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पहली कविताओं का दोहरा शतक







काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन (विशेषांक)




विषय - पहली कविता

अंक - अट्ठाइस (भाग-४)

माह - अगस्त २००९






२०४ कवि, २०४ पहली कवितायें। लगातार दूसरे सत्र में जिस तरह की प्रतिक्रिया हमें मिली है वो देखते ही बनती है। "पहली" कविताओं ने दोहरा शतक जमा दिया। पिछले वर्ष में जिस तरह से पाठकों व कवियों ने भाग लिया था उसने हमारा उत्साह बढ़ा दिया था और हमें इस वर्ष फिर से ये विशेषांक लाने के लिये प्रोत्साहित किया। आप सभी पाठकों का धन्यवाद। हिन्दयुग्म के पहली कविता के संग्रह में इस बार हम ले कर आये हैं १९ नये कवि और उनकी कवितायें। वरिष्ठ व पुराने कवियों से अनुरोध है कि वे नये कवियों का मार्गदर्शन करें।

जैसे जैसे हमें और कवितायें मिलती जायेंगी, हम 20-20 कविताओं के साथ आपके समक्ष उपस्थित होते रहेंगे। हमारे पाठकों ने हमें भूमिका भी लिख भेजी है जिसे हम कविता के साथ ही प्रकाशित कर रहे हैं। अलग अलग अनुभवों पर लिखी गईं वो चंद पंक्तियाँ आज हमारे इस मंच का हिस्सा बन रही हैं। हम आशा करते हैं इससे हमारे अन्य पाठकों को भी प्रेरणा मिलेगी और वे हमें कविता लिख भेजेंगे। चलिये पढ़ते हैं १९ कवियों की पहली कवितायें।
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हमें आप अपनी "पहली कविता" kavyapallavan@gmail.com पर भेज सकते हैं।

आपको हमारा यह आयोजन कैसा लग रहा है और आप इसमें किस तरह का बदलाव देखना चाहते हैं, कॄपया हमें ईमेल के जरिये जरूर बतायें।

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स्कूल के दिनों में गद्य पद्य संग्रह की कविताओं को पढ कर कुछ लिखने की इच्छा होती तो कुछ कुछ पंक्तियां रफ कॉपी में लिख लेती । उनको कभी संभाल कर नहीं रखा। लेकिन सातवीं में पढती थी तब गांव जाना हुआ वहां एक बूढी मां का बेटा शहर जाकर बस गया और भूल गया । वो मेरी दादीसा से ये बातें बता रही थी मै पास ही बैठी थी। बस उसी पल जो कागज पर सिलसिलेवार उतरा उसे ही मैं अपनी पहली कविता मानती हूं और वह आज तक उसी पन्ने पर सुरक्षित है।
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एक पीड़ा
दिन के फेर में
दिन के फरक
यूं दिखने को मिलते हैं
पहले उसके रात रात भर जागने में
एक विश्वास था
एक आषा थी
आज उसकी इस हालत में
घोर निराशा वेदना दुख
क्योंकि उसकी आशा विश्वास
उसका पुत्र
शहर की चमक दमक देखकर
हो गया उससे विमुख,
जीवन तो यूं ही बीत जायेगा
लेकिन कोई बताये
उसकी आशा विश्वास क्यों टूटे?
दुआ करी!
मंदिर महल टूटे तो क्या
खुदा विश्वास किसी का न टूटे

--किरण राजपुरोहित




मैं उदास नहीं था
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मेरी माँ की कोख उदास थी
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मेरे जन्म के समय
मेरी आँखों में
बेचैनी के भाव थे
कहीं उसकी बाँझ कोख
उस की नस्ल का
दुःख ना उपज दे
आप भी अजीब हो
मुहँ से कफ़न हटा कर
दर्द की सीमा तय करते हो.....
( मेरी यह पहली कविता अमृता जी के
मैगजीन "नागमणि" में 1982 में प्रकाशित हुई )

--अमरजीत कौंके





किसी अजीज को पहली बार लिखकर समर्पित की गई चार पंक्तियाँ
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घर में ख़ुशी का सागर सौन्दर्य का किनारा
मस्ती के मांझियों को सूझता नहीं किनारा
कृष्ण का प्यार तुझको मिलता रहे सदा
सवार कश्ती पर हो करते रहो नजारा

दिनांक ०१-०१-१९८९

--रामनिवास तिवारी





यह कविता मैने इलाहाबाद मे सन् 1986 मे लिखी थी। जब मै बी.ई. के तृतीय वर्ष मे था। हॉस्टल से कॉलेज के रास्ते में एक पलाश का पेड़ था। उस पर हर सवेरे एक कोयल कुहुक लगाती थी। दो वर्षों के क्रम में वह आवाज इस कदर मन से जुड़ गई कि किसी दिन नहीं सुनाई देने पर मन खिन्न-सा रहता था। कुछ कोयल की इस कुहुक ने पे्ररित किया तो कुछ इलाहाबाद जैसी दिव्य-स्थली ने मेरे अंदर के कवि को जागृत किया और मेरी पहली कविता ने जन्म लिया...
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`सुंदरता की परिभाषा`

नहीं जानता मैं सुंदरता की परिभाषा
मैं तो समझता हूँ बस प्रेम की भाषा ।
खिले-खिले उपवन में वो फूलों का महकना
पलाश की डाली पर यूँ कोयल का कुहुकना
स्वत: ही मन के प्रणय द्वार खोल जाता है
नीरस, व्यथित मन में भी जीवन-रस घोल जाता है ।
सुंदरता तो जैसे बाहरी पहनावा है
मन-भ्रमित करने को मात्र एक छलावा है
वह तो मानो स्वर्ण पर बिखरी हुई धूप है
मानव की चिंतन शक्ति का ही प्रतिरूप है - जैसे...
मैं तुम्हें इसलिये चाहता हूँ, क्योंकि तुम सुंदर दिखती हो ... या ...
क्योंकि मैं तुम्हें चाहता हूँ, इसलिये तुम सुंदर दिखती हो ।

नहीं जानता मैं सुंदरता की परिभाषा
मैं तो समझता हूँ बस प्रेम की भाषा ।।

--मयंक सिंह सचान



शिला का अहिल्या होना

क्या अहिल्या इस युग में नहीं है
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पति के क्रोध से शापित ,निर्वासित,निस्स्पंद ,शिलावत्
वन नहीं भीड़-भाड भरे शहर में ,
वैभव पूर्ण - विलासी जीवन में
रोज़ रात को मरती है बिस्तर पर
अनचाहे संबंधों को जीने को विवश
भरसक नकली मुस्कान और सुखी जीवन का मुखौटा ओढे
एक राम की अनवरत प्रतीक्षा में रत्
इस अहिल्या को कौन जानता है?
उस अहिल्या को कम से कम यह तो पता था
कि आयेंगे राम अनंत प्रतीक्षारत शिला को
अपने स्पर्श से बदलेंगे अहिल्या में
लौटेगी अपने पति के पास
नया जीवन पाकर हर्षितमना
सब कुछ होगा पहले-सा ,
कुटी भी ,पति-परमेश्वर भी
पर क्या ये अहिल्या चाहेगी लौटना
अपने उस पति के पास
दिया जिसने शापित जीवन
निर्दोष , निरपराध नारी को
क्या सब कुछ भूल कर
अपनायेगी उस पति को
जो हो सकता है फिर से
दे दे शापित जीवन का उपहार
तब कहाँ से पायेगी
उद्धार का एक और अवसर राम के बिना
पर यक्ष-प्रश्न तब नहीं उठा
तो क्या आज अब नहीं उठेगा
कि आज की ये अहिल्या
अकेली भी तो रह सकती है
क्योंकि राम को तो
आगे और आगे दूर तक जाना है
जहाँ न जाने कितनी शिलाएँ
प्रतीक्षारत हैं अहिल्या होने को
आज के नये राम को भी तो
आगे और आगे जाना है दूर तक
भले ही इसे कामोन्मत्त शूर्पनखा का
दर्प-दमन भी करना न हो
अशोक वाटिका की बंदिनी सीता को
रावण से मुक्त कराना भी न हो
लौट कर अयोध्या सीता को
फिर से शंकित पति की तरह त्यागना भी न हो
तो यक्ष- प्रश्न अब भी है
कि अहिल्या का उद्धार हुआ तो क्या हुआ?
सीता रावण की अशोक-वाटिका से
मुक्त हुई भी तो क्या भला हुआ?
लव-कुश तो फिर भी बिना पिता के ही
आश्रम में पलने को विवश हुए
अंतिम सत्य तो यही है
कि हर युग में राम की नियति है वह सब करने की
और अहिल्या और सीता की नियति है
फिर फिर उसी जीवन में लौट जाने की

--वशिनी शर्मा वर्जिनीया,2007





यह कविता मैने सन् 1998 में लिखी थी। मैने अपनी पहली रचना एक व्यंग रचना लिखी है जिसका शीर्षक है कुर्ता। किसी के द्वारा उस समय मैने कोई चुटकुला सुना और इस रचना की उत्पित्त हुई।

कुर्ता
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एक बार की बात है भाई
बाल काट रहा था नाई
तभी एक कुत्ता लगा मेरे पीछे
वो धीरे धीरे मेरे कुर्ते को खींचे
समझ गया मै समझ गया मै
नाई का कुत्ता भी जानता है
कुर्ते वाले को अच्छी तरह से पहचानता है
मै समझा की आज गया मै कुत्ता कुर्ता फाड़ेगा
मेरा नया खादी का कुर्ता रूमाल बनाकर मानेगा
तभी नाई बोला मेरे कान में
अगली बार कुर्ता पहन मत अइयो मेरी दुकान में
मैने पूछा क्यों भाई
उसने मुस्कुराया कुत्ते की तरफ देखा और बोला
अपना मुंह खोला और बोला
इसको नेतागिरी अच्छी तरह आती है
क्योंकि इसकी और नेताओं की जाति बहुत मेल खाती है

--नीरज पाल




वैसे तो दो पंक्तिया कितनी बार लिखी है पर जिसे मै अपनी पहली कविता समझता हूँ वो आपको पेश कर रहा हूँ। यह मैंने करीबन १५ साल पहले लिखीं थी जब किसी का खुमार मेरे दिलों दिमाग में था और साथ ही प्रकृति से मुझे बेहद लगाव है।
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पहाडों का मौसम
धुंध सी फैलीं वादियों में
एक मौसम आया है सर्दियों में
पहाडों पे खिलती कलियों ने
लौटाई है कहानी सदियों की !
कतार में खड़े पेरो से
निकल कर आती सतरंगी धूपों में
तुम नहाकर कितने रंगों से
आई हो छम से कितनो रूपों में !
सफ़ेद फूलों के सीने में
शबनमी सी ठंडी आग है
हर कली पे इठलाती हुई
नए मेघो का नया राग है !
पहाडों पे आया ये नया मौसम
झीलों पे इस कदर छाया है
की खनकती हुई तुम्हारी हंसी
बूंद बूंद में खिल निखर आया है !

--सौरभ कुमार



मैंने वर्ष २००९ में इलाहाबाद से १०+२ पूरा किया है तथा मैं राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रवेश लेना चाहता हूँ . जीवन के स्वरुप तथा संघर्षों के बारे में सोचते ही मेरे ह्रदय में एक शूल सा उठता था . मैं स्वयं से सदैव यह प्रश्न पूछता था कि जीवन का उद्देश्य क्या है? जब प्रश्नों का समाधान कहीं न मिला तो ह्रदय के किसी कोने से उत्तरों व रहस्यों का एक सोता निकला जो मेरे जीवन की पहली कविता के रूप में कलमबद्ध हुआ. आशा है कि यह अपरिमार्जित कविता किसी अन्य जिज्ञासु की जिज्ञासा शांत करने में समर्थ होगी.

जिन्दगी


कभी-कभी सोचता हूं कि ये जिन्दगी क्या है,
ये है फूलों से सजी या है जंजीरों में फंसी,
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इसमें है शीतलता कि फुहार
या कठोर सत्य की दाहकता झुलसाती है बार-बार,
ये है एक सौंदर्य एवं मधुरता की बानी,
या है दु:ख और वैमनस्य की अतंहीन कहानी,
हर बार होती है अन्तर्मन में एक विकलता,
क्या अनुत्तरित है जीवन का यह प्रवाह,
परन्तु तभी चेतना अन्तर्मन को झकझोरती है,
अनुत्तरित प्रश्नो का रहस्य खोलती है,
जिन्दगी तो है एक ऑंधी एक तूफान,
जो हारने वाले का सर्वस्व उजाड़ देती है,
जो इसको कदमों तले कुचल पाता है,
वही इस संसार में पहचान बना पाता है,

ऐ जिन्दगी! फिर मैं तेरी चुनौती स्वीकार करता हूं,
इस पल से जिन्दगी जीने का ऐलान करता हूँ।

--कमलाकान्त शुक्ल `सूर्य`





दोस्त सी बात करें

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आसमानों के तले ऐसी एक नीड़ बुनें।
आना जाना हो जहां ऐसी चौपाल करें।
दोस्त सी बातें करें, दिल की कुछ बातें कहें।
चूल्हा है ठंडा अगर, रोटी की बात करें।।
चैन की रातें करें,कोई न घात करे।
गर बहे मेरा लहू तू भी एहसास करे।।
घर के पीछे से अगर,कोई घुसपैठ करे।
साझा अभियान करें, देख दुनिया भी डरे।
तू भी महफूज रहे, मैं भी महफूज रहूंे।।
आसमानों के तले ऐसी एक.......

--सुमीता पी.केशवा




मेरी यह कविता किसी सुचिंतित प्रयास का परिणाम नहीं है.मैंने तो बस उमड़ते-घुमड़ते विचारों को बस पंक्तिबद्ध कर दिया तो बस यह कवितामय हो गयी. मई अपने एक आदरणीय मित्र के प्रोत्साहित करने पर आपको भेज रहा हूँ.
सच है क्या....

सच है क्या................
ये डूबने की आस,
गहराता अहसास,
सिकुड़ती सी सांस,
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मर्त्य का अहसास,
सच है क्या....................
ये रास्ते की ठोकर,
फिसलते अवसर,
उद्दीपित विकार,
पंगु सरकार,
सच है क्या..................
ये अनसुनी कोलाहल,
धूमिल अस्ताचल,
असह्य दर्पबल,
प्राणान्तक परमानुबल,
सच है क्या...................
चुकती सहनशीलता,
अक्षीय अपूर्णता,
प्रस्फुटित उद्विग्नता,
निर्विकार उदासीनता,
सच है क्या..................
ये स्वर कर्कश,
अनगिनत से अक्स,
अपरिपूर्ण भक्ष्य,
असंतुष्ट शख्स,
सच है क्या..........

--गोपालजी झा 'वत्स'



बात २००४ की है ,उन दिनों मैं दसवीं कक्षा में पढता था..हमारे विद्यालय में हिंदी के एक नए अध्यापक आये थे..वो कक्षा में पढ़ाते हुए नयी-नयी उपमाएं देते,जीवंत और अजीवंत प्रतिमानों में प्रेम की चरम अनुभूति कराते,विभिन्न कवियों के उद्धरणों और पंक्तियों का जिक्र करते ..कुछ अपनी भी स्वरचित कवितायेँ सुनाते .मूलरूप से वे अपनी १ घंटे की कक्षा में समूचा माहौल कवितामयी बना देते ..ऐसा लगता सूरज भी कविता की धुन पर थिरक रहा है..और हवाएं भी कविता के साथ गुनगुना रही हैं ..इससे पहले मैं हिंदी को मात्र एक विषय समझा करता था..जिसमें मुझे अच्छे अंक लाने होते थे ..लेकिन उन गुरूजी ने मेरी सोच को पूरी तरह बदल दिया और सिखाया कि कविता किसी खजाने से कहीं ज्यादा मूल्यवान और सुरक्षित है
ऐसे ही एक दिन मैं सुबह-सुबह छत पर कागज़ और पेन लेकर बैठ गया ..और कुल पौन घंटे की मेहनत के बाद ये कविता निकली ..मुझे याद है इस दरम्यान अम्मा कुछ खाने के लिए चिल्लाती रही थी..शायद चावल की खीर थी
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ग्राम्य जीवन कितना अनुपम
वातावरण में सुन्दरता का समागम
चहुँ ओर प्रसारित हरियाली
रहते कृषक,मजदूर और माली


चारों ओर खेत-खलिहान
जिनमें उगते गेहूं,धान
छटा बिखरती है सौंदर्य की
खग,मृग करते विरल गान


परिश्रम है लक्ष्य जीवन का
अकर्मण्यता को नहीं स्थान
अपने कार्य में संलग्न रहना
बुद्धिमता से वे अनजान


ऐसे ग्रामीणों का नित-नित
करता हूँ मैं चिर अभिनन्दन
जिनके सहस्त्र क्रियाकलाप
भरते हैं इस जग का आनन


धरती माता इन ग्रामों में
सच्चे अर्थों में निवास करती
सुख शान्ति से जीवन जीने का
हम सबको है सन्देशा देती
जिन तीर्थों की एक झलक से
चित्त राम जाता अंतर्मन में
उन ग्रामों का अस्तित्व
आज है बहुत विषम संकट में


मानव को यदि दीर्घ काल तक
जग में पहचान बनानी है
तो ऐसे पावन ग्रामों की
उनको रक्षा करनी है "

--धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'



मैं ओम प्रभाकर भारती ये अपनी लिखी पहली कविता भेज रहा हूँ. यह कविता मैंने तब लिखी थी जब मैं नवीं कक्षा का छात्र था, वर्ष २००१ में. एक दिन मेरी कक्षा के तीन छात्र मिल कर एक कविता लिखने का प्रयास कर रहे थे. कई दिन की मेहनत के बाद उन्होंने कविता की १२ पंक्तियाँ तैयार की थी . उस कविता को उन्होंने मुझे दिखाया और कहा की मैं उसकी अशुद्धियाँ दूर करूँ और उसे और प्रभावशाली बनाऊं . मैंने कोशिश की और वह कविता बहुत ही सुन्दर बन पड़ी . वापस घर आकर मैं उसी कविता के बारे में सोचने लगा . मुझे ऐसा एहसास हुआ की मैं भी अपने भावों को कविता के रूप में व्यक्त कर सकता हूँ. बस फिर क्या था.. कलम उठाई और अपने देश के प्रति जो भावनाएं मेरे मन में उमड़ रहीं थी उन्हें शब्दों में कागज़ पे उतारता चला गया और मेरी पहली कविता के रूप में इस कविता की रचना हुई ....
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दृढ संकल्प
हे मानव दृढ संकल्पित हो
मन में सुखी राष्ट्र कल्पित हो
बढ़ रहे तीव्र पग नित विनाश पथ
अविलम्ब वे प्रतिबंधित हों
लौह नगर बन चुका विश्व यह
हरियाली में परिवर्तित हो ….
हो सुख शांति नव जीवन में
अपराध द्वेष सब वर्जित हो
भगवान् हमारा कर्म प्रेम हो
अंश अंश में ममता हो...
हर भारतवासी हो कर्तव्यनिष्ठ
हर बच्चा बच्चा शिक्षित हो
मिट जाये कुरीति समाज की
कभी न नारी शोषित हो
हो शान्तिकारिणी संस्कृति हमारी
निवारिणी हमारी भक्ति हो
लड़ सकें बड़ी से बड़ी व्याधि से
इतनी हम सब में शक्ति हो ......
हो देश भक्त हर भारत वासी
रोम रोम में भक्ति हो.
हो देशप्रेम सर्वोच्च धर्म
जो वन्दे मातरम कहती हो…..
खुशहाल हमारा राष्ट्र राज्य हो
रग रग में इसकी मस्ती हो
चतुर्दिशा में हो हरियाली
चप्पा चप्पा पुलकित हो…..
रब जाने कल्पना ये मेरी
कब सच में परिवर्तित हो…..

--ओम प्रभाकर भारती





डर लगता है

उसकी आँखों में मुझको एक समंदर लगता है ,,
वो मुझसे अब रूठ ना जाये डर लगता है !!
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छोड़ चुके हैं सारी दुनिया , दौलत और धरम ,,
उसका दामन छूट ना जाये डर लगता है !!

उसको अपना खुदा बनाया उसकी पूजा करते हैं ,
अब मेरा भरोसा टूट ना जाये डर लगता है !!

मुझमें ही मिल जायेगा वो ऐसा उसने बोला था ,,
बात कहीं ये झूँठ ना जाये डर लगता है !!

ये तन्हाई ,बेताबी और दौलत उनकी यादों की,,
अब कोई लुटेरा लूट ना जाये डर लगता है !!

--रवीन्द्र शाक्य




ऐ मौत!
मैं दरवाज़े पे खडा हूँ,
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तुम आओ तो सही,
मैं भागूंगा नहीं.
कसम है मुझे उसकी,
जिसे
मैं सबसे ज्यादा प्यार करता हूँ,
और उसकी भी
जो मुझे सबसे ज्यादा प्यार करता है.
या शायद दोनों.....
एक ही हों.
एक ऐसा शख्स
या ऐसे दो शख्स......
जो आपस में गड्डमगड्ड हैं..
मगर जो भी हो
है तो प्यार से जुड़ा हुआ ही न.
वैसे भी...
गणित के हिसाब से
अ बराबर ब
और ब बराबर स
तो अ बराबर स ही हुआ न....
जो भी हो यार
मगर सच में
उन दोनों की कसम
उन दोनों की कसम, मैं भागूँगा नहीं.
कुछ लोग कहते हैं कि-
'जिंदगी से बड़ी सजा ही नहीं'
अरे
तो तुम तो इनाम हुई न
और भला इनाम से
क्यों कर मैं भागूंगा?
और फिर वो इनाम जो.....
आखिरी हो
सबसे बड़ा हो,
जिसके बाद किसी इनाम की जरूरत ही न रहे..
उससे भला मैं क्यों भागूंगा?
इसलिए
ऐ मौत....
तुम्हे
वास्ता है खुद का,
खुदा का
आओ तो सही
मैं भागूंगा नहीं.....

--दीपक 'मशाल'



प्रेम बेल महकती रहे मुरझाने के बाद
प्रेम महक उड़ती रहे उड़ जाने के बाद
प्रेम ग़ज़ल , प्रेम तन्हाई
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प्रेम पहेली उलझती जाये सुलझाने के बाद .
प्रेम नशा इस जिन्दगी का
इसमें खुलें तो खुलें , बंद हो बंद होने के बाद .
प्रेम कविता
समझ में न ए समझ में आने के बाद
प्रेम महक उठे साँसों में घुले
सांस बन जाए फिर महकने के बाद .
प्रेम रंग
छुए तो मिटता नहीं जिन्दगी मिट जाने के बाद .
प्रेम बूँद ओस की
मोती बनाये जीवन को जीवन में आने के बाद .
प्रेम कहानी अनकही
पढ़ी जाये आँखों में प्रेम हो जाने के बाद .
प्रेम सफ़ेद चादर
छुपता नहीं फिर दाग , लग जाने के बाद .
प्रेम समर्पण , मर मिटने की भावना
धरती आकाश जलें प्रेमी मिल जाने के बाद .

--रेनू दीपक




ये दुनिया..आज कल क्यों मुझे
बदली बदली सी लग रही है
ये असमा,ये ज़मीन,ये हवा
ये चाँद और सूरज तो वही हैं
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लगता जैसे अपने मान की बात इन्होने
पहेली बार मुझसे कही है
अब बदला है तो सिर्फ़ मेरा देखने का नज़रिया
सोचता हून शायद यही है असली दुनिया
सोचता हून कैसे दिखाऊँ तुम्हे ये दुनिया

समझना मुश्किल है इस दुनिया के नियम
कोई जिए खुशी से तो कोई लिए सैकड़ों गम
किसी को मिलता सब कुच्छ तो किसी को कुच्छ भी नही
क्या कोई बाथ्ेगा यहाँ क्या है ग़लत और क्या है सही
फिर एक आवाज़ आई कहीं अंदर से
क्यूँ ऐसा इस दुनिया मे होता है
कोई सोता सड़कों पे और
कोई मखमल पे सोता है
क्यों जिसके पास खोने को कुछ भी नही
वही हमेशा खोता है
अरे इस दुनिया मे हर इंसान
किसी इंसान की वजह से ही रोता है
अब बदला है तो सिर्फ़ मेरा समझने का नज़रिया
हर कोई क्यों बुन रहा है अपनी अलग दुनिया
क्योन्ना मिल कर रहे इस घर मे जिसे कहते है दुनिया

चलो एक कहानी आज मैं तुम्हे सुनता हून
दो इंसानों की जिंदगी तुम्हे दिखता हून
एक था आमिर बाप की संतान
तो दूसरे का पिता था ग़रीब
एक की थी खुशियों से दोस्ती
तो दूसरा था गम के करीब
एक जी भर के नहाता था शवर मे
तो दूसरे को पीने को भी ना था सॉफ पानी
एक के पास था विकल्प क्या खाऊँ आज
तो एक सोने की कोशिश कर रहा था सुन कर मया से कहानी
एक के घर रात होती ही नही थी
रोशनी से भरा था हर एक कोना
तो एक के घर मे दिन होता ही नही था
अंधेरे मे आँख खुले और अंधेरे मे ही सोना
खुशियाँ और गम अब पैसे देख कर किसी के होते हैं
पैसेवालों को मिलती खुशी और ग़रीब हमेशा रोते हैं

क्यों कोई तो करता आँख बंद करके
पानी,खाना और बिजली बर्बाद
क्यों किसी को ये मिलते ही नही
क्या किसी के पास है कोई जवाब?
क्यों ये आमिर नही समझते
की उनकी 1 साल की बर्बादी
किसी ग़रीब के परिवार की
कर सकती है आबादी
क्यों ये आँखों से देखकर भी
सोच पर बंदिश लगते हैं
भूखों को नही खिलाएँगे
मूर्तियों पर धन लूटतें हैं
कहाँ से आई ये सोच की भगवान
दूध से नहाने पर खुश होते हैं
कभी उन बच्चों के आनसून ना पोच्छो
जो ग़रीबी और भूख से रोते हैं.

क्या है मानव और पशु मे अंतर
जब एक दूसरे के लिए स्नेह नही अंदर
बाँटो अपनी खुशी और लेलो किसी के थोड़े गम
सिर्फ़ अपने लिए जीना छ्चोड़ो ,मैं नही कहो हम.

--अभिनव वाजपेयी




तुम हो विधाता की कृति,या गयी प्रकृति से बनायीं हो .
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सत्य हो या की स्वप्न जो यूं क्षितिज पे छाई हो.
छुईमुई की लरज है तुममे
बिजली की सी लचक है तुममे
सावन की पहली बूंदों सी बरस
फिर स्वयं ही शरमाई हो
सत्य हो या स्वप्न हो ,जो यूं छितिज पे छाई हो
स्निग्ध कमल सा सौंदर्य तुम्हारा
गहरे सागर सा हृदय तुम्हारा
स्वयं के ही मद में बहक
मंद समीर सी अलसाई हो
सत्य हो या स्वप्न हो जो यूं छितिज पे छाई हो
--गौरव चतुर्वेदी





ये कविता मेने कुछ दिन पहले ही लिखी है ...वैसे ये मेरी पहली और स्वरचित कविता है....... जब मैं सुबह-२ सो के जागा था .. तब एक दम से मुझे मेरी प्यारी मोम पूजा अनिल जी जो मुझे अपना बेटा मानती हैं और अपनी प्यारी सी बहना पिंकी दीदी की याद आ रही थी ... तब ये कविता लिख डाली ....... दोनों मुझसे दूर रहते हैं लेकिन फिर भी मैं दोनों के दिल के करीब हूँ .........:):)
प्यार-------- कितने दूर फिर भी कितने पास
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किसी से इतना प्यार करते,
फिर भी हम आज हम उनसे दूर रहते,
उफ़ ये दूरी,
हाय रे ये मजबूरी !!!
काश !!! हम भी उड़ती चिडिया होते
बस अपनी बाहें फैलाकर,
फुर्र करके उनके पास पहुँच जाते !!!

क्षितिज मेहता





मैं आज पुरानी बातों से कुछ बातें करने बैठी हूँ,
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अपने इस एकाकीपन को कुछ दूर भागने बैठी हूँ .
उन यादों के गुलदस्ते से चुन चुन कर फूल निकालूँगी,
उन फूलों के कांटो की मैं वो चुभन मिटाने बैठी हूँ.
तुम भी आ जाना महकाने मेरी स्मृतियों के उपवन को,
मैं अपने उजडे गुलशन को खुशनुमा बनाने बैठी हूँ.
क्यों मुझको चाहा प्यार किया.?
विस्मित मेरा संसार किया.
क्यों पैदा कर दी नई ललक.?
जीवन जीने का सार दिया.
यह जीवन रण है प्रतिक्षण, मैं बैरागी मैं एकाकी.
यह बात तुम्हे मैं आज प्रिये सब साफ़ बताने बैठी हूँ.
मेरी कमजोरी ना बन के,अब मेरे प्रेरणा स्रोत बनो.
यह नम्र निवेदन तुमसे कर मैं आस लगाये बैठी हूँ.

मनीषा रजनीश वर्मा




'पहली कविता' का दसवाँ अंक







काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन (विशेषांक)




विषय - पहली कविता

अंक - अट्ठाइस (भाग-३)

माह - अगस्त २००९






हम लोग जहाँ 62वाँ स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं वहीं नये/पुराने कवियों की पहली कविताओं का दौर जारी है। पिछले महीने "पहली कविता" की दूसरी शृंखला शुरू करने की उद्घोषणा करने के बाद इसमें देश-विदेश से हमारे पाठकों का योगदान लगातार बढ़ रहा है। इस विशेष अंक में अब तक हम १६० से अधिक कवितायें प्रकाशित कर चुके हैं। इन विशेष कविताओं की अगली कड़ी लेकर हम हाजिर हैं।

जैसे जैसे हमें और कवितायें मिलती जायेंगी, हम 20-20 कविताओं के साथ आपके समक्ष उपस्थित होते रहेंगे। हमारे पाठकों ने हमें भूमिका भी लिख भेजी है जिसे हम कविता के साथ ही प्रकाशित कर रहे हैं। अलग अलग अनुभवों पर लिखी गईं वो चंद पंक्तियाँ आज हमारे इस मंच का हिस्सा बन रही हैं। हम आशा करते हैं इससे हमारे अन्य पाठकों को भी प्रेरणा मिलेगी और वे हमें कविता लिख भेजेंगे। चलिये पढ़ते हैं 20 कवियों की पहली कवितायें।
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संजीव वर्मा 'सलिल'
एम.ए.शर्मा ’सेहर’
जयवर्धन तिवारी
नीरज कुमार
मुकेश पांडे "चन्दन"
प्रवीण शुक्ला
सुरेश तिवारी
संदीप कुमार श्रीवास्तव
मिथिलेश दुबे
अनूप कुमार गुप्ता
अनिल कान्त
जयेश मेस्त्रि
वीरेन्द्र अग्रवाल
''कवि'' जगन्नाथ विश्वकर्मा
प्रो.चित्र भूषण श्रीवास्तव "विदग्ध"
सरस्वती प्रसाद
कुलदीप जैन 'भावुक'
अमिता कौंडल
अंशलाल पंद्रे
चन्दन कुमार झा
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हमें आप अपनी "पहली कविता" kavyapallavan@gmail.com पर भेज सकते हैं।

आपको हमारा यह आयोजन कैसा लग रहा है और आप इसमें किस तरह का बदलाव देखना चाहते हैं, कॄपया हमें ईमेल के जरिये जरूर बतायें।

अपने विचार ज़रूर लिखें





उन दिनों प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा की प्रांतीय कार्यकारिणी की बैठक के लिए नागदा गया था. प्रांतीय संगठन मंत्री था. एक स्थानीय मित्र श्री रमेश सक्सेना के निवास पर समाचार पत्र पढ़ा. किसी समाचार के साथ शीर्षक था 'दर्पण मत तोड़ो'. यह मन को छू गये और एक गीत धीरे-धीरे कलम के सहारे कागज़ पर उतर गया. इसके पहले कुछ तुकबन्दियाँ ज़ुरूर की थीं पर वे याद नहीं. यह गी आठवें दशक के अंत में रचा गया होगा. यह मुझे हमेशा प्रिय रहा. बहुत कम स्वरचित रचनाएं याद हैं..यह उनमें ही है.
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दर्पण मत तोड़ो...

अपना बिम्ब निहारो दर्पण मत तोड़ो,
कहता है प्रतिबम्ब की दर्पण मत तोड़ो.
स्वयं सरह न पाओ, मन को बुरा लगे,
तो निज रूप संवारो,दर्पण मत तोड़ो....
शीश उठाकर चलो झुकाओ शीश नहीं.
खुद से बढ़कर और दूसरा ईश नहीं.
तुम्हीं परीक्षार्थी हो तुम्हीं परीक्षक हो,
खुद को खुदा बनाओ, दर्पण मत तोड़ो....
पथ पर पग रख दो तो मंजिल पग चूमे.
चलो झूम कर दिग्-दिगंत-वसुधा झूमे.
आदम हो इंसान बनोगे प्रण कर लो,
पंकिल चरण पखारो, दर्पण मत तोड़ो.
बांटो औरों में जो भी अमृतमय हो.
गरल कंठ में धारण कर लो निर्भय हो.
वरन मौत का कर जो जीवन पायें 'सलिल'.
इवन में उन्हें उतारो, दर्पण मत तोड़ो.

--संजीव वर्मा 'सलिल'


यह मेरी सबसे पहली कविता है जिसे मैंने ०७/१०/१९९१ को अपने सबसे छोटे भाई धीरज के लिए लिखी थी...उसके विद्यालय में कोई समारोह था, शायद हिंदी दिवस... उस वक़्त मैं कक्षा ११ का विद्यार्थी था...

स्वतंत्र हम-
भारत के जन-गण
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बापू नेहरू के
भारत में जीते हैं क्या?
सत्य-अहिंसा- पंचशील
पुस्तकेषु सिद्धांत हैं।
पदवी-पैरवी में है रेस
लाठी वाले की है भैंस।
मूल्यों का कोई मूल्य नहीं
कुर्सी के सब ग्राहक हैं।
समाजवादी- समाजसेवी
जग-जाहिर रंगे सियार है।
राजनेता धर्मवक्ता
रामराज्य के प्रवक्ता हैं
पर राम राज्य का साधन है।
कौन जनता का दुःख हरता है?
इन झंझटों में कौन फंसता है।
राजनीति और धर्म-
इन दो पाटों के बीच
केवल घुन ही पिसता है।

--नीरज कुमार


बात तब की है जब बारहवी कक्षा में पढ़ता था (सन २००१-०२ ). उस समय म०प्र० में बिजली बहुत कटती थी . मजबूरन पढाई लालटेन के उजाले में करनी पड़ती थी . एक दिन यूँ ही लालटेन के उजाले में कुछ शब्दों को पिरोया तो आर्श्चय का ठिकाना न रहा की मैंने एक कविता लिख डाली थी . दूसरे दिन स्कूल में जब दोस्तों को दिखाया तो किसी ने विश्वास न किया. फिर अपने आप को साबित करने के लिए मैंने फिर दूसरी कविता लिखने शुरू किया और दोस्तों के प्रोत्साहन से आज लगभग ३०० से भी अधिक कवितायेँ लिख चूका हूँ.

एक दिन मैं सड़क से जा रहा था।
मन में कुछ गुनगुना रहा था ।
इतने में एक सरकारी स्कूल मिला।
सोचा , चलो चलाये टाइम पास का सिलसिला
टीचर अंग्रेजी यूँ पढा रहे थे ,
मानो अंग्रेजी की धज्जिया उड़ा रहे थे।
बोले बच्चो होता है एल फॉर लालटेन
ये सुन मैं हो गया बैचैन
मैंने कहा एल फॉर लाइट के ज़माने में लालटेन पढा रहे हो,
क्या कंप्यूटर युग में भी टाईपराइटर चला रहे हो ।
टीचर बोले - एल फॉर लाइट ही नहीं रहेगी तो कंप्यूटर कंहा से चलेगा ?
जब तक होगी विद्युत कटौती तब तक हर बच्चा एल फॉर लालटेन ही पढेगा ।

--मुकेश पांडे "चन्दन"


एक छवि मेरे यादों में आई है
फिर से उसकी शक्ल सामने छाई है।
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मेरे सामने वाले प्रांगन में
कुछ बच्चे आते हैं अक्सर
शस्य श्यामला भारत माता
के कहलाते कनक िशखर
नंगे तन, सांवले रंग
सहज छबीले मतवाले अंग।
मिट्टी से मटमैले पट में
फिरते हैं ये मारे-मारे
इधर-उधर जा भाग दौड़
चुनते रहते बेमोल रतन
सिगरेट, शराब के खाली डब्बों में
बुनते रहते वे अपने सपने
और बचपन की सारी खुशियाँ वे,
कूड़ों के बीच गंवाते हैं।
अरमानों को रौंद बेच कर
रोटी का मोल चुकाते हैं।
निकले हैं कहॉं जाने को ये
पहुंचे हैं कहॉ मालूम नहीं
उनके भटकते कदमों को
मंजिल का निशां मालूम नहीं ।
अपना नहीं कोई उनका
जो है सब पराया है
हर तरफ उनके लिए बस
बेबसी का साया है।
मानवता के नाते बरबस
यूं ही सोचने लगता हूं
किसने छीना इनका बचपन
क्यों ये कूड़ों में बसते हैं
कल के भावी गौरव ये
क्या ऐसे ही बिखरे रहते हैं

--संदीप कुमार श्रीवास्तव


जब पहली कविता की ही बात है तो मैं वास्तव में अपनी पहली कविता भेज रहा हूँ। ये कविता मैंने तब लिखी थी जब मैं १२ साल का था और छठवीं में पढता था। मैं उस समय क्रिश्चियन इंटर कालेज में पढ़ता था, ये कालेज फर्रुखाबाद में है और ६ से १२ तक का है। हमारे कालेज में एक पत्रिका निकलती थी 'प्रकाश वाहक' उसके लिए छात्रों से रचनायें माँगी जाती थी। मैंने भी कविता लिखी और ज्योति स्वरूप अग्निहोत्री जो संपादक मंडल में थे के पास ले गया। मेरी खुशी का ठिकाना तब नहीं रहा जब उन्होंने पहली बार में ही मेरी कविता स्वीकार कर ली। तब से आज तक मैं सैकडो कविताये लिख चूका हूँ और बहुत सी पत्रिकयों और पत्रों में प्रकाशित भी हो चुकी हैं, पर वो ख़ुशी अलग ही थी

नाम मेरा है भ्रष्टाचार...
जहाँ न कोई आचार विचार
दुनिया भर में व्याप्त हूँ मैं
पर एक जगह अभिशप्त हूँ मैं,
रहना मना छोटे घर बार,
नाम मेरा है भ्रष्टाचार,
पुलिस, डाक्टर ,नेता हो,
सारी दुनिया का चहेता हो ,
होगा मेरा आज्ञा कर ,
नाम मेरा है भ्रष्टाचार,
इर्ष्या गुस्सा दादा दादी,
बेटा बेटी खून बर्बादी ,
चोरी चपलता रिश्तेदार,,
नाम मेरा है भ्रष्टाचार,
रिश्वत बाई बीबी मेरी …।
धन से मेरी प्रीत घनेरी ,,,,
है भरा पूरा मेरा परिवार,,,,
नाम मेरा है भ्रष्टाचार
काले गोरे का भेद न मुझको
हार जीत का खेद न मुझको …
नीचे से ऊपर तक मेरी सरकार …॥
नाम मेरा है भ्रष्टाचार,
ऊँचे नीचे वेतन भोगी,
छात्र अध्यापक या उद्योगी,
सब पर मेरा सामान अधिकार
नाम मेरा है भ्रष्टाचार,

--प्रवीण शुक्ला


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आज एक और दिन दुखी होने का,
एक और दिन रोने का,
लोग खुश होते है,
उनके हँसने पर.
हमे तो,हमे तो अब उनकी हँसी भी
रोने को उकसाती है.

आज जब हम मिले
तो शायद लोगों को लगा की हम मिल रहे है.
पर शायद हम जुड़ा हो रहे थे;
और वो खफा हो रहे थे...

ग़लती शायद दोनो की थी,
या सिर्फ़ मेरी,
पर ग़लती तो ग़लती थी
प्रेम एक बंधन है,
पर ये एक जकड़न बन गया,
इन बेड़ियों से निकलना ही बेहतर था,
शायद यही भाग्य का
इशारा था

काश वो जहाँ भी जाए,
हमे याद ना कर पाए,
क्यूंकी कहीं हमारी याद
उनकी आँखो से ना बह निकले;
क्यूंकी कहीं हमारी याद
उनकी आँखो से ना बह निकले;
और एक नया 'अनूप' बन जाए."

--अनूप कुमार गुप्ता


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प्रो.चित्र भूषण श्रीवास्तव "विदग्ध" जी की पहली रचना.... पुलिस पत्रिका वर्ष ३ अंक ११ नवम्बर १९४९ के पृष्ठ १ पर प्रकाशित यह रचना मिली ...पत्रिका के कोनो में दीमक लग रही थी ...शुक्रिया काव्य पल्लवन का कि अब यह रचना चिर सुसंचित रह सकेगी ....

आरक्षी दल के सिपाही से
चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध
सिपाही तुम स्वदेश की शान!

तुम पर आधारित जनता के अरमान
शांति व्यवस्था और सुरक्षा का तुम पर भार पड़ा है
तुम खुद को छोटा मत समझो, छोटे का अधिकार बड़ा है
तुम से है समाज संचालित, तुम समाज के प्राण
सिपाही तुम स्वदेश की शान!

बूंद बूंद जल के मिलने से सागर का निर्माण हुआ है
सच्चे सदा सिपाही दल से ही स्वदेश बलवान हुआ है
कर्म निष्ठ बन, धर्म निष्ठ बन राखो अपनी आन
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

सत्य धैर्य औ नीति निपुणता सदा तुम्हारा प् दिखलायें
किन्तु शत्रु के लिये निठुरता पौरुष तुम में आश्रय पाये
भारत के विद्रोही जग में रह न सकें सप्राण
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

वर्षों का फैला अंधियारा मानस मंदिर से मिट जाये
मातृ प्रेम का विषद दीप अब जन मन में प्रकाश फैलाये
मां का मान न घटने पाये, हो चाहे बलिदान
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

बस अपने कर्तव्य प् के तुम निधड़क राही बन जाओ
देख हठीली विपदाओ को भी
न तनिक तुम घबराओ
कर दो अंकित मेरु शिखर पर भी निज चरण निशान
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

राष्ट्र ध्वजा लहरा लहरा कर तुम से रोज कहा करती है
शाम सबेरे बिगुल तुम्हारी रोज पुकार यही करती है
कदम कदम बढ़े चलो भारत के अभिमान
सिपाही तुम स्वदेश की शान !

--प्रो.चित्र भूषण श्रीवास्तव "विदग्ध"


बचपन के दिनों से हो कुछ लिखने की आदत बनती जा रही थी-
देखी-सुनी चीजों के प्रति मासूम अभिव्यक्ति । पहली कविता , जिसे मैंने सुब्बू को याद करते हुए लिखा। पास में ही रहनेवाली वह तीन-चार साल की बच्ची मेरे पास अक्सर आया करती थी। एक दिन सुबह-सुबह सामूहिक रुदन की आवाज़ पर मैं दौड़ती हुई पहली बार सुब्बू के घर पहुँची-........ सुब्बू भगवान् को प्यारी हो गई थी। कई दिनों तक अन्यमनस्क रहने के बाद मैंने लिखा-

दो दिन के लिए
एक फूल खिला
दो पल हंसकर
मुरझा भी गया
यह जीवन एक तमाशा है
जाते-जाते समझा भी गया !
यही है दुनिया का क्रम देखो
कोई आता है,कोई जाता है
कोई हंसकर शीश उठाता है
कोई सर धुनकर पछताता है
जग है अद्भुत मायानगरी
यहाँ अपना और पराया क्या !
हम तो जाते हैं वो देखो
लाखों कलियाँ हैं निकल रही
वीरान न होता बाग़ कभी
दुनिया किसके हित विकल रही
मत सोच वृथा तू कर पगले
कैसी ममता ,कैसी माया !

--सरस्वती प्रसाद


सरिता

तुम कितनी हो चंचल
तुम कितनी हो चंचल
फिर भी हो तुम निश्छल
कितनी पावन व निर्मल
आज रुको पल दो पल
विश्राम करो क्षण दो क्षण
सरिता
इठलाकर,
बल खाकर कहती
चल हट
आज नहीं...
कल कल.
कल कल..
कल कल...
8 अगस्त 1973
--सुरेश तिवारी


बादलों के देश से

बारह वर्ष की थी
कक्षा में विषय मिला बादल
कविता लिखनी थी
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कुछ ने रुई के फाहों से सफ़ेद बादलों को चुना
मुझे उमड़ते-घुमडते काले बादल मन भाए
आज भी बड़े मित्रवत लगते हैं
बचपन से जानती हूँ इन्हें

पहाड़ों की कोख में जन्मी
प्रकृति प्रेम सहज था
आसान जान पड़ा लिखना
तुकबंदी ही कविता होती हैं
ऐसा कुछ भ्रम था
सुंदर तुक मिलान की भरपूर कोशिश
बन गई सहज सरल पहली कविता
पुरुस्कार स्वरुप मिला
प्रशस्ति-पत्र कलम व
प्रधानाचार्य के स्नेहिल शब्द
मेरे मानस पटल पर आज भी अंकित हैं

"कलम प्रिय सखी साबित होगी लिखते रहना "
खुशी के क्षण बाँटना आसान है
दुख के पलों में लिखना भाता है मुझे
चाहे वो निरीह प्राणी के क्रंदन का हो
आज बादलों के देश से दूर
मीठी यादों को संजो
जब कुछ लिखना चाहती हूँ
अनायास ही होठ बुदबुदा उठते हैं
"कलम परम मित्र प्रिय सखी मेरी "
और कागज़ पर शब्द उकेरना आसान हो जाता है

--एम.ए.शर्मा ’सेहर’


ऐ मोहब्बत् अगर तू ना होती
तो मेरी जिन्दगी मे विरानिया ना होती
ना होता खुशियो का इन्तजार मुझे
क्योकि मेरी जिन्दगी में उदासी ना होती।

ना होता तुझसे बिछङने का डर
क्यो किं मै तेरे इन्तजार मे ना होता
ना बहते मेरे आंखो से अश्क के धारे
अगर मुझे तेरे जाने का गम ना होता।
ऐसा भी क्या हुआ कि तुमने मुझे ठुकरा दिया
जब पूछा मैने तो तुमने मुझे बेवफा ठहरा दिया।

ऐ मोहब्बत अगर तू ना होती
शरारत ना होती, शिकायत ना होती
नैनो मे किसी की नजाकत ना होती
ना होती बेकारी ना होते हम तन्हा
किसी को चाहने की तमन्ना ना होती
दिल भी ना होता तन्हा ना रोता दिवानो सा
अपनी ये हालत ना होती
ऐ मोहब्बत् अगर तू ना होती।।

--मिथिलेश दुबे


उस समय जब मैं स्नातक में था और मैं कुछ मायूस सा था, तब मेरे मन में कुछ लिखने का विचार आया और परिणामस्वरूप यह कविता बन गयी.यह मेरी पहली कविता है क्योंकि गद्य तो मैंने पहले लिखा हुआ था और कुछ शेर-ओ-शायरी भी की थी परन्तु कविता नहीं लिखी थी.
ऐ राही तुझे आगे बढ़ना है
ऐ राही तुझे आगे बढ़ना है
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लाख आएँगी मुश्किलें
तेरे इस सफर में

और अकेलेपन के लम्हे
डरायेंगे तुझे इस सफर में

ऐ राही तुझे नही डरना है
सिर्फ़ आगे बढ़ना है

आगे बढ़कर भी अगर
ना मिले मंजिलों के रास्ते

मत समझ लेना भूल कर
ये आखिरी हैं रास्ते
ऐ राही तुझे आगे बढ़ना है ......

हमसफ़र बनकर आ भी जाए
अगर कोई इस सफर में

मत समझ लेना भूल कर
वो साथ निभाएगा तेरा हरा सफर में
ऐ राही तुझे आगे बढ़ना है .....

मंजिलें तो बनी हैं पाने के लिए
उन्हें तो एक दिन मिलना ही है
पर ऐ राही तुझे आगे बढ़ना है

--अनिल कान्त



तू सुबह की पहली किरणों मे
तू रात को तारों की चादर मे
फिर सुबह सुबह के ख्वाबों मे
रहती तू मेरी बातो मे
तू भंवरो की "गुंजन" में है
हर महक फूल मे तेरी है,
तू मौसम की अंगड़ाई मे भी ,
ये रंग कहे तू मेरी है....
ये जीवन मे उलझन है मेरी ,
या साँझ की हेराफेरी है,
शायद ना कह पाऊँ तुझे पर तू मेरी है बस मेरी है ..

--जयवर्धन तिवारी


आयो रे आयो रे, घनघोर सावन आयो रे
रिमझिम बूंदों का सागर, तपती धरा की प्यास बुझाने आयो रे
झुलसी कलियों में नव संचार, पुष्पों की मुस्कान खिलाने आयो रे
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माटी की सुगंध, भवरों का गुंजन, हर शाख पे नूतन ले आयो रे
कल-कल, चल-चल करती बुँदे, नदियों का कोलाहल ले आयो रे
नृत्य में लय, सुर में ताल, मृदंग बजाता आयो रे
कवियों में सृजन, संगीत में नव गीत सजाने आयो रे
योवन में तरंग, प्रेम में सतरंग, उमंगों में उल्लास ले आयो रे
चेतन मन में हर्षोल्लास, चंचल चितवन में मधु पराग भरने आयो रे
मृत जीवन के कण-कण में, प्राण रूपी अमृत भरने आयो रे
बन प्रेमिका सावन की, झुमो नाचो गाओ रे
हर बूंद पे गीत सजाओ रे
सावन की रिमझिम बूंदों का भी एक त्यौहार मनाओ रे
आयो रे आयो रे, घनघोर सावन आयो रे

--वीरेन्द्र अग्रवाल


मैंने अपनी लेखनी का सफर १९९३ यानी १५ साल कि उम्र से तय किया, सचमुच मेरे अन्दर ना जाने कोन सा दर्द है जिसे मैं आज तक खुद भी नहीं समझ पाया, मगर मैंने अपने दर्द को कलम का सहारा देकर कागज पर उतारना शुरू कर दिया, और ०९/०३/१९९५ में मैंने इस ग़ज़ल को लिखा, जिसे मैं रजिस्टर के पहले पन्ने पर आज तलक सँजोकर रखा हूँ. I

बहुत दिनों से बात जहन में,
ऐंसे पडी जैंसे चाँद ग्रहन में.
बहुत दिनों से बात जहन में,
फूल सघन थे रंग-बिरंगे,
मुश्क नहीं थी फिर भी चमन में.
बहुत दिनों से बात जहन में,
वो मजबूर था या अभिमानी,
शायद वक़्त रही हो महन में.
बहुत दिनों से बात जहन में,
जख्म थे ज्यादा जीवन थोडा,
रखते रहे हर सांस कफ़न में.
बहुत दिनों से बात जहन में,

--''कवि'' जगन्नाथ विश्वकर्मा


हे दोस्त....
गमो के समन्दर मे बहती हुई मेरी ज़िंदगी को सवारने के लिए,
तुम तिनका बनकर मेरे ज़िंदगी मे आए.
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तुमने मुझे इशारा किए अपना तन्हा हाथ मेरे तरफ बढाया.
मैने भी अपना बेबस हाथ तुम्हारे तन्हा हाथों मे देकर, अपने आप को मेहफ़ूज़ समझा.
कितना बेवकूफ था मै, बेवकूफ......
तुमने मेरे जख्मो को सहलाकर उन्हे मरहम लगाने का वादा किया.
मैने सोचा...औरो की तरह तुम भी अपना वादा तोड दोगे,
पर नहीं, मै गलत था....
तुम अपने वादे के पक्के हो...
तुमने मेरे जख्मो पर मरहम लगाया...पर...
पर तुम्हारे मरहम से मेरे जख्म और ताजा हो गए.
तुम मुझे अंधेरो की जंजीरों से छुडाकर रोशनी के महफिल मे लाये,
एक ऐसी महफिल, जिसकी रौनक तुम हो, सिर्फ तुम...
पर तुम्हारी इस महफिल की तपती रोशनी से मेरी खुदगर्जी जल कर राख होने लगी है....
ईससे तो कई ज्यादा अच्छा मेरा वो विरान अंधेरा था. कम से कम मै वहा आराम तो पाता था. झुठा ही सही, सकुन तो पाता था…..
मैने तुम्हे अपने ख्यालो की किताब के वो पन्ने पढकर सुनाएं...
जो पन्ने कभी मैने अपने आप को भी पढ सुनाए नही थे.
पर क्यूँ ? क्यूँ मै इस झमेले मे उलझ रहा हुं....
यह जानते हुए की इसका अंजाम मेरी बरबादी है...
सिर्फ बरबादी....
हां ! हां... मै इस झमेले मे उलझना चाहता हूँ...
मै बरबाद होना चाहता हूँ......बरबाद कर दो मुझे....
बरबाद कर दो....
हे दोस्त,, मैने तुम्हे तिनका समझा था... तिनका.....
मेरी डूबती हुई जिंदगी को सहारा देनेवाला तिनका....
पर नहीं.. मै गलत था... गलत था मै...
तुम तो सिर्फ एक आरी निकले...
मेरे चेहरे पर रेंगनेवाली तनहाई की जड काटनेवाली आरी....
सिर्फ एक आरी... आरी.............
तुम खुश रहो...........

--कवि जयेश मेस्त्रि


यह कविता मैनें नौवीं कक्षा में लिखी थी. अपने दोस्तो को समर्पित यह मेरी पहली कविता थी.

ऐ मित्र !
क्यों भटक रहे हो,
मंजिल की तलाश में ।
मंजिल ?
मंजिल तो तुम्हारे सामने है,
फिर क्यों भटक रहे हो तलाश में ।
कायरता त्यागो,
लकीर के फ़कीर मत बने रहो,
जगाओ अपने पुरूषत्व को,
सारे पंच तत्व है तुममें ।
बस !
एक बार देखो कोशिश करके,
अम्बर झुक जायेगा ,
कदमों में तुम्हारे ।
तुम्हीं हो नभ के तारे,
तुम्हीं हो वसुंधरा के पुत्र ।
गर्व करेगा सारा जनमानस,
ऐ भारत के धीर वीर ।
(22 जून 1999)

--चन्दन कुमार झा.


कैसे हों ?
वो रूठकर चल दिए , अब हम खुशगवार कैसे हों
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उजड़ चुका ये चमन , अब फिर सदाबहार कैसे हों ?
सावन गया घटाए बिखरी , अब बारिश कैसे हों
राहें अलग , रस्ते छूटे, अब साथ चलने की गुजारिश कैसे हों ?
वो हमारी, हम उनके हुनर की तारीफ किया करते थे
जब से गैर आये,हुस्न-अ-महफ़िल में हमारी फ़रमाइश कैसे हों ?
एक उन्ही के जख्मो ने हमें घायल कर दिया
आप सलाह न दे,अब कही और दिल्लगी कैसे हों ?
रोज घड़ी भर बतियाए बिना उन्हें चैन कहाँ था
मगर आज वो पास से गुजरे, तो पूछा भी नहीं ..कैसे हों ?

--कुलदीप जैन 'भावुक'


यह मेरी पहली कविता है जिसे मैंने जब बहरावी कक्षा मैं पढ़ती थी तब कलमबद्ध किया था. उस समय मेरे मामा जी की असामयिक मृत्यु से जब मेरी मामीजी का संसार उजड़ गया था और समाचार पत्रों मैं रोज नारी उत्पीडन की खबरें पढ़ कर जब मन ब्यथित हो गया तब मैंने यह कविता कलमबद्ध की थी.

नारी जीवन
नारी जीवन है क्या
रोना और रोना,
पाकर हर चीज़
खोना और खोना,
हंसाती है सबको
पर जाती है रुलाई
बनाती है सबको अपना
पर कहलाती है पराई,
जन्म देती है जग को
पर बन जाती है बला
रूप है दुर्गा का
पर समझी जाती है अबला
वो माँ है, बहन है,पत्नी है
पर कोई नहीं कहता वो अपनी है,
माँ बाप संग रह न पाई
ससुराल ह्रदय न समाई
तो फिर आखिर किसने है अपनाई,

--अर्डमोर अमेरिका
--अमिता कौंडल


जननी भारत माता
......
तेरी जय जय, तेरी जय जय
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तेरी जय जय, तेरी जय जय
रोज हैं खिलते गोद में तेरी, फूल हजारों ऐसे
अकबर, गांधी, भगत, जवाहर चांद सितारों जैसे
चांद सितारों जैसे जननी भारत माता
......
चाहे धर्म कोई भी हो, हैं सब भाई भाई
मां भारत की हैं संताने, है सब में तरुणाई
है सब में तरुणाई
जननी भारत माता
......
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम की आभा है न्यारी
भिन्न भिन्न भाषा औ प्रांतो की शोभा है प्यारी
की शोभा है प्यारी
जननी भारत माता
.....
गंगा यमुना ब्रह्मपुत्र और कावेरी का पानी
पी हम पानी वाले करते दुश्मन पानी पानी
दुश्मन पानी पानी
जननी भारत माता

--अंशलाल पंद्रे


पहली कविता (146-165)







काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन (विशेषांक)




विषय - पहली कविता

अंक - अट्ठाइस (भाग-२)

माह - जुलाई २००९






हमारे पाठकों की पहली कविताओं की दूसरी पारी की शुरुआत पिछले अंक से हो चुकी है। ये कवितायें कुछ खास हैं, इनमें अपरिपक्वता भी नजर आयेगी, बचपना भी होगा। ये उन कविताओं में से भी नहीं होंगी जिन पर लोग वाह-वाह कर सकें, जिन पर गीत रचे जा सकें, और हो सकता है सम्मेलनों में सुनाई भी न जा सकें। लेकिन फिर भी इनका विशेष महत्व है। क्योंकि ये उन सभी कविताओं की जननी हैं। ये पहली सीढ़ी होती है। ऐसी ही २० सीढ़ियों को लेकर हम हाजिर हैं।

जैसे-जैसे हमें और कवितायें मिलती जायेंगी, हम 20-20 कविताओं के साथ आपके समक्ष उपस्थित होते रहेंगे। हमारे पाठकों ने हमें भूमिका भी लिख भेजी है जिसे हम कविता के साथ ही प्रकाशित कर रहे हैं। अलग अलग अनुभवों पर लिखी गईं वो चंद पंक्तियाँ आज हमारे इस मंच का हिस्सा बन रही हैं। हम आशा करते हैं इससे हमारे अन्य पाठकों को भी प्रेरणा मिलेगी और वे हमें कविता लिख भेजेंगे। चलिये पढ़ते हैं 20 कवियों की पहली कवितायें।
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हमें आप अपनी "पहली कविता" kavyapallavan@gmail.com पर भेज सकते हैं।

आपको हमारा यह आयोजन कैसा लग रहा है और आप इसमें किस तरह का बदलाव देखना चाहते हैं, कॄपया हमें ईमेल के जरिये जरूर बतायें।

अपने विचार ज़रूर लिखें



बहुत अच्छा लग रहा है अपनी पहली कविता आपके साथ बाँटने में. दुनिया को भी पता चलेगा. तो शुरू करता हूँ उस पल का सफ़र जब यह पहली कविता मेरे जेहन में आई थी.
1993 या 1994 कि बात है. शायद तब मैं क्लास 6th या 7th में रहा होऊँगा. एक रोज़ घर के बाहर चबूतरे पर बैठा हुआ था और घर के सामने लगे अशोक के पेड़ को देखते हुए बस येही सोच रहा था कि अगर मैं अभी इस पेड़ को काट दूं या कोई चीज़ इस पर मार दूं तो यह अपने दर्द के बारे में बोल भी नहीं सकता. टीवी पर पेड़ बचाओ कि काफी विज्ञापन देख चुका था. टीवी और दूरदर्शन एक दूसरे के पर्यायवाची हुआ करते थे तब. तो बैठे बैठे कहाँ से तुकबंदी बैठानी शुरू कर दी और यों बन गयी मेरी पहली कविता. जब मम्मी को सुनाई तो उन्होंने कागज़ पर उतार दी और तब से लेकर अब तक उन्होंने मेरी बचपन कि साड़ी कवितायें संभाल कर रखीं हैं. तो अपनी पहली कविता आप सबके सामने पेश करता हूँ जिसका शीर्षक है "पेड़".

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पेड़
पेड़ एक बेजुबान चीज़ आशियाना है,
जो है उसका दुश्मन वह ज़माना है,
अगर इसी तरह से पेड़ कटते रहेंगे,
अगर इसी तरह से पेड़ मरते रहेंगे,
तो एक दिन ऐसा भी आएगा
जब सूरज कि कड़ी किरणों में
चलते चलते हम औंधे मुँह गिरेंगे.
तो पेडों को काटने से रोको,
इस तरह पेडों को लालच कि आग में मत झोकों!!

--गौरव शर्मा 'लम्स’


माँ तो माँ होती है,क्या कहूँ क्या सोचकर लिखा , बस जो लिखा मन से लिखा , प्रभु के निकट एक दीप जलाया ....
माँ
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इस दुनिया में माँ का रिश्ता
है अपने बच्चो से ऐसा
जैसा रिश्ता होता जड़ों का
अपने प्रिय पेड़ो के संग
हर सुख से प्यारे लगते हैं
अपने बच्चे
सारी दुनिया में लगते हैं वे ही अच्छे|
तभी तो माँ के दिल से निकले
आशीर्वाद ,
होते है मोती से सच्चे|
नहीं हो सकते सर्वत्र विराजमान खुदा
तभी करुणा में डूबकर माँ को बनाया|
यू ही नहीं माँ ने भगवान के बाद
दूसरा स्थान पाया |
पाया जिसने माँ का प्यार
हो गया वह धन्य-धन्य

--विनीता श्रीवास्तव



सिमटना यूँ अपनेआप में...
मुझे रास न आया कभी....
मै तो उन्मुक्त गगन में ...
सीमाओं के बंधन से मुक्त हों...
सोच के पंखो को फैला के...
दूर दूर तक उड़ते रहना चाहती हूँ...
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धरती पे मेरे अहसासों का समंदर बड़ा गहरा है..
अक्सर उसमे गोते लगाती हूँ..
.कभी खुद डूबती हूँ
तो कभी अपने आप को डुबोती हूँ...
अहसासों की लहरे बड़ी तीव्र होती है...
टकरा टकरा के और ज्यादा तेज हों जाती है...
अपने किनारे को तलाशने में रात दिन उछलती रहती है..
अहसासों के इस टकराव से अक्सर
तन् और मन् घर्षित हों जाते है...

"मन रूपी सागर" में उठनेवाली
"भावना रूपी लहरों" को
"शब्द रूपी किनारा" न दिया जाए तो ये
"तन् रूपी चट्टानों" से टकरा टकरा के घर्षित हों जायेगी...!!!!!!


इन लहरों को किनारा देने का मेरा ये एक प्रयास................

चंचल से इस मन् की बाते
कितनी उलझी-सुलझी ...
कभी लगे मानो जग अपना
तो कभी सब से बेरुखी सी !

खुद से जवाब पूछे ये और
देता उत्तर खुद से ही
न मिले संतुष्टि उत्तर से तो
नाराजगी भी खुद से ही !!

भ्रम जाल में उलझा ये जीवन,
पार पाना है खुद से ही...
मिलेंगे साथी यहाँ बहुतेरे लेकिन
उलझन सुलझेगी खुद से ही!!!

--कविता


माई मेरी पहली कविता है.. 1995 मे मैने इसे लिखा . जून 1997 मे अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के मासिक मुख पत्र भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका मे यह कविता छपी और फिर भोजपुरी मे जो लिखने का सिलसिला शुरु हुआ .आज तक जारी है. हां यह सच है कि इसके पहले हिन्दी मे मैने कुछ तुकबंदी की थी या यूं कहे कि चिचरी पारने की कोशिश की थी पर उन कविताओँ का अब कोई अता- पता नहीँ है..

माई

अबो जे कबो छूटे लोर आंखिन से
बबुआ के ढॉंढ़स बंधावेले माई
आवे ना ऑंखिन में जब नींद हमरा त
सपनो में लोरी सुनावेले माई

बाबूजी दउड़ेनी जब मारे-पीटे त
अंचरा में अपना लुकावेले माई
छोड़ी ना, बबुआ के मन ठीक नइखे
झूठहूं बहाना बनावेले माई
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ऑंखिन का सोझा से जब दूर होनी त
हमरे फिकिर में गोता जाले माई
आंखिन का आगा लवटि के जब आई त
हमरा के देखते धधा जाले माई

अंगना से दुअरा आ दुअरा से अंगना ले,
बबुआ का पाछे ही धावेले माई
किलकारी मारत, चुटकी बजावत,
करि के इशारा बोलावेले माई

हलरावे, दुलरावे, पुचकारे प्यार से
बंहियन में झुला झुलावेले माई
अंगुरी धराई, चले के सिखावत
जिनिगी के ´क-ख´ पढ़ावेले माई

गोदी से ठुमकि-ठुमकि जब भागी त
पकडि के तेल लगावेले माई
मउनी बनी अउर “भुंइया लोटाई त
प्यार के थप्पड़ देखावेले माई
पास-पड़ोस से आवे जो ओरहन
काने कनइठी लगावेले माई
बाकी तुरन्ते लगाई के छाती से
बबुआ के अमरित पियावेले माई
जरको सा लोरवा ढरकि जाला अंखिया से
देके मिठाई पोल्हावेले माई
चन्दा ममा के बोला के, कटोरी में
दूध- भात गुट-गुट खियावेले माई

बबुआ का जाड़ा में ठण्डी ना लागे
तापेले बोरसी, तपावेले माई
गरमी में बबुआ के छूटे पसेना त
अंचरा के बेनिया डोलावेले माई

मड़ई में “भुंइया “भींजत देख बबुआ के
अपने “भींजे, ना भिंजावेले माई
कवनो डइनिया के टोना ना लागे
धागा करियवा पेन्हावेले माई

“भेजे में जब कबो देर होला चिट्ठी त
पंडित से पतरा देखावेले माई
रोवेले रात “भर, सूते ना चैन से
भोरे भोरे कउवा उचरावेले माई

जिनिगी के अपना ऊ जिनिगी ना बूझेले
´बबुए नू जिनिगी ह´ बोलेले माई
दुख खाली हमरे ऊ सह नाहीं पावेले
दुनिया के सब दुख ढो लेले माई
´जिनिगी के दीया´ आ ´ऑंखिन के पुतरी´
´बुढ़ापा के लाठी´ बतावेले माई
´हमरो उमिरिया मिले हमरा बबुआ के´
देवता-पितर गोहरावेले माई

--मनोज भावुक



विश्व पिता दिवस पर मैंने पापा को पिता पर कविता लिखते देखा तो मैंने उनसे पूछा कि क्या कर रहें हैं यह सुनकर वे बोले कि तुम्हारे बाबाजी पर कविता लिख रहा हूँ | मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं भी आप पर कविता लिखूं ? तो पापा नें कहा हाँ लिख लो तो मैंने यह कविता लिखी और पापा को दिखाई तो पापा ने कहा कुछ ठीक है खैर अब तुम कविता लिखने लगोगे |

पापा
पापा बहुत अच्छे ...
मुझे बहुत प्यार करते ....
जब भी मैं गलती करता ....
वे मुझको डांट भी देते ....
और तो और ...
मेरा छोटा भाई....
जब शैतानी करता .....
तो पापा साथ-साथ.....
मुझको भी डांटते हैं ....
मेरे पापा.....
मेरे साथ खूब खेलते हैं .....
मेरे पापा ....
हर कठिन घड़ी में ....
मुझको....
हिम्मत बंधाते हैं ....
मैं अपने पापा का .....
खूब रखता ख्याल .....
और करता .....
उनको बहुत प्यार ......

--नील श्रीवास्तव


यह कविता उस समय लिखी जब मैं बी ए कर रही थी| अचानक चलते चलते एक दोस्त बना और दोस्ती बहुत गहरी हो गई ,तब अनायास ही ये पंक्तियाँ कविता बन गई ,आज भी वह मेरा अच्छा दोस्त है |मैंने इन पंक्तियों को उसी रूप में संजों कर याद के रूप में रक्खा है |
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मिल जाते हैं मीत कभी पथ चलते चलते
चौराहे पर मिलने वाले मीत नहीं होते ,
हर हंसने वाले चहरे पर आकर्षण है
किन्तु नहीं प्रत्येक हंसी में अपनापन है
नहीं ठहरती नज़र कहीं भी किसी रूप पर ,
कहीं अटक जाता वैरागी मन है ,
मंजिल मिलती नहीं शाम तक चलते-चलते ,
कभी काम मिलता शाम के ढलते -ढलते |
चौराहे का मीत न हो ,पथ साथ निभा दे जीवन भर ,
इच्छाओं के कंधे पर अरमान संजोये बैठे हैं ,
जो मिल जाते हैं राह चले वह साथ निभा पते हैं ,
जीवन के इस धूप छाँव को खेल कहाँ हम पाते है |
मीत बिना मन वैरागी हो ,तो प्रीत कहाँ कर पाते हैं ,
अरमानों की लाशों पर प्रेम नहीं कर पाते हैं |
बिखरे हुए जीवन में ,प्यार के गीत नहीं होते ,
चौराहे पर मिलने वाले मीत नहीं होते ||
इस कविता में कुछ त्रुटियां अब दिखाई देती है पर मेंने कुछ भी संशोधन नहीं किया |

--करूणा पाण्डे


उन दिनों की बात है जब में बारवीं का इम्तहान दे रही थी. एक दिन दोपहर की पारी में इम्तहान था.मैं और मेरी बहिन पढ़ रहे थे बीच-बीच में एग्जामनर को कोस भी रहे थे कि पता नही कैसा पेपर आयेगा. तभी अचानक मेरे दिमाग में एक खयाल कौंधा. और वो मेने पेपर पर लिख दिया.बाल मन की जो भी भावनायें थीं सब काग़ज पर उड़ेल दीं. हो सकता है उस समय ये एक तुकबंदी हो या फिर कविता की दिशा में मेरा पहला कदम. लिखने के बाद घर में सबको सुनायी तो सभी ने उत्साह वर्धन किया. हालांकि यह कविता पूर्ण रूप से मुझे याद नहीं है कुछ लाइने ही जह़न में हैं वही लिख भेज रही हूँ. साथ में उसके बाद जो दूसरी कविता लिखी थी वो भी भेज रही हूँ आपको जो उचित लगे छाप दीजियेगा. दूसरी कविता लिखने का कारण यह था की हमारे पड़ोसी अक्सर हमसे सिलेण्डर ले जाते थे लेकिन जब हमें जरूरत होती तो हमें ना कह दिया जाता. ऐसे में एक दिन अचानक ही मेरे मुँह से ये शब्द निकल पड़े और कविता का रूप बन गये वही लिख भेज रही हूँ.

है प्रभु तेरी माया(प्रथम)
है प्रभु तेरी माया
ये पेपर किसने बनाया
तू उसे अक्ल तो देता
कि वो ऐसा पेपर ना देता
उसने ऐसा पेपर दिया
बच्चों का साल ख़राब किया
पछताया तो होगा वो भी
बच्चों की बददुआ लगेगी
लेकिन अब देर हो गयी बहुत
समय से उसे क्यों नहीं चेताया
हे प्रभु तेरी माया

--दीपाली पन्त तिवारी"दिशा"


पहली कविता. जैसे ही ये दो शब्द पढ़े , मुझे अपनी एक बहुत पहले लिखी कविता याद आ गई. मै ठीक से तो नहीं कह सकता यह कविता मैंने कब लिखी किन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ की यह मेरे कालेज के दिनों की कविता है. उन दिनों मै मंदसोर के कालेज के B.Sc. प्रथम वर्ष का छात्र था. बात शायद १९७३-७४ की होगी. मै अपने घर की छत पर शाम के समय अकेला टहल रहा था , आसमान में सूरज के डूबने के वक्त की लालिमा छाई हुई थी. धीरे धीरे हल्का हल्का सा अंधकार हो चल था ओर चाँद एक हंसिये के आकार में दिखाई देने लगा था. आसमान में सूरज के अस्त होनें पर छाने वाली लाली ओर चाँद के हंसिये नुमा आकार ने मेरे मन में जिन विचारो को जन्म दिया वे जब शब्द के रूप में कागज पर उभरे तो जो कविता सामने आई वही कविता आज मै आप के सामने रख रहा हूँ.

सूरज , चाँद और तारे
आसमान में अभी अभी
हो गया खून सूर्य का
देखो चारों तरफ खूनी लाली
छा गई है
सितारों की पुलिस सारे गगन पर छा गई है ,
थोडी देर में पकड़ लिया गया
खूनी को , खूनी था चाँद
रात की अदालत में , कुछ तारों की वकालत में
सजा दे दी गई , चाँद को
रात भर ठण्ड में ठिठुरना होगा ,
और
हर सुबह दुनिया के जिन्दा होते ही
तुझे मरना होगा

--विद्यासागर


यह मेरी पहली कविता है जो पहले सिर्फ एक पंक्ति थी "इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे" मुझे किसी ने कहा की यह बहुत अच्छी पंक्ति है | फिर मैंने इसे कविता में बदलने की कोशिश की |

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इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे,
इनती खुशियाँ भी न देना, दुःख पे किसी के हंसी आने लगे ।
नहीं चाहिए ऐसी शक्ति जिसका निर्बल पर उपयोग करूँ,
नहीं चाहिए ऐसा भाव किसी को देख जल-जल मरूँ ।
ऐसा ज्ञान मुझे न देना अभिमान जिसका होने लगे,
ऐसी चतुराई भी न देना लोगों को जो छलने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

इतनी भाषाएँ मुझे न सिखाओ मातृभाषा भूल जाऊं,
ऐसा नाम कभी न देना कि पंकज कौन है भूल जाऊं ।
इतनी प्रसिद्धि न देना मुझको लोग पराये लगने लगे,
ऐसी माया कभी न देना अंतरचक्षु भ्रमित होने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

ऐसा भग्वन कभी न हो मेरा कोई प्रतिद्वंदी हो,
न मैं कभी प्रतिद्वंदी बनूँ, न हार हो न जीत हो।
ऐसा भूल से भी न हो, परिणाम की इच्छा होने लगे,
कर्म सिर्फ करता रहूँ पर कर्ता का भाव न आने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

ज्ञानी रावण को नमन, शक्तिशाली रावण को नमन,
तपस्वी रावण को स्विकारू, प्रतिभाशाली रावण को स्विकारू ।
पर ज्ञान-शक्ति की मूरत पर, अभिमान का लेपन न हो,
स्वांग का भगवा न हो, द्वेष की आँधी न हो, भ्रम का छाया न हो,
रावण स्वयम् का शत्रु बना, जब अभिमान जागने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

--प्रकाश पंकज


इस रचना का जन्म तब हुआ जब मैं 1971 में बी.ए.पार्ट 1 में थी. सोचा करती थी की लोग कविताएँ कैसे लिख लेते हैं? अपने भावों को अभिव्यक्ति कैसे देते हैं? मेरी एक सीनियर थीं प्रतिभा वो बहुत अच्छी हिन्दी की कविताएँ लिखतीं थीं...उन्होने कहा की अपने आस - पास देखो...जो तुमको आकर्षित करे उस पर कुच्छ लिखने का विचार करो...तो एक दिन कॉलेज के बगीचे में बैठी थी कि एक गुलाब के पौधे पर नज़र गयी ..उसका एक फूल मुरझा कर गिर रहा था और एक नयी कली खिल रही थी....उसको देख जो विचार मॅन में आया वो मेरी पहली कविता के रूप में आप सबके साथ बाँटना चाहती हूँ....

राज़
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फूल ने कली से मुस्कुरा कर कहा
तेरे पर भी बहार आएगी
तू भी फूल बनते - बनते
यूँ ही बिखर जाएगी

पर कली ने उस बात का
वह राज़ ना जाना
उसकी इस बात को
ज़रा सच ना माना

पर आया जब वक़्त तो
वह फूल बन गयी
मस्ती से भरी कली
यूँ ही बिखर गयी

अपने हालात पर वो
काफ़ी दुखी थी
कहती है फूल से-
मुझे माफ़ करो
मैं तुम पर
यूँ ही हँसी थी.
24-07-1971
--संगीता स्वरूप


कविता सन १९९८ में लिखी गई थी जब मैं कॉलेज का छात्र था | ये कविता मैंने अपने गृहनगर बागली में लिखी थी जो मध्यप्रदेश के देवास जिले की एक तहसील है |
क्यों लिखी थी ये तो कविता पढ़ कर ही ज़ाहिर हो जाता है लेकिन फिर भी अपनी तरफ से भी बता देता हूँ | वाक़या ये था कि हमें प्रेम हो गया था और इस हद तक हुआ कि उसने हमें कवि बना दिया |
कविता प्रस्तुत है -

मन चाहता है तुम्हें देखता ही रहूँ
तब तक
जब तक कि
इन आँखों की ज्योति न बुझ जाए
पलक झपकने का अंतराल भी
मुझे स्वीकार नहीं
मैं तुम्हें निहारना चाहता हूँ
तब तक
जब तक कि
मेरी आँखें तृप्त न हो जाएँ
और मैं जानता हूँ
ये कभी तृप्त न होंगी
ये जितना तुम्हें देखेंगी
उतनी ही और व्याकुल होंगी
तुम्हें देखने के लिए
अनंत काल तक
अनवरत...

--अनिरुद्ध शर्मा


यह मेरी पहली कविता है जिसे मैंने दिसम्बर 2007 में लिखा था. यह मैंने अपनी प्रेमिका के लिए लिखी थी जो हिन्दू थी और मुझसे चार साल बड़ी थी. इस बात को लेकर मेरे सारे दोस्त मेरा मजाक बनाते थे, खास तौर तौर पर रेहान. वह कहता था यह कोई प्यार नहीं है बल्कि आकर्षण है और तू उसे कुछ ही महीने में भूल जायेगा. लेकिन मुझे लगता था कि मानो मैं कुछ ऐसा करूँ जिससे सारी ज़िन्दगी उसे याद रख सकूँ. इसी दरम्यान मैंने एक कविता लिखी थी जो मेरे और मेरी प्रेमिका के इर्द गिर्द घूमती थी. हालाँकि यह कविता मैंने बस ऐसे ही लिखी थी. लेकिन इस के बाद कविता लिखना मेरा शौक़ बन गया. वैसे तो वह एक साल बाद मेरी ज़िन्दगी से चली गई लेकिन मुझे कविता लिखना सिखा गई.
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"एक दुनिया बसा ली है"

दिल के कमरे में बैठ कर
प्यार का स्वेटर बुनते हुए
जब तुम्हारी तस्वीर उभर आती है
कुछ यूँ अतीत के आसमान से गिर
तुम्हारी यादों की फुहार
मुझे भिगो जाती है.
यह एक सच है कि
मज़हब की दीवार पिघल के
मुहब्बत के सांचे में न ढल पाई
कभी तुम मजबूर हुईं रस्मो रिवाज को लेकर
कभी मैं मजबूर हुआ इस समाज को लेकर
यह एक सच है कि
मैं और तुम हम नहीं बन पाए
मगर यह भी एक सच है
कि अब तूने भी एक दुनिया बसा ली है
कि मैंने भी एक दुनिया बसा ली है.

--शामिख फ़राज़


ग़ज़ल मैंने १२ साल की उम्र में लिखी थी.जब मुझे पता भी नहीं था की ग़ज़ल क्या होती है. स्कूल की एक प्रतियोगिता के दौरान पहला इनाम न मिलने पर मायूसी के शब्द कागज़ पर कुछ इस तरह उतरे.

हरदम वही बस चाहा,जो मेरे मुकद्दर में नहीं,
अपनी तो हर ख्वाइश से रही शिकायत ही मुझे

चाहा होता गर ,जो तकदीर में है वही
शायद ये खुदा कुछ तवज्जो दे देता मुझे.

आंसूं की लहरों से उबर कर साहिल पर आई जो कभी,
जहाँ ने फिर डुबो दिया गमें सागर में मुझे.

सोचती हूँ बैठकर कितनी गमजदा है जिन्दगी,
ख्याल कर दूजों का सब्र होता है मुझे.

क्या मांगूं खुदा जो देना चाहे अगर,
ग़मों का सागर लगती है दुनिया ही मुझे

चाहत की है काश कुछ बनू जिन्दगी मैं,
वेसे तो अपनी हर तमन्ना से शिकायत है मुझे

--शिखा वार्श्नेय


हमेशा से बहुत संवेदन-शील थी , पचास साल की उम्र में अचानक कलम उठाई और लिखना शुरू कर दिया |
पहली कविता यही थी , 'पहली कविता , जैसे कोई सीख '
रे मन
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तू क्यों भूल गया
हर ओर उसी की छाया है
हर ओर उसी का आनँद है

आशाओं ने हैं जाल बुने
निराशा के भँवर में फँसाया है
अन्धकार में मन भरमाया है
रे मन , तू क्यों भूल गया

सौगातें तुझे बिन माँगे मिलीं
उपलब्धियों से तेरी झोली भरी
पर तुझे सदा खाली ही दिखी
रे मन , तू क्यों भूल गया

सीमाओं को न आड़ बना
निर्मल मन से देना सीख जरा
इसमें भी मैं , उसमें भी मैं , इसमें भी वो , उसमें भी वो
रे मन , तू क्यों भूल गया

--शारदा अरोड़ा


स्कूल के जमाने से ही कुछ न कुछ लिख्नने की कोशिश करता रहा हूँ। लेकिन पहली गजल कालेज के दिनो मे ही पूरा हो सका। प्रस्तुत गजल १९९३ मे लिखी गयी है।

अब तो जीने क ये अन्दाज बना रखा है
बह्ते अश्को को भी पल्को पे सजा रखा है।
गिर के आँखों से टपक जाये कहीं न मोती
चश्मे पूर्णम मे वो एक राज छुपा रखा है।
जिन्दगी ख्वाबे परेशा के सिवा कुछ भी नही
नामुरादी के सिवा दहर मे क्या रखा है।
शामे गम ने मेरे कानो मे ये चुपके से कहा
पर्दा ए शब ने तेरा ख्वाब छुपा रखा है।
रस्म ए दुन्या है हमे शिक्वा गीला क्या करना
सम्झे वो जिस ने के आलम ये बना रखा है।
छेड मेरे दिल ए मजरुह् को न अब अख्तर
ये है शोला जो शरारो को दबा रखा है।

--शाहनवाज अख्तर


ये कविता जब लिखी तो करीब ११-१२ साल की थी. उन दिनों दूरदर्शन पर भगवान् के सीरियल बहुत आते थे. सीरियल ख़त्म हो जाने के बाद भी राक्षसों और देवताओं के बारे में सोचा करती. कल्पना करना मेरे पसंदीदा कार्यो में से एक था....ईश्वर के बारे में सोचती...... संसार के बारे में सोचती........ पता नहीं अपने नन्हे से दिमाग में उन दिनों इतना बोझ ले कैसे मस्त रहती थी. ईश्वर ने इस स्रष्टि का सर्जन किया ,पर क्या कोई भी सृजन बिना कल्पना के सम्भव हैं । अगर नही ........ तो स्रष्टि निर्माण के पूर्व विधाता ने एक योजनाबद्ध कल्पना कर दुनिया कि रूपरेखा तैयार की होगी । संभवतः यही हुआ होगा ..........और वैसे भी हम अगर गौर करे तो रोजमर्रा की जिन्दगी में भी तो कार्य को किर्यान्वित करने के पूर्व हम कल्पना ही तो करते हैं. बचपन में मैंने ये कविता लिखी थी ...... सोचा तो कुछ ऐसा ही था पर उन दिनों सोंच इतनी परिपक्व नही थी ...........खैर अब प्रस्तुत हैं मेरी रचना "कल्पना"

कल्पना

कल्पना तू क्या हैं, क्या तू एक सपना हैं,
नहीं तू सपना नहीं, वास्तविकता हैं जीवन की ,

अडिग हैं विश्व का ये भार , तुझ पर ही निर्भर समस्त ब्रह्माण्ड ,
पर तुझे न समझ पाया ये मनुष्य ,

यदि तू न होती, तो ये स्रष्टि नहीं होती,
ये स्रष्टि नहीं होती ,तो मनुष्य नहीं होता,
मनुष्य नहीं होता , तो तू कैसे जीवित रहती,
और आज मेरी कलम तेरे बारे में न लिखती !!

जानती हूँ इतनी छोटी सी रचना का विश्लेषण लम्बा दिया हैं........ पर ये हैं भी तो बालमन की उपलब्धि ........... उम्मीद हैं आप इसे पसंद करेगे ---------------
--प्रिया चित्रांशी


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रात के लगभग बारह बज रहे थे,दिल्ली दूरदर्शन पर फ्रांस में हुए हिंदी सम्मलेन का प्रसारण चल रहा था,गुलजार साब का नंबर आया ओर उन्होंने कुछ ऐसी नज्म पढ़ी ''मेरे घर में अब कोई नहीं रहता''यह नज्म मेरे दिल तक पहुंची और मेरी आँखें नाम हो गयी!
प्रोग्राम के समाप्त होने के बाद लगभग १ बजे मैंने कलम और पन्ने की मदद से जो शब्द लिखे बह आप सब के सामने है!
यह मेरी पहली कविता है और शायद ऐसी कविता फिर कभी मैं अपनी जिंदगी मे लिख भी ना पाऊँ!
यह कविता देनिक भास्कर के रसरंग में प्रकाशित हो चुकी है!

बह मुझे माँ कहता है
वह मुझे मां कहता है।
वह अब भी मुझे मां कहता है।
सताता हैं रुलाता है
कभी कभी हाथ उठाता है पर
है वह मुझे मां कहता है।

मेरी बहू भी मुझे मां कहती हैं
उस सीढ़ी को देखो,मेरे पैर के
इस जख्म को देखो,
मेरी बहू मुझे
उस सीढ़ी से अक्सर गिराती है।
पर हाँ,वह मुझे मां कहती है।

मेरा छोटू भी बढिया हैं,जो मुझको
दादी मां कहता है,
सिखाया था ,कभी मां कहना उसको
अब वह मुझे डायन कहता हैं
पर हाँ
कभी कभी गलती सें
वह अब भी मुझे मां कहता है।

मेरी गुड़िया रानी भी हैं ,जो मुझको
दादी मां कहती है
हो गई हैं अब कुछ समझदार
इसलिए बुढ़िया कहती हैं,
लेकिन हाँ
वह अब भी मुझे मां कहती है।

यही हैं मेरा छोटा सा संसार
जो रोज गिराता हैं
मेरे आंसू ,
रोज रुलाता हैं खून के आंसू
पर मैं बहुत खुश हूं, क्योंकि वे सभी
मुझे मां कहते है।

--संजय सेन सागर


ये कविता मैने 2003 मे लिखी थी मगर सिर्फ़ सॅंजो कर रखी हुई थी

क्यो पहचान कही बिखर गये मेरे
हर गुमान आज बिखर गये मेरे
हक़ीकत से जब वास्ता हुआ
हर ख्वाब बिखर गये मेरे
दर्द से बाहर निकले ही थे की
नये दर्द फिर से सवर गये मेरे
अब तो दस्त की लकीरो से भी उठ गया भरोसा
की ज़िंदगी के हर ख़याल बिखर गये मेरे
ज़िंदगी गनीमत सलामत है मेरी
वरना लगता था ज़िंदगी के सब सवाल
बिखर गये मेरे
और आज बहुत दर्द से गुज़री है “शबा”
गैरो की तरह सारे अपने बिछड़ गये मेरे
(दस्त-हाथ)

--रज़िया शबा खान


यह मेरी पहली कविता थी।जो स्थानीय समाचार पत्र ‘राष्ट्रविचार’ में 11।7।1996 में प्रकाशित हुई थी।

प्रश्न

प्रश्न से प्रारंभ
प्रश्न ने प्रश्न किया
प्रश्न चुप रहा
शांत रहा
प्रश्न प्रतिदान न कर सका
प्रश्न असर्मथ असहाय रहा
प्रश्न बनकर

--मंजु गुप्ता


मैं आमोद कुमार श्रीवास्तव परिवार में सबसे छोटा वाराणसी जन्म स्थान तथा हाईस्कूल तक वहीं पढ़ाई इसके पश्चात बलिया से ईण्टर जौनपुर से ग्रेजुएशन। फिलहाल मेरठ कर्मभूमि है । निम्न कविता मेनें तब लिखी जब में सुबह आठ बजे से लेकर सायं 5 बजे तक शुगर मिल की नौकरी करने के पश्चात सायं 6 बजे से रात्रि 8 बजे तक कम्प्युटर पढ़ने मेरठ बस से जाया करता था इसमें मेनें जो महसूस किया वही लिखा है आशा करता हूँ कि आप को पसन्द आएगा।

थकान
दिमाग इतनी थकान के बाद
एक कप चाय मॉंगता है
ऑंखे ऑंसू पोछने के लिए रूमाल
पेट मॉंगता है रोटी
और कैसी भी सब्ज़ी
शरीर कहता है ले आना च्यवनप्राश
एक ग्लास दूध के साथ
और तो और
हाथ पैर भी बंद कर देते हैं
थक कर काम करना
क्हते हैं ला दो 600 एमजी की ब्रुफेन
सभी कुछ न कुछ मॉंगते हैं
मैं पूछता हूँ क्या मॉंगू इस जमाने से
दौलतमंद को सोना
हत्यारों को हथियार
बीमारों को बीमारी
कमजोरों को निर्बलता
अन्यायी को सत्ता
कहॉं से आयी इतनी बात
पैदा करो जज्बात
कि मैं और तुम दोनों
हंस सके बिना कुछ
मॉंगे हुए मॉंगे हुए

--आमोद कुमार श्रीवास्तव