कमरे को हल्का
सा धकियाया,
सोता कमरा
हड़बड़ा के
उठ बैठा
दायीं और
बिखरी कई
कविताओं के
पुस्तकों से..
एक एक
कविता निकल के
उड़ने लगी...
देखे मैंने..
परखे मैंने...
कविताओं के चेहरे
कुछ सुलझे से..
कुछ उलझे से..
कुछ उग्र से..
कुछ नर्म से...
कुछ गुदगुदाते
कुछ रुलाते
कुछ झकझोरते..
कुछ जागते...
चेहरे करीब
आते
दुनिया नयी
होती..
पिघलता बरसों का
दबा लावा
(गरम आँसू)..
पोंछ देते..
ये चेहरे
उन आँसुओं को..
महीनों से
आकारहीन
कविता..
डोल रही
है मन में...
आज उसे
चेहरा दे
दूँ।
कवयित्री- दिव्या श्रीवास्तव
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
महीनों से
आकारहीन
कविता..
डोल रही
है मन में...
आज उसे
चेहरा दे
दूँ।..........अच्छी पंक्ति.
कुछ सुलझे से..
कुछ उलझे से..
कुछ उग्र से..
कुछ नर्म से...
कुछ गुदगुदाते
कुछ रुलाते
कुछ झकझोरते..
कुछ जागते...
Aakaar hin kavita ko behtareen aakar diya ..sundar kavita..dhanywaad
सुन्दर भाव हैं |
महीनों से
आकारहीन
कविता..
डोल रही
है मन में...
आज उसे
चेहरा दे
दूँ।
Finishing अच्छी तरह से हुया है |
लेकिन ऐसा लगा कि जबरदस्ती में पंक्तियों को तोड़कर नयी पंक्तियाँ बनाई गयी हैं |
शिल्प बेहतर होता तो और प्रभाव होता |
अन्य रचनाओं की प्रतीक्षा में ...
आपका
अवनीश तिवारी
bahut achhi kavita hai...sidhe sadhe sabdo me kahi gai gahri baat..ye kavita kaviyatri ke gahre byaktitva aur sabdo ke achhi pakad ko darshati hai....
महीनों से
आकारहीन
कविता..
डोल रही
है मन में...
आज उसे
चेहरा दे
दूँ।
तकलीफ़देह प्रक्रिया है यह चेहरा देने की भी..लेबर-पेन जैसी.
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