यह कारागार जहाँ तुम झेल रही हो,
नित नई यातनाएं,
किसी और ने नहीं स्वयं तुमने रचा है अपने हाथों से
और यह सोने का पिंजरा भी तुमने ही गढ़ा है,
जहाँ छटपटाती हो तुम अब,
और बिखर चुकी हैं तुम्हारी आकांक्षाएं
टकराकर जिसकी सलाखों से
और हाँ ये अग्नि भी मुझे तुम्हारी ही ज्योती का,
विकृत स्वरुप नज़र आती है
झुलसा रही है जो तुम्हारा अस्तित्व अपनी ज्वालों से
हे नारी ये तो कहो जो सबके लिए बनी धरती,
जिसने सजाये अनगिनत आकाश,
उसने आखिर क्यों छल किया
स्वयं अपने ही ख्वाबों से
---ममता पंडित
कवयित्री द्वारा प्रेषित शीर्षक- छल
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4 कविताप्रेमियों का कहना है :
sundr nari ko naridivas per rachna..........
ईश्वर खुद ही सृष्टि रच, पछताए दे दोष.
या रचना को देखकर, करे तनिक संतोष?
नारी रचनाकार है, रचती है संसार.
भला-बुरा दोनों वहाँ, लेकिन नहीं असार.
नारी निज उपलब्धि का, करे न क्यों खुद मान?
खुद को खुदी नकारती, गा शोषण का गान.
'सलिल' न जो खुद को सका, किंचित कभी सराह.
जग क्यों उसकी करेगा, आगे बद्गकर वाह?
Good Poem indeed.
Accepted some of your thoughts though will still say life is our own and we can mould it anyway ,it can be hard sometimes but then its our choice and we can make this world even more beautiful by making our life more beautiful,its upto us cry for it,make it or live it.
don't know how to post in hindi.
Congrats!!!
-Anamika
काफी हद तक सही भी लिखा है ....
धन्यवाद !!
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