मित्रों,
नमस्कार...हिंद-युग्म ने मेरे लिए सोमवार का दिन निर्धारित किया था कि मैं अपनी कविता लेकर हाजिर हो जाऊं....प्रस्तुत है पहले सोमवार के लिए कविता .....
मैं नहीं हूँ.....
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
तिमिर मुझको प्रिय, कि अब तक इसी ने है संभाला,
छीनकर सर्वस्व मेरा, चांदनी क्यों सौंपती मुझको उजाला??
भूल जाये जो निशा को सूर्य पाकर मैं नहीं हूँ....
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
मैं अगर होता बड़ा (तो) वश में कर लेता समय को,
छवि मेरी जो तुम्हारे मन बसी है, तोड़ता उस मिथक भय को,
जो तुम्हारे प्रेम को दे सके आदर, मैं नहीं हूँ,
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
मैं किसी का दर्द सुनकर क्षणिक सुख भी दे ना पाऊं,
फिर तुम्हारे प्यार का पावन-कलश कैसे उठाऊं??
प्यार लौटा पाऊं, प्रिय का प्यार पाकर, मैं नहीं हूँ....
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ......
आपके स्नेह का शुभाकांक्षी
निखिल आनंद गिरि
9868062333
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ..
बहुत सुन्दर , शिल्प भाव और परिपक्वता सब की दृष्टि से उत्तम ।
"तिमिर मुझको प्रिय, कि अब तक इसी ने है संभाला,
छीनकर सर्वस्व मेरा, चांदनी क्यों सौंपती मुझको उजाला??"
भाव उत्तम , शिल्प में ढीली पड़ती पंक्तियाँ ।
मैं किसी का दर्द सुनकर क्षणिक सुख भी दे ना पाऊं,
फिर तुम्हारे प्यार का पावन-कलश कैसे उठाऊं??
प्यार लौटा पाऊं, प्रिय का प्यार पाकर, मैं नहीं हूँ....
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
कवि अपनी लय फ़िर पा लेता है । और इस बार सही और पहले से भी ज्यादा परिपक्वता से ।
शैली बहुत पसंद आयी । मुझे यह शैली पसंद आती ही है । कवि को य ध्यान रखना चाहिये कि कविता की बागडोर बीच में न छूटे । तुममें असामान्य प्रतिभा है ।
सस्नेह
आलोक
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ|
उओपरोक्त अपने आप में संपूर्ण पंक्तियाँ हैं। संपूर्ण कविता भी, मैं प्रभावित हुआ।
"भूल जाये जो निशा को सूर्य पाकर मैं नहीं हूँ...."
"मैं अगर होता बड़ा (तो) वश में कर लेता समय को"
"जो तुम्हारे प्रेम को दे सके आदर, मैं नहीं हूँ,
मैं किसी का दर्द सुनकर क्षणिक सुख भी दे ना पाऊं,
फिर तुम्हारे प्यार का पावन-कलश कैसे उठाऊं??"
वाह!!!
मैं शिल्प को ले कर आलोक जी की टिप्पणी से सहमत हूँ, थोडा समय दे कर इस गीत को आप पराकाष्ठा प्रदान कर सकते हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
कविता बहुत अच्छी है.........
निखिल आनंद गिरि जी।
आपकी कविता बहुत अच्छी है विशेषकर ये पंक्तियाँ -
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
- रचना सागर
बहुत सुन्दर रचना है।
मैं किसी का दर्द सुनकर क्षणिक सुख भी दे ना पाऊं,
फिर तुम्हारे प्यार का पावन-कलश कैसे उठाऊं??
प्यार लौटा पाऊं, प्रिय का प्यार पाकर, मैं नहीं हूँ....
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ......
इन पंक्तियों पर कवि की भावनाओं ने शिल्पगत मजबूत बनायी है... मगर समूची कविता को देखा जाये तो कहा जायेगा कि कवि को प्रसव-क्षणों को थोड़ी और गहराई से उसके पूरे वितान में जीने की आवश्यकता है।
यह सब इसलिए लिखा निखिल जी.. कि आपमें उम्मीद छुपी है।
निखिल जी,
आपकी कविता सचमुच बहुत सुंदर है. पर आप में क्षमता है, इसे और भी सुंदर बना सकने की. थॊड़ा और समय दें इसे.
मित्रों,
आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए संजीवनी का काम कर रही हैं.....ठीक ही कहा आशीष भाई, मेरे प्रसव-काल की वेदना थोड़ी कम देर जीं गयी लगती है.........मुझमे उम्मीद रखने के लिए धन्यवाद........आलोक जीं , राजीव जीं व अन्य सभी सुधी पाठकों का शुक्रिया.आगे कोशिश करुंगा की शिल्प में और कसाव हो..........आज फ़ोन पर दो-चार अनजाने काव्य-प्रेमियों का फ़ोन आ गया....मेरी कविता पर प्रतिक्रिया के लिए......मैंने उन्हें अनुरोध किया है कि हिंद-युग्म परिवार में योगदान भी करें........उन्हें हिंद-युग्म पसंद आ रहा है......आप सबको बधाई
निखिल आनंद गिरि
ajay bhai,
ab apni kavita par aur samay dunga.daant pilane ke liye dhanyawaad.waise aapki pichli kavita behtarin thi....
nikhil
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
दमदार शुरूआत!
मैं किसी का दर्द सुनकर क्षणिक सुख भी दे ना पाऊं,
फिर तुम्हारे प्यार का पावन-कलश कैसे उठाऊं??
दिल को छूति पंक्तियाँ, बहुत ही खूबसूरत!
बधाई!!!
मुझे आपकी यह रचना सुंदर लगी ..कई पंक्तियों ने ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित किया .....जैसे
तिमिर मुझको प्रिय, कि अब तक इसी ने है संभाला,
छीनकर सर्वस्व मेरा, चांदनी क्यों सौंपती मुझको उजाला??
मैं किसी का दर्द सुनकर क्षणिक सुख भी दे ना पाऊं,
फिर तुम्हारे प्यार का पावन-कलश कैसे उठाऊं??
shukriya ranju ji.....aage bhi apna sneh banaaye rakhein....
"दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ..."
"मैं किसी का दर्द सुनकर क्षणिक सुख भी दे ना पाऊं,
फिर तुम्हारे प्यार का पावन-कलश कैसे उठाऊं??""
बहुत सुन्दर
भई निखिल जी, मुझे तो मिल गया जो मुझे चाहिये कविता से
बहुत अच्छे भाव और उतनी ही अच्छी अभिव्यक्ति
बहुत बहुत बधाई
मेरे सभी मित्रों की बातें निश्चित रूप से आपके लिये लाभप्रद होंगी, ध्यान अवश्य दीजियेगा
शुभ कामनायें
सस्नेह
गौरव शुक्ल
आपने फिर बहुत प्रभावित किया निखिल जी..विशेषकर यह पंक्ति बहुत अच्छी लगी-
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ
यूं ही लिखते रहें। अख़बार में आपकी तस्वीर भी देखी थी, उसके लिए भी बधाई...
गौरव द्वय,
एक साथ मेरी कविता पर प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद....दरअसल, मैं आप दोनों की टिप्पणी का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था.....आशा करता हूँ शुक्ल जी कि आपको आगे भी मेरी कविता से आपके मतलब का मिलता रहे...
सोलंकी जीं, पूरी कविता बस इसी एक बात को कहने के लिए लिखी गयी थी कि
"अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ ........"
आप समझ सके, मैं सफल हुआ....
अखबार में भी मुझे ढूँढ निकाला, भाई इतने निकट तो मत आयें..........(मज़ाक कर रह हूँ...)
निखिल आनंद गिरि
@yahoo.com"दिखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ|"
बेहतर पंक्ति॰॰॰ या यूं कहूं कि पूरी कविता की जान, तो अतिशयोक्ति न होगी ।
अच्छी काव्य रचना जिसने एकदम से ध्यान आकृष्ट किया ।
आर्य मनु
आर्य मनु जी,
नमस्कार...आप भी ज़रा देर से आये.......
आये तो सही... शुक्रिया
कविता अच्छी लगी, धन्यवाद.......मेरा दायित्व भी बढ गया आगे के लिए.....
स्नेह बनाए रखें....
निखिल आनंद गिरि
आपकी कविता ने बहुत प्रभावित किया। विशेषरूपेण शुरू की दो मगर संपूर्ण पंक्तियाँ-
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ... ने।
कहीं-कहीं शिल्पगत कमियाँ है। जैसे मात्राओं का कम-अधिक होना। मगर यदि इसे पढ़ने वक़्त कम-अधिक आवृत्ति के साथ पढ़ा जाय तो साधारण श्रोता पकड़ नहीं पायेगा।
सबसे पहले हिन्द युग्म पर आपकी पहली सोमवारिय कविता का हम तहे दिल से स्वागत करते हैं…
सबसे पहली पक्तिं ही इतनी खूबसूरत है की क्या कहने…
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
अहम का पुतला है वो, मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
बेहतरीन शब्द सयोंजन है बधाई स्वीकार करें…
सुनीता(शानू)
शैलेश जीं,
प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया...अपकी अनुपस्थिति खल रही थी......अब हिंद-युग्म के कवियों से संगत होगी तो शिल्प-दोष भी दूर हो जाएगा......मुझे काव्य-शिल्प की बारीकियों का ज्ञान नही है...जो पंक्ति मुझे सरस लगती है, उसे ही ठीक मान लेता हूँ... आप जानकारी उपलब्ध कराएँ तो हिंद-युग्म का भी भला हो.... यूं ही पढ़ते रहे......
सुनीता जीं,
कविता पर प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद...आगे भी हिंदी कि सेवा करता रहूगा......आप अपना स्नेह बनाए
रखें...
निखिल आनंद गिरि
निखिल जी, भावनाओं के मामले में रचना अव्वल दर्ज़े की है।
बहाव पर मेहनत की आवश्कता है।
ये लाइनें बेहतरीन लगीं:
मैं किसी का दर्द सुनकर क्षणिक सुख भी दे ना पाऊं,
फिर तुम्हारे प्यार का पावन-कलश कैसे उठाऊं??
प्यार लौटा पाऊं, प्रिय का प्यार पाकर, मैं नहीं हूँ....
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ......
aapki kawita padhte
basu ki yad taza ho gayi
basu malwiy, allahabad ka hi tha 'MAI NAHI HU!' USKI KAVITA KA SHIRSHAK THA
KATH KI TALWAR WALE AUR HONGE'
NAHI DETE GALIYA JO
KRODH BHI KAR NAHI PATE
SHABD JINKI ABHYARTHNA MME PAILGI PARNAM GATE
MAI NAHI HU
SHAYAD AAPNE BHI SUNI HO
KHAIR !!
AAPKI WAZAH SE USKI YAD AAI
SHUKRIYA
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