एक पल तुम्हारी छांह में
बैठने की आस में
न जाने कब तक बैठा रहा
तुम आए भी
तुमने दामन भी फैलाया...
लेकिन तुम्हारी छांह कहीं नहीं थी...
सिर्फ तुम थे....
मुझे तुम्हारी छांह चाहिए थी...
और तुम अपनी छांह ही छोड़ आए हो!
अब सिर्फ थामने को हाथ...
सिर्फ चाहने को साथ...
क्यों आए हो ?
कहते हो...धूप निकलेगी...
फिर छांह बनेगी...
मुझे फिर तुम्हारी ज़रूरत होगी
नहीं कभी नहीं बनेगी
अब वो छांह
उस छांह को मैंने
वहां उस चौराहे पर बिखरा पाया है
और इस धूप में
तो सिर्फ तुम्हारी परछाई बनेगी...वो छांह कहां
जिसे तुम बेच आए हो
एक बार फिर बढ़ जाओ
कि सफर अभी लंबा है
इस तरह लौटकर
आखिर क्यों आए हो...?
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
बेचकर अपनी छांह क्यों आये हो ..
मार्मिक प्रस्तुति ..!!
बेहतरीन । आभार ।
और इस धूप में
तो सिर्फ तुम्हारी परछाई बनेगी...वो छांह कहां
जिसे तुम बेच आए हो
एक बार फिर बढ़ जाओ
कि सफर अभी लंबा है
इस तरह लौटकर
आखिर क्यों आए हो...?
Bahut Badhiya abhivyakti..Badhayi..
अब सिर्फ थामने को हाथ...
सिर्फ चाहने को साथ...
क्यों आए हो ?
बहुत अच्छी रचना !!बहुत-बहुत-बधाई!
Bahut sunder kavita...jaise hamari hi bat kah gaya koi...dil ke halaat ko pad gaya koi... badhai.
दर्द को बयाँ करती कविता है .आभार .
और इस धूप में
तो सिर्फ तुम्हारी परछाई बनेगी
...वो छांह कहां
जिसे तुम बेच आए हो
दर्द के भाव की उत्तम प्रस्तुति
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