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प्रतीक्षा


प्रतियोगिता की तीसरी कविता शाहिद मिर्जा ’शाहिद’ की है। पेशे से पत्रकार शाहिद जी उर्दू और हिंदी शायरी की विधा मे खासा रुझान रखते हैं। इन्होने दूरदर्शन, आकाशवाणी और अन्य तमाम मंचों पर अपनी कविताओं का पाठ किया है। शाहिद जी ब्लॉग के माध्यम पर भी काफ़ी सक्रिय हैं। यह हिंद-युग्म पर उनकी पहली कविता है।

पुरस्कृत कविता: प्रतीक्षा

सूर्योदय से
सूर्यास्त के बीच
व्यस्त जीवन की त्रासदी से दूर
वो सुहानी नींद के क्षण
और
सपनों के संगेमरमर से निर्मित
कल्पना के 
ताजमहल का विचरण
हमें यथार्थ से कितनी दूर ले जाता है
लेकिन
सूर्य की पहली किरणें
छिन्न-भिन्न कर देती हैं
चिन्तन मुक्त क्षणों को
और
हमे लौट आना पड़ता है
सपनों से दूर
भावनाओं रहित
मशीनी जीवन के धरातल पर
पुनः
सूर्यास्त की प्रतीक्षा में
क्षण-प्रतिक्षण..... 
_____________________________________________________________
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।

पहली कविता (146-165)







काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन (विशेषांक)




विषय - पहली कविता

अंक - अट्ठाइस (भाग-२)

माह - जुलाई २००९






हमारे पाठकों की पहली कविताओं की दूसरी पारी की शुरुआत पिछले अंक से हो चुकी है। ये कवितायें कुछ खास हैं, इनमें अपरिपक्वता भी नजर आयेगी, बचपना भी होगा। ये उन कविताओं में से भी नहीं होंगी जिन पर लोग वाह-वाह कर सकें, जिन पर गीत रचे जा सकें, और हो सकता है सम्मेलनों में सुनाई भी न जा सकें। लेकिन फिर भी इनका विशेष महत्व है। क्योंकि ये उन सभी कविताओं की जननी हैं। ये पहली सीढ़ी होती है। ऐसी ही २० सीढ़ियों को लेकर हम हाजिर हैं।

जैसे-जैसे हमें और कवितायें मिलती जायेंगी, हम 20-20 कविताओं के साथ आपके समक्ष उपस्थित होते रहेंगे। हमारे पाठकों ने हमें भूमिका भी लिख भेजी है जिसे हम कविता के साथ ही प्रकाशित कर रहे हैं। अलग अलग अनुभवों पर लिखी गईं वो चंद पंक्तियाँ आज हमारे इस मंच का हिस्सा बन रही हैं। हम आशा करते हैं इससे हमारे अन्य पाठकों को भी प्रेरणा मिलेगी और वे हमें कविता लिख भेजेंगे। चलिये पढ़ते हैं 20 कवियों की पहली कवितायें।
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हमें आप अपनी "पहली कविता" kavyapallavan@gmail.com पर भेज सकते हैं।

आपको हमारा यह आयोजन कैसा लग रहा है और आप इसमें किस तरह का बदलाव देखना चाहते हैं, कॄपया हमें ईमेल के जरिये जरूर बतायें।

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बहुत अच्छा लग रहा है अपनी पहली कविता आपके साथ बाँटने में. दुनिया को भी पता चलेगा. तो शुरू करता हूँ उस पल का सफ़र जब यह पहली कविता मेरे जेहन में आई थी.
1993 या 1994 कि बात है. शायद तब मैं क्लास 6th या 7th में रहा होऊँगा. एक रोज़ घर के बाहर चबूतरे पर बैठा हुआ था और घर के सामने लगे अशोक के पेड़ को देखते हुए बस येही सोच रहा था कि अगर मैं अभी इस पेड़ को काट दूं या कोई चीज़ इस पर मार दूं तो यह अपने दर्द के बारे में बोल भी नहीं सकता. टीवी पर पेड़ बचाओ कि काफी विज्ञापन देख चुका था. टीवी और दूरदर्शन एक दूसरे के पर्यायवाची हुआ करते थे तब. तो बैठे बैठे कहाँ से तुकबंदी बैठानी शुरू कर दी और यों बन गयी मेरी पहली कविता. जब मम्मी को सुनाई तो उन्होंने कागज़ पर उतार दी और तब से लेकर अब तक उन्होंने मेरी बचपन कि साड़ी कवितायें संभाल कर रखीं हैं. तो अपनी पहली कविता आप सबके सामने पेश करता हूँ जिसका शीर्षक है "पेड़".

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पेड़
पेड़ एक बेजुबान चीज़ आशियाना है,
जो है उसका दुश्मन वह ज़माना है,
अगर इसी तरह से पेड़ कटते रहेंगे,
अगर इसी तरह से पेड़ मरते रहेंगे,
तो एक दिन ऐसा भी आएगा
जब सूरज कि कड़ी किरणों में
चलते चलते हम औंधे मुँह गिरेंगे.
तो पेडों को काटने से रोको,
इस तरह पेडों को लालच कि आग में मत झोकों!!

--गौरव शर्मा 'लम्स’


माँ तो माँ होती है,क्या कहूँ क्या सोचकर लिखा , बस जो लिखा मन से लिखा , प्रभु के निकट एक दीप जलाया ....
माँ
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इस दुनिया में माँ का रिश्ता
है अपने बच्चो से ऐसा
जैसा रिश्ता होता जड़ों का
अपने प्रिय पेड़ो के संग
हर सुख से प्यारे लगते हैं
अपने बच्चे
सारी दुनिया में लगते हैं वे ही अच्छे|
तभी तो माँ के दिल से निकले
आशीर्वाद ,
होते है मोती से सच्चे|
नहीं हो सकते सर्वत्र विराजमान खुदा
तभी करुणा में डूबकर माँ को बनाया|
यू ही नहीं माँ ने भगवान के बाद
दूसरा स्थान पाया |
पाया जिसने माँ का प्यार
हो गया वह धन्य-धन्य

--विनीता श्रीवास्तव



सिमटना यूँ अपनेआप में...
मुझे रास न आया कभी....
मै तो उन्मुक्त गगन में ...
सीमाओं के बंधन से मुक्त हों...
सोच के पंखो को फैला के...
दूर दूर तक उड़ते रहना चाहती हूँ...
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धरती पे मेरे अहसासों का समंदर बड़ा गहरा है..
अक्सर उसमे गोते लगाती हूँ..
.कभी खुद डूबती हूँ
तो कभी अपने आप को डुबोती हूँ...
अहसासों की लहरे बड़ी तीव्र होती है...
टकरा टकरा के और ज्यादा तेज हों जाती है...
अपने किनारे को तलाशने में रात दिन उछलती रहती है..
अहसासों के इस टकराव से अक्सर
तन् और मन् घर्षित हों जाते है...

"मन रूपी सागर" में उठनेवाली
"भावना रूपी लहरों" को
"शब्द रूपी किनारा" न दिया जाए तो ये
"तन् रूपी चट्टानों" से टकरा टकरा के घर्षित हों जायेगी...!!!!!!


इन लहरों को किनारा देने का मेरा ये एक प्रयास................

चंचल से इस मन् की बाते
कितनी उलझी-सुलझी ...
कभी लगे मानो जग अपना
तो कभी सब से बेरुखी सी !

खुद से जवाब पूछे ये और
देता उत्तर खुद से ही
न मिले संतुष्टि उत्तर से तो
नाराजगी भी खुद से ही !!

भ्रम जाल में उलझा ये जीवन,
पार पाना है खुद से ही...
मिलेंगे साथी यहाँ बहुतेरे लेकिन
उलझन सुलझेगी खुद से ही!!!

--कविता


माई मेरी पहली कविता है.. 1995 मे मैने इसे लिखा . जून 1997 मे अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के मासिक मुख पत्र भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका मे यह कविता छपी और फिर भोजपुरी मे जो लिखने का सिलसिला शुरु हुआ .आज तक जारी है. हां यह सच है कि इसके पहले हिन्दी मे मैने कुछ तुकबंदी की थी या यूं कहे कि चिचरी पारने की कोशिश की थी पर उन कविताओँ का अब कोई अता- पता नहीँ है..

माई

अबो जे कबो छूटे लोर आंखिन से
बबुआ के ढॉंढ़स बंधावेले माई
आवे ना ऑंखिन में जब नींद हमरा त
सपनो में लोरी सुनावेले माई

बाबूजी दउड़ेनी जब मारे-पीटे त
अंचरा में अपना लुकावेले माई
छोड़ी ना, बबुआ के मन ठीक नइखे
झूठहूं बहाना बनावेले माई
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ऑंखिन का सोझा से जब दूर होनी त
हमरे फिकिर में गोता जाले माई
आंखिन का आगा लवटि के जब आई त
हमरा के देखते धधा जाले माई

अंगना से दुअरा आ दुअरा से अंगना ले,
बबुआ का पाछे ही धावेले माई
किलकारी मारत, चुटकी बजावत,
करि के इशारा बोलावेले माई

हलरावे, दुलरावे, पुचकारे प्यार से
बंहियन में झुला झुलावेले माई
अंगुरी धराई, चले के सिखावत
जिनिगी के ´क-ख´ पढ़ावेले माई

गोदी से ठुमकि-ठुमकि जब भागी त
पकडि के तेल लगावेले माई
मउनी बनी अउर “भुंइया लोटाई त
प्यार के थप्पड़ देखावेले माई
पास-पड़ोस से आवे जो ओरहन
काने कनइठी लगावेले माई
बाकी तुरन्ते लगाई के छाती से
बबुआ के अमरित पियावेले माई
जरको सा लोरवा ढरकि जाला अंखिया से
देके मिठाई पोल्हावेले माई
चन्दा ममा के बोला के, कटोरी में
दूध- भात गुट-गुट खियावेले माई

बबुआ का जाड़ा में ठण्डी ना लागे
तापेले बोरसी, तपावेले माई
गरमी में बबुआ के छूटे पसेना त
अंचरा के बेनिया डोलावेले माई

मड़ई में “भुंइया “भींजत देख बबुआ के
अपने “भींजे, ना भिंजावेले माई
कवनो डइनिया के टोना ना लागे
धागा करियवा पेन्हावेले माई

“भेजे में जब कबो देर होला चिट्ठी त
पंडित से पतरा देखावेले माई
रोवेले रात “भर, सूते ना चैन से
भोरे भोरे कउवा उचरावेले माई

जिनिगी के अपना ऊ जिनिगी ना बूझेले
´बबुए नू जिनिगी ह´ बोलेले माई
दुख खाली हमरे ऊ सह नाहीं पावेले
दुनिया के सब दुख ढो लेले माई
´जिनिगी के दीया´ आ ´ऑंखिन के पुतरी´
´बुढ़ापा के लाठी´ बतावेले माई
´हमरो उमिरिया मिले हमरा बबुआ के´
देवता-पितर गोहरावेले माई

--मनोज भावुक



विश्व पिता दिवस पर मैंने पापा को पिता पर कविता लिखते देखा तो मैंने उनसे पूछा कि क्या कर रहें हैं यह सुनकर वे बोले कि तुम्हारे बाबाजी पर कविता लिख रहा हूँ | मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं भी आप पर कविता लिखूं ? तो पापा नें कहा हाँ लिख लो तो मैंने यह कविता लिखी और पापा को दिखाई तो पापा ने कहा कुछ ठीक है खैर अब तुम कविता लिखने लगोगे |

पापा
पापा बहुत अच्छे ...
मुझे बहुत प्यार करते ....
जब भी मैं गलती करता ....
वे मुझको डांट भी देते ....
और तो और ...
मेरा छोटा भाई....
जब शैतानी करता .....
तो पापा साथ-साथ.....
मुझको भी डांटते हैं ....
मेरे पापा.....
मेरे साथ खूब खेलते हैं .....
मेरे पापा ....
हर कठिन घड़ी में ....
मुझको....
हिम्मत बंधाते हैं ....
मैं अपने पापा का .....
खूब रखता ख्याल .....
और करता .....
उनको बहुत प्यार ......

--नील श्रीवास्तव


यह कविता उस समय लिखी जब मैं बी ए कर रही थी| अचानक चलते चलते एक दोस्त बना और दोस्ती बहुत गहरी हो गई ,तब अनायास ही ये पंक्तियाँ कविता बन गई ,आज भी वह मेरा अच्छा दोस्त है |मैंने इन पंक्तियों को उसी रूप में संजों कर याद के रूप में रक्खा है |
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मिल जाते हैं मीत कभी पथ चलते चलते
चौराहे पर मिलने वाले मीत नहीं होते ,
हर हंसने वाले चहरे पर आकर्षण है
किन्तु नहीं प्रत्येक हंसी में अपनापन है
नहीं ठहरती नज़र कहीं भी किसी रूप पर ,
कहीं अटक जाता वैरागी मन है ,
मंजिल मिलती नहीं शाम तक चलते-चलते ,
कभी काम मिलता शाम के ढलते -ढलते |
चौराहे का मीत न हो ,पथ साथ निभा दे जीवन भर ,
इच्छाओं के कंधे पर अरमान संजोये बैठे हैं ,
जो मिल जाते हैं राह चले वह साथ निभा पते हैं ,
जीवन के इस धूप छाँव को खेल कहाँ हम पाते है |
मीत बिना मन वैरागी हो ,तो प्रीत कहाँ कर पाते हैं ,
अरमानों की लाशों पर प्रेम नहीं कर पाते हैं |
बिखरे हुए जीवन में ,प्यार के गीत नहीं होते ,
चौराहे पर मिलने वाले मीत नहीं होते ||
इस कविता में कुछ त्रुटियां अब दिखाई देती है पर मेंने कुछ भी संशोधन नहीं किया |

--करूणा पाण्डे


उन दिनों की बात है जब में बारवीं का इम्तहान दे रही थी. एक दिन दोपहर की पारी में इम्तहान था.मैं और मेरी बहिन पढ़ रहे थे बीच-बीच में एग्जामनर को कोस भी रहे थे कि पता नही कैसा पेपर आयेगा. तभी अचानक मेरे दिमाग में एक खयाल कौंधा. और वो मेने पेपर पर लिख दिया.बाल मन की जो भी भावनायें थीं सब काग़ज पर उड़ेल दीं. हो सकता है उस समय ये एक तुकबंदी हो या फिर कविता की दिशा में मेरा पहला कदम. लिखने के बाद घर में सबको सुनायी तो सभी ने उत्साह वर्धन किया. हालांकि यह कविता पूर्ण रूप से मुझे याद नहीं है कुछ लाइने ही जह़न में हैं वही लिख भेज रही हूँ. साथ में उसके बाद जो दूसरी कविता लिखी थी वो भी भेज रही हूँ आपको जो उचित लगे छाप दीजियेगा. दूसरी कविता लिखने का कारण यह था की हमारे पड़ोसी अक्सर हमसे सिलेण्डर ले जाते थे लेकिन जब हमें जरूरत होती तो हमें ना कह दिया जाता. ऐसे में एक दिन अचानक ही मेरे मुँह से ये शब्द निकल पड़े और कविता का रूप बन गये वही लिख भेज रही हूँ.

है प्रभु तेरी माया(प्रथम)
है प्रभु तेरी माया
ये पेपर किसने बनाया
तू उसे अक्ल तो देता
कि वो ऐसा पेपर ना देता
उसने ऐसा पेपर दिया
बच्चों का साल ख़राब किया
पछताया तो होगा वो भी
बच्चों की बददुआ लगेगी
लेकिन अब देर हो गयी बहुत
समय से उसे क्यों नहीं चेताया
हे प्रभु तेरी माया

--दीपाली पन्त तिवारी"दिशा"


पहली कविता. जैसे ही ये दो शब्द पढ़े , मुझे अपनी एक बहुत पहले लिखी कविता याद आ गई. मै ठीक से तो नहीं कह सकता यह कविता मैंने कब लिखी किन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ की यह मेरे कालेज के दिनों की कविता है. उन दिनों मै मंदसोर के कालेज के B.Sc. प्रथम वर्ष का छात्र था. बात शायद १९७३-७४ की होगी. मै अपने घर की छत पर शाम के समय अकेला टहल रहा था , आसमान में सूरज के डूबने के वक्त की लालिमा छाई हुई थी. धीरे धीरे हल्का हल्का सा अंधकार हो चल था ओर चाँद एक हंसिये के आकार में दिखाई देने लगा था. आसमान में सूरज के अस्त होनें पर छाने वाली लाली ओर चाँद के हंसिये नुमा आकार ने मेरे मन में जिन विचारो को जन्म दिया वे जब शब्द के रूप में कागज पर उभरे तो जो कविता सामने आई वही कविता आज मै आप के सामने रख रहा हूँ.

सूरज , चाँद और तारे
आसमान में अभी अभी
हो गया खून सूर्य का
देखो चारों तरफ खूनी लाली
छा गई है
सितारों की पुलिस सारे गगन पर छा गई है ,
थोडी देर में पकड़ लिया गया
खूनी को , खूनी था चाँद
रात की अदालत में , कुछ तारों की वकालत में
सजा दे दी गई , चाँद को
रात भर ठण्ड में ठिठुरना होगा ,
और
हर सुबह दुनिया के जिन्दा होते ही
तुझे मरना होगा

--विद्यासागर


यह मेरी पहली कविता है जो पहले सिर्फ एक पंक्ति थी "इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे" मुझे किसी ने कहा की यह बहुत अच्छी पंक्ति है | फिर मैंने इसे कविता में बदलने की कोशिश की |

इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर
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इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे,
इनती खुशियाँ भी न देना, दुःख पे किसी के हंसी आने लगे ।
नहीं चाहिए ऐसी शक्ति जिसका निर्बल पर उपयोग करूँ,
नहीं चाहिए ऐसा भाव किसी को देख जल-जल मरूँ ।
ऐसा ज्ञान मुझे न देना अभिमान जिसका होने लगे,
ऐसी चतुराई भी न देना लोगों को जो छलने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

इतनी भाषाएँ मुझे न सिखाओ मातृभाषा भूल जाऊं,
ऐसा नाम कभी न देना कि पंकज कौन है भूल जाऊं ।
इतनी प्रसिद्धि न देना मुझको लोग पराये लगने लगे,
ऐसी माया कभी न देना अंतरचक्षु भ्रमित होने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

ऐसा भग्वन कभी न हो मेरा कोई प्रतिद्वंदी हो,
न मैं कभी प्रतिद्वंदी बनूँ, न हार हो न जीत हो।
ऐसा भूल से भी न हो, परिणाम की इच्छा होने लगे,
कर्म सिर्फ करता रहूँ पर कर्ता का भाव न आने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

ज्ञानी रावण को नमन, शक्तिशाली रावण को नमन,
तपस्वी रावण को स्विकारू, प्रतिभाशाली रावण को स्विकारू ।
पर ज्ञान-शक्ति की मूरत पर, अभिमान का लेपन न हो,
स्वांग का भगवा न हो, द्वेष की आँधी न हो, भ्रम का छाया न हो,
रावण स्वयम् का शत्रु बना, जब अभिमान जागने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

--प्रकाश पंकज


इस रचना का जन्म तब हुआ जब मैं 1971 में बी.ए.पार्ट 1 में थी. सोचा करती थी की लोग कविताएँ कैसे लिख लेते हैं? अपने भावों को अभिव्यक्ति कैसे देते हैं? मेरी एक सीनियर थीं प्रतिभा वो बहुत अच्छी हिन्दी की कविताएँ लिखतीं थीं...उन्होने कहा की अपने आस - पास देखो...जो तुमको आकर्षित करे उस पर कुच्छ लिखने का विचार करो...तो एक दिन कॉलेज के बगीचे में बैठी थी कि एक गुलाब के पौधे पर नज़र गयी ..उसका एक फूल मुरझा कर गिर रहा था और एक नयी कली खिल रही थी....उसको देख जो विचार मॅन में आया वो मेरी पहली कविता के रूप में आप सबके साथ बाँटना चाहती हूँ....

राज़
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फूल ने कली से मुस्कुरा कर कहा
तेरे पर भी बहार आएगी
तू भी फूल बनते - बनते
यूँ ही बिखर जाएगी

पर कली ने उस बात का
वह राज़ ना जाना
उसकी इस बात को
ज़रा सच ना माना

पर आया जब वक़्त तो
वह फूल बन गयी
मस्ती से भरी कली
यूँ ही बिखर गयी

अपने हालात पर वो
काफ़ी दुखी थी
कहती है फूल से-
मुझे माफ़ करो
मैं तुम पर
यूँ ही हँसी थी.
24-07-1971
--संगीता स्वरूप


कविता सन १९९८ में लिखी गई थी जब मैं कॉलेज का छात्र था | ये कविता मैंने अपने गृहनगर बागली में लिखी थी जो मध्यप्रदेश के देवास जिले की एक तहसील है |
क्यों लिखी थी ये तो कविता पढ़ कर ही ज़ाहिर हो जाता है लेकिन फिर भी अपनी तरफ से भी बता देता हूँ | वाक़या ये था कि हमें प्रेम हो गया था और इस हद तक हुआ कि उसने हमें कवि बना दिया |
कविता प्रस्तुत है -

मन चाहता है तुम्हें देखता ही रहूँ
तब तक
जब तक कि
इन आँखों की ज्योति न बुझ जाए
पलक झपकने का अंतराल भी
मुझे स्वीकार नहीं
मैं तुम्हें निहारना चाहता हूँ
तब तक
जब तक कि
मेरी आँखें तृप्त न हो जाएँ
और मैं जानता हूँ
ये कभी तृप्त न होंगी
ये जितना तुम्हें देखेंगी
उतनी ही और व्याकुल होंगी
तुम्हें देखने के लिए
अनंत काल तक
अनवरत...

--अनिरुद्ध शर्मा


यह मेरी पहली कविता है जिसे मैंने दिसम्बर 2007 में लिखा था. यह मैंने अपनी प्रेमिका के लिए लिखी थी जो हिन्दू थी और मुझसे चार साल बड़ी थी. इस बात को लेकर मेरे सारे दोस्त मेरा मजाक बनाते थे, खास तौर तौर पर रेहान. वह कहता था यह कोई प्यार नहीं है बल्कि आकर्षण है और तू उसे कुछ ही महीने में भूल जायेगा. लेकिन मुझे लगता था कि मानो मैं कुछ ऐसा करूँ जिससे सारी ज़िन्दगी उसे याद रख सकूँ. इसी दरम्यान मैंने एक कविता लिखी थी जो मेरे और मेरी प्रेमिका के इर्द गिर्द घूमती थी. हालाँकि यह कविता मैंने बस ऐसे ही लिखी थी. लेकिन इस के बाद कविता लिखना मेरा शौक़ बन गया. वैसे तो वह एक साल बाद मेरी ज़िन्दगी से चली गई लेकिन मुझे कविता लिखना सिखा गई.
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"एक दुनिया बसा ली है"

दिल के कमरे में बैठ कर
प्यार का स्वेटर बुनते हुए
जब तुम्हारी तस्वीर उभर आती है
कुछ यूँ अतीत के आसमान से गिर
तुम्हारी यादों की फुहार
मुझे भिगो जाती है.
यह एक सच है कि
मज़हब की दीवार पिघल के
मुहब्बत के सांचे में न ढल पाई
कभी तुम मजबूर हुईं रस्मो रिवाज को लेकर
कभी मैं मजबूर हुआ इस समाज को लेकर
यह एक सच है कि
मैं और तुम हम नहीं बन पाए
मगर यह भी एक सच है
कि अब तूने भी एक दुनिया बसा ली है
कि मैंने भी एक दुनिया बसा ली है.

--शामिख फ़राज़


ग़ज़ल मैंने १२ साल की उम्र में लिखी थी.जब मुझे पता भी नहीं था की ग़ज़ल क्या होती है. स्कूल की एक प्रतियोगिता के दौरान पहला इनाम न मिलने पर मायूसी के शब्द कागज़ पर कुछ इस तरह उतरे.

हरदम वही बस चाहा,जो मेरे मुकद्दर में नहीं,
अपनी तो हर ख्वाइश से रही शिकायत ही मुझे

चाहा होता गर ,जो तकदीर में है वही
शायद ये खुदा कुछ तवज्जो दे देता मुझे.

आंसूं की लहरों से उबर कर साहिल पर आई जो कभी,
जहाँ ने फिर डुबो दिया गमें सागर में मुझे.

सोचती हूँ बैठकर कितनी गमजदा है जिन्दगी,
ख्याल कर दूजों का सब्र होता है मुझे.

क्या मांगूं खुदा जो देना चाहे अगर,
ग़मों का सागर लगती है दुनिया ही मुझे

चाहत की है काश कुछ बनू जिन्दगी मैं,
वेसे तो अपनी हर तमन्ना से शिकायत है मुझे

--शिखा वार्श्नेय


हमेशा से बहुत संवेदन-शील थी , पचास साल की उम्र में अचानक कलम उठाई और लिखना शुरू कर दिया |
पहली कविता यही थी , 'पहली कविता , जैसे कोई सीख '
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तू क्यों भूल गया
हर ओर उसी की छाया है
हर ओर उसी का आनँद है

आशाओं ने हैं जाल बुने
निराशा के भँवर में फँसाया है
अन्धकार में मन भरमाया है
रे मन , तू क्यों भूल गया

सौगातें तुझे बिन माँगे मिलीं
उपलब्धियों से तेरी झोली भरी
पर तुझे सदा खाली ही दिखी
रे मन , तू क्यों भूल गया

सीमाओं को न आड़ बना
निर्मल मन से देना सीख जरा
इसमें भी मैं , उसमें भी मैं , इसमें भी वो , उसमें भी वो
रे मन , तू क्यों भूल गया

--शारदा अरोड़ा


स्कूल के जमाने से ही कुछ न कुछ लिख्नने की कोशिश करता रहा हूँ। लेकिन पहली गजल कालेज के दिनो मे ही पूरा हो सका। प्रस्तुत गजल १९९३ मे लिखी गयी है।

अब तो जीने क ये अन्दाज बना रखा है
बह्ते अश्को को भी पल्को पे सजा रखा है।
गिर के आँखों से टपक जाये कहीं न मोती
चश्मे पूर्णम मे वो एक राज छुपा रखा है।
जिन्दगी ख्वाबे परेशा के सिवा कुछ भी नही
नामुरादी के सिवा दहर मे क्या रखा है।
शामे गम ने मेरे कानो मे ये चुपके से कहा
पर्दा ए शब ने तेरा ख्वाब छुपा रखा है।
रस्म ए दुन्या है हमे शिक्वा गीला क्या करना
सम्झे वो जिस ने के आलम ये बना रखा है।
छेड मेरे दिल ए मजरुह् को न अब अख्तर
ये है शोला जो शरारो को दबा रखा है।

--शाहनवाज अख्तर


ये कविता जब लिखी तो करीब ११-१२ साल की थी. उन दिनों दूरदर्शन पर भगवान् के सीरियल बहुत आते थे. सीरियल ख़त्म हो जाने के बाद भी राक्षसों और देवताओं के बारे में सोचा करती. कल्पना करना मेरे पसंदीदा कार्यो में से एक था....ईश्वर के बारे में सोचती...... संसार के बारे में सोचती........ पता नहीं अपने नन्हे से दिमाग में उन दिनों इतना बोझ ले कैसे मस्त रहती थी. ईश्वर ने इस स्रष्टि का सर्जन किया ,पर क्या कोई भी सृजन बिना कल्पना के सम्भव हैं । अगर नही ........ तो स्रष्टि निर्माण के पूर्व विधाता ने एक योजनाबद्ध कल्पना कर दुनिया कि रूपरेखा तैयार की होगी । संभवतः यही हुआ होगा ..........और वैसे भी हम अगर गौर करे तो रोजमर्रा की जिन्दगी में भी तो कार्य को किर्यान्वित करने के पूर्व हम कल्पना ही तो करते हैं. बचपन में मैंने ये कविता लिखी थी ...... सोचा तो कुछ ऐसा ही था पर उन दिनों सोंच इतनी परिपक्व नही थी ...........खैर अब प्रस्तुत हैं मेरी रचना "कल्पना"

कल्पना

कल्पना तू क्या हैं, क्या तू एक सपना हैं,
नहीं तू सपना नहीं, वास्तविकता हैं जीवन की ,

अडिग हैं विश्व का ये भार , तुझ पर ही निर्भर समस्त ब्रह्माण्ड ,
पर तुझे न समझ पाया ये मनुष्य ,

यदि तू न होती, तो ये स्रष्टि नहीं होती,
ये स्रष्टि नहीं होती ,तो मनुष्य नहीं होता,
मनुष्य नहीं होता , तो तू कैसे जीवित रहती,
और आज मेरी कलम तेरे बारे में न लिखती !!

जानती हूँ इतनी छोटी सी रचना का विश्लेषण लम्बा दिया हैं........ पर ये हैं भी तो बालमन की उपलब्धि ........... उम्मीद हैं आप इसे पसंद करेगे ---------------
--प्रिया चित्रांशी


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रात के लगभग बारह बज रहे थे,दिल्ली दूरदर्शन पर फ्रांस में हुए हिंदी सम्मलेन का प्रसारण चल रहा था,गुलजार साब का नंबर आया ओर उन्होंने कुछ ऐसी नज्म पढ़ी ''मेरे घर में अब कोई नहीं रहता''यह नज्म मेरे दिल तक पहुंची और मेरी आँखें नाम हो गयी!
प्रोग्राम के समाप्त होने के बाद लगभग १ बजे मैंने कलम और पन्ने की मदद से जो शब्द लिखे बह आप सब के सामने है!
यह मेरी पहली कविता है और शायद ऐसी कविता फिर कभी मैं अपनी जिंदगी मे लिख भी ना पाऊँ!
यह कविता देनिक भास्कर के रसरंग में प्रकाशित हो चुकी है!

बह मुझे माँ कहता है
वह मुझे मां कहता है।
वह अब भी मुझे मां कहता है।
सताता हैं रुलाता है
कभी कभी हाथ उठाता है पर
है वह मुझे मां कहता है।

मेरी बहू भी मुझे मां कहती हैं
उस सीढ़ी को देखो,मेरे पैर के
इस जख्म को देखो,
मेरी बहू मुझे
उस सीढ़ी से अक्सर गिराती है।
पर हाँ,वह मुझे मां कहती है।

मेरा छोटू भी बढिया हैं,जो मुझको
दादी मां कहता है,
सिखाया था ,कभी मां कहना उसको
अब वह मुझे डायन कहता हैं
पर हाँ
कभी कभी गलती सें
वह अब भी मुझे मां कहता है।

मेरी गुड़िया रानी भी हैं ,जो मुझको
दादी मां कहती है
हो गई हैं अब कुछ समझदार
इसलिए बुढ़िया कहती हैं,
लेकिन हाँ
वह अब भी मुझे मां कहती है।

यही हैं मेरा छोटा सा संसार
जो रोज गिराता हैं
मेरे आंसू ,
रोज रुलाता हैं खून के आंसू
पर मैं बहुत खुश हूं, क्योंकि वे सभी
मुझे मां कहते है।

--संजय सेन सागर


ये कविता मैने 2003 मे लिखी थी मगर सिर्फ़ सॅंजो कर रखी हुई थी

क्यो पहचान कही बिखर गये मेरे
हर गुमान आज बिखर गये मेरे
हक़ीकत से जब वास्ता हुआ
हर ख्वाब बिखर गये मेरे
दर्द से बाहर निकले ही थे की
नये दर्द फिर से सवर गये मेरे
अब तो दस्त की लकीरो से भी उठ गया भरोसा
की ज़िंदगी के हर ख़याल बिखर गये मेरे
ज़िंदगी गनीमत सलामत है मेरी
वरना लगता था ज़िंदगी के सब सवाल
बिखर गये मेरे
और आज बहुत दर्द से गुज़री है “शबा”
गैरो की तरह सारे अपने बिछड़ गये मेरे
(दस्त-हाथ)

--रज़िया शबा खान


यह मेरी पहली कविता थी।जो स्थानीय समाचार पत्र ‘राष्ट्रविचार’ में 11।7।1996 में प्रकाशित हुई थी।

प्रश्न

प्रश्न से प्रारंभ
प्रश्न ने प्रश्न किया
प्रश्न चुप रहा
शांत रहा
प्रश्न प्रतिदान न कर सका
प्रश्न असर्मथ असहाय रहा
प्रश्न बनकर

--मंजु गुप्ता


मैं आमोद कुमार श्रीवास्तव परिवार में सबसे छोटा वाराणसी जन्म स्थान तथा हाईस्कूल तक वहीं पढ़ाई इसके पश्चात बलिया से ईण्टर जौनपुर से ग्रेजुएशन। फिलहाल मेरठ कर्मभूमि है । निम्न कविता मेनें तब लिखी जब में सुबह आठ बजे से लेकर सायं 5 बजे तक शुगर मिल की नौकरी करने के पश्चात सायं 6 बजे से रात्रि 8 बजे तक कम्प्युटर पढ़ने मेरठ बस से जाया करता था इसमें मेनें जो महसूस किया वही लिखा है आशा करता हूँ कि आप को पसन्द आएगा।

थकान
दिमाग इतनी थकान के बाद
एक कप चाय मॉंगता है
ऑंखे ऑंसू पोछने के लिए रूमाल
पेट मॉंगता है रोटी
और कैसी भी सब्ज़ी
शरीर कहता है ले आना च्यवनप्राश
एक ग्लास दूध के साथ
और तो और
हाथ पैर भी बंद कर देते हैं
थक कर काम करना
क्हते हैं ला दो 600 एमजी की ब्रुफेन
सभी कुछ न कुछ मॉंगते हैं
मैं पूछता हूँ क्या मॉंगू इस जमाने से
दौलतमंद को सोना
हत्यारों को हथियार
बीमारों को बीमारी
कमजोरों को निर्बलता
अन्यायी को सत्ता
कहॉं से आयी इतनी बात
पैदा करो जज्बात
कि मैं और तुम दोनों
हंस सके बिना कुछ
मॉंगे हुए मॉंगे हुए

--आमोद कुमार श्रीवास्तव


पहली कविताओं की दूसरी पारी







काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन (विशेषांक)




विषय - पहली कविता

अंक - अट्ठाइस (भाग-१)

माह - जुलाई २००९







पहली कविता मानसून की पहली बारिश की तरह है जिसमें नहाने के बाद हम खुशी से झूम उठते हैं। मानसून की बारिश तो कम हुई पर आज हमारे पाठकों की कविताओं की बारिश हम जरूर कर रहे हैं। पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी हमें बड़ी संख्या में "पहली" कवितायें प्राप्त हुई हैं। आज हम 20 कविताओं से इस खास आयोजन की शुरुआत करने जा रहे हैं। जैसे जैसे हमें कवितायें मिलती जायेंगी, हम 20-20 कविताओं के साथ आपके समक्ष उपस्थित होते रहेंगे। हमारे इस आयोजन की घोषणा होने पर आप लोगों की यादें जरूर ताज़ा हुई होंगी जब आप लोगों ने पहली बार कलम चलाई होगी। हमारे पाठकों ने हमें भूमिका भी लिख भेजी है जिसे हम कविता के साथ ही प्रकाशित कर रहे हैं। अलग अलग अनुभवों पर लिखी गईं वो चंद पंक्तियाँ आज हमारे इस मंच का हिस्सा बन रही हैं। हम आशा करते हैं इससे हमारे अन्य पाठकों को भी प्रेरणा मिलेगी और वे हमें कविता लिख भेजेंगे। चलिये पढ़ते हैं 20 कवियों की पहली कवितायें।
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हमें आप अपनी "पहली कविता" kavyapallavan@gmail.com पर भेज सकते हैं।

आपको हमारा यह आयोजन कैसा लग रहा है और आप इसमें किस तरह का बदलाव देखना चाहते हैं, कॄपया हमें ईमेल के जरिये जरूर बतायें।

अपने विचार ज़रूर लिखें



साइक्लोन - मेरी पहली हिंदी कविता
जुलाई -१९७२
आयु- २० वर्ष

उन्ही दिनों एक और कविता लिखी गयी थी वियतनाम युद्ध पर, संभवतः पहली कविता वही थी,वह सुरक्षित नहीं रह सकी, और मैं इसी को पहली कविता मानता हूँ. इस का भी मूळ कागज़ फट-चिट गया था, १९८० के आस पास इस को दूसरे कागज़ पर साफ़ साफ़ लिख कर संजोया गया.
२००१ में अपनी पुस्तक ' जंगल, अक्स और साए' के प्रकाशन के समय जब कविताओं को काल क्रम के अनुसार क्रम बद्ध किया तो यह पुस्तक की अंतिम कविता थी, यानी मैं ने इसी को अपनी पहली कविता माना था. इस के पश्चात भी अन्यत्र मैं इसी को ही अपनी पहली कविता के तौर पर संदर्भित करता रहा हूँ.
इतना साफ़ साफ़ याद है कि यह विश्वविद्यालय के रसायन शास्त्र की प्रयोगशाला में लिखी गयी थी और यह भौतिक शास्त्र के सिद्धांतों से काफी प्रभावित दिखती है.
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अनगिनत सवाल
जिन के अनगिनत जवाब
और जब ये जवाब
खुद सवाल बन जाते हैं ;
ऐसा लगता है, ये सब
दूर किसी पहाड़ी स्थल पर
पहाड़ियों से टकरा टकरा कर
एक ही ध्वनि की
टूटती हुई
सैकडों प्रतिध्वनियाँ हैं
और इन परेशान प्रतिध्वनियों का एक साइक्लोन
किसी शून्य केंद्र के चारो ओर चकरा रहा है;
जिस में मैं स्वयं
किसी तिनके के समान ,
विश्राम रहित , निश्चेत ,
अनिश्चित मार्ग में घूमता हुआ,
सोच रहा हूँ,
कहीं यह शून्य मेरे अपने ही मन के
किसी कोने में तो नहीं!!

--मुहम्मद अहसन





एक बार मैं अपने शहर के एक काफी व्यस्त इलाके से गुज़रा तो मैने देखा कि ग्रामीणों की एक बहुत लम्बी लाइन लगी हुई थी जिससे मार्ग अवरुद्ध हो रहा था तथा कुछ पुलिस वाले उनपर लाठियाँ चला चला कर उन्हें नियंत्रित करने प्रयास कर रहे थे फिर मैंने रूककर एक व्यक्ति से पूछा कि भाई यह कैसी लाइन लगी है, उसने बताया कि यह अपने किसान भाई हैं जो खाद क्रय करने का प्रयास कर रहें हैं | यह देखकर मैं चौंका कि ओह...... ! ये तो अपने अन्नदाता हैं , आज इनकी यह दुर्गति....... ! अरे .....! खाद व बीज तो हम सबको इनके खेत पर पहुँचाना चाहिए जबकि ये सब इसके लिए अपना अमूल्य समय गंवाते हुए लाइन में तो लगे हैं हीं अपितु पुलिस की लाठियाँ भी खा रहें हैं इसी पीड़ा को दिल में संजोये मैं अपने घर आ गया|

उस दिन रात्रि में मैं सो न सका और कलम उठाकर मैंने किसानों की पीड़ा एक कविता के रूप में कागज पर उतार दी, इससे मुझे कुछ राहत मिली और तब बड़ी मुश्किल से मैं सो पाया |
यही मेरी पहली कविता बन गयी और तभी से मेरे काव्यमय जीवन का सफर प्रारंभ हुआ |
हालाँकि मेरे यहाँ के कुछ लोगों को काफी आश्चर्य होता है कि एक भवन डिजायन करने वाला वास्तुशिल्प-अभियंता समानांतर रूप से काव्य-रचना के क्षेत्र में कैसे आ सकता है ?

वस्तुतः सच ही है कि :-
भीगीं पलकें, भीगा दामन,
सुलगती सांसें दहकती छाती |
विरह अग्नि होठों पे आह,
कविता वहां जनम है पाती ||

"संपन्न किसान"
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अधनंगा बदन कृशकाय है काया,
भरपेट अन्न न उसने पाया
दो बीघे का उस पर भार
संसाधन से है लाचार
कस कर कमर परिश्रम करता
मेहनत से वो कभी न डरता .......

साहूकार उसे धमकाता
चौकीदार आँख दिखाता
मेंड़ खेत की करती तंग
जैसे सरहद पर हो जंग
खाद-बीज भी उस पर भारी
लाइन लगाने की लाचारी
मेहनत कर वो फसल उगाता
लेकिन लाभ बिचौलिया पाता.......

कहने को सरकारी योजनायें
लाभ उसको मिल न पाए
उसका खेत सड़क में जाता
मुआवजा तक वो न पाता
घर में उसके होता फांका
कर्जा कभी चुका न पाता........

आत्महत्या उसकी नियति बेचारी
घर तक उसका है सरकारी
उसके दुःख की ना कोई सीमा
नहीं है उसका कोई बीमा
ऐसा है संपन्न किसान
अपना भारत देश महान
इसका केवल यही निदान
शिक्षा अपनायें सभी किसान .........

--अम्बरीष श्रीवास्तव





सन याद नहीं
बस तारीख याद है, -- १८ अप्रैल ,,,शायद ८७ या ८८ था,,, बस दो ही लाइन हुयी थीं...लिखी कहें नहीं ,,बस मन में आयीं थीं,,
फिर दो लाईने और हुईं...इनके ७-८ महीने बाद... एक जनवरी को,,,,नया साल था वो,,,
लोग अक्सर लिखते हैं छपने के लिए... ( और एक मैं के लिखा छुपाने के लिए...)
शुक्र है हिंद-युग्म का ....के मैं भी अपनी बात कहने के लिए एक दोस्ताना माहौल पा सका,,
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क्यूं अलविदा तू ऐसे मुझे कह गया ए दोस्त,
जैसे के गुजरे साल न आते हैं लौट कर,
और .....
ये साल भी भुला न सकेगा तेरा ख़याल
आती रहेगी याद तेरी लौट-लौट कर

--मनु ’बेतखल्लुस’



ये है मेरी पहली कविता ............माँ कोई ख़याल नहीं एक हकीकत है ,मैं क्या बताऊंगी ?
सभी जानते हैं ...............
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बाल चंद्र ने कहा
निशा माँ मुझे उठा लो,
चमकते-दमकते
सितारों से जड़े
अपने आँचल में
चन्द्रिका करों का लेकर आश्रय
चाँद बढ़ने लगा--
डगमगा कर,
फ़िर-फ़िर संभलने लगा
मानो उसे आवश्यकता हो
अपने सहज और संपूर्ण
विकास के लिए,
माँ के आँचल की
शीतल छाँव की!

--ज्योत्स्ना





सोलहवें बसंत के किनारे लिखा था.......

आओ तुम्हे एक कहानी सुनाऊँ....
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मैं वक़्त हूँ
आओ तुम्हे एक कहानी सुनाऊँ
एक छोटी सी लड़की की,
जो पूरे घर की प्यारी थी
नाम के अनुरूप-भोली,चंचल,बुलबुल गौरैया थी
कभी इधर कभी उधर ऐसे भागती थी
जैसे मनमोहक तितली!
बातें बनाती थी
गीत सुनाती थी...
पक्षियों का समूह हार हार जाता था
सपनो में उसके कोई मानसरोवर आता था
राजहंसिनी के अंदाज़ में कहती थी वो लड़की-
मुक्त हाथों मोतियों की खैरात बाटूंगी...
देखते ही देखते सोलहवां बसंत सामने था
और विस्मित थी आँखें
कहाँ है मानसरोवर,किधर है मोती
यहाँ तो घात प्रतिघातों की कहानी है
हँसते हँसते अचानक आँखें भर जाती हैं
सामने की दृश्यावलियां
शून्य में बदल जाती हैं!
उसने जानना चाहा
इस पार और उस पार का रहस्य क्या हैं
किन परदों के पीछे सत्य छुपा है
प्रत्येक आदि का अंत कहाँ है
किसी देव दुर्लभ नियामत के पीछे उपेक्षा और घृणा के दंश क्यूँ हैं
देखते ही देखते सुपरिचित चहरे अजनबी क्यूँ बन जाते हैं?
प्रश्नों के इस भंवर में वह लड़की खो गयी
मानसरोवर को सपनाते हुए मोतियों से दूर हो गयी
विरक्त भिक्षुणी सी अपनी सोच उसने दोहराई
जैसे खुद से कह रही हो-
"बुद्धं शरणम गच्छामि
संघम शरण गच्छामि"
मैं वक़्त हूँ,
कहानी को इसी मोड़ पे छोड़ता हूँ
कुछ वर्षों बाद फिर कहूँगा......
शायद तब तक,लौट आये उसकी चंचलता उसका भोलापन सारे जीवंत शोक अंदाज़
वह पद्मावती हो जाये
"जायसी की पद्मावती"
मानसरोवर चल कर उसके पास आये
कोई 'पद्मावत' लिखे
हाँ एक महाकाव्य-
उस लड़की के नाम
मैं सम्पूर्णतया उसका हो जाऊँ
उसके सारे प्रश्नों का समाधान हो जाये
कहीं कोई कमी न रह जाये
उसके भीतर और बाहर से
उसका समझौता हो जाये!!!

--रश्मि प्रभा




मैंने अपनी पहली ग़ज़ल आज से लगभग ८ वर्ष पहले लिखी थी. तब से अब तक मैं लगभग ४० ग़ज़ल,१० गीत और 50 "४ लाइनर " लिख चुका हूँ.
पर ज़िन्दगी की जुस्तजू ने आज तक कुछ छपवाने का मौका ही नही दिया, अब जब गम -ऐ -रोज़गार बस में है तो सोचता हूँ अपनी बातें सबको बताने का समय आ गया है.
मूल रूप से मैं जबलपुर का रहने वाला हूँ ये रचना मैंने कॉलेज के दिनों में लिखी थी.मेरी क्लास का माहौल बहुत ही शायराना हुआ करता था.और उस माहौल ने मुझे भी शायर बना दिया.पर क्यों लिखी थी ये मुझे ख़ुद समझ नही आया क्योकि उन दिनों हालात ऐसे नही थे जैसे ग़ज़ल में दिख रहे है.

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चुपके से खयालों में आकर तुम मुझको सताया करती थी.
मैं तनहा बैठ के रोता था जब यादें आया करती थी.

पल पल हर पल उन पलों की यादे वो पल इस पल तक याद है.
मैं तुम्हे देख कुछ कहता था और तुम मुस्काया करती थी.

कितने प्यारे प्यारे दिन थे कितना हसीं था वो मौसम ,
'आशीष कहाँ हो' कहकर जब तुम मुझे बुलाया करती थी.

उन बातों को सोच के तुम शायद अब भी हँस लेती हो,
गुड्डे गुडियों की शादी में जब मुझसे लड़ जाया करती थी.

कई बातें करनी थी तुमसे वो शाम ही शायद छोटी थी ,
जब तक तुमसे कुछ कह पता वो ख़त्म हो जाया करती थी.

जिस दिन तुम बिछड़ी थी मैं रेत के महल बनाये थे ,
टूटे महल कई दिन तक मुझको रेत चिढाया करती थी.

चली गई तुम दूर बहुत यादों में आना कम न किया,
जब सोता था अक्सर मुझसे मिलने आया करती थी.

जितना भूलना चाहा तुमको उतना ही तुम याद आई ,
हर मौसम हर एक हवा तेरी याद दिलाया करती थी.

--आशीष कुमार श्रीवास्तव



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तेरे दिये आंसुओं को आंखों में छुपा रखा है
तूने कभी देखा ही नही गौर से इसमें
दिल में तेरे लिये इक घर बना रखा है
तमन्ना थी कभी कि मेरी हम दम बने तू
पर तूने किसी और को ही अपना हमसफर बना रखा है
कभी हमारे बारे में भी सोचा लिया होता
जिसने सिर्फ़ तुझे ही अपनी ज़िन्दगी बना रखा है

--योगेश गाँधी





यह कविता मैंने सितम्बर १९८० में लिखी थी जब मैं १० वीं कक्षा में पढ़ती थी कविता के सन्दर्भ में और भी है बहुत कुछ ...कुछ यादें ...कुछ किस्से ...
ऐ देशवासिओं इन्हें संभालो
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ऐ देशवासिओं
इन्हे संभालो
इन नन्हे नाज़ुक बच्चों को
जो बच्चे भूखे मरते हैं
जो बच्चे घर-घर फिरते हैं
जो बच्चे अंधियारे में है
ऐ देशवासिओं
इन्हें संभालो
यही देश की आन है
यही देश की शान है
यह मत सोचो
चंद अमीर बच्चों की
मुस्कानों से यह देश चमक उठेगा

--संगीता सेठी




सच कहा आपने एक कवि के लिए उसकी सबसे पहली कविता न केवल बहुत महत्वपूर्ण होती है बल्कि सम्पूर्ण जीवन के लिए एक मीठी सी स्मृति भी होती है. मैं अपनी पहली कविता आपको भेजते हुए बिलकुल भी हिचकिचाहट का अनुभव नहीं कर रही हूँ क्यों कि येः कविता मेरे ह्रदय के बहुत करीब रही है हमेशा से. इस कविता को मैंने तब लिखा था जब मैं दसवी कक्षा कि परीक्षा देने के उपरांत परिणामों की प्रतीक्षा कर रही थी. ये एक गीत है जिसे गुनगुनाया भी जा सकता है. कविता 'दो आँखों' पर लिखी गई है और कविता ये बताती है कि वो आँखें अब मेरे पास तो नहीं हैं पर मुझे बहुत याद आती हैं.
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दो आँखें

दो आँखें
मुझे छुप छुप देखती
दो आँखें
मेरी आँखों से मिलती
दो आँखें
मुझे देख के झुकती
दो आँखें..
मुझे प्यार सिखाती
मुझे पास बुलाती
मुझे याद हैं आती... दो आँखें....
किसने समझी , किसने जानी
दो आँखों की सच्ची कहानी
थोडा सा बादल, थोडा सा पानी
दो आँखों की है ये कहानी


दो आखों ने
जीना सिखाया
दो आँखों ने
जग ये दिखाया
दो आखों ने
अपना बनाया
दो आँखें...
हमराज़ बताती
हमसे राज़ भी छुपाती
छुप छुप के बरसती..दो आँखें..
दो आँखें जब मुझे रूठी
ऐसा लगा जैसे दुनिया छूटी
रिश्तों की ये डोर क्यूँ टूटी
मेरी खुशियाँ किसने लूटी


दो आँखें
अब जाने कहाँ हैं
दो आँखें
अब मुझसे जुदा हैं
"वो " आँखें
अब मेरी कहाँ हैं
वो आँखें..
मुझे पल पल तडपाती
मुझे रह रह के रुलाती
मुझे याद हैं आती...वो आँखें..!!

--दीपाली "आब"



माँ अब अक्सर
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खामोश रहा करती है
भटकती रहती है शून्यता
उसके चेहरे पर
एकदम शांत
निस्तब्ध
पूछ ही बैठा
एक दिन जिज्ञासा के सबब
एकाएक ये कैसा परिवर्तन
विचारो का इस भांति विसर्जन
अब न ही कोई विरोध
न ही कोई प्रतिरोध
कोई हलचल क्यों नहीं
कोई चर्चा क्यों नहीं
जैसे ख़त्म हो गयी हो
सृजनान्त्मकता
आत्मा की मौलिकता
क्या मान बैठी हो हार ?
बुदबुदा उठे उनके होठ
कुछ अनमने पन से
कि हालात नहीं बदले तरीका बदल गया है
अब मेरे जीने का सलीका बदल गया है
अब नहीं शब्दों कि मनुहार है
बस मौन ही प्रतिकार है
हाँ अब मौन ही प्रतिकार है

--कुलदीप यादव



मेरी पहली कविता मैंने सन १९७२ में लिखी थी|जब यह कविता मैंने लिखी तो मेरे चाचा जी को दिखाई तब उन्होंने इसमें सुधार किया था वो यह की "कामना "के स्थान पर मैंने "आरजू "लिखा था |

कामना
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कामना यही है की!
अंधे की लाठी बन जाऊ ,
और किसी को राह दिखा पाऊ|

नन्हा सा रुमाल बनकर ,
किसी दुखी के आंसू पोच पौ |

यदि दीपक बन जाऊ तो,
जन जन का अंधकार हर पाऊ|

विशाल सागर बन जाऊ ,
तो सब कुछ सहती जाऊ|

किसी बेसहाय का आसरा बनकर ,
अपने आप को भूल जाऊ |

--शोभना चौरे





मुझे बचपन से कविता का कुछ ख़ास शौक नहीं था । जब मैंने २००५ में अध्यापन कार्य आरम्भ किया तो उस समय मैं इतिहास की अध्यापिका थी । मेरे विद्यालय में अचानक हिंदी की अध्यापिका की तबियत ख़राब हो जाने से विद्यालय के मैनेजर महोदय ने मुझे हिंदी की कक्षा लेने को कहा । उन्हीं दिनों काव्य पढ़ाते-पढ़ाते मुझे कविता में रूचि होने लगी । तब मैंने भारत के महान कवियों की कविताएँ पढ़ीं, जिससे मुझे प्रेरणा मिली कि साहित्य से व्यक्ति का चरित्र निर्माण होने के साथ-साथ उसमें निखार भी आता है । उसी समय अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में विद्यार्थियों से हिंदी बोलने पर दंड दिए जाने की खबर सुन कर मुझे क्रोध भी आया और दुःख भी हुआ । तभी मेरे अन्तःकरण में इस पहली कविता ने जन्म लिया । इस कविता में काव्य की सुन्दरता तो नही है परन्तु इसमें छिपी मेरी भावना व्यक्त है । इसे मैंने जब ब्लॉग बनाया तब सबसे पहले लिखा । मुझे तब ब्लॉग के बारे में भी कुछ ख़ास पता नहीं था । काफी सालों पहले समाचार पत्रों में पढ़कर जानकारी प्राप्त हुई जनवरी २००८ में जब घर में नेट लगा तब मैं काफी कोशिशों के बाद ब्लॉग बना पाई उसी समय 'गौरव सोलंकी' जी की कम्युनिटी की सदस्यता ग्रहण की उन्होंने ही सर्वप्रथम मेरी कविता पर प्रतिक्रिया लिखी जो मेरे स्क्रैप बुक में है ।
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हाय रे! हिंदी

हाय रे! हिंदी तू अपनों में ही पराई हुई
तेरे देश में तेरे ही अपने तुझे बोलने पर शर्माते हैं
तुझे बोलने पर तेरे अपनों पर जुर्माना लगता है
तेरे नौनिहाल तुझे बोलने पर अपराधी बनते हैं
तुझे बोलने वाले जीविका के लिए भटकते हैं
क्यों किया तुझे पराया अपनों ने
तू महासागर है हिंद का
फिर भी हम दूसरों का पानी क्यों भरते हैं
हाय रे! हिंदी तू ........

--अर्चना तिवारी






बात सन 1969 की है जब मैं सातवीं में पढ्ता था। मां गांव में रहती थी और मैं पिता जी के साथ कस्बे मैं,मां के घास काटती बार नदी मे बह कर स्वर्ग सिधार जाने से मैं लगभग टूट सा गया था,अपनी कापी के पन्नों में कुछ
लिखना मेरी आदत सी बन गयी थी,पिता जी की पुरानी डायरियों में कुछ लिखना और उनकी डांट खाना रोजमर्रा की बात थी.पहली कविता या मन के उदगार मां के लिये थे जिस की प्रति पिता जी नें क्रौध वश इस लिये फाड़ दी क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि मैं अपना समय नाहक व्यर्थ करूं...उस रचना की हल्की सी याद है जो अपनी मां को समर्पित कर रहा हूं...
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मैं अकेला हूं मां तू मुझसे से कितनी दूर है,
क्या खता मुझसे से हुई जो मिलने को मजबूर है,

याद कर वो दिन् जो मुझ को लौरी दे कर सुलाती थी,
मन मेरा बहलाने को कहानियां तू सुनाती थी,

जागता ही मैं रहूं क्या तुझ को ये मंजूर है।....
कैसे भूलूं पल, जंहा को छौड कर जब तू गयी,

कर अन्धेरा इस जहां में,उस जंहा में खो गयी,
अब उजाला बन के वापिस मुझ को लेने आओ तुम,

मां की ममता की झलक इस दुनिया को दिखलाओ तुम,
वर्ना तढ्फना यूं मेरा क्या तुझे मंजूर है।
मै अकेला..............

--'अमर पथिक.'




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झरोखा

झरोखे से देख रहा हूँ
मेरी जिंदगी में
खुशियों की बहार आ रही है,
असमंजस में है मन
की द्वार खोल स्वागत करूँ
या लौटा दूँ इन्हें
हवाओं का रुख ले आया है जिन्हें
गलती से मेरी जिंदगी में !

--नीलेश माथुर





82 मे लिखी थी ...........
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ये मेरी मात्र कल्पना ही तो है
की मैं विश्व के लोगों के
हृदयों से पत्थर निकाल कर
एक बुत बनाऊं
और दफ़न कर दूं
गहराईयों मे
सदियों बाद ...
खुदाई मे जब वे
अवशेष मिलेयेंगे
तो लोग ! एक दिन !!
अपने अतीत के बचपने पर
या पिछडेपन की सभ्यता पर
विचारेयेंगे अवश्य ही ........
बहुत शांतिप्रिय हूँ शायद यही कारण रहा होगा .......

--रेणु अग्रवाल




अपनी प्रिय सखी के रूठे मौन पर खुद को बहलाया था , और कहा कि " मौन भी एक संवाद है "
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मौन भी एक संवाद है

कुदरत का यह एक अलग अंदाज़ है ,
कभी मन सूखा, और बाहर बारिश है !
जानती हूँ "मौन भी एक सवांद है " ,
तो चलो मौन जियें थोड़ा, बाहर तो शोर-ही-शोर है !!
यूँ तडपाती है दोनों, इक तेरी जुदाई, दूसरी तेरी याद ,
अच्छी फंसी मैं, बाहर तो दलदल ही दलदल है !!!

--प्रीती मेहता




जीवन की आपाधापी से गुजरते ख्याल....
जीवन की डगर बहुत कठिन है,
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सहयात्री मिलते नहीं
जो मिलते हैं-
कुछ कदम चलकर थक जाते हैं
सोचती हूँ...
चलो यही जीवन है !

--रेणु सिन्हा





यूँ ही अनमनेपन में कुछ शब्द पन्नों पर उतर गए ...........
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प्रतीक्षा
जाने कब से
मैंने उसके आने की प्रतीक्षा की थी
उसके आते ही
मैं नदी बन गई.......
पर,उसकी आँखों की लक्ष्मण रेखा !
मैं पलभर में खामोश चित्र बनकर रह गई,
निस्तेज आँखों से उस रेखा को देखा
और अपनी जेहन में जब्त हो गई,
लहरों-सी बातें
मौन हो गयीं
अचानक सारी प्रतीक्षा ख़त्म हो गई !!!

--मंजुश्री




मैंने ये पहली कविता यूँ कहिये कि "तुकबंदी" रश्मि दी की कविताओं को देख कर, पढ़ कर जोश में की थी..............यानि मेरी कोशिश का मुख्य जरिया रश्मि दी की कविता थी............इन्होंने ही मुझे उत्साहित किया, जिस कारण मैंने ये रचना की थी....बेशक शायद इस रचना की एक अच्छे कवि के सामने जरा - सी भी अहमियत ना हो..........फिर भी "दी" ने मुझे बराबर उत्साहित किया............
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जिन्दगी की राहें

जनम के बाद बचपन में ढूध के लिए रोना......
फिर खेलने के लिए रोना.......
फिर बाहर जाने के लिए रोना.......
यही तो थीं बचपन की राहें.............
स्कूल में मास्टर साहेब की छड़ी के कारण रोना
दोस्तों से झगड़े के कारण रोना.....
रास्ते में या खेल में गिरने के कारण रोना........
हाँ यही तो थीं बचपन की राहें.......
कॉलेज में कम मार्क्स पाने का रोना........
प्रैक्टिकल और अटेनडेंस पूरा ना होने का रोना........
कॉलेज छूटने पे भी फिल्म छूटने का रोना.......
यही तो थी......जवानी की राहे........
ऑफिस में अधिक काम का रोना......
घर पे बच्चों की सही पढ़ाई ना होने का रोना......
बीवी की मुस्कान ना लौटा पाने का रोना.........
यही तो है भाई.............जिंदगी की राहें....

--मुकेश कुमार सिन्हा




मासूम दिनों की सुनामी को लिखा ताकि गुबार निकल जाये और मासूमियत पर आंच ना आए

आज यही कहना है !!
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बचपन का वह लम्हा –
जहाँ नींद की परियां लोरी गाने को आती हैं,
मैंने नहीं देखा!
मैंने नहीं देखा,
काठ के घोड़े के संग –अपने दादा को घोड़ा बनते,
उस पर मुझ जैसे नौसिखिये सवार के हाथ में चाबुक देख कर,
दादी को खिलखिलाते !
मैं ‘उस व्यक्ति’ की ऊँगली थाम कर चली नहीं ,
कभी लड़ी नहीं,
कभी मचली नहीं,
कभी जिद्द नहीं ठानी !
कभी प्यार से उसने पास बुलाया नहीं,
कभी हाथ थाम कर पास बिठाया नहीं,
कभी नहीं सुनाई कोई ऐसी कहानी –
जो मुझे सपनों के मेले में घुमाती !
होश सँभालने के बाद से या उसके पहले से ही,
मैंने ‘घर’ में केवल ‘डर’ देखा ,
गालियाँ सुनी (जिसका अर्थ नहीं मालूम था)
आँखों से अंगारे बरसते देखे
सहमी माँ की आँखों में आंसूं देखे
बात-बेबात चीज़ों को तहस-नहस होते देखा
यह भी सुना…………………………….
‘धूल फांकने’ की नौबत आयेगी ‘तब देखना’!
अपमान का दर्द मेरे छोटे से मन को भी होता रहा
और बहुत जल्दी ही –
मैं रोटी की कीमत पहचानने लगी!
समय अपनी चाल से सरकता रहा
यही सब देखते - सुनते मैं 12 साल की हो गई
बहुत सारी उम्मीदें मर चुकी थी
अपमान की आग से केवल माँ ही नहीं गुजरी ,
हम भी शामिल थे !
फिर भी,
अपनी सीमित सोच लिए हम हंसते रहे,
खेलते रहे ........
दूसरों के पिता को देख कर –मन करता था –
काश! हम भी यह सब पाते ,
पर अब मैं सहजता से कहती हूँ –
मुझे ‘पिता’ नाम से चिढ़ है .......
लोग गलत नहीं कहते –
किसी लड़की का कोई ‘घर’ नहीं होता
पर मैं, अपने को समर्थ बना कर
निश्चित ही,
अपना घर बनाउंगी
क्योंकि,“अपना घर अपना होता है,
अपने घर के आँगन में मन सपनों के मोती बोता है”

--खुशबू प्रियदर्शिनी


क्या आपकी पहली कविता सुरक्षित है?


हिन्द-युग्म सदैव नये रचनाकारों को प्रोत्साहित करता रहा है। इसीलिए यूनिकवि प्रतियोगिता के माध्यम से 10 नये रचनाकारों को प्रत्येक माह पुरस्कृत करता है। 'अतिथि कवि' और 'सम्मानित कवि' स्तम्भ में नामचीन कवियों की कविताएँ प्रकाशित कर नव-अंकुरों को मार्गदर्शन देता रहता है।

आज से एक वर्ष पूर्व हमने काव्य-पल्लवन में प्रत्येक कवि की "पहली कविता" प्रकाशित की थी। इस विशेषांक की कामयाबी इसी से समझी जा सकती है कि यह विशेषांक सात अंकों तक प्रकाशित हुआ जिसमें 125 कवियों ने भाग लिया। हिन्दयुग्म के पुराने पाठकों को याद होगा जब नये और मँझे हुए दोनों तरह के कवियों ने अपनी-अपनी पहली कवितायें भेजीं थीं। प्रथम 100 में से 30 भाग्यशाली प्रतिभागियों को हमारी ओर से डॉ॰ अहिल्या मिश्रा और डॉ॰ रमा द्विवेदी द्वारा संपादित साहित्यिक पत्रिका 'पुष्पक' की एक-एक प्रति भेंट की गई

परन्तु पिछले एक वर्ष में हिन्दयुग्म से कईं नये कवि जुड़े हैं तो हमने सोचा कि क्यों न इस बार नये कवियों को भी अपनी "पहली कविता" प्रकाशित करवाने का मौका दिया जाये। इससे नये रचनाकार अपनी कविता प्रकाशित करवा स्थापित कवियों के विचार जान सकेंगे और वरिष्ठ कवियों की पहली कविता पढ़कर वे अपनी सोच का दायरा बढ़ा सकते हैं। कवि की पहली कविता उसके लिए बहुत ख़ास होती है, हिन्द-युग्म सदैव के लिए उन कविताओं का दस्तावेज़ीकरण करना चाहता है। तो फिर सोच क्या रहे हैं, अपनी पुरानी डायरी से धूल हटायें। वो कागज़ ढूँढें जिस पर आपने अपनी पहली कविता की पंक्तियाँ लिख डालीं थीं और पता भी नहीं चला होगा कि कब उन पंक्तियों ने कविता का रूप ले लिया। कुछ पाठक ऐसे भी होंगे जिन्होंने चुपचाप कुछ पंक्तियाँ लिखीं पर कभी कहीं भेजी नहीं। कृपया संकोच न करें और वो पंक्तियाँ लिख भेजें जिन्हें आप ने छुपा रखा है।

रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी 'पहली कविता' भेजते वक़्त पूरी ईमानदारी बरतें, इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनायें बल्कि यह सोचें कि इससे बहुत से नये रचनाकारों का प्रोत्साहन होगा। अपने अंदर का कवि बाहर निकालें। "पहली कविता" की दूसरी शृंखला आपकी कविताओं का इंतज़ार कर रही है।

फिलहाल काव्यपल्लवन के दो अंक प्रतिमाह प्रकाशित किये जायेंगे। यानी इस महीने की 16 व 30 तारीख को काव्य-पल्लव्न का यह अंक आयेगा जिसमें नये-पुराने, चर्चित-अचर्चित कवियों की 'पहली कविता' हिन्द-युग्म पर प्रकाशित की जायेगी।

विशेष-
१) अपनी 'पहली कविता' kavyapallavan@gmail.com पर भेजें।
२) कई रचनाकार शुरू-शुरू में में किसी फिल्मी गीत की पैरोडी या किसी चर्चित कविता की पैरोडी लिख बैठते हैं। 'पहली कविता' उसे ही मानें जिसे आप अपनी पहली मौलिक रचना कह सकते हों।
३) कविताओं का अप्रकाशित होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है। हिन्दयुग्म पर "पहली कविता" की प्रथम शृंखला में प्रकाशित कवितायें दोबारा नहीं ली जायेंगी।
४) कवि यदि ज़रूरी समझें तो क्यों लिखा?, कैसे लिखा? कहाँ लिखा? आदि ज़रूर लिख भेजें।
५) यदि आप अपनी पहली रचना संजोकर नहीं रख पाये हैं तो उपलब्ध रचनाओं में से प्राथमिक रचना लिख भेजें, लेकिन भूमिका में इस सच्चाई का उल्लेख अवश्य करें।
६) यह आयोजन तब तक चलता रहेगा जब तक कि हमें कवियों से कविताएँ मिलती रहेंगी, इसलिए अंतिम तिथि निर्धारित नहीं है।
7) जो कवि एक बार अपनी पहली कविता भेज चुके हैं, कृपया दुबारा न भेजें। यदि आप यह भूल गये हों कि आपने भेजी है या नहीं तो कृपया सूची-1 में अपना नाम देख लें।

पिछले वर्ष के सात अंकों में शामिल प्रतिभागियों की "पहली कवितायें" यहाँ पढ़ सकते हैं:

पहला अंक:
दूसरा अंक:
तीसरा अंक:
चौथा अंक:
पाँचवा अंक:
छठा अंक:
सातवाँ अंक:

सूची-1: कवियों ने नाम जिनकी पहली कविता संकलित की जा चुकी है

अजीत पांडेय
अनिता कुमार
अभिषेक पाटनी
अमित अरुण साहू
अमिता 'नीर'
अरविंद चौहान
अर्चना शर्मा
अर्पित सिंह परिहार
अवनीश गौतम
अवनीश तिवारी
अविनाश वाचस्‍पति
अशरफ अली "रिंद"
आकांक्षा यादव
आदित्य प्रताप सिंह
आलोक शंकर
आलोक सिंह "साहिल"
आशा जोगळेकर
आशीष जैन
उत्पल कान्त मिश्रा
एस. कुमार शर्मा
कमलप्रीत सिंह
कमला भंडारी
कवि कुलवंत सिंह
कु० स्मिता पाण्डेय
कुमार मुकुल
कुसुम सिन्हा
गरिमा तिवारी
गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"
गीता मोटवानी
गीतिका भारद्वाज
गोविंद शर्मा
गोविन्द शर्मा
जया शर्मा
डा. आशुतोष शुक्ला
डा. रमा द्विवेदी
डा0 अनिल चड्डा
डॉ॰ एस के मित्तल
डॉ॰ शीला सिंह
तनु शर्मा
तपन शर्मा
तरुश्री शर्मा
तसलीम अहमद

दिनेश पारते
दिव्य प्रकाश दुबे
देवेंद्र पांडेय
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
धर्म प्रकाश जैन
निखिल आनंद गिरि
निखिल सचन
पावस नीर
पीयूष तिवारी
पूजा अनिल
पूजा उपाध्याय
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प्रकाश यादव 'निर्भीक'
प्रभा पी. शर्मा
प्रमेन्द्र प्रताप सिंह
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बेला मित्तल
ब्रह्मनाथ त्रिपाठी 'अंजान'
भूपेंद्र राघव
मंजू भटनागर
मधुरिमा
मनीष वंदेमातरम
मनीषा वर्मा
ममता गुप्ता
ममता पंडित
महक
महेंद्र भटनागर
मीना जैन
मीनाक्षी धनवंतरि
मेनका कुमारी
मैत्रेयी बनर्जी
यश छाबड़ा
रंजना भाटिया
रचना श्रीवास्तव
रजत बख्शी
रश्मि सिंह
राकेश खंडेलवाल
राजिंदर कुशवाहा
राजीव तनेजा
राजीव रंजन प्रसाद
राहुल गडेवाडिकर

राहुल चौहान
रेनू जैन
लवली कुमारी
विजयशंकर चतुर्वेदी
विनय के जोशी
विपुल
विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
विश्व दीपक 'तन्हा'
शशिकान्त शर्मा
शिफ़ाली
शिवानी सिंह
शुभाशीष पाण्डेय
शैलेश भारतवासी
शोभा महेन्द्रू
श्याम सखा 'श्याम'
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
श्रीमती पुष्पा राणा
श्रुति गर्ग
संजीव कुमार बब्बर
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
सचिन केजरीवाल
सजीव सारथी
सतपाल ख्याल
सतीश वाघमारे
सतीश सक्सेना
समीर गुप्ता
सविता दत्ता
सी आर.राजश्री
सीमा गुप्ता
सीमा सचदेव
सुनिता (शानू)
सुनीता यादव
सुनील कुमार सोनू
सुनील डोगरा ’जालिम’
सुमित भारद्वाज
सुरिन्दर रत्ती
सुरेन्दर कुमार 'अभिन्न'
सोमेश्वर पांडेय
स्वाति पांडे
हरिहर झा
हेमज्योत्सना पराशर