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Thursday, June 04, 2009

सब कहते हैं- कटवा दो न, सूखी लकड़ी छँटवा दो न


पिछली बार की प्रतियोगिता में 'विषधरों से डर नहीं है' कविता को दूसरा स्थान प्राप्त हुआ था। इस कविता के कवि सत्यप्रसन्न की ही कविता मई महीने की यूनिकवि प्रतियोगिता में भी दूसरे स्थान पर है। इस माह के एक अन्य सोमवार को भी सत्यप्रसन्न की कविता प्रकाशित होगी। कल विश्व पर्यावरण दिवस है। ऐसे में इस कविता की एक और प्रासंगिकता भी है।

पुरस्कृत कविता- पेड़ आम का

है आँगन के ठीक बीच में,
एक पुराना पेड़ आम का।
एक शाख ही हरी बची है,
शेष नहीं है किसी काम का।

होगा कोई सौ सालों का;
है गवाह सब जंजालों का।
किया सामना उसने अब तक,
डटकर सब आँधी पालों का।

दादाजी का बाल सखा है;
किसने उसको पाल रखा है?
या उसने भी दादा जैसा
अमृत कोई ढाल रखा है।

उसकी शाखें भी दादा की
सांसों सी खड़-खड़ करती हैं।
उखड़ी-उजड़ी उसकी सूरत;
आँखों में गड़ती रहती है।

उसके तन का नब्बे प्रतिशत;
दीमक कब के चाट चुके हैं।
दादा के विरसे को जैसे;
बेटे-पोते बाँट चुके हैं।

जिस पल और नहीं झपकेंगी;
दादाजी की सूनी आँखें।
ठीक तभी शायद टूटेंगी,
उसकी भी सब सूखी शाखें।

सब कहते हैं- कटवा दो न;
सूखी लकड़ी छँटवा दो न।
हरी शाख बकरी खा लेगी,
शेष सभी में बँटवा दो न।

दादाजी बस चुप रहते हैं;
पर आँखें सब कह जाती हैं,
उनके मन की सारी पीड़ा;
आँसू बनकर बह जाती है।


प्रथम चरण मिला स्थान- पाँचवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- दूसरा


पुरस्कार- राकेश खंडेलवाल के कविता-संग्रह 'अंधेरी रात का सूरज' की एक प्रति।

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23 कविताप्रेमियों का कहना है :

Shamikh Faraz का कहना है कि -

बहुत सुन्दर कविता है. शुरुआत बहुत अच्छी है. मुझे जो चीज़ सबसे अच्छी लगी वो यह की दादा जी से तुलना कविता में नई जन डाल देती है.

उसकी शाखें भी दादा की
सांसों सी खड़-खड़ करती हैं।
उखड़ी-उजड़ी उसकी सूरत;
आँखों में गड़ती रहती है।

उसके तन का नब्बे प्रतिशत;
दीमक कब के चाट चुके हैं।
दादा के विरसे को जैसे;
बेटे-पोते बाँट चुके हैं।

Unknown का कहना है कि -

waha waha bahut acchi rachna hai. sahe maino me ye kavita pratham puruskar ki hakdar hai.

Manju Gupta का कहना है कि -

"सब कहते हैं- कटवा दो न;
सूखी लकड़ी छँटवा दो न।
हरी शाख बकरी खा लेगी,
शेष सभी में बँटवा दो न।

दादाजी बस चुप रहते हैं;
पर आँखें सब कह जाती हैं,
उनके मन की सारी पीड़ा;
आँसू बनकर बह जाती है।"

Dadaji ki deen heen sthithi ki tulna fhalheen sukhe vruksh se ki hai jo sangharsh bata hai, aj yeh hi sthithi hai! Jeevan ka yeh gehara dard kavita bayan karti hai.

Manju Gupta.

निर्मला कपिला का कहना है कि -

उसके तन का नब्बे प्रतिशत;
दीमक कब के चाट चुके हैं।
दादा के विरसे को जैसे;
बेटे-पोते बाँट चुके हैं
बहुत ही गहरे भाव लिये हुये है कविता प्रसन्न जी को बहुत बहुत बधाई

रश्मि प्रभा... का कहना है कि -

दादाजी बस चुप रहते हैं;
पर आँखें सब कह जाती हैं,
उनके मन की सारी पीड़ा;
आँसू बनकर बह जाती है।

निःशब्द हूँ.....

रश्मि प्रभा... का कहना है कि -

दादाजी बस चुप रहते हैं;
पर आँखें सब कह जाती हैं,
उनके मन की सारी पीड़ा;
आँसू बनकर बह जाती है।

निःशब्द हूँ.....

mohammad ahsan का कहना है कि -

सुन्दर, सरल, सरस, संवेदनशील, सुरिचिपूर्ण , समग्र कविता

neeti sagar का कहना है कि -

बहुत अच्छी रचना,बहुत-बहुत बधाई!

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

यह है एक कविता |
अर्थ में भी , शिल्प में भी | अच्छे शब्द भी हैं और कथ्य भी सुन्दर है |

Overall a complete poem !

आपको बहुत बहुत बधाई |

अवनीश तिवारी

SURINDER RATTI का कहना है कि -

आम के वृक्ष की दादा जी से तुलना बहुत बढिया विषय चुना आपने, बधाई
उसकी शाखें भी दादा की
सांसों सी खड़-खड़ करती हैं।
उखड़ी-उजड़ी उसकी सूरत;
आँखों में गड़ती रहती है।

उसके तन का नब्बे प्रतिशत;
दीमक कब के चाट चुके हैं।
दादा के विरसे को जैसे;
बेटे-पोते बाँट चुके हैं।
सब कहते हैं- कटवा दो न;
सूखी लकड़ी छँटवा दो न।
हरी शाख बकरी खा लेगी,
शेष सभी में बँटवा दो न।
सुरिन्दर रत्ती

rachana का कहना है कि -

प्रसन्न जी बहुत सुंदर कविता दादा जी से तुलना बहुत ही सही की है सुंदर तरीके से .जितना कहूँ कम है
उसकी शाखें भी दादा की
सांसों सी खड़-खड़ करती हैं।
उखड़ी-उजड़ी उसकी सूरत;
आँखों में गड़ती रहती है।
kya khoon likha hai
बधाई
रचना

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

उसकी शाखें भी दादा की
सांसों सी खड़-खड़ करती हैं।
उखड़ी-उजड़ी उसकी सूरत;
आँखों में गड़ती रहती है।
बहुत सुन्दर पर्यावरण की रक्षा मानव और प्रकृति को साथ-साथ लेकर चलने से ही हो सकती है. पेड की तुलना दादाजी से करके सुन्दर बिम्ब खीचा है.

manu का कहना है कि -

दादा के विरसे को जैसे ,,बेटे पोते बाँट चुके हैं........

बार बार यही लाइने पढ़े जा रहा हूँ,,,, बेटे पोते की क्या तुलना की है आपने.. ,,,,
बहुत मार्मिक,,,,,

गौतम राजऋषि का कहना है कि -

सहज, सरल, मोहक शब्दों में एक असाधारण कविता...
छंद का, तुक का कोई जोड़ नहीं

Arun Mittal "Adbhut" का कहना है कि -

जिस पल और नहीं झपकेंगी;
दादाजी की सूनी आँखें।
ठीक तभी शायद टूटेंगी,
उसकी भी सब सूखी शाखें।

सब कहते हैं- कटवा दो न;
सूखी लकड़ी छँटवा दो न।
हरी शाख बकरी खा लेगी,
शेष सभी में बँटवा दो न।

बहुत ही सुन्दर .............
अद्भुत ......... बढ़िया छंद, उत्तम भावः.......... लय ..... शब्द ........ विषय .........प्रवाह .......... प्रासंगिकता .......... सब कुछ
एक मुकम्मल कविता .........

हिंद युग्म पर अब तक पढ़ी सर्वश्रेष्ठ कविताओं में से एक

सादर
अरुण अद्भुत

mohammad ahsan का कहना है कि -

halaanki main likh chuka huun aur mittal saheb ne lagbhag wahi likha hai jo main ne likha hai bas thoda vistaar se, ek baar phir is kavita ki tareef karna dharm samajh raha huun.
yeh kavita kavita hai.
pata nahi hamaare 'tanha' saheb kahaan hain!!!???

Smart Indian का कहना है कि -

बहुत सुन्दर कविता! लाजवाब!

Satyaprasanna का कहना है कि -

आभारी हूँ सभी सुधी पाठकों का,जिन्होंने मेरी रचना को इतना अच्छा प्रतिसाद दिया है । धन्यवाद ।

विश्व दीपक का कहना है कि -

अहसन साहब!
मैं यही हूँ, युग्म से अलग कहाँ जाऊँगा। आपके कहे अनुसार मैं "कविता" की परिभाषा समझ चुका हूँ,लेकिन क्या करूँ मुझे "अकविता" भी "कविता" लगती है। जहाँ तक इस कविता की बात है, तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे है। इस कविता के द्वितीय स्थान प्राप्त करने से "कई" लोगों की इस बात पर विराम लग गया होगा कि "हिन्द-युग्म" को अच्छी कविता की परख नहीं है। लगभग सभी लोगों ने एक सुर में इस बात को माना है कि यह कविता एक संपूर्ण कविता है। इस कविता के लिए सबसे पहले "सत्यप्रसन्न" जी को बधाईयाँ। मुझे भी यह कविता बेहद अच्छी लगी।

और हाँ, मैं कहना भूल गया था। "अहसन" साहब को युनिपाठक बनने के लिए मेरी तरफ से करोड़ों बधाईयाँ। आप इसी तरह आते रहें और महफ़िल को सजाते रहें। वैसे जब तक मैने आपका चित्र न देखा था तब तक आपको हम-उम्र हीं समझता था और इसीलिए लड़ भी जाता था :) । अब जरा संभलकर लिखा करूँगा।

-विश्व दीपक

gazalkbahane का कहना है कि -

भाव -भीना-कविता रससे अओत-प्रोत गीत बधाई।
श्याम सखा श्याम

mohammad ahsan का कहना है कि -

तनहा साहब,
चित्र तो ,यही वाला ,फरवरी में ही निकला था जब हिन्दयुग्म ने मेरी कविता ' अतीत' को द्वतीय पुरस्कार दिया था लेकिन शाएद मेरे ऐसे आदमी के लिए आप जैसे स्थापित साहित्यकारों के लिए समय नहीं था.
रही बात उम्र की, आप भले अपने विश्लाषणों को दुसरे की आयु से प्रभावित पाएं , मेरा लेखन केवल गुण-अवगुण पर ही आधारित हो गा.
haan aap ki badhaayi ke liye dhanyawaad.
ahsan

विश्व दीपक का कहना है कि -

मैं और स्थापित साहित्यकार। क्यों मज़ाक करते हैं! वैसे यह सुनकर मैं खुश हो भी जाता,लेकिन जब इसमें सच्चाई हीं नहीं तो अपने आप को झूठी तसल्ली क्यॊं देना। हाँ, अगर कभी आप जैसा मेरा नाम हुआ तो उस दिन "स्थापित साहित्यकार" की पदवी आराम से स्वीकार करूँगा। इसी उम्मीद में-
विश्व दीपक

दिपाली "आब" का कहना है कि -

सब कहते हैं- कटवा दो न;
सूखी लकड़ी छँटवा दो न।
हरी शाख बकरी खा लेगी,
शेष सभी में बँटवा दो न।

दादाजी बस चुप रहते हैं;
पर आँखें सब कह जाती हैं,
उनके मन की सारी पीड़ा;
आँसू बनकर बह जाती है।


bahut hi shaandar kavita kahi hai ...
m jst speechless..

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