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Tuesday, July 10, 2007

कल्पना चावला के पुनर्जन्म पर..



वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा
यह सोच कोंपल की नये, सोचा किया जलता रहा॥


यह सत्य, मेरे देश में, सपनों पे बरगद है तना
सावन में आँखें छिन गयी, बच्चे हरे-अंधार में
राकेट कागज़ के उडाते, मार खाते, नाक बहती
रात कहती, डूब जायेंगे दिये मझधार में..


मन के सच्चे, कितने कच्चे, एसे बच्चे
कह के झरना, आस की घाटी में हँस झरता रहा।
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा॥


कब तक जपोगे तुम कि पूरब में सुबह पहले हुई
रोना रहा जीरो का और अटके दश्मलव पर रहे,
दुनियाँ पहुँचती चाँद पर, सागर के तल को नापती
हैं पूछते बच्चे मेरे, रावण के कितने सर रहे,

नेकर सरकती थाम, टूटी चप्पलें घिसता हुआ
सपना हरी सी बेंत से, सहमा रहा, डरता रहा।
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा॥


क्योंकर न एसे ख्वाब हों, क्योंकर न वह विक्षिप्त हो,
भूखा भजन करता रहे, सरकार जब निर्लिप्त हो,
उँचा सिंसेक्स, गर्वित टेक्स-चूसक, नीतिनिर्देशक,
बढे हम किस तरफ, बतलाये मुझको कोई पथदर्शक,


अब भी हजारो बाल का ईस्कूल से नाता नहीं
उसका मजूरा लाडला, भूख से मरता रहा।
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा॥


यह जन्म की, या धर्म की, गीता की कोई दास्ता
हर्गिज नहीं, लेकिन मरी उम्मीद फिर पैदा हुई
अम्बर में उडना चाहती, बेटी हमारे गाँव की,
यह बात मामूली किसी भी कोण से हर्गिज नहीं


उसको अगर मन के किसी विज्ञान की दिक्कत भी है
तो भी मेरा उम्मीद से मन, आँख ही भरता रहा।
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा॥

*** राजीव रंजन प्रसाद
9.07.2007

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23 कविताप्रेमियों का कहना है :

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

आपकी कविता में कविता की उड़ान काफी अच्‍छी लगी।

सामाजिक बातों का भी उल्‍लेख किया उसका प्रयोग भी अच्‍छा लगा।
बधाई

रंजू भाटिया का कहना है कि -

एक बहुत ही अच्छी रचना जिसकी उड़ान दिल को छूती है ..बहुत कुछ कह गयी आपकी यह रचना राजीव जी ....

यह जन्म की, या धर्म की, गीता की कोई दास्ता
हर्गिज नहीं, लेकिन मरी उम्मीद फिर पैदा हुई
अम्बर में उडना चाहती, बेटी हमारे गाँव की,
यह बात मामूली किसी भी कोण से हर्गिज नहीं

कई दिन से इस ख़बर को पढ़ और सुन रही हूँ ...आपके लफ़्ज़ो ने एक चित्र ला दिया आँखो के सामने ...सुंदर रचना के लिए बधाई

आर्य मनु का कहना है कि -

एक ऐसी रचना जिसे बार बार पढने का मन हुआ, और इतने पर भी मन नही भरा तो जितने भी "काव्य-रसिक" मित्र है, उनको संदेश, SMS आदि भेजकर पढने को कहा, और सब जगह से एक ही आवाज़ आई- अ॒द्वि॒ती॒य॒ ।
आखिर कब तक हम अतीत के गौरव का रोना रोते रहेंगें ।माना कि हमारा अतीत "चोखा" था, पर वर्तमान॰॰॰॰ आज सबके सामने है । हमारे यहाँ कार्ययोजनायें बनती है, पर समय पर पूरी नही होती॰॰॰॰ अरे भाई, समय पर पूरी हो जाये, तो अगली योजना के बडे बजट का क्या होगा ????????
आपने जो प्रश्न सामने रखा है, इसके लिये युवा वर्ग को ही सोचना होगा । बुज़ुर्गों का काम हम दिल्ली मे रोज़ देख रहे है । आशा करता हूँ कि आपकी ओजपूर्ण वाणी सुषुप्तों को जगाने मे मददगार साबित होगी,
पर इतने से काम न चलेगा॰॰॰॰॰
भैया,
सालों की नींद है वक्त तो लगेगा॰॰॰॰पर हां भारत ज़रूर जगेगा ।
आपका अभिवन्दन ।
आर्यमनु

श्रद्धा जैन का कहना है कि -

bahut hi achhi rachna har insaan ki lalasa ki koi aisa kaam kar jaaye ki desh ka naam roshna ho

mujhe aapki har panktiyan bahut achi lagi jismain samaj ka desh ka man ka sabhi baaton ka varan hai

SahityaShilpi का कहना है कि -

राजीव जी,
भाव और विचार के स्तर पर कविता बहुत ही अच्छी और प्रभावपूर्ण है. आपने अतीत को ही हर वक्त सामने रखने की हमारी पुरानी मर्ज़ पर करारा व्यंग्य किया है. इस वैज्ञानिक युग में भी हम उन्हीं सदियों पुराने अंधविश्वासों में जकड़े हुये हैं.
इतना होने के बावजूद कविता में शिल्प के स्तर पर कुछ कमियाँ नजर आती हैं. उदाहरणस्वरूप पहली दो कड़ियों (paras)मे जो लय है, उस का निर्वाह बाद की कड़ियों में नहीं हो पाया है.
क्योंकर न एसे ख्वाब हों, क्योंकर न वह विक्षिप्त हो,
भूखा भजन करता रहे, सरकार जब निर्लिप्त हो,
उँचा सिंसेक्स, गर्वित टेक्स-चूसक, नीतिनिर्देशक,
बढे हम किस तरफ, बतलाये मुझको कोई पथदर्शक,

ये पँक्तियाँ अपने आप में बहुत सुंदर हैं, परंतु अपनी पूर्ववर्ती लय का निर्वाह नहीं कर पातीं.

डाॅ रामजी गिरि का कहना है कि -

aapne hamaare samaj ki visangatiyon par prakash dalne ke liye satik bimb chuna hai.
Dr.RG

मनीष वंदेमातरम् का कहना है कि -

मौज़ूदा परिवेश में आपकी चिंता लाज़िमी है, विश्वास बनाए रखिए, एक दिन भारत बदलेगा, हर लड़की कल्पना होगी और हर लड़का तीस्मारखाँ होगा।,

Nikhil का कहना है कि -

कब तक जपोगे तुम कि
पूरब में सुबह पहले हुई
रोना रहा जीरो का और
अटके दश्मलव पर रहे,
दुनियाँ पहुँचती चाँद पर,
सागर के तल को नापती हैं
पूछते बच्चे मेरे,
रावण के कितने सर रहे,
नेकर सरकती थाम,
टूटी चप्पलें घिसता हुआ
सपना हरी सी बेंत से,
सहमा रहा, डरता रहा।

कमाल कि पंक्तियां हैं...मुझे फिर ये अहसास हो गया कि सिर्फ ' प्रतिष्ठित ' पत्रिकाओं में छ्पने वाली रचनायें ही समकालीन नही हैं......क्या अंदाज़ है बात कहने का .....अति उत्तम.......
निखिल आनंद गिरि

36solutions का कहना है कि -

बहुत खूब राजीव जी ।

Gaurav Shukla का कहना है कि -

बहुत खूब राजीव जी
सामाजिक विषमताओं पर आपके करारे और सशक्त प्रहार से आंदोलित हो उठता हूँ
आत्ममुग्ध समाज को इस प्रकार जगाने क प्रयास साराहनीय है, अनुकरणीय है

"यह सत्य, मेरे देश में, सपनों पे बरगद है तना
सावन में आँखें छिन गयी, बच्चे हरे-अंधार में"

आपमें एक कर्तव्यपरायण, जिम्मेदार कवि को देखता हूँ जो आजकल नहीं दिखते
मेरी शुभकामनायें हैं आपके साथ

सादर
गौरव शुक्ल

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

यह सत्य, मेरे देश में, सपनों पे बरगद है तना
सावन में आँखें छिन गयी, बच्चे हरे-अंधार में
राकेट कागज़ के उडाते, मार खाते, नाक बहती
रात कहती, डूब जायेंगे दिये मझधार में..

कब तक जपोगे तुम कि पूरब में सुबह पहले हुई
रोना रहा जीरो का और अटके दश्मलव पर रहे,
दुनियाँ पहुँचती चाँद पर, सागर के तल को नापती
हैं पूछते बच्चे मेरे, रावण के कितने सर रहे,

नेकर सरकती थाम, टूटी चप्पलें घिसता हुआ
सपना हरी सी बेंत से, सहमा रहा, डरता रहा।

यह सब आप ही लिख सकते थे भैया...
आप को पढ़कर किसी और का लिखा पढ़ने का मन ही नहीं करता...आपसे फिर से मिलने का मन करने लगा है। जल्दी मिलियेगा।

Mohinder56 का कहना है कि -

देरी से टिप्पणी के लिये क्षमाप्रार्थी हूं I

कब तक जपोगे तुम कि पूरब में सुबह पहले हुई
रोना रहा जीरो का और अटके दश्मलव पर रहे,
दुनियाँ पहुँचती चाँद पर, सागर के तल को नापती
हैं पूछते बच्चे मेरे, रावण के कितने सर रहे,

आप ने सही कहा कि हम कब तक अपने अतीत का गुणगान करते रहेंगे.. वर्तमान को क्यों नही सुधारने का प्रयत्न करते

यह जन्म की, या धर्म की, गीता की कोई दास्ता
हर्गिज नहीं, लेकिन मरी उम्मीद फिर पैदा हुई
अम्बर में उडना चाहती, बेटी हमारे गाँव की,
यह बात मामूली किसी भी कोण से हर्गिज नहीं

दिल को छूती हुई पंक्तियां है... हर नव अकुंरित कौंपल को हरा भरा पेड बनने का समान अवसर मिलना जरूरी है

Unknown का कहना है कि -

bhai sahab dard kuchh adhiktaa mein hai..
kaphi sachchaaiiyon ko ujaagar kiyaa hai...achchhi kavitaa hai..

Manish Kumar का कहना है कि -

बढ़िया लिखा है।

Alok Shankar का कहना है कि -

ेकर सरकती थाम, टूटी चप्पलें घिसता हुआ
सपना हरी सी बेंत से, सहमा रहा, डरता रहा।

"
जिस कल्पना की बात करते आप हो, वह है कहीं ?
जिस ख्वाब की यह दास्तां उसकी झलक भी तो नही ।
कुछ और ही ये बिंदु जिनपर सोचना ही व्यर्थ है
पर आपके इस काव्य में कथनीय कुछ सामर्थ्य है ।
आलोक

Anupama का कहना है कि -

Its close to my heart....would not be able to comment on it....

praveen pandit का कहना है कि -

राजीव जी!
क़लम तलवार की तरह ऐसे ही चलती है,
झिंझोड़ा खूब-
एक भी जागा तो काम बन गया -समझिये
और जागेगा ही--
रस्सा डाला हुआ है क्या?
बढना है तो आगे देख--
पलटता क्या है

बहुत खूब राजीव जी!

सस्नेह
प्रवीण

सुनीता शानू का कहना है कि -

बहुत खूब राजीव जी ।
हमेशा की तरह आपकी खूबसूरत और बेहतरीन रचना…

सुनीता(शानू)

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

कविता मुझे कैसी लगी-इस पर मैं बाद में टिप्पणी करूँगा। उससे पहले आपकी कविता पर मेरे कुछ संशय हैं, उसका निवारण कीजिए।

कविता की शुरूआत-

वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा
यह सोच कोंपल की नये, सोचा किया जलता रहा॥

बहुत दिमाग लगाया तो लगा कि इसमें अल्पविराम कहीं और लग गया है। मेरे हिसाब से यह इस तरह से लिखी जानी चाहिए थी-

वह कल्पना, इस जन्म में मैं कल्पना करता रहा
यह सोच, कोंपल की नये सोचा किया जलता रहा॥

(यहाँ 'वह कल्पना' ही पूरा वाक्य है, मतलब वह कल्पना इस जन्म में होने की मैं मात्र कल्पना करता रहा और 'यह सोच' भी पूरा वाक्य है, मतलब यह सोच तो मैंने पाई, सोचा मगर जलता भी रहा। यह अंदाज़ा मैं इसलिए भी लगा पाया क्योंकि नीचे की पंक्ति में कुछ इसी तरह के भाव हैं-

जैसे-

यह सत्य, मेरे देश में, सपनों पे बरगद है तना
यहाँ 'यह सत्य' एक कम्प्लीट सेन्टेन्स हैं। इसे और अच्छे तरीके से लिखें तो लिखेंगे ' यह सत्य, मेरे देश में सपनों पे बरगद है तना' मतलब यह जो सोच हैं जिसमें सपनों पर बरगद तन गया है। कुछ इस तरह।

)

क्या मैं सही अर्थ निकाल पा रहा हूँ। यदि नहीं तो कुछ प्रकाश डालें ताकि मैं कविता को ठीक प्रकार से समझ सकूँ।

Anonymous का कहना है कि -

राजीवजी,

मैं शुरूआत से ही आपकी लेख़नी में क्रांतिकारी भावों को महसूस करता हूँ, आपकी रचनाएँ पढ़कर ऐसे लगता है कि कलेज़ा जल रहा है, लहू में उबाल आया हुआ है मगर आप मुट्ठियाँ नहीं भींच रहें, दांत नहीं पीस रहे....सबकुछ बदलने डालने को तत्पर हैं, पूरे विश्वास में कि क्रांति आयेगी जरूर आयेगी...

दर्द को क्रांति में बदलने का जज्बा दिखता है आपकी कविताओं में...

अब कुछ इसके कविता के बारे में...

नेकर सरकती थाम, टूटी चप्पलें घिसता हुआ
सपना हरी सी बेंत से, सहमा रहा, डरता रहा।


सपने को बचपन की छवी में क्या खूब ढ़ाला है आपने। वाह!

क्योंकर न एसे ख्वाब हों, क्योंकर न वह विक्षिप्त हो,
भूखा भजन करता रहे, सरकार जब निर्लिप्त हो,
उँचा सिंसेक्स, गर्वित टेक्स-चूसक, नीतिनिर्देशक,
बढे हम किस तरफ, बतलाये मुझको कोई पथदर्शक,


सटीक प्रश्न! बदलाव जल्द नहीं आया तो निश्चय ही अमीर-गरीब के बीच खाई इतनी लम्बी हो जायेगी की उसे पाटना अत्यंत मुश्किल हो जायेगा।

अम्बर में उडना चाहती, बेटी हमारे गाँव की,
यह बात मामूली किसी भी कोण से हर्गिज नहीं


सच! यह मामूली बात नहीं, हर्गिज नहीं!

नमन!

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

शैलेष जी वस्तुत: यह कविता उस नन्ही बच्ची पर केन्द्रित है जिसने स्वयं को कल्पना चावला का पुनर्जन्म घोषित किया हुआ है। बच्ची का परिवेष और अंधविश्वास, उस पर मीडिया की गैर-जिम्मेदाराना प्रस्तुतियाँ क्षोभ भी पैदा करती है और इसी अंधकार पर मेरी कलम चली है। आप अपने संशय के निवारण के लिये काव्य में लिखी गयी पंक्तियों को गद्य में बदल दें। तब इस पंक्ति को देखें:
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा
यह सोच कोंपल की नये, सोचा किया जलता रहा॥

इसे गद्य में आप लिखेंगे:

वह (बच्ची) इस जन्म में कल्पना है, मैं यह कल्पना करता रहा। यह नये कोंपल(21वीं सदी के बच्चों) की सोच है, यह सोच कर क्षुब्ध हुआ (जलता रहा)।

इसी परिप्रेक्ष में जो कॉमा मैने लगाये हैं उनकी वही जगह बनती है। यदि मै आपके सुझाव पर चलता हूँ तो यह रचना समझ के परे हो जाती है।

वह कल्पना, इस जन्म में मैं कल्पना करता रहा
यह सोच, कोंपल की नये सोचा किया जलता रहा॥

यह समसामयिक घटना है जिसके होने न होने की मैं कल्पना कर रहा हूँ न कि किसी कल्पना का कविताकरण। मैं वह कल्पना की इस जन्म में किसी तरह की कल्पना नहीं कर रहा अपितु बच्ची के दावे पर कल्पना कर रहा हूँ कि क्या यह संभव है?

यह सोच, कोंपल की नये सोचा किया जलता रहा॥

यह सोच के पश्चात यदि आप कॉमा लगाते हैं तो इस पंक्ति का अर्थ समझ के परे हो जाता है। 'वह कल्पना' पूरा वाक्य नहीं है न ही 'यह सोच' पूरा वाक्य है।

"यह सत्य, मेरे देश में, सपनों पे बरगद है तना"
इस अंश में तीन टुकडे हैं और तीनों को सोच का पॉज चाहिये।

हाँ इन बातों को मुझे स्पष्ट करना पडा यह मेरी संप्रेषणीयता की असफलता है। इस मायने में यह रचना निश्चित ही कमतर है।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Anonymous का कहना है कि -

वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा
यह सोच कोंपल की नये, सोचा किया जलता रहा॥
सुन्दर पंक्तियाँ हैं।

- रितु रंजन

पंकज का कहना है कि -

कब तक जपोगे तुम कि पूरब में सुबह पहले हुई
रोना रहा जीरो का और अटके दश्मलव पर रहे,
दुनियाँ पहुँचती चाँद पर, सागर के तल को नापती
हैं पूछते बच्चे मेरे, रावण के कितने सर रहे,

नेकर सरकती थाम, टूटी चप्पलें घिसता हुआ
सपना हरी सी बेंत से, सहमा रहा, डरता रहा।
वह कल्पना इस जन्म में, मैं कल्पना करता रहा॥

राजीव जी, जब भी आप की सामाजिक सरोकारों वाली कोई रचना लिखते हैं तो पूरी तरह से डूबकर लिखते हैं।
यह रचना भी उन्हीं की एक कड़ी है।

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