जब भी कुछ फ़ुरसत मिलती है,
कुछ आसमान चढ़ लेते हो ;
अम्बर की गर्वित ऊँचाई ,
को थोड़ा कम कर देते हो ।
सपनों के उड़ते बादल को
डोरी से खींच धरातल पर,
साँचे में उसको ढाल- ढाल
कर मूर्त्त,बना देते प्रस्तर ।
विस्मित है यह ब्रह्मांड सकल
लखकर तेरा पुरुषार्थ प्रबल ;
ऐसी उड़ान, ऐसी तेजी
रे मनुज ! तुझे किसने दे दी ?
संसृति ने नग्न उतारा था
सूनी ,उजाड़ इस धरती पर
ज्यों किसी राख के ढेर तले
कोई चिंगारी हो भीतर ।
पर कौन जानता है, किस
चिंगारी में क्या ज्वाला बसती ?
किस छाती में, किन तूफ़ानों की
अंगड़ाई लेती हस्ती ?
सपनों की छाती में लेती
हो अगर उड़ानें अँगड़ाई,
तो रोक नहीं सकती उसको ,
पर्वत की कोई ऊँचाई ।
यदि यहाँ दरारों से पत्थर की,
कोई पतली धार बही ;
कुछ दूर निकलकर बनती है
वेग से उफ़नती नदी कहीं ।
जब बूँद-बूँद , घट-घट भरकर
यह सिंधु उफ़नता है आगे
तो ग्यात हुआ है सपनों से
तुम निकल गये कितना आगे ।
अब पता नहीं ,तुम इस दुर्लभ
ऊँचाई का क्या करते हो ?
सीढ़ी फ़िर नई बनाते हो,
या धरती पर पग धरते हो।
तुमने अपने संधानों से
धरती को बहुत बदल डाला
पहले खुद नंगे आये थे
अब इसको नंगा कर डाला !
अच्छा है , छूना आसमान
अच्छा है चढ़ना नित ऊपर;
पर इसका भी तो ध्यान रहे
हों कदम हमारे धरती पर !
जिस दिन पैरों के नीचे से
यह धरा खिसकती जायेगी,
उस दिन इस धरती की तुझको
अहमियत समझ में आयेगी ।
-आलोक शंकर
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
पर कौन जानता है, किस
चिंगारी में क्या ज्वाला बसती ?
किस छाती में, किन तूफ़ानों की
अंगड़ाई लेती हस्ती ?
बहुत सुंदर भाव हैं . बधाई
बहुत अच्छी कविता। एकदम सधी हुई।
अच्छा है , छूना आसमान
अच्छा है चढ़ना नित ऊपर;
पर इसका भी तो ध्यान रहे
हों कदम हमारे धरती पर !
बहुत सुंदर रचना, आलोक जी. आज आपकी रचना का पाठकों को जो इंतज़ार करना पड़ा, उसकी शिकायत इस रचना को पढ़ने के बाद निश्चय ही बहुत कम रह जाती है.
बधाई!
आलोक जी क्या बात है बहुत सुन्दर भाव है कविता में मन को मोह ही लिया है...
शुभ-कामनाएं...आप एसे ही लिखते रहे और हम पढ़ते रहे...:)
बहुत ही खूबसूरत कविता!
आपने जो संदेश इस कविता के माध्यम से दिया है वह सम्पूर्ण मानव जाति को समझना होगा।
अच्छा है , छूना आसमान
अच्छा है चढ़ना नित ऊपर;
पर इसका भी तो ध्यान रहे
हों कदम हमारे धरती पर !
सही! बिलकुल सही!
जब भी कुछ फ़ुरसत मिलती है,
कुछ आसमान चढ़ लेते हो ;
अम्बर की गर्वित ऊँचाई ,
को थोड़ा कम कर देते हो
बहुत उत्साही पंक्तियाँ हैं ये..
अब पता नहीं ,तुम इस दुर्लभ
ऊँचाई का क्या करते हो ?
सीढ़ी फ़िर नई बनाते हो,
या धरती पर पग धरते हो।
पता नहीं कि यह एक प्रश्न है या तीखा कटाक्ष..पर बहुत गहरा है।
बहुत अच्छी कविता है आलोक, तुम्हें बहुत दिन बाद पढ़ा, आज बहुत अच्छा लगा।
सारगर्भित काव्य,
तीक्ष्ण भाव-बहाव ।
"पर कौन जानता है, किस , चिंगारी में क्या ज्वाला बसती ?
किस छाती में, किन तूफ़ानों की, अंगड़ाई लेती हस्ती ?"
कुछ पंक्तियों के कटाक्ष- भाव बढिया लगे ।
बहुत खूब, ज़ारी रखें ।
सस्नेह,
आर्यमनु ।
आलोक जी,
युग्म को आपकी वापसी का लम्बे समय से इंतज़ार था, दुरुस्त आयद।
सपनों की छाती में लेती
हो अगर उड़ानें अँगड़ाई,
तो रोक नहीं सकती उसको ,
पर्वत की कोई ऊँचाई ।
यदि यहाँ दरारों से पत्थर की,
कोई पतली धार बही ;
कुछ दूर निकलकर बनती है
वेग से उफ़नती नदी कहीं ।
और सटीक यथार्थपरक अंत।
जिस दिन पैरों के नीचे से
यह धरा खिसकती जायेगी,
उस दिन इस धरती की तुझको
अहमियत समझ में आयेगी ।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सुन्दर भाव भरी कविता के लिये बधायी
अच्छा है , छूना आसमान
अच्छा है चढ़ना नित ऊपर;
पर इसका भी तो ध्यान रहे
हों कदम हमारे धरती पर !
कविता की प्रशंसा में बस ये पंक्तियाँ ही काफी हैं
"जिस दिन पैरों के नीचे से
यह धरा खिसकती जायेगी,
उस दिन इस धरती की तुझको
अहमियत समझ में आयेगी ।"
वाह, बहुत प्रतीक्षा करवाई आपने लेकिन यह सिद्ध हुआ कि प्रतीक्षा का फल मीठा होता है
पुनः सुन्दर और मोहक काव्य-शिल्प, गहरे भाव
बहुत सुन्दर रचना
हार्दिक बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
आपमें दिनकर की झलक दिखाई देती है। खण्डकाव्य पर हाथ क्यों नहीं आजमाते?
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