दुख लौट आता है
जैसे लौट आती है प्रतिध्वनि
या कैसे कहूँ
कि हर प्रतिध्वनि में
लौटता है दुख ही
कि मैं जब भी हँसता हूँ
हँसी टकरा कर लौटती है
सिसकियों की आवाज़ में
लेता हूँ प्रियजनों का नाम
एक खोई हुई चाय की प्याली का नाम
पुकारता हूँ उस जगह का नाम
जहाँ से वाबस्ता हूँ मैं
कहीं से टकरा कर लौटती है मेरी आवाज़
सिसकियों की शक्ल में
यहाँ इसी दुनिया में कहीं न कहीं
कोई न कोई दीवार या गुफा या पहाड़ ज़रूर है
जिससे टकरा कर हर आवाज़
रुलाई में तब्दील हो जाती है
किसी को पता है इसके बारे में
मैं तोड़ना चाहता हूँ इस दीवार को
गुफा हो तो पाटना चाहता हूँ
पहाड़ हो तो उस पार जाना चाहता हूँ
-अवनीश गौतम
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत बहुत भावपूर्ण aur सुंदर abhivyakti.
bahut badhiya. bat dil ko choo gai.
किसी को पता है इसके बारे में
मैं तोड़ना चाहता हूँ इस दीवार को
गुफा हो तो पाटना चाहता हूँ
पहाड़ हो तो उस पार जाना चाहता हूँ
बहुत ही भावपूर्ण ,काश की हम उस दीवार को तोड़ पाते या फ़िर उस अंधेरी गुफा के अन्धकार में कोई रौशनी की किरण देख पाते ....यह जीवन है ऐसे ही चलता है | बहुत गहरी कविता |बधाई .....सीमा सचदेव
किसी को पता है इसके बारे में
मैं तोड़ना चाहता हूँ इस दीवार को
बहुत भावपूर्ण है
दीपावली के दीयों की तरह आपके , आपके परिवार और मित्रों के जीवन में प्रकाश हो एवं सुख समृद्धि बढे ! इसी कामना के साथ दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
बहुत ही अच्छी कविता ...और हां.....आप सबों को दीपावलि की बहुत बहुत सुभकामनाएं।
excellent
"गुफा हो तो पाटना चाहता हूँ
पहाड़ हो तो उस पार जाना चाहता हूँ"
ज़िंदगी जब तक है, तब तक ये अनुगूंज आपका हिस्सा बनी रहेंगी....और दिल के भीतर आपका कवि परेशान हुआ करेगा....
हिंदयुग्म पर दिखने के लिए धन्यवाद....
यहाँ इसी दुनिया में कहीं न कहीं
कोई न कोई दीवार या गुफा या पहाड़ ज़रूर है
जिससे टकरा कर हर आवाज़
रुलाई में तब्दील हो जाती है
किसी को पता है इसके बारे में
मैं तोड़ना चाहता हूँ इस दीवार को
गुफा हो तो पाटना चाहता हूँ
पहाड़ हो तो उस पार जाना चाहता हूँ
काश के हम एसा कर पाते तो जीवन खुशहाल हो जाता पर नही दुःख सुख यही नियति है
सुंदर भाव
सादर
रचना
यह दीवार या गुफा या पहाड़ हमारे ही भीतर है जिससे टकराकर हर आवाज रूलाई में तब्दील हो जाती है। हमें करना यह है कि इसकी हर प्रतिध्वनी को बस ध्यान से सुनना है------सुनते-सुनते एक दिन हम जरूर इसके पार निकल जाएंगे----दीवार ढह जाएगी---गुफा पट जाएगी---------हमें करना है तो सिर्फ विश्वास-------विश्वास उस शक्ति के प्रति जिसने इस सुंदर संसार की रचना की है।
----देवेन्द्र पाण्डेय।
दुख लौट आता है
जैसे लौट आती है प्रतिध्वनि
या कैसे कहूँ
कि हर प्रतिध्वनि में
लौटता है दुख ही
गजब के मर्म,गजब की गहराई है इन पंक्तियों में.लाजवाब
आलोक सिंह "साहिल"
मुझे कविता बहुत पसंद आई ! दुःख लौट आता है ,जैसे लौट आती है प्रतिध्वनी! मेरे दिल को छू गई ! वाकई दिल की गहराई से लिखी लिखी कविता जो दिल तक पहुची ! आपको बहुत-२ बधाई !
अभी कुछ दिनों पूर्व आपकी कविता के शीर्षक के नाम से हमने एक कहानी दी , बाल उद्यान में ,तो निष्कर्ष यह निकलता है समय के साथ बदल जाती है यह प्रतिध्वनि .
कविता बहुत ही मर्मस्पर्शी है ,
दुख लौट आता है
जैसे लौट आती है प्रतिध्वनि
या कैसे कहूँ
कि हर प्रतिध्वनि में
लौटता है दुख ही
कि मैं जब भी हँसता हूँ
हँसी टकरा कर लौटती है
सिसकियों की आवाज़ में
दुख लौट आता है
जैसे लौट आती है प्रतिध्वनि
या कैसे कहूँ
कि हर प्रतिध्वनि में
लौटता है दुख ही
बहुत सुंदर रचना....
हर शब्द सुंदर है.....और शुरुवात की पंक्ति तो बेजोड़ है.
एक बेहतरीन रचना लगी |
दीपावली की शुभकामनायें |
-- अवनीश तिवारी
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