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Saturday, November 10, 2007

हिन्द-युग्म साप्ताहिक समीक्षा- १५


0९ नवम्बर 2007 (शुक्रवार)
हिंद-युग्म साप्ताहिक समीक्षा : 15
(29 अक्टूबर 2007 से ४ नवम्बर 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)


दोस्तो,

एक हफ्ते की गैर हाजिरी के बाद साप्ताहिक समीक्षा के साथ स्तंभकार अपनी उपस्थिति रिपोर्ट कर रहा है। कितना सुखद है कि संयोगवश आज दीपावली है। आप सब को आलोक पर्व की अनंत शुभकामनाएं-

शुभम् करोति कल्याणं आरोग्यं धन संपदाः शत्रुबुद्धि विनाशाय दीप ज्योति नमोस्तुते ।

इस बार १२ कविताएँ विचारार्थ आई हैं....तो 'आओ विचारें'.

१. आग पानी..( नीरज गोस्वामी) अच्छी ग़ज़ल है। छंद और प्रास का निर्वाह उत्तम है। शीर्ष पंक्तियाँ सौदार्यानुभूति के प्रभाव को कलात्मक ढंग से व्यक्त करती हैं। प्रेमपात्र किस पल औरों से अलग हो जाता है, यह तीसरे अंश में देखा जा सकता है। अधिकतर कथन वक्रता से युक्त हैं। अन्तिम अंश उपेक्षितों की क्षमता के प्रति कवि के विश्वास का प्रतीक है।

२. जीत लो..(श्रीकान्त मिश्र 'कान्त') में आद्यांत यदि आद्यंत होता तो ज्यादा फबता : आदि+अंत=आद्यंत(इ+अ=य)। एक मनुष्य के रूप में कवि का आत्मविश्वास (और आत्म दर्प भी) इस रचना में प्रकट हुआ है। तात्विक विषय पर कविता लिखना चुनौती पूर्ण तो होता ही है! इन्द्रियों के (की नहीं) पाश में बंधा पशु भला परब्रह्म (ब्रह्म से परे) की भला कैसे पहचान कर सकता है? मैं और तू की अद्वैतता को तो सो जानै जो पावै!

३. आख़िर कब..(राजीव रंजन प्रसाद) में हमारे सामाज के एक भारी कलंक का कारुणिक विवरण दिया गया है। भारतीय परम्परा में गुरु को इश्वर और माता-पिता के समान माना गया है। माना जाता है कि गुरु अपने पास आने वाले शिष्य को इस प्रकार पाल पोसता है जिस प्रकार माँ अपने गर्भ को पालती पोसती है। वह शिष्य को आश्वासन देता है कि मैं तुझे गर्भ की तरह धारण करूंगा। इसका अभिप्राय है कि गुरु के निकट शिष्य उतना ही निरापद है जितना माँ के गर्भ में शिशु। गुरु और शिष्य पुरूष और स्त्री नहीं होते। परन्तु आज आदर्श की ये बातें हमारे हाथ से छूटी जा रही हैं। यही कारण है कि हमारी बेटियाँ गुरु के सान्निध्य में भी अरक्षित हैं, यह पुरूष की शाश्वत पशुता का तो प्रतीक है ही, हमारी मूल्यभ्रष्टता का भी सूचक है। रही बात किसी दिव्य शक्ति के प्रकट न होने की, तो सच तो यही है कि कभी कोई दिव्य शक्ति प्रकट नहीं होती!

४. ख्वाहिश (मोहिंदर कुमार) में कवि की कुछ भली इच्छाएं व्यक्त हुई हैं। विशेषकर जब आश्वासनों को आरोप से जोड़ने की इच्छा की जाती है तो इस का अर्थ प्रेम के सन्दर्भ में भी उतना ही प्रासंगिक प्रतीत होता है जितना राजनीति और प्रशासन के सन्दर्भ में। बात टैब और आफ हो जाती है जब घाटियों की ओर बहने वाली धाराओं को मरुस्थलों की ओर मोड़ा जाता है-सारी योजनाओं के लाभ पूंजीपतियों को मिल रहें हैं और सर्वहारा वर्ग सब कुछ से वंचित रह जाता है, मरुस्थल की तरह। कविता का विकास धर्म के नाम पर होने वाले भेद भाव को मिटने की इच्छा, हर भ्रम को तोड़ने की इच्छा तथा हर किसी के लिए खुशबू और रोशनी फैलाने की इच्छा के साथ हुआ है।

५. तेरे ख़त..(पंकज) से पता चलता है कि प्रेम-पत्र में प्रेमी का अपना अस्तित्व एकमेक होता है- इतना एकमेक कि उन्हें जलाना खुद को मिटाने के बराबर हो जाता है। पत्रों के साथ-साथ यादें भी जलाई जा सकें शायद; पर सच तो यही है कि यादें कभी नही जलतीं। तीसरे अंश में 'राख के टुकडों' प्रयोग थोड़ा चिंत्य है क्योंकि राख के टुकड़े नहीं हो सकते, कण शायद हो सकते हों।

६. सुहानी..(रंजू) संयोगानुभूति का बयान है. रात, सपने, चाँद, रातजगा, चांदनी की चादर, पेड़ और लता, पुष्पित होना, सीपी में बूँद का मोती बनना, प्रेरणा बीज, सुरीली सी आहट और सुहानी सुबह जैसे प्रतीक और बिम्ब प्रिय-मिलन से लेकर नव सृजन तक की पूरी प्रणय यात्रा को समेटे हुए है। 'नई गीत' को 'नए गीत' कर लें तो बेहतर होगा।

७. विरह वेदना (विपिन चौहान 'मन') में विरह की विविध दशाओं-विशेषकर स्मृति-का उद्घाटन है। सखी वे मुझसे कह कर जाते (यशोधरा) की याद दिलाते हुए भी यह गीत उससे भिन्न है। उपेक्षिता नायिका की पीड़ा हर अंश में उभर कर आई है। रंजू के लिए जहाँ सीपी में बंद बूँद सी प्यार की बारिश घनेरी मोती सी खिल के बिस्तर की सलवटों में सपनों में खो रही है, वहीं विपिन की नायिका को बिस्तर की हर सिलवट से है महक तुम्हारी ही आती इसीलिए तुम और किसी के हो जाओ ये मुझे नहीं होने देगी -समर्पण की यह अनन्यता इस गीत को दाम्पत्य प्रेम का औदात्य प्रदान करती है।

८॰ दोहराव (सजीव सारथी) में आतंकग्रस्त परिवेश की वीभत्सता और भयावहता को मार्मिक अभिव्यक्ति मिल सकी है। तारी के साथ तारा - सामान्य शब्द का विशिष्ट प्रयोग लगता है। छिड़ी चादर से टपकते खून से धरती के दामन का सुर्ख होना ऐसा गत्यात्मक दृश्य बिम्ब है जो खुदा के नाम पर हो रहे खून खराबे को साकार करता है _सच ही बहता हुआ यह खून खुदा का है।

९. छन (अवनीश गौतम) में लोक शैली का प्रयोग आकर्षक है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में विवाह के अवसर पर फेरों के बाद वर से छन सुने जाते हैं -ससुराल पक्ष की महिलाओं के बीच। छन का पूर्वार्ध टप्पे की तरह निरर्थक होता है तथा मूल कथ्य उत्तरार्ध में रहता है। छन = छंद। आधुनिक कवियों को इस शैली का प्रयोग असंगतियों पर चोट कराने के लिए करना चाहिए जैसा कि इस कविता में किया भी गया है. हम ,प्यार और पैसे से जो तरीकों इस रचना में बना है ,वह अत्यन्त सहजता से असंगति को उभारता है। लोक ही ताजगी का स्रोत है!

१०.त्योहारों का मौसम (शोभा महेन्द्रू) में कवि की समाज के आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के प्रति चिंता और सहानुभूति की आवाज़ सुनाई देती है। बाज़ारवाद के मोहक हथकंडों में धर्म और आस्था का भी शामिल हो जाना हमारे वक़्त की एक बेहद सच्चाई है। कविता का हताश अंत कुछ जमा नहीं.-बुद्धिजीवी निष्क्रियता !

११. बुधिया ,भाग -६ (विपुल शुक्ला) इस शृंखला की अन्य रचनाओं की तरह ही करुणा और त्रास पैदा कराने में सक्षम है। साथ ही समाज के वंचित वर्ग और उसमें भी विशेष रूप से स्त्री की पीड़ा और असहायता को उकेरने में कवि सफल है। दीनता को बिम्बित कराने वाले अंश अत्यन्त मारक हैं और पाठक की चेतना पर प्रहार करते हैं। भगवान् का सन्दर्भ यह बोध कराता है कि वर्ग वैषम्य पूंजीपतियों द्वारा पैदा किया जाता है और भगवान्, भाग्य तथा जन्म जन्मांतर के झूठ के सहारे धर्म के ठेकेदार उसे बनाए रखने में अपना सहयोग देते हैं। विपथित अंत इस व्यवस्था पर कड़ा व्यंग्य करता है।

१२. मैं (निखिल आनंद गिरि) में शब्द के बहाने व्यक्ति की काल यात्रा को रूपायित किया गया है। शब्दों के हांफने, आंखों में अतीत के गड़ने और सपनों की जगह आंखों में आइनों के पेड़ उगने जैसी उक्तियों में विचलन का आकर्षण है। आगे इसी रूपक का बखूबी विस्तार किया गया है। अंत भी काफी व्यंजनापूर्ण है।


हाँ तो दोस्तो ! ये थीं आज की बारह कविताएँ. अगर कहूं कि रचनाकारों का सामाजिक सरोकार , आत्मानुभूति और अभिव्यक्ति कौशल प्रशंसनीय है , तो इसे तनिक भी झूठ न मानिएगा।

आज इतना ही .
इति विदा पुनर्मिलनाय

आपका
ऋषभदेव शर्मा

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7 कविताप्रेमियों का कहना है :

Sajeev का कहना है कि -

पिछली बार आपकी कमी बहुत खली, आपकी सूक्ष्म छलनी से चान कर न उतरे टू कविता अधूरी सी लगती है , बहुत बहुत धन्येवाद

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

ऋषभ जी,

आप समीक्षा लेकर प्रस्तुत हो गये। हिन्द-युग्म पर पुनः रौनक आ गई। आपकी समीक्षा हिन्द-युग्म के कवियों में ऊर्जा भरने का काम करती है।

विश्व दीपक का कहना है कि -

ॠषभ जी,
मझे भी पिछली बार आपकी कमी खली, क्योंकि इस बार मेरी कोई कविता नहीं है, पिछली बार जो थी , उसपर आपके विचार जानने की तीव्र इच्छा थी मुझे। लेकिन कोई नहीं, बाकी कवि-मित्रों को तो निस्संदेह हीं फायदा हुआ है। आप ऎसे हीं हमारा मार्ग-दर्शन करते रहें।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

आदरणीय ऋषभ जी,

आपके स्तंभ की वैसे ही प्रतीक्षा रहती है जैसे कि स्कूल के दिनों में मार्कशीत की। आभार कि स्वास्थ्यलाभ कर आप पुन: मार्गदर्शन हेतु प्रस्तुत हैं। दीप-पर्व की शुभकामनायें।

*** राजीव रंजन प्रसाद

रंजू भाटिया का कहना है कि -

समीक्षा पढे बिना अब कुछ अधूरा सा लगता है ...धन्यवाद ऋषभ जी

शोभा का कहना है कि -

ऋषभ जी
आपकी टिप्पणी बहुत ही सटीक और निष्पक्ष होती है । इसमें आत्म-विश्लेषण तथा स्व परीक्षण का अवसर रहता है ।

नीरज गोस्वामी का कहना है कि -

ऋषभ जी
सबसे पहले तो इतनी देर से टिप्पणी करने पर माफ़ी मांगता हूँ किन्ही अपरिहार्य कारणों से समय पर टिप्पणी नहीं कर सका. आप की टिप्पणी करने की कला का मैं प्रशंशक हूँ. आप ने मेरी ग़ज़ल पर जो लिखा है सटीक है लेकिन उसका एक शेर "आग पानी फलक ज़मीन हवा, और क्या चाहिए बता रब से " जिसमें मैंने पांच तत्वों का ज़िक्र किया है शायद अपनी बात पाठकों तक ठीक से पहुँचा नहीं पाया. मेरा कहना था की की इश्वर ने ये पाँच तत्त्व हमें बिना मांगे दिए हैं फ़िर उससे और कुछ मांगने की ज़रूरत ही नहीं है. आप का इस शेर पे क्या कहना है ?
नीरज

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