मैंने हँसाना सीखा है,
मैं नहीं जानती रोना.
बरसा करता पल-पल पर ,
मेरे जीवन में सोना.
मैं अब तक जान न पाई,
कैसी होती है पीड़ा?
हँस-हँस जीवन में मेरे
कैसे करती है क्रीडा?
जग है असार, सुनती हूँ
मुझको सुख-सार दिखाता.
मेरी आँखों के आगे
सुख का सागर लहराता.
उत्साह-उमंग निरंतर
रहते मेरे जीवन में
उल्लास विजय का हँसता
मेरे मतवाले मन में.
आशा आलोकित करती
मेरे जीवन को प्रतिक्षण
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित
मेरी असफलता के घन.
सुख भरे सुनहले बादल
रहते हैं मुझको घेरे
विश्वास प्रेम साहस हैं
जीवन के साथी मेरे।
प्रेषक: संजीव वर्मा 'सलिल'
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
सलिल जी,
कितने सुख और आशा से भरी सुभद्रा जी की यह सरल और सुंदर रचना है. काश हर नारी की जीवन-गाथा ऐसी ही हो पाती. सुख-दुःख, आशा-निराशा की लहरों के उतार-चढ़ाव पर डोलती रहती है उसकी नैया. इतनी प्यारी सी रचना प्रकाशित करवाने के लिए धन्यबाद
सलिल जी ..
सुभद्रा कुमारी चौहान जी की कवितावों में एक जोश व हिम्मत का ज़ज्बा
अक्सर देखने को मिलता है..
उनकी झाँसी वाली रानी थी... आज भी दिल को झकझोर देती है
Thanks for sharing
बहुत धन्यवाद
सादर !!!
सुभद्रा जी की इस रचना के लिये धन्यवाद ।
अमर कवयित्री सुभद्रा जी की कालजयी रचना को सराहनेवाले सचमुच जीवन के प्रति सकारात्मक सोच रखनेवाले हैं. जीवन के संघर्षों, अभावों और अत्याचरों का सामना अपने दर्द का ढिंढोरा पीट कर नहीं, उससे जूझकर किया जाता है. यह सुभद्रा जी की जिन्दगी का हर पल बताता है. दुधमुंहे बच्चों को शुभचिंतकों के भरोसे छोड़कर सत्याग्रह कर जेल जाना, एक दिन का राशन न होने पर भी कभी अभावों का रोना न रोना, स्वाभिमान से जीना और समाज का रूढियों से जूझकर भी किसी को दोष दिए बिना अपनी मंजिल तक पहुंचना...अफ़सोस कि उनके जीवन दर्शन पर चलनेवाली नारी ही नहीं दिखती.
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