प्रतियोगिता की कविताएँ को पढ़ने का अपना ही अलग मज़ा है। इस माध्यम से हम एक से बढ़कर एक कविताएँ चर्चा के लिए रख पाते हैं। आज बारी है आठवीं कविता की।
कविता- कतरनें अंधेरों की
रचयिता- आनंद गुप्ता, नोएडा (उत्तर प्रदेश)
रोशनी की सेज़ पे आजकल
कतरनें क्यूँ हैं अंधेरों की
रात के आँचल में क्यूँ है
दबी आवाज़ मासूम सवेरों की
चेहरों के पीछे छिपी है
क्यूँ असलियत सारे चेहरों की
है सागर उफनता मगर ख़ामोश
क्यूँ है ज़ुबान लहरों की............1
किसकी लगी है नज़र, कल तक
नज़र आते पाक नज़ारों को
अब तो ज़माना हो गया है देखे
मुस्कुराते बस्ती की दीवारों को..
टूट चुकी है इनकी भी हिम्मत
झेलते-झेलते धोखे के प्रहारों को
अब तो शायद ताक रहे हैं ख़ुद
सहारा देने वाले ही सहारों को.........2
हमदर्दी के दरख्तों को क्या हुआ है
नहीं आती ख़ुश्बू इनके फूलों में
हैं कहने को और दिखाने को बहुत मगर
नही कोई जान बाक़ी अब उसूलों में
गुम हो गयी है इंसानियत कहीं
उड़ रही हर ओर से ख़ुदगर्ज़ी की धूलों में
सुमन दम तोड़ रहे हैं मोहब्बत के
उलझ कर बेवफ़ाई के शूलों में.............3
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८॰२५, ७॰८८०६८१
औसत अंक- ८॰०६५३४०
स्थान- सत्रहवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-७, ८॰०६५३४० (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰५३२६७०
स्थान- तेरहवाँ
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तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-विसंगतियों पर उदासीन-सा स्टेटमेंट कविता में ढलने की ओर-सा है, पर वक्तव्य से आगे जाना कविता के लिए बहुत जरूरी है। यह तीसरे पक्ष का बयान न लगे।
अंक- ४॰५
स्थान- सातवाँ या अठवाँ
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अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
कवि ने बहुत से सामाजिक सरोकारों को आवाज दी है, कविता का प्रवाह प्रसंशनीय है। बिम्ब अथवा प्रस्तुतिकरण में सुन्दरता है किंतु नवीनता नहीं।
कला पक्ष: ७/१०
भाव पक्ष: ६॰५/१०
कुल योग: १३॰५/२०
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पुरस्कार- डॉ॰ कविता वाचक्नवी की काव्य-पुस्तक 'मैं चल तो दूँ' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
आनन्द जी
बहुत अच्छी कविता लिखी है । सचमुच वक्त बहुत बदल गया है । कभी- कभी बहुत निराशा
होती है । मन की इस अवस्था का अच्छा चित्रण किया है आपने । प्रतीक भी अच्छे बन पड़े
हैं । मुझे विशेष रूप से निम्न पंक्तियाँ पसन्द आई-
हमदर्दी के दरख्तों को क्या हुआ है
नहीं आती ख़ुश्बू इनके फूलों में
हैं कहने को और दिखाने को बहुत मगर
नही कोई जान बाक़ी अब उसूलों में
गुम हो गयी है इंसानियत कहीं
उड़ रही हर ओर से ख़ुदगर्ज़ी की धूलों में
सुमन दम तोड़ रहे हैं मोहब्बत के
उलझ कर बेवफ़ाई के शूलों में.............
मुझे तो यही लगता है कि ये आधुनिकता की देना है । एक अच्छी अभिव्यक्ति के
लिए बधाई ।
आनंद जी,
आपको पढ़कर आनंद आ गया। हालांकि थोड़ी आशावादिता का समावेश होता तो और मजा आता।
किसकी लगी है नज़र, कल तक
नज़र आते पाक नज़ारों को
अब तो ज़माना हो गया है देखे
मुस्कुराते बस्ती की दीवारों को..
आपके कहने का ढंग पसंद आया।
kavita bahut acchi lagi...dard ko apne barkarar rakkha...
likhte rahiye...
बहुत अच्छा शब्द संयोजन, हर पंक्ति गहरे से छू जाती है ... बहुत बहुत बधाई
गुम हो गयी है इंसानियत कहीं
उड़ रही हर ओर से ख़ुदगर्ज़ी की धूलों में
सुमन दम तोड़ रहे हैं मोहब्बत के
उलझ कर बेवफ़ाई के शूलों में
सुंदर लगी यह कविता आपकी ..बधाई
हमदर्दी के दरख्तों को क्या हुआ है
नहीं आती ख़ुश्बू इनके फूलों में
हैं कहने को और दिखाने को बहुत मगर
नही कोई जान बाक़ी अब उसूलों में
गुम हो गयी है इंसानियत कहीं
उड़ रही हर ओर से ख़ुदगर्ज़ी की धूलों में
सुमन दम तोड़ रहे हैं मोहब्बत के
उलझ कर बेवफ़ाई के शूलों में.............
आनंद गुप्ता जी, बेहद प्रभावित किया आपने।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आपकी कविता में नयेपन का सर्वथा अभाव है, लेकिन यह कविता आपमें संभावनाओं की खिड़कियाँ खोलती हैं। अगली बार के लिए शुभकामनाएँ।
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