बड़े लोगों से ग़र राब्ता रखते,
आज हम भी कोई रूतबा रखते...
घर के भीतर ही अक्स दिख जाता,
काश! कमरे में आईना रखते...
तीरगी का सफ़र था, मुट्ठी में
एक अदना-सा सूरज का टुकड़ा रखते...
चांद को छूना कोई शर्त ना थी,
झुकी नज़रों से ही कोई रिश्ता रखते...
वक़्त के कटघरे में लोग अपने थे,
हम भला कौन-सा मुद्दा रखते....
दो किनारों की मोहब्बत थी "निखिल"
किसके बूते पर जिंदा रखते...
निखिल आनंद गिरि
९८६८०६२३३३
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
निखिल जी,
बहुत उम्दा गज़ल है। हालांकि....
बड़े लोगों से ग़र फासला रखते,
आज हम भी कोई रूतबा रखते...
भाई आज तो रूतबा उनके पास दिखता है जिनका बड़े लोगों से वास्ता है!
चांद को छूना कोई शर्त ना थी,
झुकी नज़रों से ही कोई रिश्ता रखते...
वाह!वाह! ये शेर बहुत पसंद आया।
रवि जीं,
माफ़ कीजियेगा......रात को आधी नींद में ग़ज़ल टाईप कर रहा था....
"राब्ता" कि जगह 'फासला " लिख गया
आप जैसे सुधी पाठक हो तो गलतियां करने का मज़ा ही अलग है.........
बहुत-बहुत शुक्रिया....
निखिल
घर के भीतर ही अक्स दिख जाता,
काश! कमरे में आईना रखते...
तीरगी का सफ़र था, मुट्ठी में
एक अद ना-सा सूरज का टुकड़ा रखते...
bahut achha waah
प्रिय निखिल
अच्छा लिखा है । कम शब्दों में बड़ी बात करने लगे हो । बधाई ।
निखिल जी,
तेवरों वाली गज़ल है और प्रत्येक शेर में आपकी सोच और प्रतिभा निखर कर सामने आयी है। हर शेर लाजवाब है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
waqt ke katghare mein log apne they
hum bhala kounsa mudda rakhte .....
wah,umda ,sach ,vicharsheel,teekshn aur sateek rachna hai...aapki kavita ka her sher zindgi ki sachhayi bayan kerta hai...badhai...
निखिल जी,
आपकी गज़ल पढकर
बहुत अच्छा लगा....
घर के भीतर ही अक्स दिख जाता,
काश! कमरे में आईना रखते...
तीरगी का सफ़र था, मुट्ठी में
एक अदना-सा सूरज का टुकड़ा रखते...
हर शेर अच्छा है।....
बधाई ।
इतनी छोटी सी गजल शुरू करते ही खत्म हो गई लेकिन मजा आ गया। अरे जनाब, हम पर रहम करिए हम आपको पढने के शौकीन हैं... जरा लम्बा लिख देते तो शायद हम देर तक मुस्कुराते.......गमों को भूल कर....
निखिल जी!
गज़ल बहुत ही सुंदर लगी. सभी अशआर खूबसूरत हैं, इसलिये किसी एक का ज़िक्र नहीं कर पाऊँगा.
बधाई स्वीकारें!
निखिल जी,
सभी शेर दिलकश और संजीदा ख्यालात के अक्स हैं.. सुन्दर गजल के लिये बधाई.
निखिल जी!!
बहुत ही सुंदर रचना है...शब्दों का चयन बहुत ही अच्छा किया है...छोटी पर बहुत ही उम्दा रचना है....
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काश! कमरे में आईना रखते...
तीरगी का सफ़र था, मुट्ठी में
एक अदना-सा सूरज का टुकड़ा रखते...
चांद को छूना कोई शर्त ना थी,
झुकी नज़रों से ही कोई रिश्ता रखते...
वक़्त के कटघरे में लोग अपने थे,
हम भला कौन-सा मुद्दा रखते....
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बहुत अच्छी लगी ये पंक्तियां......
बधाई हो!!!
nikhil ji,
bahut hi achchi gazal likhi hai aapne.sachmuch mazaa aa gaya.
aasha hai aap aaage bhi aise hi likhte rahenge.
raman
निखिल जी,
एक-एक शे'र उम्दा है। अब बहर-रदीफ़-काफ़िया-मीटर जैसे शब्दों को नज़रअंदाज़ करें तो भावपक्ष पर फुल मार्क्स मिल सकते हैं।
देर से टिप्पणी करने के लिए क्षमा चाहता हूँ निखिल जी। मुझे आपकी यह गज़ल बहुत पसंद आई। शुरूआत से अंत तक आप गज़ल के हर एक नियम को निबाहते प्रतीत हुए हैं। इसके लिए आप तारीफ के पात्र हैं। बधाई स्वीकारें।
देरी के लिए माफी चाहूँगी ।
वक़्त के कटघरे में लोग अपने थे,
हम भला कौन-सा मुद्दा रखते....
दो किनारों की मोहब्बत थी "निखिल"
किसके बूते पर जिंदा रखते...
बहुत खूब लिखा है आपने । वैसे गज़लें मुझे पढने की बजाए सुनने मे ज़्यादा मज़ा आता है.. यहाँ पढ़कर भी अच्छा लगा ।
बड़े लोगों से .........दो kinaron की मोहब्बत थी निखिल किसके बूते पर जिंदा रखते......अच्छी कविता है लेकिन गहराई ज़्यादा नज़र नही आती ...........
IRSHAD bandhu,kya gazhal likhi! sach kahun to gazhalo ki kami khalne lagi thi mujhe jabse Dilli aya par aaj maja aa gaya.mere shabdkankalon mein itni takat to nahi ki apka pratyuttar kar sakun parantu ek shayar ki do lines jehan mein aa rahi hain-
BEHAD SHARIF LOGON SE KUCHH FASALA RAKHO,
PEE LO MAGAR KABHI NA KAHO TUM NASHE MEIN HO.
Lajwab.........
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