मेरी स्वच्छंद साँसों में वितत नभ का बसेरा,
मैं खुद मेरा सवेरा!
हैं जगी आशाएँ खोलती पवन के द्वार सारे,
चरण-रज मांगते-फिरते भविष्यत् के नज़ारे,
बना पगडंडियाँ क्रमश: चले आते हैं मुझ तक-
लकीरों में किए घर ,प्रारब्ध के सब सितारे।
स्वयं के तेज से धोया विगत कल का अंधेरा,
मैं खुद मेरा सवेरा!
बना पाषाण-सी हस्ती जगत में जी रहा हूँ,
मधुर सौरभ समझ कर हरेक रस पी रहा हूँ,
निमिष भर के लिए भी नीड़ टूटे ना समय का-
विहग बन ,मैं खुशियाँ चुन रहा हूँ, सी रहा हूँ।
संजोकर है रखा है मैने हृदय में एक चितेरा ,
मैं खुद मेरा सवेरा!
चलो! मुख खोलकर तुम भी हुंकार भर लो,
अपराजेय रहो हर पल,यही आसार भर लो,
खंगाल लो विधि औ' पृथ्वी का हरेक कोष-
जहां को अपना कर लो या प्रतिकार भर लो।
सुनो!प्रकृति के पटल पर रात-दिन मैने उकेरा-
मैं खुद मेरा सवेरा!
-विश्व दीपक 'तन्हा'
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
21 कविताप्रेमियों का कहना है :
मित्र,
आशाएँ लिखने का दावा तो दुनिया में बहुत लोग करते हैं, लेकिन जब लिखो तो ऐसा लिखो कि पढ़ने वाला आशा के समुद्र में डूब जाए।
पूरी कविता अद्भुत है। तुमसे इसी की आकांक्षा रहती है। आज तुमने मेरी कई हफ़्तों की शिकायत दूर कर दी।
हैं जगी आशाएँ खोलती पवन के द्वार सारे,
चरण-रज मांगते-फिरते भविष्यत् के नज़ारे,
बना पगडंडियाँ क्रमश: चले आते हैं मुझ तक-
लकीरों में किए घर ,प्रारब्ध के सब सितारे।
फिर से अद्भुत कहूँगा। हृदय की सभी शुभकामनाएँ आज तुम्हारे लिए।
बन्धु विश्व दीपक जी
चरण-रज मांगते-फिरते भविष्यत् के नज़ारे,
बना पगडंडियाँ क्रमश: चले आते हैं मुझ तक-
लकीरों में किए घर ,प्रारब्ध के सब सितारे।
स्वयं के तेज से धोया विगत कल का अंधेरा,
मैं खुद मेरा सवेरा!
वाह .... अद्भुत शुभकामनाओं सहित
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
बना पाषाण-सी हस्ती जगत में जी रहा हूँ,
मधुर सौरभ समझ कर हरेक रस पी रहा हूँ,
निमिष भर के लिए भी नीड़ टूटे ना समय का-
विहग बन ,मैं खुशियाँ चुन रहा हूँ, सी रहा हूँ।
संजोकर है रखा है मैने हृदय में एक चितेरा ,
मैं खुद मेरा सवेरा!
वाह क्या बात है तनहा जी सुबह सुबह इतनी जोश भरी पंक्तियाँ पढ़ कर अनंद आ गया ... पूरी कविता बहुत सुंदर है
्तन्हा जी,
मन्त्र-मुग्ध कर दिया आपने! बहुत प्यारी रचना है।
हैं जगी आशाएँ खोलती पवन के द्वार सारे,
चरण-रज मांगते-फिरते भविष्यत् के नज़ारे,
बना पगडंडियाँ क्रमश: चले आते हैं मुझ तक-
लकीरों में किए घर ,प्रारब्ध के सब सितारे।
स्वयं के तेज से धोया विगत कल का अंधेरा,
मैं खुद मेरा सवेरा!
बहुत खूब! बधाई।
तनहा जी
मैने हिन्द-यग्म पर हमेशा जिस आशावादिता की पुकार लगाई है वो आज आपने सुनी है ।
कविता पढ़कर दिल खुश हो गया । आपने बहुत ही सुन्दर भाव एवं भाषा का प्रयोग किया है ।
अलंकारों का प्रयोग भी स्वाभाविक है । विशेष रूप से निम्न पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगीं -
बना पाषाण-सी हस्ती जगत में जी रहा हूँ,
मधुर सौरभ समझ कर हरेक रस पी रहा हूँ,
निमिष भर के लिए भी नीड़ टूटे ना समय का-
विहग बन ,मैं खुशियाँ चुन रहा हूँ, सी रहा हूँ।
इतनी सुन्दर रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई ।
वाह!
शब्दशिल्पीजी, आपकी इस कविता नें मन में जोश भर दिया है। बहुत खूबसूरत रचे हो भाई!
चरण-रज मांगते-फिरते भविष्यत् के नज़ारे,
बना पगडंडियाँ क्रमश: चले आते हैं मुझ तक-
लकीरों में किए घर ,प्रारब्ध के सब सितारे।
स्वयं के तेज से धोया विगत कल का अंधेरा,
मैं खुद मेरा सवेरा!
पंक्तियाँ लाजवाब है, बधाई!!!
hummmm..... apki rachnaye humesa lubhati tahengi......is kavita me b bahut sari baate hain jo dil ko chhu gayi......keep it up dear
bahut hi prabhavshali rachna hai...
likhte rahiya...
बना पाषाण-सी हस्ती जगत में जी रहा हूँ,
मधुर सौरभ समझ कर हरेक रस पी रहा हूँ,
निमिष भर के लिए भी नीड़ टूटे ना समय का-
विहग बन ,मैं खुशियाँ चुन रहा हूँ, सी रहा हूँ।
बहुत बहुत सुंदर और आशा से भरी लगी आपकी यह रचना
बेहद ख़ूबसूरत भाव हैं ..बधाई।
सुन्दर शब्दों की लडी में पिरोयी हुयी एक आशावादी कविता के लिये आपको बधायी.
चरण-रज मांगते-फिरते भविष्यत् के नज़ारे
बना पगडंडियाँ क्रमश: चले आते हैं मुझ तक-
लकीरों में किए घर ,प्रारब्ध के सब सितारे।
मधुर सौरभ समझ कर हरेक रस पी रहा हूँ,
निमिष भर के लिए भी नीड़ टूटे ना समय का-
चलो! मुख खोलकर तुम भी हुंकार भर लो,
अपराजेय रहो हर पल,यही आसार भर लो,
खंगाल लो विधि औ' पृथ्वी का हरेक कोष-
जहां को अपना कर लो या प्रतिकार भर लो।
is bar nayi style apnaai hai..aapne aacha laga aisa jaadu nirala ji ki kavitaayon me hua kaarta tha...bahut sundar likha hai...keep moving
बहुत खूब, बहुत ही अच्छी कविता और जोश से भरी । शुरूआत ही बहुत अच्छी है :
"मेरी स्वच्छंद साँसों में वितत नभ का बसेरा,
मैं खुद मेरा सवेरा!"
"स्वयं के तेज से धोया विगत कल का अंधेरा,
मैं खुद मेरा सवेरा!"
ऐसी ही अच्छी कविताएँ और लिखिए .. पढ़ने वालों को भी बहुत आनंद आएगा, और आपको तो आया ही होगा । शुभकामनाएँ ।
वैसे तो इससे काफी अलग है पर आपकी कविता पढ़कर अपनी कालेज के समय लिखी एक कविता याद आ गई फिर से :
http://lalpili.blogspot.com/2006/04/blog-post_24.html
तन्हा जी
बेशक आपने ऍक जोश भरी कविता लिखी है
बधाई
मै सिर्फ़
ये कहना चाहुंगा कि
अगर आपने नज़ारे,हस्ती आदि हिन्दीयेत्तर शब्दो की जगह हिन्दी
के शब्द रखे होते तो प्रभाव और भी बढ़ता
खैर ये मेरी निजी राय है
क्या कहूँ तनहा जी,
आप की कविता कल की दिशा तय करेगी। आप प्रकाश स्तंभ हैं।
बना पगडंडियाँ क्रमश: चले आते हैं मुझ तक-
लकीरों में किए घर ,प्रारब्ध के सब सितारे।
स्वयं के तेज से धोया विगत कल का अंधेरा,
मैं खुद मेरा सवेरा!
चलो! मुख खोलकर तुम भी हुंकार भर लो,
अपराजेय रहो हर पल,यही आसार भर लो,
खंगाल लो विधि औ' पृथ्वी का हरेक कोष-
जहां को अपना कर लो या प्रतिकार भर लो।
सुनो!प्रकृति के पटल पर रात-दिन मैने उकेरा-
मैं खुद मेरा सवेरा!
असाधारण,अध्भुत और अद्वतीय...
*** राजीव रंजन प्रसाद
आपने हिन्द-कविता के कई आयामों को जीवित किया है। पारम्परिक और नई कविता के बीच आप एक पुल बनाने का प्रयास कर रहे हैं। आप यह भी बताते है कि आप त्रिवेणियाँ भी रच सकते हैं और यह भी सिद्ध करते हैं कि गीतों पर भी आपका सामान अधिकार है। आप उदासी के गीत लिख सकते हैं तो आशा की हुंकार भी भर सकते है। अभी आपको बहुत आगे जाना है।
हैं जगी आशाएँ खोलती पवन के द्वार सारे,
चरण-रज मांगते-फिरते भविष्यत् के नज़ारे,
बना पगडंडियाँ क्रमश: चले आते हैं मुझ तक-
लकीरों में किए घर ,प्रारब्ध के सब सितारे।
simply awesome....bahut bahut shubhkamnayen!!!
ab jab itne logon ne kah hi diya to main kya kahoon..jabardast rachna hai..tanha ji macha dete hain..ati sundar rachna..
tanha kavi ji aapki kavita se aapke ander jo josh hai wo spast rup se dikhai pad raha hai..mujhe nimnlikhit panktiyan bahut hi acchi lagi...
बना पगडंडियाँ क्रमश: चले आते हैं मुझ तक-
लकीरों में किए घर ,प्रारब्ध के सब सितारे।
स्वयं के तेज से धोया विगत कल का अंधेरा,
मैं खुद मेरा सवेरा!
बना पाषाण-सी हस्ती जगत में जी रहा हूँ,
मधुर सौरभ समझ कर हरेक रस पी रहा हूँ,
jab vyakti ka manobal itna drid ho sakta hai to uske liye sabhi dwar khul jate hain..neway all the best
Bahut khub VD Bhai...
"Duniya sachmen aapke kadam chumengi..basarte ki u need to have self-confidence..."
"self-confidence se aashaon aur ummidon ka pradurbhav hota hai...aur rasta khud-b-khud ban jata hai...
to doston jaroorat hai sirf dridh sankalp ke sath aage badhne ki.."
Bahut achhi kavita likhi hai VD Bhai..
Badhi sweekar kijiye
विश्व दीपक जी!
इतनी टिप्पणियों के बाद कुछ कहूँगा तो सिर्फ पुनरुक्ति लगेगी. अत: देरी के लिये क्षमा कर हार्दिक बधाई स्वीकारें.
दीपक,
तुम्हारी अधिकांश कविताओं की विशेषता इस्कई दिव्य भाषा है
हिन्दी पर तो आपका पूरा अधिकार है| आप मेरा शब्दकोश बढा रहे हैं
प्रत्येक पंक्ति मोहक है, अद्भुत
खूबसूरत प्रारम्भ फिर कहीं डिगने का भी अवसर नहीं देता
"मेरी स्वच्छंद साँसों में वितत नभ का बसेरा,
मैं खुद मेरा सवेरा"
बाकी फिर तो पूरी कविता आशा जगाती है, प्रेरणास्पद कविता
" जगी आशाएँ खोलती पवन के द्वार सारे,
चरण-रज मांगते-फिरते भविष्यत् के नज़ारे,
बना पगडंडियाँ क्रमश: चले आते हैं मुझ तक-
लकीरों में किए घर ,प्रारब्ध के सब सितारे।"
बहुत सुन्दर
"चलो! मुख खोलकर तुम भी हुंकार भर लो,
अपराजेय रहो हर पल,यही आसार भर लो,
खंगाल लो विधि औ' पृथ्वी का हरेक कोष-
जहां को अपना कर लो या प्रतिकार भर लो।"
प्रभावशाली बिम्ब मंत्रमुग्ध कर देते हैं
आपसे आशायें बढ गयी हैं, हिन्दी को एक और समर्पित उपसक मिल गया है
मंगलकामना
सस्नेह
गौरव शुक्ल
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)