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अभी प्रश्नोत्तर खंड बहुत ज्यादा समृद्ध नहीं हो पा रहा है और शायद वो इसयलिये क्योंकि अभी तक छात्र छात्राएं बहुत ज्यादा सीख नहीं पाए हैं आने वाले दिनों में हो सकता हे कि ये खंड कुछ गति पकड़े । आज नए छात्र अमित साहू जी का एक प्रश्न है जो कि कई सारे प्रश्नों को समेंटे हुए हैं और इसलिये वो ही अपने आप में एक प्रश्नमाला है । AMIT ARUN SAHU का कहना है कि - गुरूजी मैंने पढ़ा की ग़ज़ल के हर शेर मी कुछ अलग बात होती है / याने ग़ज़ल बहता पानी है जो कही भी निकल सकता है / प्रेमिका से शुरू होकर ग़ज़ल देश पर भी ख़त्म हो सकती है / क्या मैं सही हू ? ग़ज़ल के मतले मे काफिया मिलना चाहिए / फिर वही काफिया अंत तक चलना चाहिए/ यदि इसी विधा को अपनाकर दो - दो पंक्तियों के शेर एक ही टॉपिक पर कहे जाए , मसलन माँ पर , तो क्या उसे ग़ज़ल कहेगे ? उत्तर :- अमित जी सबसे पहले तो कक्षा में आपका स्वागत है । ये तो सही बात है कि ग़ज़ल के हर शेर में कुछ अलग बात होती है । ग़ज़ल और गीत में मूल फर्क ही ये है कि गज़ल में हर शेर अपने आप में मुकम्म्ल होता है । मुकम्मल से मेरा तात्पर्य ये है कि उसमें कही हुई बात वहीं पर ख़त्म हो जाती हे और उसको आगे नहीं ले जाना होता है । और चूंके आप स्वतंत्र होते हैं अत: आप बात को अगले शेर में कही भी ले जा सकते हैं आपको उसकी पूरी आजादी होती है । मगर ऐसा भी नहीं है कि आप दो शेरों में एक ही बात नहीं ले सकते हैं । आप ले सकते हैं मगर कुछ ऐसा हो जो कि पूर्व के शेर का दोहराव न हो बल्कि कुछ और हो । जैसे एक शेर में आप देश से प्रेम की बात कह रहे हैं तो अगले में आप देश की खराब हालत के बारे में चिन्ता बता कर अलग तरीके से देशप्रेम की बात कह सकते हैं । हां ये सावधानी रखनी है कि सारे या अधिकांश शेर एक ही विषय पर ना हो जाएं उससे बात कुछ अलग हो जाएगी । हालंकि ऐ बात तो ये भी है कि महबूबा की प्रशंसा में लिखी हुई आप कुछ पुरानी ग़ज़लों को देखें तो उनमें तो कई सारे शेर महबूबा को ही समर्पित होते हैं । दुष्यंत जी के भी ऐ ही ग़ज़ल के कई सारे शेर ऐ हीह विषय पर होते थे । तो उससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि आपने विषय को कैसे लिया है । ग़ज़ल कहती है के हर शेर कुछ नया कह रहा हो । अब नये से तात्पर्य ये भी हो सकता है कि अपनी ही बात को पुन: नए ढंग से कह दिया जाए और कुछ नया निकाला जाए । ग़ज़ल के मतले में काफिया मिलना चाहिये ये तो एक पुराना विषय है आप पुराने अध्याय देख लें तो आपको पता लग जाएगा कि क्या होता है । आपने पूछा है कि क्या दो शेर एक ही विष्य पर कहे जाएं तो उसको क्या कहा जाएगा । तो मैं आपको बता दूं कि उसे भी गजल ही कहा जाएगा मगर मैंने पूर्व में कहा है कि ऐसा नहीं होना चाहिये कि आप अपनी बात को एक शेर में खत्म नहीं कर पाए तो दूसरा शेर भी निकाल लिया । बात एक शेर की उसी शेर में खत्म करने की बाध्यता है वो बात वहीं खत्म हो जानी चाहिये उसी विषय पर कोई दूसरी बात आप दूसरे तरीके से दूसरे शेर में कहा सकते हैं । शेर का मतलब है कि दो पंक्तियों ( मिसरों) में अपनी लम्बी बात का पूरा सार कह देना । और वो भी इस तरीके से कि आपको तीसरी लाइन की ज़रूरत ना पड़े काफिया भी मिल जाए रदीफ भी मिल जाए और बात भी पूरी हो जाए । आपने जो पूछा है कि क्या मां पर दो शेर कह दिये जाए तो वो ग़ज़ल नहीं होगी, अमित जी मां पर तो जीवन भर पूरे शेर कहते रहेजाएं तो भी मां की महिमा को समेटा नहीं जा सकता है । मां तो ईश्वर का प्रतीक है इसीलिये तो कहा जाता है ना कि ईश्वर सभी जगह नहीं जा सकता थ्ज्ञ इसलिये उसने मां को हर घर में भेजा । मुनव्वर राना साहब की तो एक पूरी की पूरी पुस्तक ही मां पर है आप तो ग़ज़ल की बात कर रहे हैं । मगर बात वही है कि अगर बात मां की हो रही है तो आप यदि एक शेर में मां के बारे में कह चुके हैं तो दूसरे में अपनी पहले कही हुई बात की प्रतिध्वनि ना होने पाए कुछ अलग कुछ दूसरी बात कही जाए । सूचना सभी विद्यार्थियों को सूचित किया जाता है कि मंगलवार को सभी को अपना होमवर्क जमा करवाना है । जैसा भी हो उसी हालत में जमा करें ये ध्यान रखते हुए कि आप जैसा भी लिख रहे हैं वो शैशव अवस्था में है । हां बस ये ध्यान रखें कि जो बात हम पूरी कर चुके हैं काफिये की उसमें दोष न आए ।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
48 कविताप्रेमियों का कहना है :
पंकज जी,
मैने होमवर्क तो पूरा कर लिया है, क्या उसे मंगलवार को आपकी पोस्ट के साथ टिप्पणी के रूप में पेस्ट किया जाना है?
*** राजीव रंजन प्रसाद
धन्यवाद सर, आपने बहुत अच्छे तरीके से शंका का समाधान किया . वैसे आपको धन्यवाद कहने का मन भी नही होता क्योंकि आप बहुत अपने अपने से लगते है .सर आपको मसेज करके परेशान किया इसलिए सॉरी . मुझे लगा था की आप गुस्सा हो गए तो शायद क्लास नही ली . हिन्दयुग्म मेरे लिए नया है इसलिए पाठ ढूढने मे कठनाई हुई . आज पाठ मिल गया पढ़कर अच्छा लगा . होमवर्क मिला है , तो कोशिश करेंगे . आपकी संवाद सेवा पर आपका ग़ज़ल पठन सुना , आपको देखकर और सुनकर अच्छा लगा . आपका ग़ज़ल ज्ञान तो प्रभावित करता ही है पर आपका कंप्यूटर ज्ञान भी मुझे प्रभावित करता है. आप हाई - टेक कवि है . आपका : अमित
जो लोग होमवर्क कर चुके हों वे अभी से इसी पोस्ट की टिप्पणियों में लगा दे क्योंकि फिर उस पर कार्य करके उसको लगाना भी होगा तो आज की ही पोस्ट के साथ लगा दें उसे
सुबीर जी,
मेरी गज़ल आपके मूल्यांकन के लिये प्रस्तुत है:
गज़ल
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आँखों का सुर्ख रंग ये, होली तो नहीं है
तुम हो न हैं कहार, ये डोली तो नहीं है|
बस्तों को उलट लें, कि ज़ुराबों को जाँच लें
ईस्कूल में भी पिस्तल, गोली तो नहीं है।
भूखे ही भजन भगवन, करता भी मैं मगर
साँपों से लदे चंदन, रोली तो नहीं है।
वो दिल में बसा था, यही राहत रही मुझे
सडकें ही मुझपे हँसतीं, खोली तो नही है।
उसने तो तरक्की की, अंबर को छू लिया
क्या लूट सका कोई, भोली तो नहीं है।
एक लेख सामना में, एक राज बोलता था
ढोलक बजे धमाधम, पोली तो नहीं है।
'राजीव' चोर है पर, अब शोर कैसे होगा
नयनों की कोई भाषा, बोली तो नहीं है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
14.03.2008
बस्तों को उलट लें, कि ज़ुराबों को जाँच लें
ईस्कूल में भी पिस्तल, गोली तो नहीं है।
rajeev ji aapki yah panktiyaan bahut achchi lagi..seema
पंकज जी यह एक कोशिश मैंने भी की है ...
होली के रंग
रंग प्यार का सब तरफ़ हम फैलाये
अब के होली दिल से हम यूं मनाये
बढ़ गए हैं फासले दिलो के दरमियाँ
उस राह को फूलों से हम महकाए
प्यार की सरगम बरसे अब हवा में
डरे हुए दिलो से हर डर हम मिटाए
फाग के रंग अब के कुछ ऐसे महके
हर दिल में खुशी के गीत खिल जाए
रंगोली सजे हर आँगन में रंगीली
हर द्वेष भूल के वीरान बस्तियां बसाए !!
गुरु जी इसको भी देखे ..और फ़िर एक साथ डांट लगाए ..मतलब इसकी गलतियां भी जरुर बताये :)
छलक रहा है जो रंग नजरों से
यह तो रंग सजना प्यार का है
दिल में उठ रही हैं जो धीरे से हिलोरे
यह नशा सब फागुनी बयार का है
उड़ा के ले गया है चैन-औ-करार मेरा
आंखो में ख्वाब इन्द्रधनुषी बहार का है
पलकों में बंद है बस एक सूरत तेरी
छाया हुआ खुमार तेरे ही दुलार का है
निहारूँ हर पल मैं राह तुम्हारी
नयनों को इन्तजार तेरे दीदार का है
बिखरे है फिजा में जो रंग टेसू के
ऐसा ही सपना तेरे मेरे संसार का है !!
पंकज जी,
एक कोशिश मेरी भी... जरा कस के नम्बर दीजियेगा.
पिया नहीं हैं साथ, अब के होली में
बाहर मची है धूम, और मैं खोली में
सखी-सहेली नाचें गायें, रंग उडायें
चुहुल और मनुहार, लगी है टोली में
रंग तरंग में, है कोई नशे के भंग में
मस्त है सारे मलंग,आज ठिठोली में
भैया भाभी,दीदी जीजा, धुत मौज में
रंगा हुआ है अंग-अंग, साडी चोली में
ढोल मंजीरे बज रहे सब लय ताल में
हवा में उडते राग, प्यार की बोली में
आयेंगे पिया जब,तब खेलूंगी होली मैं
रखे अरमां संवार, सपनों की झोली में
HOMEWORK 1
सर होमवर्क पुरा कर लिया है / आपने पाँच काफिये दिए थे ,मैंने पाँचों पर ५ गजलें लिखीं है. / आपका मार्गदर्शन चाहूँगा/ सर गलतियों पर पहले ही माफ़ी मांग लेता हूँ /
१} पहली गजल , पहले काफिये " होली" पर . {ये बिना रदीफ़ की ग़ज़ल लिखने की कोशिश है}
दग्ध ज्वाला - सी उठती है होली
जैसे किसी ने मन की गांठ हो खोली
जल जाएँ आज, द्वेष मन के सारे
गालियों मे भी खनके, मीठी-सी बोली
सजती है दीवाली में जमीं पर
आज सजेंगी चेहरे पर रंगोली
दुश्मन से भी आज न होंगी दुश्मनी
भरेंगें प्रेम से हम ,सबकी झोली
हिंदुओंकी खुशी मे मुस्लिम भी आएं
निकलेंगी फिर भाईचारे की टोली
होली कहती है, हम सब मे प्यार है
झूठी है जो, नेताओं ने नफरतें है घोली
२} दूसरी गजल , दूसरे काफिये " पिचकारी " पर . {ये "भरी है" रदीफ़ के साथ ग़ज़ल लिखने की कोशिश है}
आज प्रेम के रंगों से पिचकारी भरी है
मन ने फिर आज बच्चों सी किलकारी भरी है
कितनी उमंगें, कितने रंग है, होली में
आज ह्रदय में आकांक्षाएँ बड़ी प्यारी भरी है
आज मैं बचपन अपना लौटा लाऊंगा
इस जवानी में, बड़ी दुश्वारी भरी है
यही तो एक दिन है, मौज और मस्ती का
बाकी तो फिर जीवन में, जिम्मेदारी भरी है
देता हूँ नेताओं को मैं एक सलाह
जला दो, मन मे जितनी भी गद्द्दारी भरी है
इक दिन किया था, शक तुमने मेरे प्यार पर
देख लो चीरकर, मन में कितनी वफादारी भरी है
अरे, कहाँ से ले आया मैं दर्द ग़ज़ल में
आज तो होली के रंगों से, ये फुलवारी भरी है
३} तीसरी गजल , तीसरे काफिये "रंग" पर . {ये "है" रदीफ़ के साथ ग़ज़ल लिखने की कोशिश है}
आज होली है, होली में गीले सूखे रंग है
ले रही मन में अंगडाई नई उमंग है
है सब हथियार तैयार,रंग,पिचकारी,गुब्बारे
आज प्यार और मुस्कान बाटने की जंग है
होली सिखाती है दुश्मनी मिटाना,द्वेष जलाना
होली मानो त्यौहार नही, कोई सत्संग है
अरमान तो बहुत से, होली के वास्ते है सजाए
पर हालात थोड़े कठिन और जेब तंग है
कुछ हसरतें पैसों के कारण दबी रह जाती है
पर जानता हूँ,होंगी पूरी,माँ की दुआएं संग है
होली का अबीर-गुलाल घुला है सारी फिजा में
दिल आजाद है जैसे, हवा मे कोई पतंग है
कुछ सैलानी आए थे, मथुरा घूमने के लिए
देखकर होली का हुडदंग, सारे ही दंग है
अमीर देशों मे तो, खुशियाँ पैसों से आती है
ये भारत की फिजा है, इसमे घुली खुशी की भंग है
४} चौथी गजल , चौथे काफिये "फागुन" पर . {ये भी "है" रदीफ़ के साथ ग़ज़ल लिखने की कोशिश है}
आज पूरे शबाब पर फागुन है
मन में छिड़ी प्रेममयी धुन है
ये लिफाफा बड़ा रंगीन है
मैं जानता हूँ 'होली' इसका मजमून है
होलीं उससे मिलने का बहाना होगीं
सोचकर खिल रहे ह्रदय के प्रसून है
देश जब भी खेलना चाहे होली
सदा हाज़िर हम नौजवानों का खून हैं
अमीर-गरीब सब एक रंग मे रंग जाते हैं
होली एकता का त्यौहार सम्पूर्ण हैं
५} पांचवीं गजल , पांचवें काफिये " पलाश " पर . {ये "था" रदीफ़ के साथ ग़ज़ल लिखने की कोशिश है}
पुरानी डायरी के पन्नों में,दबा सूखा पलाश था
मानो सतरंगी इन्द्रधनुष लिए, छोटा सा आकाश था
आज होली का मौका भी है , दस्तूर भी
लगा कि जैसे, होली के रंगों की तलाश था
फूल की भी देखिये ज़िंदगी, मौत के बाद रंग देती है
रंग कहता है छूटूगा नहीं ,मानो कोई विश्वास था
केमिकल रंगों की दुनिया में, भूल गए पलाश को
मैंने देखा बगीचे में, पलाश बड़ा निराश था
प्रेषक : अमित अरुण साहू , वर्धा , महाराष्ट्र
जी गुरु जी हम कोशिश करेंगे आपको होमवर्क दिखाने की
1.होली
मन में घुली मीठी गुझिया सी बोली हो
नफ़रत पिघलाती मिलन सार ये होली हो |
गुस्ताखियों के अरमानो की लगती है कतारें
हर धड़कन की तमन्ना उसका कोई हमजोली हो |
जज़्बातों की ल़हेरें ऐसी उठता है समंदर
दादी शरमाये इस कदर जैसे दुल्हन नवेली हो |
प्यार के रंगों में डूब जाने दो हर शक्स
छूटे न कोई चाहे वो दुश्मन या सहेली हो |
मुबारक बात दिल से अब कह भी दो “महक”
आप सब के लिए होली यादगार अलबेली हो |
2. पलाश
कौन हो नूरे-जिगर कोई मोह्पाश हो
दहकते दिल में खिला प्यार पलाश हो |
खीची चली आती हूँ उसी मकाम पर
मुश्किल से मिलती वो बूँद आस हो |
शाहे-समंदर कब का रीता हो चुका
बुझती ही नही कभी अजीब प्यास हो |
तुमसे दूर जाउँ ये ख़याल सितम ढाए
जिस में जकड़ना चाहूं एसे बँधपाश हो |
जमाने से छुपाना और जताना भी है
नवाजिश करूँ सब से हसीन राज हो |
परदा उठाओ अब,के बेसब्र “महक” हुई
या पलकों में सजता बस ख़याल हो. |
गुरुजी हम भी अपने होमवर्क के साथ हाजिर है| बहुत ग़लतियाँ है,समझ नही आता कहा मगर,
जहाँ भी हो दाँत कर बता दीजिएगा |
सादर महक.
नमस्ते ,
ग़ज़ल की कक्षा मे जितना अभी तक सीखा है उससे होली पर ग़ज़ल लिखा है |
यह मेरा होम्वोर्क है |
काफिया - ओली
रदीफ़ - है
तखल्लुस - अन्तिम पंक्ति उपनाम के साथ - 'अवि'
इसबार बड़ी खूबसूरत होली है,
फागुन, रंग संग मेरा हमजोली है |
रहता था उखडा जो मुखड़ा सदा ,
उस पर आज सजी मोहक रंगोली है ,
बरसों से सिले पड़े थे ओंठ जो,
उनपर खिली मुस्कान, मीठी बोली है ,
देख इतराते थे जो अक्सर हमें ,
हम पर आज अपने आँखें उसने खोली है,
फ़ेंक गुलाल बस हंस देती है,
हे ईस्वर ! वो इतनी भी क्यों भोली है,
मदमस्त हुया जा रहा है 'अवि',
प्रेम - रस होली मे उसने जो घोली है |
-- अवनीश तिवारी
गुरूजी, पूरी गजल तो नही लिख पाया हूँ पर जो भी थोड़ी बहुत कोशिश की है वो आपके सामने रखता हूँ। मात्राएँ गिनने में थोड़ा उलझ गया था खैर जब वो पाठ शुरू होगा तब सीख लूँगा तब तक इस दोष के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
गज़ल(काफिया-होली, रदीफ-में)
*********
रंग तुम्हारे प्यार का है भा गया यूँ होली में
अब मजा आता नहीं चंदन-तिलक औ रोली में
पास कुछ भी है नहीं पर ये अमीरी देखिए
दर्द के मोती भरे हैं आज मेरी झोली में
तीर रखते हैं छिपाकर जो जहर के ऐ दोस्तों
हाँ शहद ही है टपकता यार उनकी बोली में
एक ग़ज़ल लिखी है आपका काफिया लेकर, बताइए कैसी है
रंगों भरी पिचकारी, जिंदगी है,
ख्वाबों की फुलवारी, जिंदगी है,
गम के बुझते सन्नाटों से आती,
खुशियों की किलकारी, जिंदगी है,
मौत से रोज लड़ती मरती,
जीने की लाचारी, जिंदगी है,
झूठ के मयान में मुंह छुपाती,
सच की तलवार दो-धारी, जिंदगी है,
अलसुबह आराम की नीद से जागी,
अलसाई सी खुमारी, जिंदगी है,
दूँढती है जाने क्या, कहाँ भटकती है,
पगली सी है बेचारी, जिंदगी है
आप सब का धन्यावाद और गुरु जी का भी जिन्होने ये कलास शुरु की. ग़ज़ल के बारे में हिंदी में जानकारी देना एक प्रकार की हिंदी के लिए विशेष योगदान है.
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Sat Pal
यह ग़ज़ल मैने कोई १० साल पाहले लिखी थी मै खासकर पंकज जी के लिए इसे पेश कर रहा हूं. आशा है सब को पसंद आयेगी. ये बह्रे हजज मे है और इसका बज़न है 1222x4.
ग़ज़ल
लो चुप्पी साध ली माहौल ने सहमे शजर बावा
किसी तूफ़ान की इन बस्तियों पर है नज़र बावा.
है अब तो मौसमों में ज़हर खुलकर सांस कैसे लें
हवा है आजकल कैसी तुझे कुछ है खबर बावा.
ये माथा घिस रहे हो जिस की चौखट पर बराबर तुम
उठा के सर जरा देखो है उस पर कुछ असर बावा.
न है वो नीम, न बरगद, न है गोरी सी वो लड़्की
जिसे छोड़ा था कल मैने यही है वो नगर बावा.
न कोई मील पत्थर है जो दूरी का पता दे दे
ये कैसी है डगर बावा ये कैसा है सफ़र बावा.
सतपाल ख्याल,
बद्दी-हिमाचल
नमस्ते गुरु जी,
कक्षा में कुछ समय से नियमित नही आ पा रही हूँ.माफ़ी चाहती हूँ.
सभी पाठ पढ़ लिए हैं.
परीक्षा में हाजिर हूँ.
बहुत अरसे बाद कलम हाथ आयी है.
पता नहीं -प्रस्तुत रचना कितनी ग़ज़ल बन पायी है?
*काफिया है--रंग
*रदीफ़ नही है
*मतला और हुस्ने मतला हैं.
*मकता 'अल्प ' उपनाम लिए है.
हर और बिखर गए होली के रंग ,
ऐसे ही संवर गए फागुन के ढंग.
भँवरे भी रंग रहे कलियों के अंग,
हो रहे बदनाम कर के हुडदंग.
भर के पिचकारी,लो हाथ में गुलाल,
गौरी तुम खेलो मनमितवा के संग.
अब के बीतेगा सखी,फागुन भी फीका,
है परेशां दिल और ख्यालों में जंग.
बिरहन के फाग ,सुन बोली चकोरी,
मिलना जल्दी चाँद ! करना न तंग.
गहरे हैं नेह रंग, झूमे हर टोली,
गाए 'अल्प' फाग,बाजे ढोल और चंग.
सादर,
अल्पना वर्मा
पंकज जी, आज पहली बार इस पते पर पहुँची हूँ... और आपकी कक्षा के विषय में पढा. पढ़ कर इतना अच्छा लगा की आज ही सारे पाठ पढ़ लिए. काफ़ी सारी दुर्लभ जानकारी भी प्राप्त हुई. दुर्लभ इसलिए की सदा से विज्ञान ही पढ़ा, साहित्य कभी पढ़ा ही नहीं. जो थोड़ा बहुत पढ़ा भी तो इतनी बारीक नज़र से तकनीक कभी समझी ही नहीं. यूं ही कुछ लिख लेती थी बिना किसी सहारे के... कविता को बस एक एहसास मान कर पन्नों पर उतार लेती थी. फिर भी एक प्यास थी कुछ सीखने की, जो आज बुझती मालूम हो रही है. आगे से में भी आपकी शिष्या... आपको इतने अच्छे प्रयत्न के लिए धन्यवाद.
माफ़ी चाहूंगी गुरु जी
देर से होमवर्क किया है और जल्दी में वह भी
क्योंकि अंत समय था
माफ़ कीजियेगा
और मेरी गलतियों को बताएं
बहुत सी इसमें गलतियाँ है मेरा मार्गदर्शन करे
धन्यवाद
मच रहा चारों ओर होली का हुडदंग
आओ प्रिये लगाये प्रेम रंग
मस्ती में सब झूम रहे है
खेले हम भी मिलकर होली संग
महसूस करता हूँ बिन तुमर्हे
अपने जीवन को नीरस और अपंग
वादा करता हूँ तुमसे
नहीं करूँगा कभी तुमको तंग
रहेंगे मिलकर हम ऐसे जेसे
रहे खुले आस्मान में डोर पतंग
सर, मैंने भी प्रयत्न किया है आपका दिया होमवर्क करने का, जितना समझ में आया कर दिया। और तो कुछ पता नहीं, हाँ आपके कहे अनुसार काफिये पर ध्यान देने की कोशिश अवश्य की है, कुछ भी गलत है तो कृपया बताइयेगा।
आपके दिए शब्द पलाश पर काफिया है 'आश'
गालों पे तुम्हारे, जो गुल पलाश के हैं,
हारोगी फिर भी तुमही, पत्ते ये ताश के हैं.
न अब मुझे बुलाना, कुछ रोज़ भूल जाना,
इतना नहीं क्या काफ़ी, अब दिन अवकाश के हैं.
बरखा ने कुछ न पूछा, ओ गयी बरस छमाछम,
होली पे यूं नशीले, नैना आकाश के हैं.
न जाम में नशा है, अमृत भी न सुहाए,
महबूब हम तो कायल, तेरे बाहुपाश के हैं.
छोड़ो यह ताजमहल, अपनी कुटी सजाओ,
बने प्रीत के यह मन्दिर, पत्थर तराश के हैं.
नमस्कार गुरु जी ,
आप का दिया होमवर्क आज भी शायद पुरा ना हो :( माफ़ी चाहुंगी ।
और एक बात जो गज़ल जिसके सभी शेर एक ही विषय पर हो और अलग अलग अन्दाज़ से बात कह रहे हो उसे गज़ल-ए-मुसल्सल कहते हैं (Ghazal-e-musalsal)
इस का सब से अच्छा उदाहरण है
चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है ।
सादर
हेम ज्योत्स्ना
लिजीये गुरु जी हमारा होमवर्क भी :)
रंगो ने की रंगो से बातें , होली हो गई ।
मस्ती में मस्तो का मिलना ,वो टोली हो गई ।
देखा चुराया माखन ,खूब लगाई ड़ांट ,पर
देख के भोले मोहन को ,वो भोली हो गई ।
मन रंगा जब से श्याम रंग में ,
हर एक खुशी मेरी तब से ,हमजोली हो गई ।
हर रात को बंसी सुन सुन कर ,
नीम चढ़े मेरे मन की , मिठी बोली हो गई ।
जब दिल ने आवाज़ लगाई कान्हा कान्हा कान्हा ।
सुख सपनो से भारी , मेरी झोली हो गई ।
मुस्काके जब जब देखा मैंने उसको ,
बीच खड़ी सब दिवारें पल में ,पोली हो गई ।
पूजा दिल में दिल से जब जब उस मुरत को ,
सांसे धड़कन मेरी ,चन्दन रोली हो गई ।
by hemjyotsana "deep"
काफिया = ली ( ओली मी अच्चर नही मिल रहे थे )
रदीफ़ = जायेगी
मत सोंचो कि घर से कंगाली जायेगी
बजट सारा ले कर ये होली जायेगी
अपने शहर मे आज गरीबी है इस कदर
कूड़े मे दिखे रोटी तो उठा ली जायेगी
अमन चैन औ सुकून में दब गई थी जो
आज बात फिर से वो उन्छाली जायेगी
मुंसिफ, गवाह के सदर में मची खलबली
इन्साफ के लिए अब दुनाली जायेगी
किन्नरों की फौज यहाँ जुंट रही है फिर
अब शहर की आबरू संभाली जायेगी
पत्थर की बनी हो या लोहे की बनी हो
रोटी सी अगर दिखे तो चबा ली जायेगी
सन्नाटे की लहर है फिर से बस्ती में
बारात भूखों, नन्घों की निकली जायेगी
गुरु जी
मै आपकी ककशा मे देर से शािमल हुई पर शािमल होके बहुत अचछा लगा । गजल मे ये मेरा पहला परयास है ।गलती हुई हो तो माफ कीिजएगा ।मेरी गजल परसतुत है। देरी के िलए शमा चाहती हूँ
ना जा उनके मुहलले मे उनकी गिलयाँ तंग हो गई है
छोड के अपनी जमीं वो भी हमारे संग हो गई है
इधर उधर नजरे ना जाने कया ढूढँती है
तुमहे सामने पा के ये दंग हो गई है
आसमान पे सतरंगी सपनो की घटाएँ छाई है
लगता है जैसे सारी दुिनया एकरंग हो गई है
बन िततली खुले गगन मे वो उड जाएँगी
कह दो जमाने को वो कटी पतंग हो गई है
कलास के सभी कवियों को नमस्कार!
गुरु जी को प्रणाम!
नए लिख्नने वालों से एक बात कहना चाह्ता हूं कि सबसे पहले वो बहर का चुनाव करें फ़िर उस बहर मे लिखी गई ग़ज़लों को कई बार पढ़ें इस तरह उस बहर की एक ताल आपके मन मे बैठ जाएगी, फ़िर एक गीतकार की तरह उस पर ग़ज़ल लिखें..जैसे
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा...
वजन है:2212 1222 2121 22.
इसे बार बार पढ़ें.कम से कम एक दिन, फ़िर इस ताल पर लिखें.
जैसे लोग फ़िल्मी गानों की धुनों पर भजन लिखते हैं.नही तो फ़िर बहर के जाल मे फ़स जाओगे और ये सब उबाऊ लगेगा. मेरा ख्याल है ये सब आपकी मदद करेगा.
you can post me question satpalg.bhatia@gmail.com.
बाकी गुरु जी तो हैं ही जिन्होने इतना अच्छा काम किया ये सब कर के हिंदी ग़ज़ल को आप सब आगे लेकर आएं.बाकी ग़ज़ल तो सिर्फ़ गजल है फ़िर उर्दू मे हो या हिंदी मे. बात भाषा की नही है. निसंदेह उर्दू ने इस विधा को पाला पोसा है वो आदरणीय है और दोनों ही हिंदोस्तां की भाषाएं हैं.
गुरु जी को प्रणाम!
आपका
सतपाल ख्याल
aajkeeghazal.blogspot.com
ढलती शाम
कॉलेज से आती लड़कियों का झुंड जो
पूरे दिन की पढाई से चूर चूर, माथे पर लट बिखराए,
अलसाई आँखों से बिजिलिया
गिराता रोज गुजरता है
और उनसे आँख लड़ाने को, देवी दर्शन पाने को,
चौराहे पर चाय की दुकान पर
मनचलों का टोला रोज आ सिमटता है
जो सीगरेट के धुएं
और गुटके के पीक के बीच
नौकरी, बेकारी और
देश की हालत पर,
बहस करते , और बीच-बीच में
नजरे गड़ाये रंग बिरंगी तितलियों के उभारों पर,
और, सपना देखते हुए काश
चाय के साथ
इनका भी साथ होता।
यह क्यसा दुर्भाग्य है कि
देश का चरित्र इन चाय की दुकानों पर
एक चाय के प्याले पर नीलाम हो रहा है.
आज मैंने आपका 'ग़ज़ल लिखना सीखिए' यह क्रम करीब-करीब पूरा पढ़ा. बहुत अच्छा लगा. मैं खुद कुछ समय से ग़ज़ल लिख रही हूँ मगर रुक्न और वज़्न की बारीकियां ठीक से नहीं समझती थी. क्या आप कृपया वज़्न को और विस्तार से समझा सकते हैं? कुछ और गजलें लें जहाँ अलग अलग वज़्न हों .
गजल
आचार्य संजीव "सलिल"
संपादक दिव्य नर्मदा
salil.sanjiv@gmail.com
sanjivsalil.blogspot.com
1.
असंभव संभावनाओं का समय है
हो रहे बदलाव या आयी प्रलय है?
आचरण के अश्व पर वल्गा नियम की
कसी हो तो आदमी होता अभय है
लोकतंत्री वादियों में लोभतंत्री
उठ रहे तूफान जहरीली मलय है
प्रार्थना हो, वंदना हो, अर्चना हो
साधना में कामना का क्यों विलय है?
आम जन की अपेक्षाओं, दर्द॑ दुख से
दूर है संसद यही तो पराजय है
फसल सपनों की उगाओ "सलिल" मिलकर
गतागत का आज करना समन्वय है
क्या इसे गजल कहेंगे? यदि हां तो इसमें गल्तियां कौन सी और कहां हैं?
सुधार भी सुझायें.
pankaj ji meri ghazal aapke samaksh prastut hai
मेरी निगाह को ये जुस्तजू भला किसकी है,
कौन से हैं लब वहाँ, ये शिफा किसकी है,
अज़ल से खींच कर जो दुनिया में लायी है मुझे,
बता तो सही ऐ खुदा, ये दुआ किसकी है,
जाते हैं कदम तन्हा, ढूँढती है किसे निगाह,
जो खींचती है वालिहाना ये सदा किसकी है,
वो कब होगा आशकार मेरे सामने ऐ खुदा,
कौन है हिजाब में ये आरजू भला किसकी है,
ये किसकी निगाह का जादू कि आईने मचल उठे,
कौन है वो भला, ये अदा किसकी है,
ग़म-ऐ-इश्क में मुश्किल है, लुत्फ़ का मय्यसर होना,
सदा रहें गर्दिश में बशर ये इल्तिज़ा किसकी है.
बशर - my pen name
गुरु जी माफ़ी चाहूँगा, मैंने आपके दिए हुए काफिये को देखे बिना ही एक ग़ज़ल पोस्ट कर दी है.
गुरूजी आपने ग़ज़ल की तक़नीकी के विषय में जो लिखा है वह बहुत ही उपयोगी है. ग़ज़ल लिखने वालों को इससे मार्गदर्शन मिलेगा. आपका बहुत बहुत आभार.
चंद्रभान भारद्वाज.
गुरूजी आपने ग़ज़ल की तक़नीकी के विषय में जो लिखा है वह बहुत ही उपयोगी है. ग़ज़ल लिखने वालों को इससे मार्गदर्शन मिलेगा. आपका बहुत बहुत आभार.
चंद्रभान भारद्वाज.
अपनी एक ग़ज़ल भी प्रेषित कर रहा हूँ:-
पथरा गई पलक पर हरदम नमी रही;
जैसे रुकी नदी में काई जमी रही.
पूरा तना हरा है पर पत्तियां झरीं,
शायद कहीं जड़ों में कोई कमी रही.
उड़ती पतंग कटकर जाने कहाँ गिरी,
बस डोर हाथ में ही फंसकर थमी रही.
बैठी वियोग में तप करती रही उमर,
यादों की भस्म उसके मन पर रमी रही.
घर 'भारद्वाज' कोई ऐसा नहीं मिला,
जिसमें कभी न कोई गम या गमी रही.
चंद्रभान भारद्वाज
सर मुझे अभी इस ब्लॉग का पता चला क्या अभी भी मै अपनी गजल को निरीक्षण हेतु पेषित कर सकता हूँ ????????
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