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Monday, September 14, 2009

क्यों आए हो…?


एक पल तुम्हारी छांह में
बैठने की आस में
न जाने कब तक बैठा रहा
तुम आए भी
तुमने दामन भी फैलाया...
लेकिन तुम्हारी छांह कहीं नहीं थी...
सिर्फ तुम थे....
मुझे तुम्हारी छांह चाहिए थी...
और तुम अपनी छांह ही छोड़ आए हो!

अब सिर्फ थामने को हाथ...
सिर्फ चाहने को साथ...
क्यों आए हो ?

कहते हो...धूप निकलेगी...
फिर छांह बनेगी...
मुझे फिर तुम्हारी ज़रूरत होगी

नहीं कभी नहीं बनेगी
अब वो छांह
उस छांह को मैंने
वहां उस चौराहे पर बिखरा पाया है

और इस धूप में
तो सिर्फ तुम्हारी परछाई बनेगी...वो छांह कहां
जिसे तुम बेच आए हो
एक बार फिर बढ़ जाओ
कि सफर अभी लंबा है
इस तरह लौटकर
आखिर क्यों आए हो...?

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7 कविताप्रेमियों का कहना है :

वाणी गीत का कहना है कि -

बेचकर अपनी छांह क्यों आये हो ..
मार्मिक प्रस्तुति ..!!

हेमन्त कुमार का कहना है कि -

बेहतरीन । आभार ।

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

और इस धूप में
तो सिर्फ तुम्हारी परछाई बनेगी...वो छांह कहां
जिसे तुम बेच आए हो
एक बार फिर बढ़ जाओ
कि सफर अभी लंबा है
इस तरह लौटकर
आखिर क्यों आए हो...?

Bahut Badhiya abhivyakti..Badhayi..

neeti sagar का कहना है कि -

अब सिर्फ थामने को हाथ...
सिर्फ चाहने को साथ...
क्यों आए हो ?
बहुत अच्छी रचना !!बहुत-बहुत-बधाई!

Anonymous का कहना है कि -

Bahut sunder kavita...jaise hamari hi bat kah gaya koi...dil ke halaat ko pad gaya koi... badhai.

Manju Gupta का कहना है कि -

दर्द को बयाँ करती कविता है .आभार .

Admin का कहना है कि -

और इस धूप में
तो सिर्फ तुम्हारी परछाई बनेगी
...वो छांह कहां
जिसे तुम बेच आए हो


दर्द के भाव की उत्तम प्रस्तुति

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