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Tuesday, January 05, 2010

गवाक्ष में इस बार अनामिका, धूमिल और राजेश तिवारी


मित्रो ,
नव वर्ष की ढेर सारी शुभकामनाएँ। मैं आशा करता हूँ कि इस वर्ष आप हिंद युग्म पर ढेरों अच्छी कविताएँ पढ़ पाएंगे। इस बार गवाक्ष में तीन कवियों की कविताएँ हैं। अनामिका स्त्री विमर्श में एक जाना माना नाम हैं। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- गलत पते की चिट्ठी (कविता), बीजाक्षर (कविता), अनुष्टुप (कविता), अब भी वसंत को तुम्हारी जरूरत है (कविता)(2004), दूब-धान (कविता)(2007)। दूसरे हैं धूमिल जो किसी परिचय के मोहताज नहीं है संसद से सड़क तक और सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र इनकी चर्चित पुस्तके हैं। राकेश तिवारी एकदम नए कवि हैं, नए कलेवर के साथ। 'माँ' इनकी एक ऐसी कविता है जो पुराने बिम्ब तोड़ती है और एक नया शिल्प रचती है।

नए साल में आपसे मुलाकात होगी कविता की नयी जमीन पर। आपकी प्रतिक्रिया हमारे लिए साहस का कार्य करेगी।

--मनीष मिश्र



मौसिया

वे बारिश में धूप की तरह आती हैं–
थोड़े समय के लिए और अचानक
हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू
और सधोर की साड़ी लेकर
वे आती हैं झूला झुलाने
पहली मितली की ख़बर पाकर
और गर्भ सहलाकर
लेती हैं अन्तरिम रपट
गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की।

झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से
मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
कर देती हैं चोटी-पाटी
और डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू
किस धुन में रहती है
कि बालों की गाँठें भी तुझसे
ठीक से निकलती नहीं।

बालों के बहाने
वे गाँठें सुलझाती हैं जीवन की
करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से
और फिर हँसती-हँसाती
दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं–
चटनी-अचार-मूंगबड़ियाँ और बेस्वाद संबंध
चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे–
सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर
ध्यान भी नहीं जाता औरों का।

आँखों के नीचे धीरे-धीरे
जिसके पसर जाते हैं साये
और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप–
ख़ून के आँसू-से
चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
काले-कत्थई चकत्तों का
मौसियों के वैद्यक में
एक ही इलाज है–
हँसी और कालीपूजा
और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी।

बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी
लेती गई खेत से कोड़कर अपने
जीवन की कुछ ज़रूरी चीजें–
जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपंथी,
अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की।

------अनामिका



धूमिल की चमचमाती कविताएँ

जब सडको में होता हूँ
बहसों में होता हूँ
रह रह चहकता हूँ

लेकिन हर बार वापस घर लौट कर
कमरे के अपने एकांत में
जूते से निकाले गए पावँ सा
महकता हूँ!
-----------------------------------------
क्या आजादी सिर्फ
तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिसे एक पहिया ढोता है
या इसका कोई ख़ास मतलब होता है!
-----------------------------------------------
हम अपने सम्बन्धो में
इस तरह पिट चुके है
जैसे एक गलत मात्रा ने
शब्द को पीट दिया!
------------------------------------
घनी आबादी वाली
बस्तियों में
मकान की तलाश है
प्रेम।

धूमिल


माँ

घोसले में आई चिड़िया से
पूछा चूजो ने
माँ आकाश कितना बड़ा है ?
चूजो को अपने पंखो से ढकती
बोली चिड़िया
सो जाओ -इन पंखो से बड़ा नहीं है।

राजेश तिवारी

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8 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

"चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
काले-कत्थई चकत्तों का
मौसियों के वैद्यक में
एक ही इलाज है–
हँसी और कालीपूजा
और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी"

"हम अपने सम्बन्धो में
इस तरह पिट चुके है
जैसे एक गलत मात्रा ने
शब्द को पीट दिया!"

"इन पंखो से बड़ा नहीं है।"
"गवाक्ष" फिर से प्रभावी रचनाएँ लेकर आया. संदेशों का पिटारा खोलती कवितायेँ तीनों एक से बढकर एक. मनीष जी धन्यवाद्.

मनोज कुमार का कहना है कि -

बहुत अच्छी कविताओं से हमें रू-ब-रू करवाने के लिए आपका साधुवाद।

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

वो रिश्ते जो आधुनिकता और आगे बढ़ने की होड़ में थोड़े फीके होते जा रहा है..रिश्तों में भी अब औपचारिकता होने लगी कुछ रिश्तों की मिठास दर्शाते हुए आपकी यह बहुत सुंदर कविता दिल जीत लेती है...अनामिका जी धन्यवाद.

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

हम अपने सम्बन्धो में
इस तरह पिट चुके है
जैसे एक गलत मात्रा ने
शब्द को पीट दिया!

धूमिल जी एक सुंदर अभिव्यक्ति....बधाई!!!

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

माँ बचपन से ही अपने बच्चों में एक आत्मविश्वास भर देना चाहती है ताकि आने वाले समय में दुनिया की हर मुश्किल का सामना बच्चे बहुत ही आसानी से कर सकें....एक सुंदर भाव का बोध कराती ..कम शब्दों में एक सशक्त रचना..राकेश जी बहुत बहुत धन्यवाद!!!

Dr. Tripat Mehta का कहना है कि -

bahut hi sundar

अपूर्व का कहना है कि -

गवाक्ष हिंदयुग्म की काव्यमंजूषा मे एक नया आयाम जोड़ता है. यह समकालीन हिंदी काव्याकाश के कुछ कम जाने या अनजाने क्षितिजों की ओर खुलने वाला गवाक्ष है..वरना नेट के आम पाठक को राजेश तिवारी की ऐसी कविताएं पढ़ पाने का इतना सहज मौका कहाँ मिलता भला..बेहरतीन कविताओं से सजा हुआ यह अंक स्तंभ के सुखद भविष्य की संभावनाएं जगाता है तो थके हुए रंगों वाली उन गैर जरूरी चीजों का दस्तावेज भी बनता है जिन्हे बीसवी शती की कूड़ागाड़ी ले गयी..हिंदयुग्म को बधाई

Tarun / तरुण / தருண் का कहना है कि -

Dhumil Ke Liye
ग़ज़ल की तासीर
थी उसमे
और
छंद में
बंधी
होकर भी
मुक्त थी
वो
जैसे
आकाश में
बादलों से बनी
कोई
रचना हो
मैंने देखा
तो
मुझे
अपनी सी लगी
तुमने देखा
तुम्हारी
हो गयी
गोया
कोई
बच्ची हो
हर
गोद में जाने को
ललकती जैसे
बस
वही
अभिव्यक्ति
वही सरलता
और
चौका कर
फिर
सहज
कर देने की
अदा
कायल
कर गयी
मुझको !

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