मीडिया की पढ़ाई के लिए दिल्ली आया था और अपने कुछ अलग ही अनुभव रहे इस चकाचौंध भरी दुनिया के.... आप भी मज़ा लीजिये मेरे इन अनुभवों का.....
माँ की बासी रोटी से भी फीका खाकर
खुश होने का अभिनय कर 'टिप' देकर जाना..
घर का चौका छूटा, होटलों की मेज़ों पर,
सीख रहा हूँ, मुँह के भीतर, चम्मच से चावल सरकाना
बाबूजी का आधा वेतन कार्ड घुसाकर जेब में भरना,
गर्लफ्रेंड के साथ ज़रा सी दूरी पर भी ऑटो करना,
और बहुत कुछ सीख रहा हूँ....
सीख रहा हूँ नया ककहरा, जादू-मंतर,
सीख रहा हूँ, "माँ की गाली" का अंग्रेज़ी रूपांतर,
सीख रहा हूँ, बिस्तर की सिलवट को कैसे ख़बर बनायें,
सीख रहा हूँ, माँ कैसे बाज़ार में आए,
टोन-टोटके, सांप-भूत मेरे अध्याय...
नया दौर है, भूख-गरीबी भांड में जाए..
और बहुत कुछ सीख रहा हूँ.....
सस्ती चप्पल, सीधी-सादी कद-काठी क्या काम आएगी,
सीख रहा हूँ "सबसे तेज़" दिव्य नरों संग उठाना-चलना..
माँ हैं "ममी", पिता "डेड" हैं समझ चुका हूँ,
सीख रहा हूँ, हाक़ीम की अँगुली दबते ही रंग बदलना..
सास-बहू के गढ़ विज्ञापन, हिट हो जाना, माल कमाना..
नटनागर आसा बापू को किसी "तेज़" चैनल का ब्रांड बनाना....
और बहुत कुछ सीख रहा हूँ....
अंग्रेज़ी में गिटपिट करना, बातें गढ़ना, जीन्स पहनना,
सीख रहा हूँ, सिगरेट के धुएँ जैसी लहराती बोली,
तन कर चलना, बिना बात इतराते रहना..
"टैटू कल्चर' सीखा, भूला चंदन-रोली...
पेशेवर बनने की ज़िद है, सब चलता है..
किसे पड़ी है, पूरब में सूरत ढलता है.....
मैं मीडिया का एक छात्र
बनने आया था ख़बरनवीस
बन कर रह गया
एक बाज़ारू ख़बर मात्र....
(गत २ नवम्बर २००७ को अशोक चक्रधर के अखाड़े में इसी कविता के लिए मुझे तृतीय पुरस्कार प्राप्त हुआ था।)
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
निखिल जी !!!!
बहुत ही सुंदर रचना है..... मन के अवसाद को बहुत ही बेहतर रूप देकर प्रस्तुत किया है .....दरअसल आपने जो भी लिखा है वो काफी हद तक शहरी जीवन की सच्चाई को दर्शाती है .....
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अंग्रेज़ी में गिटपिट करना, बातें गढ़ना, जीन्स पहनना,
सीख रहा हूँ, सिगरेट के धुएँ जैसी लहराती बोली,
तन कर चलना, बिना बात इतराते रहना..
"टैटू कल्चर' सीखा, भूला चंदन-रोली...
पेशेवर बनने की ज़िद है, सब चलता है..
किसे पड़ी है, पूरब में सूरत ढलता है.....
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बधाई !!!!!
मैं आप की बात से सहमत हूं। खासतौर से जब आपको इस रचना के लिये अवार्ड भी मिल गया है। लेकिन बंधु आज भी इस दुनिया में--और मैट्रोपोलिटन शहर में भी-- ऐसे लोग है जो लहरो के खिलाफ चलते है। ना केवल चलते है बल्कि नदी को पार भी कर जाते है।
बहुत ही सुंदर रचना है. पुरस्कार की बधाई।
निखिल जी,
साधारण शब्दों में भी आपने बहुत कुछ कह डाला।
खासकर शहर की बनावटी जीवन-शैली.....
सच को मुखरित करती रचना के लिए बधाई।
निखिल
अच्छा व्यंग्य है परन्तु यह भी सत्य है, बहती धारा के विरूद्ध चलने का भी अपना ही मजा है
स्नेह
बहुत बढिआ व्यंग्य है।बधाई।
भाई सचमुच ही पुरस्कार योग्य व्याग है, मज़ा आया.... बहुत बहुत बधाई
कविता अच्छी है । ऐसे ही उन चीजों के बारे में लिखते रहिए जो हमारे जीवन में बनावटी पन पैदा कर रही हैं और हम उन्हीं को उपलब्धिमानकर भ्रम में लिप्त है ।
निखिल जी ..
आपकी इस कविता ने मुझे भाव-विह्वल कर दिया ..दिल से कहू तो इस कविता की जितनी भी प्रशंशा की जाये कम है ...मैं भी एक मीडिया का विधार्थी हूँ ..अतः आपकी भावना की सच्चाई को समझते हुए उसकी कद्र करता हूँ ...यह कविता पता नहीं क्यों ..मुझे अपने से जुड़ती हुई लगी ....बहुत खूब ..
माँ की बासी रोटी से भी फीका खाकर
खुश होने का अभिनय कर 'टिप' देकर जाना..
घर का चौका छूटा, होटलों की मेज़ों पर,
सीख रहा हूँ, मुँह के भीतर, चम्मच से चावल सरकाना
बाबूजी का आधा वेतन कार्ड घुसाकर जेब में भरना,
गर्लफ्रेंड के साथ ज़रा सी दूरी पर भी ऑटो करना,
और बहुत कुछ सीख रहा हूँ....
सब कुछ सच है ...
जितना जल्दी सीख जाओगे, उतना सुखी रहोगे।
अच्छा चित्रण है.
माँ की बासी रोटी से भी फीका खाकर
खुश होने का अभिनय कर 'टिप' देकर जाना..
घर का चौका छूटा, होटलों की मेज़ों पर,
सीख रहा हूँ, मुँह के भीतर, चम्मच से चावल सरकाना
अच्छी है.
बधाई.
अवनीश tiwaree
:) वहाँ सुनी थी तब भी बहुत बहुत पसंद आई थी और यहाँ पढ़ के इसको बहुत ही अच्छा लगा
सच में ही इनाम के हकदार है यह कविता ..निखिल आपकी ..बधाई आपको एक बार फ़िर से :)
बहुत सही निखिल जी बहुत सही..
गजब का कटाक्ष
उतर गयी दिल में आपकी ये रचना..
अब तो मुश्किल है हमारा बचना...
मर गये हम तो..
अब आप भी कातिल कहलाओगे..
हाँ मेरी शुभ-कामनाये लेते जाओ.
इन्हीं कातिलाना हमलों से..
पुरस्कार पाओगे..
सीखिये- सीखिये...सीखना ज़रूरी है.
निखिल
बहुत खूब । अच्छा लिखा है। लिखते रहो ।
निखिल जी सुन्दर लिखा है आपने और कल इसे सस्वर सुनने में और भी आनन्द आया.
सीख रहा हूँ नया ककहरा, जादू-मंतर,
सीख रहा हूँ, "माँ की गाली" का अंग्रेज़ी रूपांतर,
सीख रहा हूँ, बिस्तर की सिलवट को कैसे ख़बर बनायें,
सीख रहा हूँ, माँ कैसे बाज़ार में आए,
निखिल जी,
दर्द को व्यंग्य में आपने बखूबी उतारा है। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
आप व्यंग्य की कार्यशाला आयोजित करें, पहला प्रशिक्षु मैं होना चाहूँगा। बहुत खूब!
सभी का धन्यवाद........
शैलेश जी, आप प्रशिक्षु हों तो कार्यशाला उच्चस्तरीय हो जायेगी....कैसे संभालेंगे हम.........
निखिल
हर काव्य देह की पीड़ा है ! विचलित विचार है केवल मन !! ना जाने क्यों मुझे मेरी अधूरी कविता याद आ गई आपकी अभिवक्ति में . रचना सराहनीय है .
Bahoot Khoob Nikhil Bhai...
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