चुनाव आयोग में सभी प्रतिभागी उम्मीदवार जमा हैं,
आयु सीमा निर्धारित है
तभी तो कुछ सठियाये धुरंधर
दांत पीस रहे हैं बाहर खड़े,
प्रत्यक्ष न सही परोक्ष ही सही,
भेजे है अपने नाती रिश्तेदार अन्दर,
जो आयुक्त को समझा रहे हैं या धमका रहे हैं,
"जानता है मेरा....कौन है" की तर्ज पर...
बाप, चाचा, ताया, मामा, जीजा आप खुद जोड़ लें...
पर अफ़सोस कि उनमें से भी अमूमन,
पाए नहीं आयोग ने उम्मीदवारी के काबिल,
कोई क्रिमिनल केस में फंसा है,
तो कोई नहीं है दसवीं भी पास शेर दिल,
अब आयुक्त को कौन समझाए,
पढाई लिखाई का यहाँ क्या काम भाई,
देश ही तो चलाना है,
कौन सा जमा घटा कराना है...
और फिर रामदीन किसान भी तो अगूंठाछाप है,
और अपंग बिस्मिल ने तो कभी स्कूल का दरवाज़ा भी नहीं देखा,
पर उम्मेदवारी दे दी, कि सच्चे दिल से लोगों में काम किया है,
ये तो नाइंसाफी हुई,
चीख चीख कर बाहर खड़े नेता जनता को भड़का रहे थे,
पर ये क्या, जनता है कि भड़क ही नहीं रही,
न ही नारे लग रहे हैं जयजयकार के...
आखिर ये हो क्या गया है...
आयोग की परीक्षा में सफल उम्मीदवारों को देश की,
तमाम तकलीफों की जिन्दा तस्वीरें दिखलाई गयी,
जम कर बहस हुई, और विचारधारा की समानता के आधार पर
दो खेमों में बाँट दिया गया,
हर खेमे ने चुना अपना एक नेतृत्व,
अब बारी जनता की थी,
मैंने भी अपना वोट दिया,
और पहली बार महसूस किया कि -
लोकतंत्र में मेरा भी कोई स्थान है,
कोई भी खेमा जीते, सत्ता पक्ष या विपक्ष,
मुद्दा तो विकास ही रहेगा,
जात, धर्म, भाषा के नाम पर बंटवारा अब और नहीं...
तभी किसी ने नींद से जगाया,
कहीं सपना तो नहीं था जो अब तक देखा,
सपना ही होगा.....आज वोटिंग की तारीख है,
जिसे मेरा वोट नहीं उसे मैं सत्ता से दूर रखना चाहता हूँ,
जिसे वोट दे रहा हूँ, उससे भी कुछ उम्मीदें नहीं,
पर विकल्प क्या है....????
फिर एक बार मन को तसल्ली दूंगा,
आखिर वोट न देकर भी मैं क्या उखाड़ लूँगा...
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
आपने जो कविता का कुनबा बसा रखा है वह काबिलेतारीफ है। इससे नये रचनाधर्मियों को जो उर्जा मिल रही है आप निश्चित ही उसके पुण्य के भागीदार हैं।
bahut achhi rachna
वर्तमान दिशाहीन राजनीति, आत्म-केन्द्रित, स्वार्थी नेताओं और चुनावी अस्त-व्यस्तता पर सटीक कटाक्ष
सजीव जी,,
काहे लिख दिया कविता का आखिरी पैराग्राफ,,,,?
आप नहीं जानते के कितना आनंद आ रहा था पढ़कर,,,,
""और जनता है के भड़क ही नहीं रही थी ,,,,""
एक नयी ही दुनिया में आ गए थे हम तो,,,,
अब फिर वही ला दिया आपने,,,,
आखिर मैं वोट देकर भी क्या,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
बहुत दिनों बाद सजीव जी को "कविता"-मंच पर देखकर अच्छा लगा। आपकी कविता विचारोत्तेजक है और अंत आते-आते थोड़ी-सी आशावादी(या निराशावादी..मुझे एक हीं पंक्ति (और वोट नहीं देकर क्या उखाड़ लूँगा) में दोनों भाव दिखे) भी हो जाती है।
वैसे तो शैलेश जी यह कहने में माहिर हैं,लेकिन आज मैं कहता हूँ...कविता में कई जगह बिना जरुरत के अल्पविराम(,) लगाया गया है,जो कविता की गति को रोक रहा है। इसपर ध्यान दीजियेगा।
बाकी चुनाव का मौसम है और अगर इसपर कविता नहीं आती तो मौसम खाली-खाली-सा लगता। अच्छा प्रयास। बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
सजीव जी,
आज की राजनीति के मर्म पर चोट करती कविता अंत में पलायन की ओर देखती है। या ऐसे किसी निर्णय को इंगित करती है जो ग्राह्य नही हो सकता क्योंकि जब चुनाव आहूत हैं तो देव पूजन हेतु हमारे जैसे हवि की पूछ-परख तो होगी ही और समिधा के रूप में कोई सलाह / समझाईश नही केवल वोट ही ग्राह्य होगा।
चिंतन कराती / सोये मन झकझोरती कविता के लिये बधाईयाँ।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
पहले सच सच ,,, बताओ किस किस को लगा यह कविता हे ,,,
हमें लगा जैसे कोई कहानी हे ,,, जिसे लाइंस को अलग लग कर दिया है और...
जबरन पाराग्राफ बनाया हे ई ,
मजाक बना दिया हैकाव्य का ,
कमेन्ट करने वाले डरपोक कुछ नहीं बोलते
नया कवि
दिल्ली
नए तो खैर किसी भी एंगल से नहीं लग रहे,,,,
हां, दिल्ली के हो सकते हो,,,,,( वैसे मुझे तो इसमें भी ज़रा शक है,,,)
माना के छंद में लिखी कविता की तरह कविता नहीं है,,,,,
पर जिस बात से रूबरू करा रही है अपने लिए तो वो कम नहीं,,
हाँ, यदि डरपोक जैसी कोई बात है तो हमारे लिए नहीं है,,,,,आपके लिए शायद हो,,,
कमेंट करना कोई हमारी मजबूरी नहीं है,,,,,और एनिमाउस बनकर तो हरगिज नहीं,,,,,
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