मैं जो कविता प्रस्तुत करने जा रहा हूँ , उसके पृष्टभूमि में है एक युवक- शिखर। शिखर शहर जाकर रोजगार करना चाहता है , लेकिन उसके माँ-बाप चाहते हैं कि वह गाँव में हीं रहे। शिखर पहले तो अपने स्वजनों को मनाने की कोशिश करता है, लेकिन असफल होने पर , उन्हें भाव-विभोर कर शहर के लिए निकल जाता है।
माँ, आँचल में तेरे कुछ ओस छोड़ जाता हूँ,
तेरी गोद में फैला मेरा फिरदौस छोड़ जाता हूँ।
सूरज के शंखनाद से,
दिल मे छुपे विषाद से,
बाबा के आशीर्वाद से,
सफर में हमसफर-सी कुछ यादों की पोटली है, माँ!
तू फिक्र ना करना यहाँ,
तेरे लाल के ओठों पर वादों की डली है ,माँ!
इस खेतिहर के खेत की
हर खाद बावली है ,माँ!
ख्वाबों का गुलशन क्यों , जानिब आपके बिखर रहा,
बाबा! आपने हीं तो कभी, मेरा नाम था शिखर रखा।
पगडंडियों की ढाल पर,
इस वक्त के करवाल पर,
अस्तित्व के सवाल पर,
मेरी ऊंगलियों में छल्ले-सा , हर पल सजे तो तुम ही थे,
रिश्तों के रंग-रोगन से
सपनों के कैनवास पर चमके-जमे तो तुम हीं थे,
अब फिक्र क्यों फ़िराक की,
कह दो ,फ़ख्र है अब तुम्हे।
तेरी लोरियों की कसम है माँ, तुझे संग रूलाता जाऊँगा,
मंजिल पर कदम हो फिर भी मैं,तुझको हीं बुलाता जाऊँगा।
बाबा! तेरे पीठ पर चढकर मैं, तारों को उतारा करता था,
इक दिन तारों से झांककर मैं, कुछ दर्द जगाता जाऊँगा ।
बुनियाद तोड़कर यहाँ,
राहों को मोड़कर यहाँ,
मन को मरोड़कर यहाँ,
घर और शहर के बीच में ,कुछ साथ ढूँढने चला,
जीवन के जलते जल में मैं,
लम्हों-से सर्द शोलों की बरसात ढूँढने चला,
रिश्तों-से रीसते रस्तों पर,
मंजिल से मुलाकात ढूँढने चला।
अंत में एक शेर है-
सुनते थे हम -सारी मंजिलें ,बस रास्तों के दर पर हैं,
आज जाना , उड़ना पड़ता है, क्योंकि ये तो सिफर पर हैं।
*फिरदौस- स्वर्ग
*जानिब - की ओर
*फ़िराक - विरह
*सिफर -आसमान
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
तनहा जी हमेशा की तरह आपकी यह सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति है, पढकर कोई भी भाव विभोर हो सकता है।
जीवन के जलते जल में मैं,
लम्हों-से सर्द शोलों की बरसात ढूँढने चला,
रिश्तों-से रीसते रस्तों पर,
मंजिल से मुलाकात ढूँढने चला।
बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मित्र दीपक!!!
बहुत बढिया लिखा है आपने ..... भाव बहुत अच्छे है ....
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माँ, आँचल में तेरे कुछ ओस छोड़ जाता हूँ,
तेरी गोद में फैला मेरा फिरदौस छोड़ जाता हूँ।
सूरज के शंखनाद से,
दिल मे छुपे विषाद से,
पगडंडियों की ढाल पर,
इस वक्त के करवाल पर,
अस्तित्व के सवाल पर,
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हर बार की तरह शब्दों का बहुत ही बेहतर प्रयोग किया है.......कोई कमी दिखाई नही देती.... हर पंक्ति कुछ न कुछ याद दिलाती है या कुछ कह जाती है.....
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तेरी लोरियों की कसम है माँ, तुझे संग रूलाता जाऊँगा,
मंजिल पर कदम हो फिर भी मैं,तुझको हीं बुलाता जाऊँगा।
बाबा! तेरे पीठ पर चढकर मैं, तारों को उतारा करता था,
इक दिन तारों से झांककर मैं, कुछ दर्द जगाता जाऊँगा ।
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शुभकामनाये!!!!
तन्हा जी,
रम्य रचना के लिए बधाई।
जीवन के जलते जल में मैं,
लम्हों-से सर्द शोलों की बरसात ढूँढने चला,
रिश्तों-से रीसते रस्तों पर,
मंजिल से मुलाकात ढूँढने चला।
आप्के शब्द-संयोजन और भाव दोनों को दाद देनी होगी।
माँ, आँचल में तेरे कुछ ओस छोड़ जाता हूँ,
तेरी गोद में फैला मेरा फिरदौस छोड़ जाता हूँ।
वाह बहुत ही सुंदर भाव पूर्ण प्रस्तुति है तनहा जी, पर शुरुवात जितनी उत्कृष्ट है, बाद में कविता अपनी पकड़ थोडी ढीली कर देती है, पर फ़िर भी दमदार है
वाह उत्तम है.
बधाई.
अवनीश तिवारी
बहुत बहुत सुंदर दीपक ..भाव विभोर कर देने वाली रचना है यह ..
सुनते थे हम -सारी मंजिलें ,बस रास्तों के दर पर हैं,
आज जाना , उड़ना पड़ता है, क्योंकि ये तो सिफर पर हैं।
बहुत सुंदर लिखते हैं आप ..बधाई आपको
तनहा जी
भावपूर्ण कविता । बुनियाद तोड़कर यहाँ,
राहों को मोड़कर यहाँ,
मन को मरोड़कर यहाँ,
घर और शहर के बीच में ,कुछ साथ ढूँढने चला,
जीवन के जलते जल में मैं,
लम्हों-से सर्द शोलों की बरसात ढूँढने चला,
रिश्तों-से रीसते रस्तों पर,
मंजिल से मुलाकात ढूँढने चला।
बहुत सुन्दर । बधाई
तन्हा जी,
सुन्दर भाव भरी कविता पढने में बहुत आनन्द आया.....वधायी
Bahut achhi kavita hai VD Bhai...
Badhai Sweekar karen...
तन्हा जी!
क्या कहूँ..........रूकिये!!!
ज़रा आँख पोंछ लूँ।
....बहुत अच्छा लिखा है आपने.......
माँ, आँचल में तेरे कुछ ओस छोड़ जाता हूँ,
तेरी गोद में फैला मेरा फिरदौस छोड़ जाता हूँ।
बाबा! तेरे पीठ पर चढकर मैं, तारों को उतारा करता था,
इक दिन तारों से झांककर मैं, कुछ दर्द जगाता जाऊँगा ।
वह दीपक जी ..बहुत बढियां ....बधाई हो .....
तन्हा जी,
क्या बात है! आपकी कविता ने तो बावविभोर कर दिया। आज का लिखा अधिकतर अंदाज़ मुझे पसंद आता है।
वाह शब्द-शिल्पीजी,
आपने तो भाव विभोर कर दिया, कमाल के भाव हैं और शब्द-संयोजन भी हमेशा की तरह बेहतरीन...
बाबा! तेरे पीठ पर चढकर मैं, तारों को उतारा करता था,
इक दिन तारों से झांककर मैं, कुछ दर्द जगाता जाऊँगा ।
जीवन में आगे बढ़ने का सपना तो सभी देखते है मगर उसका यह पहलू सिर्फ़ आपने देखा है... बहुत खूब! बधाई स्वीकार करें।
सस्नेह,
- गिरिराज जोशी
वाह!!! आपकी रचना बहुत खूबसूरत है..
जिस प्रश्त्भूमि को आपने चुना है... उसपर हर तथ्य को ध्यान मै रख कर
शब्दों मै पिरोया है...मै तो आपकी अगली रचना पड़ने का इंतज़ार कर रहा हूँ
एक और अच्छी बात ये है..की कविता के अंत मै शब्दार्थ दिए है..
ये पंक्तिया दिल को छू गयी.. बधाई स्वीकार करें
सुनते थे हम -सारी मंजिलें ,बस रास्तों के दर पर हैं,
"आज जाना , उड़ना पड़ता है, क्योंकि ये तो सिफर पर हैं।"
सादर
शैलेश
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