सितम्बर माह की प्रतियोगिता के शीर्ष १० के आखिरी कवि बज्मी नक़वी का जन्म कानपुर के ऐतिहासिक कस्बे मकनपुर में हुआ तथा तालीम कानपुर से ही पूरी हुई। साहित्य से लगाव बचपन से ही रहा पापा एक अच्छे शायर थे, इसलिए शायरी की तरफ़ रुझान बढ़ा और अपने गाँव के भोले एहसास कब शेर-ओ-शायरी की शक्ल में उभर कर आए पता ही नहीं चला। आज ज़िन्दगी के 28 वें पड़ाव पर सिर्फ़ एक कोशिश करते है कि ईमानदारी से सोंधी मिटटी की महक फैलाते रहें।
पुरस्कृत कविता
आज बरसों बाद,
मेरे अस्तित्व की बंज़र ज़मीन पर,
एक बूँद बरसी है...
न जाने क्यूँ हो रहा है...
मौसम में ये परिवर्तन...
न जाने क्यूँ नज़र आ रहे हैं,
मुझमें चंद आसार जिन्दगी के.....
वही मस्त हवा...
वही जानी-पहचानी-सी खुशबू,
आहट के सुर में सुर मिलाती,
वही बेतरतीब धड़कनें,
दिल की खुश्क ज़बान,
अल्फाज़ ढूंढ़ रही है....
एक नामालूम सा वाक्य बनाने के लिए...
लेकिन आज के दिन हमेशा...
क्यूँ होता है यही खेल?
वक्त क्यूँ ले जाता है
मेरी उँगली पकड़कर
अतीत में,
बार-बार??
जहाँ मैं दौड़ने लगता हूँ,
वहाँ तक,
जहाँ तक उसके पैरों के निशान मिलते हैं...
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰७५, ५॰५, ५, ६, ५, ६॰४
औसत अंक- ५॰६०८३३
स्थान- ग्यारहवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ३॰८, ५॰६०८३३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ४॰८०२७७८
स्थान- दसवाँ
पुरस्कार- कवि शशिकांत सदैव की ओर से उनकी काव्य-पस्तक 'औरत की कुछ अनकही'
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
14 कविताप्रेमियों का कहना है :
न जाने क्यूँ नज़र आ रहे हैं,
मुझमें चंद आसार जिन्दगी के.....
वही मस्त हवा...
वही जानी-पहचानी-सी खुशबू,
आहट के सुर में सुर मिलाती,
वही बेतरतीब धड़कनें,
दिल की खुश्क ज़बान,
अल्फाज़ ढूंढ़ रही है....
एक नामालूम सा वाक्य बनाने के लिए...
poori kavitaa hi ban gayi ,aap to ek namaaloom sa waaqya banane ki hi koshish kar rahe the ,achchi kavita hai
बेतरतीब धड़कनों के अल्फाज मुबारक हों आपको। हिन्द युग्म पर स्वागत है आपका। अगली बार एक और
अच्छी रचना की उम्मीद लिए...
वक्त क्यूँ ले जाता है
मेरी उँगली पकड़कर
अतीत में,
बार-बार??
इन पंक्तियो मैं बहुत भावुकता छिपी हुई है.......
बहुत पसंद आई ...बधाई हो आपको
लेकिन आज के दिन हमेशा...
क्यूँ होता है यही खेल?
वक्त क्यूँ ले जाता है
मेरी उँगली पकड़कर
अतीत में,
बार-बार??
जहाँ मैं दौड़ने लगता हूँ,
वहाँ तक,
जहाँ तक उसके पैरों के निशान मिलते हैं...
bilkul sahi kahaa aapane , अतीत kabhee peecha nahi छोड़ता और हम खोये रहते है उन यादो के भवर me |बहुत अच्छी रचना | बधाई ----सीमा सचदेव
कविता बहुत ही मार्मिक लगी ! न जाने क्यूँ नज़र आ रहे मुझमे चंद आसार जिंदगी के .........बहुत अच्छा लिखा आपने बधाई !
अच्छी भावाभिव्यक्ति की रचना पर बधाई नकवी जी,
दोस्तों ,ख़ास तौर पर पूजा अनिल जी ,नकवी साहिब की कविता की जबान हिदोस्तानी है न की उर्दू या हिन्दी ,गाँधी जी इसे ही हिन्दी मानते कहते थे यही खुशरो कबीर यहाँ तक मीरा व्तुलसी की भाषा है,हां जो भाषा आमजन बोलता है ,केवल जब वह देवनागरी में हो तो हिन्दी और अरेबिक लिपि में हो तो उर्दू कहलाती है बस यही अन्तर है रही शब्दों की बात वे जिस भाषा में आते हैं उसी के हो जाते हैं यथा निशाँन अब हिन्दी का हो गया है ,अल्फाज अभी अरबी का है क्यों -क्यों की यह लफ्ज का बहुवचन है इसे हिन्दी में लिखने के लिए लफ्जों करना पडेगा जैसे शब्द - शब्दों-क्योंकि शब्द भाषा में आ सकते हैं पर जिस भाषा में आए हैं उसका व्याकरण अपना कर |श्याम सखा `श्याम'
जहाँ मैं दौड़ने लगता हूँ,
वहाँ तक जहाँ तक उसके पैरों के निशान मिलते हैं
न ढूंढ बीते निशांनात
अब न पीछे मुड़ के देख
जो गीत धडकने सुना रहीं
उन्हें दिल में बसा के देख..!!..'' स्वागत है। ''
"दिल की खुश्क ज़बान,
अल्फाज़ ढूंढ़ रही है....
एक नामालूम सा वाक्य बनाने के लिए..."
इतना भर ही मुकम्मल है कवि का परिचय कराने के लिए...हिंदयुग्म पर स्वागत...आगे भी बने रहें तो यकीं आये कि आप सचमुच हिंदयुग्म से जुड़े हैं...
निखिल
दिल की खुश्क ज़बान,
अल्फाज़ ढूंढ़ रही है....
एक नामालूम सा वाक्य बनाने के लिए...
लेकिन आज के दिन हमेशा...
क्यूँ होता है यही खेल?
वक्त क्यूँ ले जाता है
मेरी उँगली पकड़कर
अतीत में,
बार-बार??
जहाँ मैं दौड़ने लगता हूँ,
वहाँ तक,
जहाँ तक उसके पैरों के निशान मिलते हैं...
आप की कविता आप के ही नही हम सभी की भावनाओं को व्यक्त करती है
सुंदर कविता
रचना
बधाई हो-----
एक अच्छी कविता के लिए
और उस एक बूँद के लिए भी
जो आपने
अपने अस्तित्व की बंजर ज़मीन पर
सिद्दत से महसूस किया।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
इस रचना,माफ़ी चाहूँगा,इस कृति के लिए आपकी जितनी तारीफ़ की जाए काम है,आरम्भ में ही ऐसा जादू शुरू हुआ की अंत तक असर बना रहा.
आपको पढ़ना सुखद रहा.
उम्मीद है की आप ऐसे ही अपनी कृतियों से वाकिफ कराते रहेंगे.बहुत बहुत बधाई.
आलोक सिंह "साहिल"
आज बरसों बाद,
मेरे अस्तित्व की बंज़र ज़मीन पर,
एक बूँद बरसी है...
न जाने क्यूँ हो रहा है...
मौसम में ये परिवर्तन...
ये पंक्तिया मुझे अपने पूर्ण लगी..
कविता अच्छी और प्रभावी है.
अतीत में,
बार-बार??
जहाँ मैं दौड़ने लगता हूँ,
वहाँ तक,
जहाँ तक उसके पैरों के निशान मिलते हैं...
बहुत सुंदर....
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)