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रंग की हों पपड़ियाँ उचली किसी दीवार से



शामिख फ़राज का नाम हमारे नियमित पाठकों के लिये नया नही है। कुछ वक्त पहले तक शामिख मंच के खूब सक्रिय कवि और पाठकों मे से रहे हैं। इधर कुछ समय से उनकी रचनाओं का क्रम कुछ अनियमित हुआ है। इससे पहले उनकी एक कविता गत वर्ष जनवरी माह मे आयी थी। इस अप्रैल माह की प्रतियोगिता मे उनकी प्रस्तुत रचना ने छठा स्थान हासिल किया है।

अब क्योंकि हाथ ख़ाली
 लौटा हूँ बाज़ार से,
हाथ ही सर पे
फिरा दूंगा मैं उसके प्यार से,
ज़िन्दगी लगती है यूँ
जो दोस्तों से दूर हूँ,
रंग की हों पपड़ियाँ
उचली किसी दीवार से,
आना जाना उसका
अब भगवानों के घर पे नहीं,
लौटा होगा ख़ाली जो
भगवानों के वो द्वार से,
चीख भूखे फिर किसी बच्चे की
मुझको ही क्यों
है सुनाई देती
उस पाजेब की झंकार से,
लोग सब अपने घरों को
लौट जाते हैं फ़राज़
तू परेशां से दिखे
खुद में हुई तकरार से।
____________________________________
पुरस्कार:हिंद-युग्म की ओर से पुस्तक।


बहुत अच्छे से


शामिख़ फ़राज़ हिन्द-युग्म के सक्रियतम पाठकों में से एक हैं। और सबसे बड़ी बात है कि उ॰प्र॰ के उस शहर से इंटरनेट पर हिन्दी की वेबसाइटों से जुड़े हैं जहाँ अभी इंटरनेट की पहुँच भी बहुत कम है। नवम्बर माह की प्रतियोगिता में इनकी एक कविता 10वें स्थान पर रही।

पुरस्कृत कविता-बहुत अच्छे से

यूँ तो ज़िन्दगी ने हर लेक्चर समझाया है
बहुत अच्छे से
यूँ तो ज़िन्दगी ने हर सब्जेक्ट पढ़ाया है
बहुत अच्छे से

जाने कितने किस्सों के नोट्स बनवाए हैं
जाने कितने वाक्यात की फोटोकॉपी दी है
यूँ तो ज़िन्दगी ने हर हेडिंग रटाया है
बहुत अच्छे से

कुछ बातों पे टिक लगवाएं हैं
तो कुछ यादों को अंडरलाइन किया है
कुछ सुख के पॉइंट्स बताएं हैं
तो कुछ दुःख के पॉइंट्स लिखाये हैं
यूँ तो ज़िन्दगी ने पॉइंट टू पॉइंट लिखाया है
बहुत अच्छे से

कभी रिश्तों पे शॉर्ट नोट्स लिखाये हैं
तो कहीं झगडे इंपोर्टन्ट बताएं हैं
कभी अतीत के सॉल्वड पेपर कराएँ हैं
कभी भविष्य के मोडल पेपर दिखाएँ हैं
यूँ तो ज़िन्दगी ने वक़्त का मार्कर चलाया है
बहुत अच्छे से

हालाँकि मैं भी ज़िन्दगी के पेपर में
दुनिया के एक्ज़ामिनेशन हाल में
इम्तिहान की कॉपी तो पूरी भर आया हूँ
अब जाने पास हुआ कि फेल हुआ.
अब जाने पास हुआ कि फेल हुआ


पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।

58 कवियों में से सत्यप्रसन्न और हज़ारों पाठकों में से फ़‌राज़ विजयी


समीरलाल (उड़नतश्तरी) की पुस्तक के विजेता

पिछले 2-3 माह से हिन्द-युग्म पर पाठकों और लेखकों का आवागमन जिस तेज़ी से बढ़ा है उससे हमें बहुत संतोष और खुशी है कि इंटरनेट पर हिन्दी और हिन्द-युग्म के प्रति हिन्दी प्रेमियों का रुझान बढ़ रहा है। जून 2009 की यूनिकवि एवं यूनिपाठक प्रतियोगिता में प्रतिभागी कवियों और पाठकों की संख्या अब तक की अधिकतम संख्या तक पहुँच गई। जून माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में कुछ 58 कवियों ने भाग लिया। इससे पहले पिछले वर्ष विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में हमारी प्रतिभागिता के बाद यह संख्या प्राप्त हुई थी।

इससे भी बड़ी खुशी की बात यह है कि इस प्रतियोगिता से नये पाठक और कवि जुड़ते जा रहे हैं, जिससे रचनाओं में नई सुंगंध तो है ही पठनीयता में भी ताज़ापन है। मुद्रित पत्रिकाओं में कविताओं की खातिर लगातार घटता स्पेस कवियों और पाठकों को इंटरनेट की तरफ खींच रहा है।

जून माह की यूनिकवि प्रतियोगिता का निर्णय 2 चरणों में 7 निर्णयकर्ताओं द्वारा करवाया गया। पहले चरण में 3 तथा अंतिम चरण में 4 जज रखे गये। पहले चरण से 58 में से 33 कविताएँ चुनी गईं। अंतिम चरण में प्राप्त अंकों और पहले चरण में प्राप्त अंकों के औसत के आधार पर सत्यप्रसन्न की कविता 'एक सोच की चिंगारी' को यूनिकविता चुना गया।

यूनिकवि- सत्यप्रसन्न

सत्यप्रसन्न मूलतः तेलगू भाषी हैं। आंध्र प्रदेश राज्य के श्रिकाकुलम जिले में 3 मई 1949 को जन्मे सत्यप्रसन्न की शिक्षा-दीक्षा पूर्ववर्ती मध्यप्रदेश एवं वर्तमान छत्तीसगढ़ के सरगुजा, रायपुर तथा रायगढ़ जिले में हुई। बी.एस.सी. करने के बाद मेकैनिकल इंजिनीयरिंग में पत्रोपाधि प्राप्त किया, उसके के पश्चात छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत मंडल में, कनिष्ठ अभियंता, सहायक अभियन्ता, कार्यपालन अभियन्ता एवं अधीक्षण अभियन्ता के पद पर ३४ वर्ष तक कार्य किया। 31 मई 2007 को सेवानिवृत्त हो गये। 5 भाईयों और 5 बहिनों में सबसे बड़े सत्यप्रसन्न को कविताओं तथा कहानियों से बचपन से ही लगाव है। लिखना वर्ष 1980 से प्रारंभ किया। कविता तथा लघु कथाओं से विशेष प्रेम। विभिन्न सन्ग्रहों में प्रकशित और आकाशवाणी, दूरदर्शन से प्रसारित। इससे पहले भी हिन्द-युग्म की इसी प्रतियोगिता में लगातार दो बार इनकी कविताएँ ( विषधरों से डर नहीं है, पेड़ आम का) शीर्ष 10 में स्थान बनाने में सक्षम रही हैं।

पुरस्कृत कविता- एक सोच की चिंगारी

कहीं सूख ना जाए सागर इससे पहले,
चलो बांध कर लहरें कुछ मुठ्ठी में धर लें।
कहीं रात की थम ना जाए सासें देखो,
चलो अंजुरी में कुछ ज़िंदा जुगुनू भर लें।

किसी गै़र से मुठ्ठी भर अपनापन मांगें,
ग़म की हर खूँटी पे एक खुशी भी टांगें।
विश्वासों की टूटी डोर हाथ में ले कर;
घोड़े के आगे हम जोतें अपने तांगे।

अपना नाम लिखें पानी में और मिटायें;
झुक आया आकाश ठेल कर परे हटायें ।
अभी झील को थोड़ा भी अहसास नहीं है;
क्या कुछ करने वाली हैं गुस्ताख़ घटायें।

चलो एक तिल लेकर उसको ताड़ बनाएँ ;
हरी दूब का वंश बदल कर झाड़ बनाएँ।
समझौतों के हाथों रिश्ते गिरवी रख कर;
उदासीनता के कांटों की बाड़ लगाएँ।

कहीं सोच पर लग ना जाएँ कल सौ ताले;
बीज मान कर एक शब्द तो आओ रोपें।
कहीं न सूरज ही मर जाए इससे पहले;
एक सोच की चिंगारी तो कल को सौंपें।



प्रथम चरण मिला स्थान- दूसरा


द्वितीय चरण मिला स्थान- प्रथम


पुरस्कार और सम्मान- शिवना प्रकाशन, सिहोर (म॰ प्र॰) की ओर से रु 1000 के मूल्य की पुस्तकें तथा प्रशस्ति-पत्र। जुलाई माह के अन्य तीन सोमवारों की कविता प्रकाशित करवाने का मौका।

इनके अतिरिक्त हम जिन अन्य 9 कवियों की कविताएँ प्रकाशित करेंगे तथा उन्हें हम समीर लाल की पुस्तक 'बिखरे मोती' की एक-एक प्रति भेंट करेंगे, उनके नाम हैं-

स्वप्निल कुमार "आतिश"
मनोज सिंह
आलोक उपाध्याय
ऋतू सरोहा
अनुज शुक्ला
अमित अरुण साहू
जीष्णु
मुकुल उपाध्याय
सचिन जैन


पिछली बार हमने कुल 19 कविताओं का प्रकाशन किया था। इस बार भी हम 19 कविताओं को प्रकाशित करने का निश्चय किया है। अन्य जिन 9 कवियों की कविताएँ एक-एक करके प्रकाशित होंगी, उनके नाम हैं-

अनिरुद्ध शर्मा
दीपा पन्त
दीपाली आब
गिरिजेश राव
दीपाली पंत तिवारी
कुलदीप जैन
तरव अमित
रवि कान्त अनमोल
जितेन्द्र दवे


उपर्युक्त सभी कवियों से अनुरोध है कि कृपया वे अपनी रचनाएँ 31 जुलाई 2009 तक अनयत्र न तो प्रकाशित करें और न ही करवायें।

इस बार पाठकों में भी बहुत घमासान रहा। हमारे पुराने सम्मानित पाठकों ने तो नियमित पढ़ा ही लेकिन साथ ही साथ मंजू गुप्ता, शामिख फ़राज़ और अम्बरीष श्रीवास्तव में पढ़ने की होड‌़ रही। शायद ही हमारे किसी भी मंच की कोई पोस्ट शामिख़ फ़राज़ और मंजू गुप्ता की नज़रों से बची हो। लेकिन मंजू गुप्ता ने अधिकाधिक टिप्पणियाँ रोमन-हिन्दी में की, वहीं शामिख ने लगभग सभी देवनागरी-हिन्दी में। चूँकि हिन्द-युग्म देवनागरी (हिन्दी) के प्रोत्साहन के लिए भी इस प्रतियोगिता का आयोजन करता है। इसलिए हम शामिख़ फ़राज़ को यूनिपाठक का खिताब दे रहे हैं। पिछले महीने के यूनिपाठक मोहम्मद अहसन भी पहले रोमन-हिन्दी में टिप्पणियाँ करते थे, लेकिन हमारे आग्रह पर इन्होंने देवनागरी में करना शुरू किया। यही आग्रह हम मंजू गुप्ता से भी करेंगे।

यूनिपाठक- शामिख़‌ फ़राज़

24 फरवरी 1987 को पीलीभीत (उ॰प्र॰) में जन्मे शामिख फ़राज़ वर्तमान में बरेली के एक कॉलेज से एम॰सी॰ ए॰ (कम्प्यूटर अनुप्रयोग में परास्नातक) की पढ़ाई कर रहे हैं। पीलीभीत शहर में खुद का डिजीटल फोटोग्राफी का काम करते हैं। इन्हें वैज्ञानिक सोच के पिता और धार्मिक स्वभाव की माँ से अच्छा व्यवहारिक ज्ञान मिला। इन्होंने लेखन की शुरुआत वर्ष २००२ में की थी। इनका पहला लेख क्षेत्रीय अख़बार अमर उजाला में प्रकाशित हुआ और अब तक कई लेख विभिन्न अख़बारों में प्रकाशित हो चुके हैं। बचपन से ही कहानियों के प्रति रुझान था. इसी कारण हिन्दी लेखकों के अलावा विदेशी लेखकों लियो टअलसटॉय, अन्तोन चेखव, मैक्सिम गोर्की, ओ हेनरी को भी पढ़ा।

इन्होंने कभी नहीं सोचा था कि ये एक कवि भी बनेंगे लेकिन 19 सितम्बर 2007 को ज़िन्दगी एक ऐसे इन्सान से मिला गई जिसने इन्हें कवि बना दिया।

साहित्य के अतिरिक्त ग्राफिक्स एंड एनीमेशन, आत्मकथाएं पढ़ना, ऐतिहासिक नगरों को घूमना और सूक्तियां एकत्रित करने का शौक़ रखने वाले शामिख की अब तक तीन कविताएँ शीर्ष 10 में स्थान बना चुकी हैं। (पुरस्कृत कविताएँ- अम्मी, मेरी कविता के अक्षर, कुछ काव्यरचनाओं को न जाने कैसे ये बातें मालूम पड़ गईं)

पुरस्कार और सम्मान- समीरलाल के कविता-संग्रह 'बिखरे मोती' की एक प्रति तथा प्रशस्ति-पत्र।

दूसरे स्थान पर ज़ाहिर तौर हम मंजू गुप्ता को, तीसरे स्थान पर अम्बरीष श्रीवास्तव को रखना चाहेंगे। चौथे स्थान के लिए हमने चुना है सदा को। इन तीनों विजेताओं को भी समीरलाल के कविता-संग्रह 'बिखरे मोती' की एक-एक प्रति भेंट की जायेगी।

इनके अलावा हम दीपाली आब, स्वप्न मंजूषा 'अदा', दिशा, अनुपम अग्रवाल, निर्मला कपिला, ओम आर्य, अर्चना तिवारी इत्यादि में भी यूनिपाठक पुरस्कार जीतने की ऊर्जा है। हम उम्मीद करते हैं कि जुलाई माह की प्रतियोगिता में ये सभी यूनिपाठक बनने का भी प्रयास करेंगे और हमें प्रोत्साहित करेंगे।

जो पाठक लगातार पढ़ रहे हैं और यूनिपाठक का पुरस्कार जीत चुके हैं वे वार्षिक हिन्द-युग्म पाठक सम्मान के प्रतिभागी बनते जा रहे हैं। इसलिए पढ़ने में कोई कसर न छोड़ें।

हम उन कवियों का भी धन्यवाद करना चाहेंगे, जिन्होंने इस प्रतियोगिता में भाग लेकर इसे सफल बनाया। और यह गुजारिश भी करेंगे कि परिणामों को सकारात्मक लेते हुए प्रतियोगिता में बारम्बार भाग लें।

प्रशान्त कुमार (काव्यांश)
कुलदीप "अंजुम
अकेलामुसाफिर
के के यादव
कमलप्रीत सिंह
मुहम्मद अहसन
अनुपम अग्रवाल
सुरेन्द्र कुमार 'अभिन्न'
अम्बरीष श्रीवास्तव
संजय अग्रवाल
अखिलेश श्रीवास्तव
शेली खत्री
डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
नीरज वशिष्‍ठ
स्वप्ना कोल्हे
मंजु महिमा
अक्षय-मन
उधव्व उधव
सजल प्यासा
नीति सागर
सोनिया उपाध्याय
शामिख़ फ़राज़
अमित श्रीवास्तव
आर सी सोनी
आलोक
मोनाली
प्रशांत सोनी
राहुल अग्रवाल
प्रियंका चित्रांशी "प्रिया"
महिमा बोकारिया
संगीता सेठी
निलेश माथुर
सीमा सिंघल
शिवानी दानी
प्रकाश पंकज
दीपक कुमार वर्मा
सुमित वत्स
मंजू गुप्ता
रवि शंकर शर्मा

कुछ काव्यरचनाओं को न जाने कैसे ये बातें मालूम पड़ गईं


शामिख़ फ़राज़ अक्सर ही अपनी कविताओं से हिन्द-युग्म पर दस्तक देते रहे हैं। फरवरी माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में भी इनकी एक कविता अव्वल १० में शुभार रही।

पुरस्कृत कविता

मैंने तुम्हारे प्यार से जुड़े
जज्बातों के टुकड़े
दिल के कमरे में रखी
यादों की अलमारी में
वक़्त का ताला लगा के
रख दिए थे लेकिन
न जाने बात कैसे
मेरे कलम को मालूम हो गई
और वो बता आया है
नज्मों और ग़ज़लों को
रुबाई और मसनवियों को
कविताओं और क्षणिकाओं को
और कुछ काव्यरचनाओं को


प्रथम चरण मिला स्थान- नौवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- आठवाँ


पुरस्कार- कवयित्री निर्मला कपिला के कविता-संग्रह 'सुबह से पहले' की एक प्रति


शामिख़ फ़राज़ की कविता के अक्षर बहुत शैतान हैं


शामिख़ फ़राज़ की एक कविता 'अम्मी' आप सभी पिछली बार पढ़ चुके हैं। जनवरी माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में भी इनकी एक कविता शीर्ष १० में आई है।

पुरस्कृत कविता- मेरी कविता के अक्षर

छोटे बच्चों जैसे शैतान हैं
मेरी कविता के अक्षर
और शैतानी कुछ ऐसी
करते हैं यह अक्सर
होता हूँ जब कभी मैं
गुमसुम तनहा और खामोश
तुम्हारी, हाँ, तुम्हारी
यादों की तरफ ले जाते हैं
मेरा हाथ पकड़कर
छोटे बच्चों जैसे शैतान हैं
मेरी कविता के अक्षर
स्याही की चमड़ी में लिपटे हैं
कागज़ की चादर पर बैठे हैं
कभी शब्दों से निकल कुछ कहते हैं
तो कभी चुप-चुप ही रहते हैं
कभी यह बड़बोले लगते
तो कभी लगते मूकबधिर
छोटे बच्चों जैसे शैतान हैं
मेरी कविता के अक्षर
और शैतानी कुछ ऐसी
करते हैं यह अक्सर
चाहे हकीक़त का किस्सा हो
या दिल के जज़्बात हो
खिलने वाली कलियों का ज़िक्र हो
या बिखरे हुए पतझड़ के पात हो
देखो चाहे कहीं की कोई बात
ख़त्म करते हैं तुम्हीं पे ले जाकर
छोटे बच्चों जैसे शैतान हैं
मेरी कविता के अक्षर


प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ३॰५, ५, ६॰५
औसत अंक- ५
स्थान- अठारहवाँ


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ६, ५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५
स्थान- बारहवाँ


अंतिम चरण के जजमेंट में मिला अंक-
स्थान- आठवाँ
टिप्पणी- जिन कविताओं में भाषा की बात भाषा से शुरूकर उसी पर अंत कर दी जाती है वहाँ कविता अपने प्रवाहमयी संयोजन में चूक जाती है और कविता में इन्द्रियबोधात्मकता भी समाप्तप्राय हो जाती है। इस कविता में विचारबोध का प्राबल्य कविता को बोझिल और उबाऊ बनाता है।


पुरस्कार- ग़ज़लगो द्विजेन्द्र द्विज का ग़ज़ल-संग्रह 'जन गण मन' की एक स्वहस्ताक्षरित प्रति।

चिमटे, संसी, फुँकनी से बाहर निकल आईं अम्मी


२४ फरवरी १९८७ को पीलीभीत (उ॰प्र॰) में जन्मे कवि शामिख फ़राज़ वर्तमान में बरेली के एक कॉलेज से एम॰सी॰ ए॰ (कम्प्यूटर अनुप्रयोग में परास्नातक) की पढ़ाई कर रहे हैं। पीलीभीत शहर में खुद का डिजीटल फोटोग्राफी का काम करते हैं। इन्हें वैज्ञानिक सोच के पिता और धार्मिक स्वभाव की माँ से अच्छा व्यवहारिक ज्ञान मिला। इन्होंने लेखन की शुरुआत वर्ष २००२ में की थी। इनका पहला लेख क्षेत्रीय अख़बार अमर उजाला में प्रकाशित हुआ और अब तक कई लेख विभिन्न अख़बारों में प्रकाशित हो चुके हैं। बचपन से ही कहानियों के प्रति रुझान था. इसी कारण हिन्दी लेखकों के अलावा विदेशी लेखकों लियो टअलसटॉय, अन्तोन चेखव, मैक्सिम गोर्की, ओ हेनरी को भी पढ़ा।

इन्होंने कभी नहीं सोचा था कि ये एक कवि भी बनेंगे लेकिन १९ सितम्बर २००७ को ज़िन्दगी एक ऐसे इन्सान से मिला गई जिसने इन्हें कवि बना दिया।

साहित्य के अतिरिक्त ग्राफिक्स एंड एनीमेशन, आत्मकथाएं पढ़ना, ऐतिहासिक नगरों को घूमना और सूक्तियां एकत्रित करने का शौक़ रखने वाले शामिख का जिक्र आज हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि नवम्बर की प्रतियोगिता में इनकी कविता ने शीर्ष १० में स्थान बनाया। और फिलहाल हम इनकी वही कविता आपको पढ़वाने जा रहे हैं।

पुरस्कृत कविता- अम्मी

कभी खामोश हवा कभी पछियाव कभी पुरवाई अम्मी
कभी हलवे कभी ज़र्दे तो कभी चटनी में समाईं अम्मी

अपने यहाँ के रिश्तों को मैंने कई बार फटते देखा है
जाने कैसे एक ही पल में कर देती हैं सिलाई अम्मी

गिले शिकवों की धूल हटा के प्यार का रंग मिला के
जाने कैसे एक ही पल में कर देती हैं रंगाई अम्मी

और हाँ देखो तो मुझे आसमान छुआने की खातिर
चिमटे, संसी, फुँकनी से बाहर निकल आईं अम्मी

मैंने आंसुओं से एक परदेसी शहर को भिगो डाला
जो मैं उनसे दूर हुआ और जब यादों में हैं आईं अम्मी



प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰५, ६॰१५
औसत अंक- ६॰३२५
स्थान- ग्यारहवाँ


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ५॰८, ६॰३२५(पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ५॰३७५
स्थान- आठवाँ


पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' के काव्य-संग्रह 'पत्थरों का शहर’ की एक प्रति