी मां को रौंदे है?
क्या कोई मर्द भला अपनी
बहना के प्यार को कौंदे है.
बस पीड़ा पत्नी पाती क्यों.
क्या पति ही इसका जिम्मेदार
ना री पगली ना
मां को पीड़ा पतनी से,
बहन को दुख भी बीवी का
बीवी सास की दुशमन है
क्या दोषी पुरुष ही हो हर बार
ना री पगली ना.
सुनी सुनाई न तू बोल
सारे पुरुषों को ना कोस
कुछ इधर बुरे कुछ उधर बुरे,
हर बुरे का मुझको है अफसोस
औरत मर्द की दुशमनी हारी
क्या हार सका है कभी कोई प्यार
ना री पगली ना.
बीती बाते छोड़ दे प्यारी
दुनिया आओ सजाएं न्यारी
साथ साथ पैट्रोल पंप पर
काम करे हैं अब नर नारी
क्यों भला औरत है अबला
क्यों उसको कहते बेचारी
आज पुरुष भी बदल रहा है
बदलो सोच अपनी पुरानी
बोलो फिर पुरूषों को कोसोगी
ना री बहना ना.
-योगेश समदर्शी
औरतः कुछ छोटी कविताएँ
१) औरत
पलटो रवायतों के कुछ और सफ़्हें
गिरायो इक ओर रूह
दफ़न कर दो एक और लाश
तहज़ीब के लबादे में.........
ख़ामोश रहकर भी किस कदर डराती है.
2) जंजीर .........
अपने साथ लेकर चलती है,
समझौतों के कई जोड़ से गूँथी हुई
ख़ामोशी दर ख़ामोशी, मज़बूत होती हुई
कभी चाँदी की, कभी सोने की
कभी “इस घर" की, कभी “उस घर” की
तुमने नहीं देखी
हर औरत के पाँवो में बंधी होती है
इक सुंदर सी ज़ंज़ीर
(3)
दुनिया भले ही पहुँच जाये चांद-तारों पर
बस्ती भले ही बस जाये मंगल पर
बिल्डिंगें छूने लगे आसमानों को
और
हर कदम पर हो एयर कंडीशन ऑफिस
फिर भी
हर आदमी के भीतर बैठा मिलेगा एक "पुरूष"।
- डॉ॰ अनुराग आर्या
आचुकी
मेरी क्लीनिक में एक मरीज़ आयी
मैंने नाम पूछा तो बोली ''आचुकी ''
मैंने कहा ये कैसा नाम है ?
बड़ा अजीबो-गरीब नाम है
तब उसने बताया कि
डाक्टरनी जी हम लोगों के
यहाँ पर जब
सातवीं कन्या का जन्म होता है
तो उसका नाम रखते है
''आ चुकी ''
बस भगवान् अब और न देना
सात बहुत हैं
कैसे पली होगी वो आचुकी
यही सोच रही हूँ आज
धन्य है
आचुकी
तुम्हीं आज के दिन
मैं कैसे भुला दूँ
''आचुकी ''
-डॉ॰ मीनू
माँ …! तू वापस आजा
ओ माँ ..!
कहाँ हो तुम
डब-डब…
गूँजती है आवाज़
मेरे कानों में
तैरता हूँ मैं
मछली की तरह
बँधा हुआ रज्जु से
धक-धक …
सुनता हूँ
अमृत पीता..
तुम्हारे आँचल में
और सींचता हुआ
स्वयं को
टुक-टुक …
निहारते हैं
मेरे नयन
बलिहारी
मेरी हर मुस्कान पर
तेरा चेहरा
माँ …
तुम्हें डर नहीं लगा
अँधेरों से कभी
क्योंकि …ये तेरी
बिटिया है.. बहना है
अपने घर ..गाँव.. देश
और परिवेश का गहना है
तू है ना .. !!
इन सब का पहरेदार
पार्वती का गणेश
तुम यही सिखाती थी ना?
सारे बेटों को माँ
वृद्ध डंडा टेकते
वो बाबा…
बूढ़ी दादी की लाचारी
और वो अंधा भिखारी
अरे ! उस जानवर को
डंडा मत मारना
उसके पेट में बच्चे हैं
वो माँ है.. मेरी तरह
इनकी रक्षा करते हैं
सीख देती …
मुझे सब याद है माँ
पर ये मेरे नन्हें ..
मेरे छोटे ..सब भटक गए हैं
देख….
ये सबको कब से छेड़ रहे हैं
और नसों में मेरी …
बिजली दौड़ रही है
तू कहीं खो गई है शायद
किसी ब्यूटी पार्लर में..
या फिर ….
पश्चिमी आधुनिकता की
अंधी चकाचौध में
तू वापस आजा माँ
-श्रीकांत मिश्र 'कांत'
मत काटो मत फेंको
कन्या हूँ तो क्या हुआ, किसने रचा जहान
पुरूषों से पूछे कोई, कैसे हुए महान
कैसे हुए महान, मिली थी कहाँ से उनको ममता
घर-घर से अपमानित हो, हम खोज रही हैं समता
समता तो मिलना क्या हमको, मारा कोख के अंदर
कट-पिट कर फेंक रहे हैं, जैसे कोई भकन्दर
कौन यहाँ पर जीवन दाता, किसको कहें कसाई
कौन यहाँ पर जानी दुश्मन, किससे करें मीताई
हूँ हत्भागन आज अगर मैं, ये भी बड़े अभागे
होगा नहीं गुजारा उस दिन, जायेंगे जब त्यागे
कन्या हूँ कमजोर नहीं, अब आसमान में चलती हूँ
कभी सुनीता, कभी कल्पना, लता किरण बन जाती हूँ
ममता की मूरत मैं तेरी, प्यारी-प्यारी बहना
बन जाऊँगी जिसकी पत्नी, उसका क्या फिर कहना
आई हूँ अब बेटी बनने, मत मारो मत रोको
प्यार तुम्हारा पाना मुझको, मत काटो मत फेंको।
-नागेन्द्र पाठक
बेटी
आज फिर मेरी गोद में
एक नन्ही जान है खेल रही
एक नन्हीं जान
कई साल पहले भी
इस गोदी में खेली थी
याद है मुझे मैं उसे
कभी चूमती
कभी थपथपाती
वो रोती तो
उसे सीने से लगाती
दूध पिलाती
बाहों के पालने में
मस्ती में झुलाती
फिर दुनिया से अचेत वह
गहरी नींद सो जाती
वो धीरे-धीरे बढ़ती गई
रिवाज़ दुनिया के सीखती गई
पता भी न लगा कब मेरे
कंधे से कंधा मिला खड़ी हो गई
और आखिर एक दिन
मुझे रोता छोड़
वह घर बेगाने चली गई
आज फिर वो आई है
पर अब वो मेरी गोद में नहीं बैठती
हां मेरी गोद में बैठाने को
एक नन्हीं जान लाई
बिल्कुल अपने जैसी
जैसे दोबारा धरती पर आई है
आज मेरी गोद में खेले जो
मेरी बेटी की कोख से आई है
वो मेरी बेटी से जन्मी है
-दीप जगदीप, रिपोर्टर, दैनिक भास्कर, लुधियाना (पंजाब)
माँ , माँ होती हैं .....
दृश्यालोक के मुक्त मंच पर,
आँचल के एक छोर में
छोटी-छोटी आशाएं छिपाती,
दूसरा छोर विवश सरकाती,
आत्मा के हल्के प्रकाश के साए में,
शरद ऋतु में भटकी हुई नदी की भांति
कर्म-फल के अन्धकार को भोगने तैयार हो जाती.....
किंतु क्या प्रतीक्षा ...
किसी इतिहास के अंश मात्र में नहीं ...?
उन्मुक्त ,व्याकुल होकर
आत्मा के पिंजरे का वर्णन करती....
फिर पता पूछती ....
छोटी-छोटी लहरों से
नीले कोहरे से
अनजान पीड़ा से
अव्यक्त अनुभूति से
अभ्यस्त दर्शक ......विस्मित ईश्वर ...!.
समय के अंतराल में ....
खोजी पुत्र !
आँखें पहचान रहीं आंखों को
पैर पहचान रहा ख़ुद को
पिंजरे के नीचे से छलक उठ रहा लहू
शरीर झाड़ रहा धूल .....
सारे जवाब अब सवाल बन पड़े ....
और माँ के कंठ- गुफा में अवरुद्ध ध्वनि
मुश्किल से दो लम्बी साँस ...
उसके बचपन और जवानी की
आँख के दो कोने से झरता
दो बूंद आंसू....
......................................
आहत माँ..... अकुलीन पुत्र !
तभी मैंने उन पिंजरों पर हाथ रखा
कि आसमान से मेह बरसे
कि धरती पर बाढ़ आई
कि बरफ पिघला बन पानी
कि अनगिनत माँओं ने सुनाई यही कहानी ....
यह कैसी प्रस्तावना! कैसी विडम्बना !
पुत्र का रुदन व माँ की वेदना !
गाती चली मैं अनायास अनादृतों का प्राण-पुराण
साहित्य में हो तो नहीं रहा बंधु संस्कृति का अपमिश्रण ...... !
-सुनीता यादव
महिला दिवस क्या होता है ?
हर जीवन का प्रथम दिवस ही
पहला महिला दिवस होता है
उस दिन की कोख से ही तो
रात-दिन का यह सिलसिला
अविरत जनम लेता है !
महिला दिवस कब नहीं होता ?
वह कौन सा दिन होगा
जो नारी के अस्तित्त्व बिना
आरंभ या समाप्त हुआ होगा ?
संसार में नारी के ना होते
क्या कोई भविष्य में भी होगा ?
उस अंतहीन यात्रा के पथिक
समय-रथ के दो पहिये रहे
एक नर, दूजी नारी कहे
ईश्वर करे, दोनों साथ संतुष्ट रहें---
अन्यथा.....महिला दिवस की गरिमा कैसे बनी रहे?
-सतीश वाघमरे
अभी समय है सावधान !
घर की चार दीवारी में भी,
नहीं सुरक्षित है नारी।
घर के बाहर तो फैली है,
भारी भरकम महामारी।।
घर की चार-----------------
घर में आने से पहले,
विज्ञान का है अभिशाप ।
कोख में कन्या होने पर,
गर्भपात कराते माँ-बाप ।।
आने से पहले हो जाती,
जाने की तैयारी ।
घर की चार-----------------
बेटा की चाह,
यह नौबत लाती है ।
पत्नी के होते,
शादी रचाई जाती है ।।
रूढ़िवादिता के चलते,
जनसंख्या में वृद्धि है जारी ।
घर की चार-----------------
बेटी पैदा होने से,
सन्नाटा छा जाता है ।
माँ-बाप कुटुम्ब कबीले में
भूचाल सा आ जाता है ।।
नन्ही जान ने,
नहीं देखी दुनियादारी ।
घर की चार-----------------
बेटा-बेटी का अन्तर,
स्पष्ट नज़र जब आता है ।
बेटा को कुल का "दीपक"
बेटी को पराया जाना जाता है ।।
शिक्षा, रहन-सहन में,
नारी का शोषण है भारी ।
घर की चार-----------------
अभी समय है सावधान !
1-2 बच्चे परिवार में शान ।
बेटा हो या बेटी,
मानो ईश्वर का "वरदान" ।।
आने बाला भविष्य,
है प्रलयकारी ।
घर की चार-----------------
नारी शक्ति है, अबला नहीं,
करो इस का सम्मान ।
सुनीता, इंदिरा जी, पर
देश को है अभिमान।।
नर-नारी के अनुपात में,
गिरावट से लाचारी ।
घर की चार-----------------
-देवेन्द्र कुमार मिश्रा, अमानगंज मोहल्ला, नेहरु बार्ड नं॰ 13, छतरपुर (म॰प्र॰)
सामाजिक व्यथा
हमारे गाँव में लड़कियाँ अब भी अपशकुन की तरह होती हैं
इनके जन्म पर माँ आँख मीच-मीच कर रोती है
बाबूजी के दिल में पत्थरों की बारिश होती है
ज्यों-ज्यों फूल की तरह खिलाती है चाँद की तरह चमकती है लड़कियाँ
वे दो-तीन रोटी खाती हैं
एकाध गिलास पानी पीती हैं
घर के सारे लोगों के बर्तन धोती हैं ..
वे दूध अब भी नहीं पीतीं हमारे गाँव
कभी महुआ तर कभी सिलबट्टे तर
कभी चक्की तर कभी सिलबट्टे तर उनके ठाँव
आँसू पीना खूब जानती हैं लड़कियाँ हमारे गाँव
दूर नदी से फींच लती हैं गढ़कर-सर्तर
घर को बनाये रखना चाहती हैं सुन्दर
बढ़ियां से बढ़ियां कई व्यंजन पकाती हैं
खुद महीने में चार-पांच दिन उपवास रह जाती है ..
बेचारी -
साज-सँवार की चीजें गमकऊवा तेल
ओर साड़ी भी नहीं खोजती
पिता के दुःख ओढ़ती माँ के ग़म खाती
अक्षर करूणा स्वर में कुछ गाती
बबुआ -भतीजा के गू-मूत करती हैं
उनके पैरों में चट्टी पुरानी
छोटी पड़ने लगाती है मगर घिस नहीं पाती
फीते अटूट बचे रहते हैं
लड़कियाँ हमारे गाँव में दौड़ नहीं लगाती ..
वे दुख में भी हँसती हैं
और रात में रोती हैं नींद के भीतर
कोई मुझे उत्तर देगा
क्यों भारी मानी जाती हैं लड़कियाँ
जवान होने के बाद भी ---""एकदम दुबली वाली भी ""
-विवेक कुमार पाण्डेय, ग्राम-श्रीपुर, पोस्ट-जाम्तली, जिला -प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश
शहर की लड़कियाँ
हमारे शहर में लड़कियाँ
जींस टॉप पहनती हैं,
मेट्रो में सफ़र करती हैं,
और फुर्सत के समय कार भी ड्राइव करती हैं।
मोबाइल पर मम्मी को बताती हैं
कि आज ज़रा देर से घर आऊँगी
किसी बॉयफ्रैंड के साथ डेट पर जाना है।
वे डांस करती हैं तो बार-बार पार्टनर बदलती हैं
और उन्मुक्त हो कर कहकहे लगाती हैं।
वे दरअसल गिरने से नहीं डरती,
गिरती हैं तो संभल कर चलने भी लगती हैं।
वे स्वयं चुनती हैं अपना जीवन साथी
और जीती हैं उनके साथ अपनी शर्तों पर।
ज़रा सी जलालत पर तलाक़ देने से हिचकिचाती नहीं
क्योंकि उन्हें जीना होता है सम्मान के साथ।
यहाँ लड़कियाँ कॉलसेंटर भी चलाती हैं
और बड़ी बड़ी कम्पनियाँ भी।
यहाँ तो लड़कियाँ स्पेस में भी पहुँच जाती हैं
और युद्ध में भी।
मिनिस्टर बनना चाहें तो मिनिस्टर
और प्राइम मिनिस्टर तो प्राइम मिनिस्टर।
यहाँ लड़कियों में ममता है तो समता भी है।
जीवन की चुनौतियों को वे दिखाती हैं
अपनी बहादुरी का अँगूठा।
ये शहर की लड़कियाँ हैं भाई,
मिस वर्ल्ड मिस यूनिवर्स भी बनेंगी
तो ऐश्वर्य राय या रानी मुखर्जी भी बनेंगी।
क्योंकि यहाँ की लड़कियाँ तो हैं सर्वशक्तिमान,
साक्षात शक्ति की अवतार।
इनमें मानवीयता है तो
दानवीयता से निपटने की तांडवीयता भी है।
इनमें तो ममता भी है समता भी
और क्षमता भी...
ये शहर की लड़कियाँ हैं भाई
ये शहर की लड़कियाँ हैं।
-प्रेमचंद सहजवाला
नयी नारी
तुम नहीं कोई
पुरूष की ज़र-ख़रीदी चीज़ हो,
तुम नहीं
आत्मा-विहीना सेविका
मस्तिष्क-हीना सेविका,
गुड़िया हृदयहीना!
नहीं
हो तुम
वही
युग-युग पुरानी
पैर की जूती किसी की,
आदमी के कुछ मनोरंजन-
समय की वस्तु केवल!
तुम नहीं कमज़ोर
तुमको चाहिए ना
सेज फूलों की!
नहीं मझधार में तुम
अब खड़ीं शोभा बढ़ातीं
दूर कूलों की!
अब दबोगी तुम नहीं
अन्याय के सम्मुख,
नयी ताक़त, बड़ा साहस
ज़माने का तुम्हारे साथ है!
अब मुक्त कड़ियों से
तुम्हारे हाथ हैं!
तुम हो
न सामाजिक न वैयक्तिक
किसी भी क़ैदखाने में विवश,
अब रह न पाएगा
तुम्हारे देह-मन पर
आदमी का वश
कि जैसे वह तुम्हें रक्खे
रहो,
मुख से अपने
भूल कर भी
कुछ कहो!
जग के
करोड़ों आज युवकों की तरफ़ से
कह रहा हूँ मैं—
''तुम्हारा 'प्रभु' नहीं हूँ,
हाँ, सखा हूँ!
और तुमको
सिर्फ़ अपने
प्यार के सुकुमार बंधन में
हमेशा
बाँध रखना चाहता हूँ
- डॉ॰ महेन्द्र भटनागर, ग्वालियर, म॰प्र॰
महिला श्रमिक
धड़ाधड़ उतर रही थी
कार से साड़िया रंग-बिरंगी
चश्मे-मोबाइल हाय-हेलो
हलचल मची थी
दो घड़ी छाया मिलती थी
आज वो भी नहीं है
क्या करे भाग्य पर
किसका वश है
बरामदे में मीटिंग है
आज महिला दिवस है
बोली वो दांतों से
घूँघट संभाले
चलो बहना आज
धूप में ही खालें
-विनय के॰ जोशी
जाग रही है नारी
-राहुल पाठक, कानपुर
समझ नहीं आता क्या करूँ ?
नील गगन में उसको उड़ते देख
खुशी का इज़हार करूँ
या चारदीवारी में कैद देखकर
उसके अधिकारों की मांग करूँ
आज नारी दिवस है
समझ नहीं आता क्या करूँ ?
उस नारी को नमन करूँ
जो देश चलाती है
या मनन उसका करूँ
दहेज़ की भूख में जो
अपनी बहू को जलाती है
आज नारी दिवस है
समझ नहीं आता क्या करूँ ?
आधुनिक नारी को
उसके संस्कार याद दिलाऊँ
या गाँव-गाँव जाकर नारी शिक्षा
के लिए आवाज़ उठाऊं
आज नारी दिवस है
समझ नहीं आता क्या करूँ ?
अपमान, जुल्म और पीड़ा को
चुपचाप सहकर आंसू बहाऊँ
या दुर्व्यवहार करने वाले
राक्षसों के लिए विकराल रूप बनाऊं
आज नारी दिवस है
समझ नहीं आता क्या करूँ ?
सबसे निवेदन यही करूँ
प्रार्थना खुदा से बारम्बार करूँ
नर-नारी को दो बराबर का अधिकार
ताकि खुशहाल रहे सारा संसार।
आज नारी दिवस है
दुआ हर नारी के लिए बार बार करूँ
-अंजु गर्ग, फ़रीदाबाद
हौसलों का आसमान
नियुक्ति-पत्र हाथ में लिए,
खिलखिलाती बेटी से
माँ ने पूछा-
अब क्या करोगी?
माँ!तुमने समाज की
सारी कुरीतियों, क्रूरताओं के सामने
एक कवच बन कर
मुझे जन्मा, पाला;
अब तुम्हारी शक्ति बनूँगी
ऐसा अप्रत्याशित उत्तर...
आलोक से भर गया
मन का कोना-कोना
सहसा ही मन
पीछे मुङकर देखने लगा-
वहाँ, जहाँ -
बरामदे में खड़े सभी परिजन,
नर शिशु का
रूदन सुनने को बेचैन थे
रुदन तो सुना
पर कन्या का
सबका उत्साह
दूध के झाग की तरह बैठ गया...
और ....
प्रसवपीड़ा से छटपटाता
मेरा जिस्म..
अभी स्थिर भी ना होने पाया था
कि एक नन्ही सी जान को
मेरी बगल में लेटा दिया गया
ओह, मेरी बिटिया!
मेरे स्त्रीत्व की पूर्णता!
लम्बी-लम्बी साँसें भरता
वह नन्हा सा जिस्म
मजबूती से बन्द
छोटी-छोटी मुट्ठियाँ
-----आज यही मुट्ठियाँ
सबल हो मेरे झुकते कन्धों को
सहारा देने को बढ़ आयी हैं
मेरी बच्ची आज समर्थ हो
मातृ-ऋण उतारने को
तत्पर हो गयी है..
मेरी जान!
तुझे तेरे कदमों में
तेरी अपनी जमीन और सिर पर
हौसलों का यह आसमान मुबारक हो।
-ममता गुप्ता
नारी
औरत तो अपना फर्ज़ खूब निभाती रही,
और ये दुनिया मासूम पर ज़ुल्म ढाती रही
न मालूम कितनी कुर्बानियां दी हैं अब तलक,
वो बेक़सूर होकर भी ताउम्र सज़ा पाती रही
बेटी, माँ, सास का किरदार सलीके से निभाया,
इनाम तो न हुआ हासिल ज़िल्लत ही पाती रही
उसे इल्म ही न था कुछ सीखने समझने का,
यही एक कमी थी दुनिया बेवक़ूफ बनाती रही
कौन कहता है औरत कमज़ोर है, लाचार है
मिसाल है झांसी की रानी दुश्मनों को डराती रही
आज फिज़ाँ बदली है नारी ने ऊँची उड़ान भरी है
हर महकमे पर काबिज़ अपना सिक्का जमाती रही
चान्द को छूने वाली सुनीता भी मिसाल बनी,
ऐसी साइंसदाँ नारी सबसे इज्ज़त पती रही
जो गुजरी वो तवारीख़ है आज समां तेरे हाथों में,
नसीब भी बदल डाला नये पलान बनाती रही
नारी ममता, लाड़, प्यार की सच्ची देवी है
"रत्ती" इमानदारी से अपना काम निभाती रही
शब्दार्थ-
ताउम्र= सारी उमर, ज़िल्लत= बेइज्जती
इल्म= ज्ञान, साइंसदाँ= वैज्ञानिक, तवारीख़ = इतिहास
-सुरिन्दर रत्ती, मुम्बई
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66 कविताप्रेमियों का कहना है :
मुझे लगता है कि पहली दोनों कविताओं ने भारत की नारी का सही चित्रण किया है, भारत की नारी दोनों विषमताओं के साथ जी रही है, वो शक्ती भी है और करुणा की मूर्त्ती भी, वो दमित भी है और सशक्त भी। मेरी तरफ़ से तीनों कवियों को शुभकामनाएं
इश्वर का कोई रूप नही,
बस ममता का स्वरूप है नारी ,
हर मुश्किल से सबको बचाती,
कुदरत का वो नूर है नारी
Regards
पंखुड़ी जी,
आपकी अभिव्यक्ति से सहमत हुँ बस बलिदानों को भुनाने की बात थोड़ी अखरती है।
सीमा जी,
आपकी बात में सच्चाई है-
उस नारी के नाम इक नारी दिवस
खुश हो जाती है इसी में बस
इस छलावे से बचना बेहतर।
पंकज जी,
नारी के विभिन्न रूपों का चित्रण सार्थक है। शिल्प थोड़ा और सुधारा जा सकता था।
नारी शक्ति आवाज उठाये. नारी शक्ति एक हो जाए. नारी शक्ति बदलाव लाये. नारी शक्ति का विकाश हो.. नारी अबला है. नारी पीड़ित है... नारी भोग्य है... न जाने क्या क्या भारी भरकम शब्द समाज मैं सुनने को मिल रहीं हैं. समाज भी साहब अब दो प्रकार का कहा सकते हैं. एक तो पढ़ा लिखा और दूसरा अनपढ़ लेकिन रीती रिवाजों को मानने वाला. हम आज महिला दिवस मन रहीं है तौ जाहिर है की इस दिन का मतलब केवल पहला वर्ग ही समझता और जानता है. यही सबसे ज्यादा महिलोंको आजादी हंशील है और यही सब्शे ज्यादा शोषित महिलाएं भी पायी जाती है . पढ़ लिखा कर विकास की राह पर चल निकली महिलाएं आठ मैं सिगरेट लिए पान के खोके पर कह्दी दिख जायेंगी. कुछ समय पूर्व की फिल्में याद करें टू हीरों हेरों की सिगरेट बुझाती थी अब महिलाएं कंधे से कन्धा मिलाने की होड़ मैं संस्कार भूल गयीं है. पुरूष बनने की एक कुत्षित सी कोशिश शुरू हो गए है. यदि पुरूष मधुशाला जाता था अय्याशी करता था टू पैस्सा पा कर महिलाएं भी वैसा ही शोके पाल बैठी हैं... और टू और कई महिलाएं टू महानगर मैं बाकयेदे पति पर अत्याचार भी वैसे ही करती हैं जैसे पुरूष किया करते थे या करते हैं... जिस अत्याचार और बुराई का विरोध नारी शक्ति के नारेके रूप मैं होता रहा वाही नारी शक्तिवान बन कर मुमौजी बनती जा रही है वह भी शेयर आप अपने अंगों का उपयोग कर रही है... अंग दिखा कर वह अवसर से लेकर धन तक कमाने मैं पीछे नही है... संस्कार देने, आने वाली पढ़ी को विवेकशील व्यक्तित्व्वा बनने के अपने मूल उद्देश्य से विकाश शील नारी ने पीछे कदम बढाये हैं. १६ साल की उम्र के लड़कियां अपना जीवन साथी तलाशने लगती है बॉय फ्रिएंद प्यार आदि के जानसे मैं पड़ कर २४ की मुरा तक सब कर चुक जाती हैं फिर शादी भी डेरा से ऐसे मैं संस्कार कहना बचे . आज महिला दिवस पर हम एक बार उन आंकडों का अंदाजा लगाएं की जो महिला पहल खून खराबे से डरती थी वोह हत्या जैसे घिनोने कार्य को या टू ख़ुद अंजाम दे रही है या फिर किसी हत्या मैं शामिल हो रही हैं... यदि खून ही विकृत हो गया चरित्र ही समाज का मर गया टू आने वाली पीढ़ी क्या सबक लेकर कोख से बाहर आएँगी... नैतिकता बचाने के लिए संस्कार बचने के लिए मातृ शक्ति का मंशिक रूप से, चारित्रिक रूप से, सांस्कारिक रूप से प्रबल होना बहुत जरूरी है...
maan ki kokh se kam se kam bahar to aa jane do....ye sabse achha laga mujhe....badahai..pankhudi...
seema ji..teri shakti ke aagey natmastaq....bahut sahi kaha hai aapne..
pankaj...tum pedon se lipti bel ho..aur sab kuch ho..ati sunder ...
पंखुड़ी जी,सीमा जी,पंकज जी एवं योगेश जी सभी कवियों की रचनाएँ नारी दिवस के लिए उपयुक्त हैं। जहाँ पंखुड़ी जी ने नारी की दीन-हीनता का वर्णन किया है, वहीं सीमा जी ने नारी को पूज्य बताकर उसे बस एक नारी दिवस तक बाँधे जाने का विरोध किया है, पंकज जी ने नारी की महिमा का बखान किया है तो योगेश जी ने एक बड़ा हीं महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि नारी का दमन करने वाला क्या केवल पुरूष होता है,नारी खुद क्या इस निकृष्ट कार्य में भागीदार नहीं होती?
अपनी कुछ पसंदीदा पंक्तियाँ यहाँ उल्लेखित कर रहा हूँ।
१.
आरक्षण से मुझे मत दबाओ
खुद अपनी जगह बनाने दो,
माँ की कोख से कम से कम
बाहर तो आ जाने दो।
२.
उस नारी के नाम इक नारी दिवस
खुश हो जाती है इसी में बस
नही उसका दिया जाता कोई पल
नारी तुम हो दुनिया का बल
३.
कविता में शब्दों सी गिरती
एक अविरल धार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।
४.
औरत पर अत्याचार,
क्या केवल पुरुष करे है,
कर ना बहना सोच विचार.
क्या कोई मर्द मिला तुझको
जो अपनी मां को रौंदे है?
क्या कोई मर्द भला अपनी
बहना के प्यार को कौंदे है.
सभी रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाईयाँ।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
anurag..bahut sunder...
zanjeer...waah..
AC..room..kitna sach likha hai..
anurag...pehli kavita bahut hi gahri hai....
main samjhi nahin....
laash darati hai...naari ki...kindly explain it to me...
नमस्कार , आप सभी को महिला दिवस की बधाई
आज का दिन नारी के लिए महत्वपूर्ण दिन है नारी को हर किसी ने अलग अलग तरीके से लिया है अगर कहीं नारी ऊँचे पद पर है तो कहीं चारदीवारी में कैद भी है
कहा है नारी से ही दुनिया है तो हम क्यों भूल जाते है उसके उपकार को
पूजनीय न कहने की जगह दुत्कारते हैं इस पर में पंखुड़ी जी की कविता से बिल्कुल सहमत हूँ
कब तक आँसू पीती रहूँ
अब तो उसे बहाने दो।
अबला बनकर बहुत अत्याचार सहा,
अब तो बला बन जाने दो।
पंकज जी और सीमा जी की कविता उस नारी की उल्लेखना करते है जो की नारी की पुज्नीयता उसके लिए आभार प्रकट करती है
प्रणाम तुम्हें नारी शक्ति
क्या अद्भुत है तेरी भक्ति
प्रेम हो तुम, स्नेह हो
वात्सल्य हो, दुलार हो
अद्भुत रचनाये
और योगेश जी भी पीछे नही है उन्होंने भी नारी को सम्मान दिया है और उनके उपकारो से अवगत कराया है
अंत में येही कहना चाहूंगी की नारी से ही नर है
हमें नही भूलना कहिये हर सफल नर के पीछे एक नारी का ही हाथ है
नर नारी को बराबर का अधिकार देना चाहिए
सभी रचनाकारों को सुंदर कविता के लिए बहुत बहुत बधाई
अनुराग जी आपकी छोटी छोटी कवितायेँ बड़ी बड़ी बात करती है
शब्द कम है बातें बड़ी है
अपने साथ लेकर चलती है,
समझौतों के कई जोड़ से गूँथी हुई
ख़ामोशी दर ख़ामोशी, मज़बूत होती हुई
कभी चाँदी की, कभी सोने की
कभी “इस घर" की, कभी “उस घर” की
बधाई हो
महिला दिवस पर हिन्द-युग्म पर प्राप्त रचनाओं को पढ़कर आनन्द आगया। मुझे सभी कविताएँ बहुत पसन्द आई । खुशी की बात तो यह है कि कवि मित्रों ने अधिक सुन्दर लिखा । अनुराग जीकी क्षणिकाएँ प्रभआवित करती हैं,योगेश जी की कविता दिल को भीतर तक छू जाती है
बीती बाते छोड़ दे प्यारी
दुनिया आओ सजाएं न्यारी
साथ साथ पैट्रोल पंप पर
काम करे हैं अब नर नारी
क्यों भला औरत है अबला
क्यों उसको कहते बेचारी
आज पुरुष भी बदल रहा है
बदलो सोच अपनी पुरानी
बोलो फिर पुरूषों को कोसोगी
और पंकज रामेन्दू जी की कविता एक विचार देती है।
प्रेम हो तुम, स्नेह हो
वात्सल्य हो, दुलार हो
मीठी सी झिड़की हो, प्यार हो,
भावनाओं में लिपटी फटकार हो
हे नारी ! तुम अपरंपार हो ।
अति सुन्दर
सीमा जी,पंखुड़ी कुमारी जी आपकी भावनाएँ सुन्दर रूप में पहुँची । सभी को बहुत-बहुत बधाई
सही में केसे भुलाया जा सकता है
आ चुकी को
मीनू जी आपकी यह कविता आचुकी हमेशा याद रहेगी
हम भी अपनी एक रचना विश्व महिला दिवस.....पर आपको देना चहाते है
आप हमे अपना ईमेल पता दे
मेरा ईमेल पता है
सबको महिला दिवस की बहुत बहुत बधाई .सभी रचनाये दिल को छु जाने वाली लगी डॉ मीनू की "'आचुकी "' बहुत ही भावपूर्ण और सच्ची लगी ... नारी के सभी रूप बहुत प्रभावशाली ढंग से इन रचनाओं में लिखे गए हैं ..अच्छा लगा इनको पढ़ना !!
shailaish ji ye koi vyakti gat comment nahin hai ....vichar room kaun sa hai ...pata nahin kuch likhna chaha .yahin par likhti hun ..sabne bahut achha likha hai man nahin bhara isliye likh rahi hun...
''अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी''...मैथिलीशरण गुप्त जी से ज्यादा शायद ही किसी कवी ने नारी त्रासदी का इतना सही अंकन किया है
आज की नारी सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान सब कम कर रही है
स्त्री विहीन समाज की कल्पना नहीं की जा सकती
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे पहले क्रांति आई फ्रांस के १७८९ से.दूसरा प्रयास रहा राजा राममोहन राय जी का १८२९ में सटी प्रथा का विरोध किया गया
१८४८ में न्यू यार्क में स्त्री मुक्ति आन्दोलन एक महत्वपूर्ण कदम था
भारतीय स्र्रियों को जो स्वतंत्रता प्राप्त हुई है उसकी सदुपयोगिता समझें
पश्चिमी देशों की वेश भूषा का अनुकरण न करें
ये भारतीय संस्कृति के सर्वथा विरुद्ध है
नारी की बेडियां हैं ..जिसने यह उतार दीं वह नारी विशिष्ट है
मनु भंडारी की कहानी ''तीन निगाहों की एक तस्वीर ''...''आँखों देखा झूठ '' में नारी को मात्र देह की झांकी प्रस्तुत की है
समाज में नारी का बड़ा ही महत्त्व है ..आज शोषण , बलात्कार , वैश्यावृति जैसे दानव नारी की छवि को बिगाड़ते हैं ...
अंत में मैथिलीशरण गुप्त जी की पंक्तियाँ कहाँ चाहूंगी
''औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ ''
नवीन आधुनिक वैज्ञानिक युग में नारी की प्रगति की तरफ निरंतर बढ़ते क़दमों को सलाम
और पुरुषों के लिए..गुप्त जी की पंक्तियाँ
''नर के बांटे क्या नारी की नग्न मूर्ति ही आई
माँ बेटी या बहिन हाथ क्या संग नहीं वह आयी''
महिलाओं की प्रगति पर गर्व अवश्य होता है परन्तु उस गाँव की नारी के विषय में देश के पास क्या जवाब है जो प्रेम करती है तो जिंदा जला दी जाती है और अपने गोत्र में शादी करने पर पति समेत मार दी जाती है और नाले में फ़ेंक दी जाती है. उस मुस्लिम अभागिन नारी को आप क्या जवाब देंगे जिसका ससुर अगर उस का बलात्कार कर दे तो शारिअः उसे ससुर की बीबी व पति की माँ घोषित कर देती है. महिला दिवस पर केवल अरुंधती रॉय पेर गर्व करने की ज़रूरत नहीं वरन पिछडे से पिछड़ी नारी के लिए कुछ करने की आवश्यकता है.
सम्भव जी,
या तो आप अपनी कविता hindyugm@gmail.com पर भेज दें या यहीं कमेंट में पेस्ट कर दें, एक तरह से आप विचार व्यक्त कर देंगे।
योगेश जी, अनुराग जी एवं डा. मीनू जी,
आप सबकी रचनाएँ अच्छी हैं। प्रेम जी ने जिस बात को उठाया है उसपर भी कविता होती तो और अच्छा होता। सोच को विस्तार देना जरूरी है।
prem ji...aapne achha prashn uthaya hai ...
साहित्य समाज का दर्पण होता है...आपकी बात एकदम सच है की मुस्लिम समाज में नारियों का शोषण होता है...मैं बड़े बड़े लेखक तसलीमा नसरीन या रश्दी की बात नहीं कर रही ..नासिरा शर्मा जी ने ''अक्षय वट''उपन्यास में महिलाओं के बलात्कार और शोषण को दर्शाया है निकाह के समय मेहर की बात , पुरुषों का एक से अधिक विवाह करने का विरोध और पति की मृत्यु के बाद पति की सम्पत्ति पर अधिकार ...सबको बड़ी निर्भीकता से लिखा है...ऐसे ही गाँव में मेरे विचार से लड़कियों को निर्भीक बनाया जाये ...कुछ भी कह लें ये एक कड़वा सच है की पुत्र प्राप्ति पर सब खुश होते है
और लड़की पैदा होने पर सब दुखी हो जाते हैं ...
कि लड़की की जिम्मेदारी बहुत होती है .... मेरे ख्याल से साहस दिखाना होगा ... और देशों की तुलना में भारतीय मुस्लिम स्त्रियाँ अच्छा जीवन जी रही हैं .....
शिक्षा का इसमें बड़ा योगदान है ...गाँव में जितनी अधिक शिक्षित स्त्रियाँ हों अच्छा है
इन घटनाओं के लिए कुछ हद तक लड़कियां भी जिम्मेदार हैं ...ऐसा मैंने देखा है ....अच्छा प्रश्न उठाया आपने किसी को तो आगे आना ही होगा ...
सबसे पहले तो सभी साथियों को विश्व महिला दिवस की ढेरों शुभकामनाएं
रही बात कविताओं की,तो सभी कवितायेँ अपने अपने तरीके से अपनी बात कहने में सक्षम है,अतः सभी को मेरी तरफ से साधुवाद
आलोक सिंह "साहिल"
सभी पाठको का तहे-दिल से शुक्रिया ....मीनू जी यहाँ लाश से मेरा तात्पर्य था की औरत की अस्मिता को तहजीब के लबादे मे छिपाने से था......यानि इतनी बंदिशे .....आपकी कविता पढ़कर अलबत्ता ऐसा लगा की हिंदुस्तान मे लोगो की immunity पर इश्वर की विशेष कृपा है ओर लड़कियों मे ज्यादा ......
दूसरी बात मेरी राय मे हमे किसी विशेष दिन को महिला दिवस मनाने की जरुरत क्यों हो ? हर दिन महिला का नही है ? .
सभी नारीयो को शुभकामनाएं |
सब रचनाये सुंदर है |
डॉ मीनू जी की रचना कुछ नवीन मेरे लिए ..|
-- बहुत सुंदर
अवनीश तिवारी
thanks anurag ...sahi hai har din mahila ka kyun nahin...''nari tum kewal shradha ho vishwas rajat nag pal tal mein
piyush srot si baha karo jeevan ke sunder samtal mein.''
..kavivar jaishankar prasad ji ko kaise bhul gaye hum.....
thanks avinash..ranju ji..sabhi pathak...tah-e-dil se shukriya aap sabka...
प्रेम जी आपने जो प्रश्न उठाया है वह विचारनीय है और मैं भी यही कहना चाहूंगी की हमारे समाज मी नारी के लिए केवल एक नारी दिवस मना कर ही नारी के त्याग और बलिदान को भुला दिया जाता है , जुल्म टू सीता पर भी हुआ था , अपनी कविता की कुछ पंक्तिया लिख रही हू
धरती के गर्भ मी लेते हुए
कितने ही दर्द समेटे हुए
सीता माँ यहाँ से चली गयी
कितने प्रश्नों को छोड़ गयी
जिनका नही मिला कभी उत्तर
नारी रह गयी बन कर पत्थर
क्यो नारी ही सब सहती hai
बेशक वह नर की शक्ती है |
इन प्रशनो के उत्तर टू अनंत काल से ही नही मिले लेकिन हम आधुनिक युग के वासी है टू
इनके उत्तर ढूँढने ही होंगे ......सीमा सचदेव
nari divas ke avsar par itni sari sundar kavitayen nari ke roop darshati ,bahut achha laga.sab ko badhai,sari kavitayen bahut achhi rachit huyi hai.
यह तो एक छोटा सा कव्यपल्ल्वन ही हो गया, युग्म के नियंत्रक बधाई के पात्र हैं जिन्होंने यह कर दिखाया.... युग्म के फिनोमिना को समझने की कोशिश करने वालों के लिए भी है ये की युग्म मात्र हिंदी का ही प्रचार नहीं करता बल्कि समाज से जुडी हर बात को भाषा, साहित्य और कविता से जोड़ता है..... बहुत ही सशक्त रचनाएँ हैं सभी की.......अचुकी में बेहद नयापन है, पर कविता और बेहतर हो सकती थी..... अन्य रचनाएँ भी अपनी बात बेहद सार्थकता के साथ रखती है, सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई
नारी दिवश के अवाषर पेर प्रकाशित समस्त कवितायेँ वाकई में वर्मान जगत की विभिन्न समस्याओं को परिलक्षित करती हैं एवं कवि मित्रों आपको बहुत बहुत बधाई ऐसे विच्रों के लिए
shrikant ji...maan tu wapas aa jaa
ati sunder..marmsparshi kavita lagi mujhe....kitna sach likha hai aapne...
श्रीकान्त जी
आपने एक बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति दी है। सच में यह विषय भी विचारणीय है और आज से अच्छा दिन और क्या हो सकता है इस विचार के लिए । मर्म स्पर्शी कविता लिखी है । आप निश्चय ही बधाई के पात्र हैं । आपके इस अनुरोध में मैं भी आपके स्वर में स्वर मिलाकर यही कहूँगी - माँ तू वापिस आ जा ,,, बधाई
माननीय सम्पादकजी , हिन्दी-युग्म ,नमस्कार
महिला दिवस पर मेरी भावना ,
हो चुकी बांते बहुत कुछ तो बदलना चाहिए ,महिला को अब वक्त के सांचे मे ढलना चाहिए.
माँ तू वापस आ जा ,हे नारी ,मुझे आवाज उठाने दे ,नारी शक्ति आदि कविता पडी सभी का स्वागत है ,अच्छी लगी, सब कवियों ने अपने माध्यम से अपनी बात कही.
श्री योगेश जी की -*नारी* की पंक्तिया ज्यादा समकालिक + प्रेरणादायक रही.
मै कहना चाहूगी
वही हक़दार है किनारों के जो बदल दे धार किनारों के .
बहुत पहले लिखी एक कविता की कुछ पंक्तिया उद्धृत कर रही हू.
मन के अंधेरे मे bhatkogi तो रोशनी कैसे पाओगी ,
सोचने को तो बहुत कुछ है पर कुछ करके तो दिखाओगी.
कल्पना की उड़ान तज जब यथार्थ को अपनाओगी ,
अम्बर मे यू ही उड़ना छोड़ धरा मे जब पैर जमाओगी. .
बहुत सो चुकी ,बहुत रो चुकी ,जागो अब सोने का समय नही है ,
जागना ही नही ,जगाना होगा अपना रास्ता बनाना होगा.
और भी बहुत कुछ कहना hae पर अगली बार ,
महिला दिवस पर नारी शक्ति को सादर नमन वंदन अभिनन्दन ,
श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल ,
पाठिका ,लेखिका ,साहित्यकार ,
महिला दिवस 'पर एक अनूठा संकलन पढने को मिला.
धन्यवाद.
सभी कवितायें अपने आप में अलग हैं.सभी प्रतिभागियों को बधाई.
विस्तृत कमेंट्स बाद में लिखूंगी.
बहुत बढिया श्री कान्त जी
तू कहीं खो गई है शायद
किसी ब्यूटी पार्लर में..
या फिर …पश्चिमी आधुनिकता की
@ नागेंदर जी क्या कहना
कन्या हूँ कमजोर नहीं, अब आसमान में चलती हूँ
कभी सुनीता, कभी कल्पना, लता किरण बन जाती हूँ
@ जगदीप जी अति सुंदर
आज फिर वो आई है
पर अब वो मेरी गोद में नहीं बैठती
@सुनीता जी
यह कैसी प्रस्तावना! कैसी विडम्बना !
पुत्र का रुदन व माँ की वेदना
सतीश जी अच्छी शुरुआत के लिए बधाई
हर जीवन का प्रथम दिवस ही
पहला महिला दिवस होता है
सुनीता जी
अत्यधिक प्रभावशाली लिखा है -यह कैसी प्रस्तावना! कैसी विडम्बना !
पुत्र का रुदन व माँ की वेदना !
गाती चली मैं अनायास अनादृतों का प्राण-पुराण
साहित्य में हो तो नहीं रहा बंधु संस्कृति का अपमिश्रण ......
महिला दिवस पेर इतनी सुंदर रचना के लिए बधाई
सतीश वाघरे जी
आपने बहुत ही अच्छा लिखा है।
उस अंतहीन यात्रा के पथिक
समय-रथ के दो पहिये रहे
एक नर, दूजी नारी कहे
ईश्वर करे, दोनों साथ संतुष्ट रहें---
जगदीश जी
अति सुन्दर लिखा है आपने -
आज फिर मेरी गोद में
एक नन्ही जान है खेल रही
एक नन्हीं जान
कई साल पहले भी
इस गोदी में खेली थी
याद है मुझे मैं उसे
बधाई
नगेन्द्र जी
बधाई स्वीकारें
बाकी बाद में आई रचना भी बहद खूबसूरत लगी ..सब ने आज के वक्त की बात की है अच्छा लगा पढ़ के ..
डायरी के पुराने पन्नों से महिला दिवस की कुछ पंक्तियाँ http://ranjanabhatia.blogspot.com/2008/03/blog-post_08.html
देवेंदर जी सावधान आपकी कविता ने हमको सावधान कर दिया बहुत खूब
अभी समय है सावधान !
1-2 बच्चे परिवार में शान ।
बेटा हो या बेटी,
मानो ईश्वर का "वरदान" ।।
आने बाला भविष्य,
है प्रलयकारी ।
विवेक जी बहुत अच्छा लिखा आपने
कविता एक नयन है ..
कवि की कृतियों का उपवन है
सबको महिला दिवस की बहुत बहुत बधाई
""अभी समय है सावधान !""
घर की चार दिवारी में भी,
नही सुरक्षित है नारी।
घर के बाहर तो फ़ैली है,
भारी भरकम महामारी।।
घर की चार-----------------
घर में आने से पहले,
विज्ञान का है अभिशाप ।
कोख में कन्या होने पर,
गर्भपात कराते माँ-बाप ।।
आने से पहले हो जाती,
जाने की तैयारी ।
घर की चार-----------------
बेटा की चाह,
यह नोबत लाती है ।
पत्नी के होते,
शादी रचाई जाती है ।।
रूढिवादिता के चलते,
जनसंख्या में वृध्दी है जारी ।
घर की चार-----------------
बेटी पैदा होने से,
सन्नाटा छा जाता है ।
माँ-बाप कुटुम्ब कबीले में
भूचाल सा आ जाता है ।।
नन्ही जान ने,
नही देखी दुनियाँदारी ।
घर की चार-----------------
बेटा-बेटी का अन्तर,
स्पष्ट नजर जब आता है ।
बेटा को कुल का "दीपक"
बेटी को पराया जाना जाता है ।।
शिक्षा, रहन-सहन में,
नारी का शोषण है भारी ।
घर की चार-----------------
अभी समय है सावधान !
1-2 बच्चे परिवार में शान ।
बेटा हो या बेटी,
मानो ईश्वर का "वरदान" ।।
आने बाला भबिष्य,
है प्रलयकारी ।
घर की चार-----------------
नारी शक्ति है, अबला नही,
करो इस का सम्मान ।
सुनीता, इंदिरा जी,पर
देश को है अभिमान ।।
नर-नारी के अनुपात में,
गिरावट से लाचारी ।
घर की चार-----------------
विवेक जी, आंख मीच-मीच कर कैसे रोया जाता है.. भाई। जरा सम्भालियेगा।
नारीशक्ति जो स्वयं 'राष्ट्री' है उसको केन्द्र में रखकर अन्तर्राष्ट्रीय जागृति सतत जीवन्तता की ओर उन्मुख हो.. फिर तो बहुत अच्छा।
महिला दिवस पर एक से बढकर एक कविताएँ-गीत पड़ने को मिल रहे है.मन भाव-विभोर है.
अपनी माँ के लिए एक बेटी का आव्हान-गीत.
माँ-----
माँ हिला के रख दूंगी तुम्हे मै ,
ममता को जगा के रख दूंगी मै.
माँ तुम श्रद्धा-पूजा-कल्पना मेरी ,
कोई नही मेरा बस तुम हो मेरी.
क्या मुझे पाने में कुछकम पीडा तुमने भोगी?
क्या मेरे सुख दुःख की नही हो सहभागी ?
कितने दिन कितनी राते मेरे लिए हो जागी?
मुझमे ही तुमने स्व को किया है न रागी ?
फ़िर क्यो मुझको दूर किया तुमने?
आँचल से नही संवार दिया तुमने?
बेटी समझ क्यो अलग हटाया तुमने?
नारी से नारीका विश्वास नही पाया तुमने?
बोलो फ़िर क्यो तुम्हारी पलकें नम है?
ममता चुपके रोती हा मेरे ही तो गम है.
रूप मेरा है कन्या को तो दुखी हो क्यो ?
पराया समझ बोलो ठुकराती हो क्यो ?
माँ अब अपना नजरिया बदलो न ,
मुझमे भी अपना सपना देखो न.
तेरी ही बगिया का एक फूल हू मै ,
तन मन तेरा नही कोई भूल हू मै.
अब नही चाहती कोई भी भेद मै
बहा दूगी तेरे लिए लहू -स्वेद मै.
रुकना नही झुकना नही मै ख़ुद ही हाथ पकड़लूगी .
न्योछावर तुम न होना मै ही तेरा सहारा बनुगी .
एक आस भी है बिस्वास भी है ,
अन्तिम पलतक मेरी स्वास भी है.
तुमको ही बनाएगी मन दर्पण ,
छोटा मेरा जीवन तुमको अर्पण
माँ मेरी माँ तुम मुझको न ठुकराना
अब न कभी मेरा जिया हुल्साना
कर्तव्य कोई बन्धन नही ममता लुटाना
जोदुःख तुमने भोगा उससे मुझको बचाना.
उपरोक्त शब्दों मे मेरा मात्र ये मानना है नारी चाहे तो अपने को इतना बुलंद कर सकती है ,अपनी कोख की बेटी को जनम लेने दे ,चाहे कितने भी संकट क्यो न आये आख़िर उसकी बेटी उसका साथ देने को तैयार हो रही है वो हिम्मत रखे तो ,उसको बस अपनी शक्ति पहचाननी है.
सादर
श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल ,
पाठिका+लेखिका
Bharoon hatya aur ladaki ke janm ki vyatha ko naari divas par prastut kar rahi hoo:-
मुझे जीने दो
मुझे
जीना है
मुझे जीने दो
हे जननी
तुम तो समझो
मुझे दुनिया मे आने तो दो
तुम
जननी हो माँ
केवल एक बार तो
मान लो मेरा भी कहना
नही
सह सकती मैं
और बार-बार अब
और नही मर सकती मैं
कोई
तो मुझे
दे दो घर में शरण
अपावन नही हैं मेरे चरण
क्यों
हर बार मुझे
तिरस्कार ही मिलता है?
मेरा आना सबको ही खलता है
हे जनक
मैं तुम्हारा ही तो
बोया हुआ बीज हूँ
नही कोई अनोखी चीज़ हूँ
बोलो
मेरी क्या ग़लती है?
क्यों केवल मुझे ही
तुम्हारी ग़लती की सज़ा मिलती है?
कब तक
आख़िर कब तक
मैं यह सब सहून्गी?
दुनिया में आने को तड़पती रहूंगी?
क्या
माँ का गर्भ ही
है मेरा सदा का ठिकाना?
बस वहीं तक होगा मेरा आना जाना?
क्या
नही खोलूँगी मैं
आँख दुनिया में कभी?
क्यों
निर्दयी बन गये हैं माँ बाप भी?
कहाँ तक
चलेगी यह दुनिया
बिना बेटी के आने से?
बेटी बन कर
मैने क्या पाया जमाने से?
मैं
दिखाऊंगी नई राह
दूँगी नई सोच जमाने को
मुझे
दुनिया में आने तो दो
मैं
जीना चाहती हूँ
मुझे जीने तो दो
seema ji..mujhe jeene do...mere man ki baat cheen lii aapne...bahut sunder...
प्रेम सहजवाला जी मई आपको नमन करता हूँ बहुत ही बढ़िया लिखा है एवं शहर की लड़कियों पेर अच्छा कटाक्ष है
भटनागर जी भले युवावों की तरफ़ से आपजो संदेश दिया है उसकी मई सराहना करता हूँ
सजीव जी, शोभा जी अंजू जी और उन सब का धान्यवाद जिन्होंने मेरी कविता पर तवज्जो दी। बाकी दोस्तों से भी ऐसी आशा रखता हूं कि मेरी कमियों को मुझ तक पहुंचाते रहेंगे।
वाह तीनो नई कवितायें आज के तीन चेहरे दिखा रही हैं, एक गाओं की औरत का चेहरा जो आज भी माता पिता पट बोझ है " दुबली " होकर भी, टू वहीं एक शहर की लड़की है, जो आत्मविश्वास से भरी है, तीसरी कविता आज के आदमी का पक्ष दिखा रही है, जो "पति परमेश्वर " के बन्धन से छूट कर आज की नारी का हमसफ़र बनना चाहता है..... बहुत खूब..... सभी कवियों को बधाई....
एक साथ इतनी कविताओं को पढ़ने में दिक्क्त होती है.. यदि एक बार में ५/६ कविताओं को प्रकाशित किया जाए तो ज्यादा अच्छा होगा।
कविताएं बहुत खूबसूरत, मन के भाव, उद्विग्नता, दिल से उड़ेले गए हैं...
हम कितनी ही बातेम कर लें नारी की ! नारी सशक्तीकरण की...लेकिन शुरुआत होती है घर से.. नारी को कमजोर बनाया जाता है.. घर से,.. कोई भी वह नारी कमजोर नही हुई है, जिसके मां बाप ने उसे कमजोर नही बनाया है। कोई भी वह नारी कभी जिंदगी में पीछे नही हटी, जिसके मां बाप ने उसे बेटों सी स्वतंत्रता दी है। हर उस नारी ने झंडा गाड़ा है जिसके मां बाप ने बेटे बेटी में फर्क न करके बेटी को मजबूत बनाया है। कितने ही उदाहरण है दुनिया में - इंदिरा गांधी, रानी लक्ष्मी बाई, सुभद्रा चौहान, किरण बेदी..
नारी को मजबूत बनाना है तो शुरुआत मां बाप से होनी चाहिए.. हम पूरी जिंदगी बेटी को दबाते रहते हैम और वह बेटी जब बहू बन जाती है तो हम चाहते हैं कि वह सशक्त हो जाए.. यह दोहरे मानदण्ड हैं.. इससे कभी कुछ हासिल नही होने वाला... बेटी को ससक्त बनाइए.. नारी सशक्त होगी..
कवि कुलवंत
कोख से
(परिचय - एक गर्भवती महिला अल्ट्रासोनोग्राफी सेंटर में भ्रूण के लिंग का पता कराने के लिए जाती है। जब पेट पर लेप लगाने के बाद अल्ट्रासाउंड का संवेदी संसूचक घुमाया जाता है, तो सामने लगे मानिटर पर एक दृष्य उभरना शुरू होता है। इससे पहले कि मानिटर में दृष्य साफ साफ उभरे, एक आवाज गूंजती है। और यही आवाज मेरी कविता है - ’कोख से’ । आइये सुनते हैं यह आवाज -
माँ सुनी मैने एक कहानी !
सच्ची है याँ झूठी मनगढ़ंत कहानी ?
.
बेटी का जन्म घर मे मायूसी लाता,
खुशियों का पल मातम बन जाता,
बधाई का एक न स्वर लहराता,
ढ़ोल मंजीरे पर न कोई सुर सजाता ! माँ....
.
न बंटते लड्डू, खील, मिठाई, बताशे,
न पकते मालपुए, खीर, पंराठे,
न चौखट पर होते कोई खेल तमाशे,
न ही अंगने में कोई ठुमक नाचते। माँ....
.
न दान गरीबों को मिल पाता,
न भूखों को कोई अन्न खिलाता,
न मंदिर कोई प्रसाद बांटता,
न ईश को कोई मन्नत चढ़ाता ! माँ.....
.
माँ को कोसा बेटी के लिए जाता,
तानों से जीना मुश्किल हो जाता,
बेटी की मौत का प्रयत्न भी होता,
गला घोंटकर यां जिंदा दफ़ना दिया जाता ! माँ....
.
दुर्भाग्य से यदि फ़िर भी बच जाए,
ताउम्र बस सेवा धर्म निभाए,
चूल्हा, चौंका, बर्तन ही संभाले जाए,
जीवन का कोई सुख भोग न पाए ! माँ.....
.
पिता से हर पल सहमी रहती,
भाईयों की जरूरत पूरी करती,
घर का हर कोना संवारती,
अपने लिए एक पल न पाती ! माँ....
.
भाई, बहन का अंतर उसे सालता,
हर वस्तु पर अधिकार भाई जमाता,
माँ, बाप का प्यार सिर्फ़ भाई पाता,
उसके हिस्से घर का पूरा काम ही आता ! माँ....
.
किताबें, कपड़े, भोजन, खिलौने,
सब भाई की चाहत के नमूने,
माँ भी खिलाती पुत्र को प्रथम निवाला,
उसके हिस्से आता केवल बचा निवाला ! माँ....
.
बेटी को मिलते केवल ब्याख्यान,
बलिदान करने की प्रेरणा, लाभ, गुणगान,
आहत होते हर पल उसके अरमान,
बेटी को दुत्कार, मिले बेटे को मान ! माँ....
.
शिक्षा का अधिकार पुत्र को हो,
बेटी तो केवल पराया धन हो,
इस बेटी पर फ़िर खर्चा क्यों हो ?
पढ़ाने की दरकार भला क्यों हो ? माँ....
.
आज विज्ञान ने आसान किया है,
अल्ट्रा-सोनोग्राफ़ी यंत्र दिया है,
बेटी से छुट्कारा आसान किया है,
कोख में ही भ्रूण हत्या सरल किया है ! माँ...
.
माँ तू भी कभी बेटी होगी,
इन हालातों से गुजरी होगी,
आज इसीलिए आयी क्या टेस्ट कराने ?
मुझको इन हालातों से बचाने ! माँ....
.
माँ यदि सच है थोड़ी भी यह कहानी,
पूर्व, बने मेरा जीवन भी एक कहानी,
देती हूँ आवाज कोख से, करो खत्म कहानी,
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
.
कवि कुलवंत सिंह
प्रेमचंद्र जी आपने शहर की लड़कियों का वर्णन बखूबी किया है
@ mahender ji
अच्छी शुरुआत
तुम नहीं कोई
पुरूष की ज़र-ख़रीदी चीज़ हो,
तुम नहीं
आत्मा-विहीना सेविका
मस्तिष्क-हीना सेविका,
गुड़िया हृदयहीना!
सभी की सभी कवितायें हृदयस्पर्शी हैं..
बहुत बहुत बधाई सभी को..
मेरी सभी माननीय प्रिय बहनो के लिए ,
हमे केवल एक दिन ही महिला-दिवस नही मनाना है ,पर अपने विचार बदलकर अपनी मानसिकता मे पूर्ण परिवर्तन लाना ही है.
१ दीपशिखा
दूर कही है एक दीपशिखा सी झिलमिला रही ,
पर रोशनी कही भी नज़र क्यो नही आ रही.
प्रकाश दूर कब है अँधेरा मन मे ही छाया है,
छलावे से निकलो न ,यही तो सब माया है.
२ अंतस का तम
क्या हो गया है पुनः इस नव आलोक को ,
अभी ही तो जनम लिया है तज तिमिर को.
कहाँ खो गया ग्रहण लग गया क्या फ़िर ,
अरे !नही धुंध हटा दी है रोशनी ने फ़िर.
अलका मधुसूदन पटेल
'म' का अक्षर याद रखो सब
म से मैं और म से महिला
म से महनत म से 'मनी'
म से मेरे मम्मी पापा
म से मेरा मोबाइल
म से मेरा दिल्ली मेट्रो
दिल्ली मेट्रो मेरा मेट्रो
म से मेरा मेल एड्रेस और
म से मेरी जॉब
म से मेरा हैंडसम बॉस और
म से मेरा बॉय फ्रेंड
म से मेरा जीवन साथी
मेरा सच्चा लवर
म से मेरे सुंदर सपने
म से महकते रिश्ते
सासू ससुर और देवर भइया प्यारी सी जेठानी
म से मेरी गाड़ी लोगो
म से मेरी स्पीड!
म से मैं हूँ महान लोगो
म से मैग्निफिसेंट
मुझ से परिचय ले लो लोगो
म से मैं हूँ मार्वेलौस
म से मैं हूँ मदर टेरेसा
म से मेधा पाटकर
म से मैं हूँ मंत्री दोस्तो
म से मिस इंडिया
म से मिस वर्ल्ड मिस यूनिवर्स
म से मेरा माउंट एवरेस्ट और
म से मेरा स्पेस
म से मेरी ताकत लोगो
म से मेरी ग्रेस
'म' का अक्षर याद रखो सब
म से मैं और म से महिला
प्रेमचंद सहजवाला
बहुत खूबसूरत व बेहतरीन काव्य-संग्रह बन गया है...महिला दिवस की सभी को बधाईयाँ...
सुनीता शानू
विनय के जोशी जी
बहुत अच्छे
और राहुल जी बहुत अच्छा ग्राफिक्स डिजाईन आपने तैयार किया है
दीप जगदीप जी
बहुत ही प्यारी कविता लिखी है आपने । बधाई
महेन्द्र भटनागर जी
आपकी कविता बहुत प्रभावित करती है।
विनय जी
आपने भी बहुत सुन्दर लिखा है ।
राहुल पाठक जी
सुन्दर तसवीर बनाई है। साधुवाद
अंजू जी आपकी दुविधा जो कविता में व्यक्त हुई है सच है, दरअसल यह वक ऐसा नाज़ुक दौर है जहाँ हर बात की अती हो रही है, दो धुर्व हैं पर हम उनके बिच समन्वय नहीं बिठा पा रहे हैं, विरोधाभास इतना अधिक है की सचमुच नहीं समझ आता की क्या किया जाये
रत्ती जी आपकी ग़ज़ल अच्छी लगी / साइंसदाँशब्द बड़ा अच्छा लगा / पर कुछ काफिये दोहराए गए है / उनमे भी कोई एक्सपेरिमेंट होता तो मजा बढ़ जाता था / प्यारी ग़ज़ल है
बहुत खूब ममता जी
वह नन्हा सा जिस्म
मजबूती से बन्द
छोटी-छोटी मुट्ठियाँ
-----आज यही मुट्ठियाँ
surinder rati जी
चान्द को छूने वाली सुनीता भी मिसाल बनी,
ऐसी साइंसदाँ नारी सबसे इज्ज़त पती रही
बहुत खूब
ममता जी विचारों का बहाव बहुत अच्छा है / कविता मे दर्द भी है और साहस भी / मन को छूनेवाली कविता है .
हिन्द-युग्म ने जिस तरह का स्तम्भ महिला दिवस पर शुरू किया, वह बहुत सराहनीय है। और जिस तरह से कवियों और पाठकों ने अपने विचार बांटे, उसमें मंच की सफलता परिलक्षित होती है।
पहली ही रचना बहुत उम्दा है, इस आयोजन के मकसद को उजागर करती। हाँ, कवयित्री पंखुड़ी को अपनी सोच और समझ को और पैना करने की ज़रूरत है।
सीमा जी, आपकी कविता में तुकबंदी अधिक है- सुनी सुनायी बातों का। आपने अपनी रचनात्मकता नहीं डाली है इसमें।
पंकज जी,
नारी के और भी ढेरों रूप हैं, आप उन्हें भी देखने की कोशिश करें। यह महानता का आडम्बर गढ़के उनको महत्वपूर्ण से वंचित रखने की मनोवृत्ति आपपर भी हावी है।
योगेश जी, कथ्य का रिपीटिशन है आपकी कविता में, आप भी ऊपर के दो कवियों के कथ्य दुहरा रहे हैं।
अनुराग जी, आपकी क्षणिकाएँ सरहनीय हैं। अंतिम तो जैसे लगता है यह कह रही हो कि प्रवृत्ति और प्रकृति बदले नहीं जा सकते।
मीनू जी, आपने बढ़िया कथानक चुना था, थोड़ा लिखने पर मेहनत करतीं तो एक अच्छी कविता बन जाती।
मुझे तो आधुनिक और पाश्चात्य माँओं में भी वही प्रेम दिखता है जो मेरी ग्रामीण और घरेलू माँ मुझे देती रहती है। फैशन विरोधी लोग अपना विरोध और हस्तक्षेप ऐसी जगहों पर इसलिए करते हैं क्योंकि अपनी बात रखने में वो कामयाब नहीं हो पाते हैं। लेकिन श्रीकांत जी, आप एक कवि है, साहित्यकार हैं। हमेशा बातों को शीशे की तरह साफ़ रखिएगा।
नागेन्द्र जी, आपने भी केवल तुकबंदी की है।
दीप जी, कुछ भी मज़ा नहीं आया।
सुनीता जी, आप बिम्ब अच्छे प्रयोग करती हैं। गैर हिन्दी भाषी कवयित्री आप कहीं से भी नहीं लगती हैं।
सतीश जी, आपने बिलकुल कवियों वाली सोच तो रखी, कुछ नया लेकर आने वाली। लेकर बात को सम्हाल नहीं पाये। आप जैसा कि बता चुके हैं कि आप लेखन क शैशवकाल में हैं, मुझे लगता है कि आप आगे चलकर सफल कवि बनेंगे।
देवेन्द्र जी न सामाजिक बुराई को कुछ हद तक सामने रखने की कोशिश की है।
विवेक में रचनात्मक ऊर्जा कूट-कूट कर भरी है। यद्यपि बड़े व नामी रचनाकारों ने भी विवेक के बिंदुओं पर लिखा है, लेकिन विवेक का लेखन दिल को बिलकुल चीरता चला जाता है।
खुद महीने में चार-पांच दिन उपवास रह जाती है ..
पिता के दुःख ओढ़ती माँ के ग़म खाती
उनके पैरों में चट्टी पुरानी
छोटी पड़ने लगाती है मगर घिस नहीं पाती
और रात में रोती हैं नींद के भीतर
बहुत खूब विवेक!
प्रेमचंद जी विवेक को उत्तर भी प्रभावी ढंग से दे रहे हैं। शायद यहाँ प्रेमचंद जी यह कहना चाह रहे हैं कि जिस प्रकार विवेक की ग्रामिण लड़कियों का सच अंतिम नहीं है, उसी तरह ये शहरी लड़कियों का सच अंतिम नहीं है।
डॉ॰ महेन्द्र भटनागर जैसे वयोवृद्ध कवि ने जिस प्रकार के विचार रखे हैं , वैसे सभी नये पुराने लोग हो जायें तो यह समाजिक बुराई को खत्म होते समय नहीं लगेगा। इनके विचार स्वागत-योग्य हैं।
विनय जी,
आप बातों को बहुत विशेष अंदाज़ में रखते हैं। कवि के रूप में आप सफल हैं।
राहुल जी, डिज़ाइन जल्दी में बनी हुई प्रतीत होती है।
अंजु जी,
आधुनिक नारी को
उसके संस्कार याद दिलाऊँ
आप इसको जो संस्कार याद दिलाना चाह रही हैं, उसी के तो अतिक्रमण की बात उठ रही है, हर जगह। आप कथ्य के तौर पर भटकी हुई हैं।
ममता जी, बहुत बढ़िया कविता है आपकी।
सुरिन्दर जी,
बढ़िया लिखा है आपने।
उन पाठकों भी धन्यवाद जिन्होंने कमेंट से अपने विचार दिए।
सभी पाठकों का धन्यवाद , और टिप्पणी के लिए विशेष आभार..
मेरे कविमित्रों को एक से एक सुंदर रचनाओं के लिए बधाई देता हूँ !
सभी रचनाकारों को बधाई बहुत ही सुन्दर लिखा है सभी को एक साथ लाने का श्रेय हिन्द युग्म को जिसके लिये आभार्
बहुत अच्छा लिखा । बधाई हो। गुणों से तुलना की जाये तो बेटी में बेटों से ज्यादा गुण होते है।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)