काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन (विशेषांक)
विषय - पहली कविता
अंक - अट्ठाइस (भाग-४)
माह - अगस्त २००९
२०४ कवि, २०४ पहली कवितायें। लगातार दूसरे सत्र में जिस तरह की प्रतिक्रिया हमें मिली है वो देखते ही बनती है। "पहली" कविताओं ने दोहरा शतक जमा दिया। पिछले वर्ष में जिस तरह से पाठकों व कवियों ने भाग लिया था उसने हमारा उत्साह बढ़ा दिया था और हमें इस वर्ष फिर से ये विशेषांक लाने के लिये प्रोत्साहित किया। आप सभी पाठकों का धन्यवाद। हिन्दयुग्म के पहली कविता के संग्रह में इस बार हम ले कर आये हैं १९ नये कवि और उनकी कवितायें। वरिष्ठ व पुराने कवियों से अनुरोध है कि वे नये कवियों का मार्गदर्शन करें।
जैसे जैसे हमें और कवितायें मिलती जायेंगी, हम 20-20 कविताओं के साथ आपके समक्ष उपस्थित होते रहेंगे। हमारे पाठकों ने हमें भूमिका भी लिख भेजी है जिसे हम कविता के साथ ही प्रकाशित कर रहे हैं। अलग अलग अनुभवों पर लिखी गईं वो चंद पंक्तियाँ आज हमारे इस मंच का हिस्सा बन रही हैं। हम आशा करते हैं इससे हमारे अन्य पाठकों को भी प्रेरणा मिलेगी और वे हमें कविता लिख भेजेंगे। चलिये पढ़ते हैं १९ कवियों की पहली कवितायें।
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
हमें आप अपनी "पहली कविता" kavyapallavan@gmail.com पर भेज सकते हैं।
आपको हमारा यह आयोजन कैसा लग रहा है और आप इसमें किस तरह का बदलाव देखना चाहते हैं, कॄपया हमें ईमेल के जरिये जरूर बतायें।
अपने विचार ज़रूर लिखें
स्कूल के दिनों में गद्य पद्य संग्रह की कविताओं को पढ कर कुछ लिखने की इच्छा होती तो कुछ कुछ पंक्तियां रफ कॉपी में लिख लेती । उनको कभी संभाल कर नहीं रखा। लेकिन सातवीं में पढती थी तब गांव जाना हुआ वहां एक बूढी मां का बेटा शहर जाकर बस गया और भूल गया । वो मेरी दादीसा से ये बातें बता रही थी मै पास ही बैठी थी। बस उसी पल जो कागज पर सिलसिलेवार उतरा उसे ही मैं अपनी पहली कविता मानती हूं और वह आज तक उसी पन्ने पर सुरक्षित है।
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
एक पीड़ा
दिन के फेर में
दिन के फरक
यूं दिखने को मिलते हैं
पहले उसके रात रात भर जागने में
एक विश्वास था
एक आषा थी
आज उसकी इस हालत में
घोर निराशा वेदना दुख
क्योंकि उसकी आशा विश्वास
उसका पुत्र
शहर की चमक दमक देखकर
हो गया उससे विमुख,
जीवन तो यूं ही बीत जायेगा
लेकिन कोई बताये
उसकी आशा विश्वास क्यों टूटे?
दुआ करी!
मंदिर महल टूटे तो क्या
खुदा विश्वास किसी का न टूटे
--किरण राजपुरोहित
मैं उदास नहीं था
मैं उदास नहीं था
मेरी माँ की कोख उदास थी
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
मेरे जन्म के समय
मेरी आँखों में
बेचैनी के भाव थे
कहीं उसकी बाँझ कोख
उस की नस्ल का
दुःख ना उपज दे
आप भी अजीब हो
मुहँ से कफ़न हटा कर
दर्द की सीमा तय करते हो.....
( मेरी यह पहली कविता अमृता जी के
मैगजीन "नागमणि" में 1982 में प्रकाशित हुई )
--अमरजीत कौंके
किसी अजीज को पहली बार लिखकर समर्पित की गई चार पंक्तियाँ
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
घर में ख़ुशी का सागर सौन्दर्य का किनारा
मस्ती के मांझियों को सूझता नहीं किनारा
कृष्ण का प्यार तुझको मिलता रहे सदा
सवार कश्ती पर हो करते रहो नजारा
दिनांक ०१-०१-१९८९
--रामनिवास तिवारी
यह कविता मैने इलाहाबाद मे सन् 1986 मे लिखी थी। जब मै बी.ई. के तृतीय वर्ष मे था। हॉस्टल से कॉलेज के रास्ते में एक पलाश का पेड़ था। उस पर हर सवेरे एक कोयल कुहुक लगाती थी। दो वर्षों के क्रम में वह आवाज इस कदर मन से जुड़ गई कि किसी दिन नहीं सुनाई देने पर मन खिन्न-सा रहता था। कुछ कोयल की इस कुहुक ने पे्ररित किया तो कुछ इलाहाबाद जैसी दिव्य-स्थली ने मेरे अंदर के कवि को जागृत किया और मेरी पहली कविता ने जन्म लिया...
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
`सुंदरता की परिभाषा`
नहीं जानता मैं सुंदरता की परिभाषा
मैं तो समझता हूँ बस प्रेम की भाषा ।
खिले-खिले उपवन में वो फूलों का महकना
पलाश की डाली पर यूँ कोयल का कुहुकना
स्वत: ही मन के प्रणय द्वार खोल जाता है
नीरस, व्यथित मन में भी जीवन-रस घोल जाता है ।
सुंदरता तो जैसे बाहरी पहनावा है
मन-भ्रमित करने को मात्र एक छलावा है
वह तो मानो स्वर्ण पर बिखरी हुई धूप है
मानव की चिंतन शक्ति का ही प्रतिरूप है - जैसे...
मैं तुम्हें इसलिये चाहता हूँ, क्योंकि तुम सुंदर दिखती हो ... या ...
क्योंकि मैं तुम्हें चाहता हूँ, इसलिये तुम सुंदर दिखती हो ।
नहीं जानता मैं सुंदरता की परिभाषा
मैं तो समझता हूँ बस प्रेम की भाषा ।।
--मयंक सिंह सचान
शिला का अहिल्या होना
क्या अहिल्या इस युग में नहीं है
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
पति के क्रोध से शापित ,निर्वासित,निस्स्पंद ,शिलावत्
वन नहीं भीड़-भाड भरे शहर में ,
वैभव पूर्ण - विलासी जीवन में
रोज़ रात को मरती है बिस्तर पर
अनचाहे संबंधों को जीने को विवश
भरसक नकली मुस्कान और सुखी जीवन का मुखौटा ओढे
एक राम की अनवरत प्रतीक्षा में रत्
इस अहिल्या को कौन जानता है?
उस अहिल्या को कम से कम यह तो पता था
कि आयेंगे राम अनंत प्रतीक्षारत शिला को
अपने स्पर्श से बदलेंगे अहिल्या में
लौटेगी अपने पति के पास
नया जीवन पाकर हर्षितमना
सब कुछ होगा पहले-सा ,
कुटी भी ,पति-परमेश्वर भी
पर क्या ये अहिल्या चाहेगी लौटना
अपने उस पति के पास
दिया जिसने शापित जीवन
निर्दोष , निरपराध नारी को
क्या सब कुछ भूल कर
अपनायेगी उस पति को
जो हो सकता है फिर से
दे दे शापित जीवन का उपहार
तब कहाँ से पायेगी
उद्धार का एक और अवसर राम के बिना
पर यक्ष-प्रश्न तब नहीं उठा
तो क्या आज अब नहीं उठेगा
कि आज की ये अहिल्या
अकेली भी तो रह सकती है
क्योंकि राम को तो
आगे और आगे दूर तक जाना है
जहाँ न जाने कितनी शिलाएँ
प्रतीक्षारत हैं अहिल्या होने को
आज के नये राम को भी तो
आगे और आगे जाना है दूर तक
भले ही इसे कामोन्मत्त शूर्पनखा का
दर्प-दमन भी करना न हो
अशोक वाटिका की बंदिनी सीता को
रावण से मुक्त कराना भी न हो
लौट कर अयोध्या सीता को
फिर से शंकित पति की तरह त्यागना भी न हो
तो यक्ष- प्रश्न अब भी है
कि अहिल्या का उद्धार हुआ तो क्या हुआ?
सीता रावण की अशोक-वाटिका से
मुक्त हुई भी तो क्या भला हुआ?
लव-कुश तो फिर भी बिना पिता के ही
आश्रम में पलने को विवश हुए
अंतिम सत्य तो यही है
कि हर युग में राम की नियति है वह सब करने की
और अहिल्या और सीता की नियति है
फिर फिर उसी जीवन में लौट जाने की
--वशिनी शर्मा वर्जिनीया,2007
यह कविता मैने सन् 1998 में लिखी थी। मैने अपनी पहली रचना एक व्यंग रचना लिखी है जिसका शीर्षक है कुर्ता। किसी के द्वारा उस समय मैने कोई चुटकुला सुना और इस रचना की उत्पित्त हुई।
कुर्ता
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
एक बार की बात है भाई
बाल काट रहा था नाई
तभी एक कुत्ता लगा मेरे पीछे
वो धीरे धीरे मेरे कुर्ते को खींचे
समझ गया मै समझ गया मै
नाई का कुत्ता भी जानता है
कुर्ते वाले को अच्छी तरह से पहचानता है
मै समझा की आज गया मै कुत्ता कुर्ता फाड़ेगा
मेरा नया खादी का कुर्ता रूमाल बनाकर मानेगा
तभी नाई बोला मेरे कान में
अगली बार कुर्ता पहन मत अइयो मेरी दुकान में
मैने पूछा क्यों भाई
उसने मुस्कुराया कुत्ते की तरफ देखा और बोला
अपना मुंह खोला और बोला
इसको नेतागिरी अच्छी तरह आती है
क्योंकि इसकी और नेताओं की जाति बहुत मेल खाती है
--नीरज पाल
वैसे तो दो पंक्तिया कितनी बार लिखी है पर जिसे मै अपनी पहली कविता समझता हूँ वो आपको पेश कर रहा हूँ। यह मैंने करीबन १५ साल पहले लिखीं थी जब किसी का खुमार मेरे दिलों दिमाग में था और साथ ही प्रकृति से मुझे बेहद लगाव है।
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
पहाडों का मौसम
धुंध सी फैलीं वादियों में
एक मौसम आया है सर्दियों में
पहाडों पे खिलती कलियों ने
लौटाई है कहानी सदियों की !
कतार में खड़े पेरो से
निकल कर आती सतरंगी धूपों में
तुम नहाकर कितने रंगों से
आई हो छम से कितनो रूपों में !
सफ़ेद फूलों के सीने में
शबनमी सी ठंडी आग है
हर कली पे इठलाती हुई
नए मेघो का नया राग है !
पहाडों पे आया ये नया मौसम
झीलों पे इस कदर छाया है
की खनकती हुई तुम्हारी हंसी
बूंद बूंद में खिल निखर आया है !
--सौरभ कुमार
मैंने वर्ष २००९ में इलाहाबाद से १०+२ पूरा किया है तथा मैं राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रवेश लेना चाहता हूँ . जीवन के स्वरुप तथा संघर्षों के बारे में सोचते ही मेरे ह्रदय में एक शूल सा उठता था . मैं स्वयं से सदैव यह प्रश्न पूछता था कि जीवन का उद्देश्य क्या है? जब प्रश्नों का समाधान कहीं न मिला तो ह्रदय के किसी कोने से उत्तरों व रहस्यों का एक सोता निकला जो मेरे जीवन की पहली कविता के रूप में कलमबद्ध हुआ. आशा है कि यह अपरिमार्जित कविता किसी अन्य जिज्ञासु की जिज्ञासा शांत करने में समर्थ होगी.
जिन्दगी
कभी-कभी सोचता हूं कि ये जिन्दगी क्या है,
ये है फूलों से सजी या है जंजीरों में फंसी,
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
इसमें है शीतलता कि फुहार
या कठोर सत्य की दाहकता झुलसाती है बार-बार,
ये है एक सौंदर्य एवं मधुरता की बानी,
या है दु:ख और वैमनस्य की अतंहीन कहानी,
हर बार होती है अन्तर्मन में एक विकलता,
क्या अनुत्तरित है जीवन का यह प्रवाह,
परन्तु तभी चेतना अन्तर्मन को झकझोरती है,
अनुत्तरित प्रश्नो का रहस्य खोलती है,
जिन्दगी तो है एक ऑंधी एक तूफान,
जो हारने वाले का सर्वस्व उजाड़ देती है,
जो इसको कदमों तले कुचल पाता है,
वही इस संसार में पहचान बना पाता है,
ऐ जिन्दगी! फिर मैं तेरी चुनौती स्वीकार करता हूं,
इस पल से जिन्दगी जीने का ऐलान करता हूँ।
--कमलाकान्त शुक्ल `सूर्य`
दोस्त सी बात करें
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
आसमानों के तले ऐसी एक नीड़ बुनें।
आना जाना हो जहां ऐसी चौपाल करें।
दोस्त सी बातें करें, दिल की कुछ बातें कहें।
चूल्हा है ठंडा अगर, रोटी की बात करें।।
चैन की रातें करें,कोई न घात करे।
गर बहे मेरा लहू तू भी एहसास करे।।
घर के पीछे से अगर,कोई घुसपैठ करे।
साझा अभियान करें, देख दुनिया भी डरे।
तू भी महफूज रहे, मैं भी महफूज रहूंे।।
आसमानों के तले ऐसी एक.......
--सुमीता पी.केशवा
मेरी यह कविता किसी सुचिंतित प्रयास का परिणाम नहीं है.मैंने तो बस उमड़ते-घुमड़ते विचारों को बस पंक्तिबद्ध कर दिया तो बस यह कवितामय हो गयी. मई अपने एक आदरणीय मित्र के प्रोत्साहित करने पर आपको भेज रहा हूँ.
सच है क्या....
सच है क्या................
ये डूबने की आस,
गहराता अहसास,
सिकुड़ती सी सांस,
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
मर्त्य का अहसास,
सच है क्या....................
ये रास्ते की ठोकर,
फिसलते अवसर,
उद्दीपित विकार,
पंगु सरकार,
सच है क्या..................
ये अनसुनी कोलाहल,
धूमिल अस्ताचल,
असह्य दर्पबल,
प्राणान्तक परमानुबल,
सच है क्या...................
चुकती सहनशीलता,
अक्षीय अपूर्णता,
प्रस्फुटित उद्विग्नता,
निर्विकार उदासीनता,
सच है क्या..................
ये स्वर कर्कश,
अनगिनत से अक्स,
अपरिपूर्ण भक्ष्य,
असंतुष्ट शख्स,
सच है क्या..........
--गोपालजी झा 'वत्स'
बात २००४ की है ,उन दिनों मैं दसवीं कक्षा में पढता था..हमारे विद्यालय में हिंदी के एक नए अध्यापक आये थे..वो कक्षा में पढ़ाते हुए नयी-नयी उपमाएं देते,जीवंत और अजीवंत प्रतिमानों में प्रेम की चरम अनुभूति कराते,विभिन्न कवियों के उद्धरणों और पंक्तियों का जिक्र करते ..कुछ अपनी भी स्वरचित कवितायेँ सुनाते .मूलरूप से वे अपनी १ घंटे की कक्षा में समूचा माहौल कवितामयी बना देते ..ऐसा लगता सूरज भी कविता की धुन पर थिरक रहा है..और हवाएं भी कविता के साथ गुनगुना रही हैं ..इससे पहले मैं हिंदी को मात्र एक विषय समझा करता था..जिसमें मुझे अच्छे अंक लाने होते थे ..लेकिन उन गुरूजी ने मेरी सोच को पूरी तरह बदल दिया और सिखाया कि कविता किसी खजाने से कहीं ज्यादा मूल्यवान और सुरक्षित है
ऐसे ही एक दिन मैं सुबह-सुबह छत पर कागज़ और पेन लेकर बैठ गया ..और कुल पौन घंटे की मेहनत के बाद ये कविता निकली ..मुझे याद है इस दरम्यान अम्मा कुछ खाने के लिए चिल्लाती रही थी..शायद चावल की खीर थी
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
ग्राम्य जीवन कितना अनुपम
वातावरण में सुन्दरता का समागम
चहुँ ओर प्रसारित हरियाली
रहते कृषक,मजदूर और माली
चारों ओर खेत-खलिहान
जिनमें उगते गेहूं,धान
छटा बिखरती है सौंदर्य की
खग,मृग करते विरल गान
परिश्रम है लक्ष्य जीवन का
अकर्मण्यता को नहीं स्थान
अपने कार्य में संलग्न रहना
बुद्धिमता से वे अनजान
ऐसे ग्रामीणों का नित-नित
करता हूँ मैं चिर अभिनन्दन
जिनके सहस्त्र क्रियाकलाप
भरते हैं इस जग का आनन
धरती माता इन ग्रामों में
सच्चे अर्थों में निवास करती
सुख शान्ति से जीवन जीने का
हम सबको है सन्देशा देती
जिन तीर्थों की एक झलक से
चित्त राम जाता अंतर्मन में
उन ग्रामों का अस्तित्व
आज है बहुत विषम संकट में
मानव को यदि दीर्घ काल तक
जग में पहचान बनानी है
तो ऐसे पावन ग्रामों की
उनको रक्षा करनी है "
--धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
मैं ओम प्रभाकर भारती ये अपनी लिखी पहली कविता भेज रहा हूँ. यह कविता मैंने तब लिखी थी जब मैं नवीं कक्षा का छात्र था, वर्ष २००१ में. एक दिन मेरी कक्षा के तीन छात्र मिल कर एक कविता लिखने का प्रयास कर रहे थे. कई दिन की मेहनत के बाद उन्होंने कविता की १२ पंक्तियाँ तैयार की थी . उस कविता को उन्होंने मुझे दिखाया और कहा की मैं उसकी अशुद्धियाँ दूर करूँ और उसे और प्रभावशाली बनाऊं . मैंने कोशिश की और वह कविता बहुत ही सुन्दर बन पड़ी . वापस घर आकर मैं उसी कविता के बारे में सोचने लगा . मुझे ऐसा एहसास हुआ की मैं भी अपने भावों को कविता के रूप में व्यक्त कर सकता हूँ. बस फिर क्या था.. कलम उठाई और अपने देश के प्रति जो भावनाएं मेरे मन में उमड़ रहीं थी उन्हें शब्दों में कागज़ पे उतारता चला गया और मेरी पहली कविता के रूप में इस कविता की रचना हुई ....
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
दृढ संकल्प
हे मानव दृढ संकल्पित हो
मन में सुखी राष्ट्र कल्पित हो
बढ़ रहे तीव्र पग नित विनाश पथ
अविलम्ब वे प्रतिबंधित हों
लौह नगर बन चुका विश्व यह
हरियाली में परिवर्तित हो ….
हो सुख शांति नव जीवन में
अपराध द्वेष सब वर्जित हो
भगवान् हमारा कर्म प्रेम हो
अंश अंश में ममता हो...
हर भारतवासी हो कर्तव्यनिष्ठ
हर बच्चा बच्चा शिक्षित हो
मिट जाये कुरीति समाज की
कभी न नारी शोषित हो
हो शान्तिकारिणी संस्कृति हमारी
निवारिणी हमारी भक्ति हो
लड़ सकें बड़ी से बड़ी व्याधि से
इतनी हम सब में शक्ति हो ......
हो देश भक्त हर भारत वासी
रोम रोम में भक्ति हो.
हो देशप्रेम सर्वोच्च धर्म
जो वन्दे मातरम कहती हो…..
खुशहाल हमारा राष्ट्र राज्य हो
रग रग में इसकी मस्ती हो
चतुर्दिशा में हो हरियाली
चप्पा चप्पा पुलकित हो…..
रब जाने कल्पना ये मेरी
कब सच में परिवर्तित हो…..
--ओम प्रभाकर भारती
डर लगता है
उसकी आँखों में मुझको एक समंदर लगता है ,,
वो मुझसे अब रूठ ना जाये डर लगता है !!
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
छोड़ चुके हैं सारी दुनिया , दौलत और धरम ,,
उसका दामन छूट ना जाये डर लगता है !!
उसको अपना खुदा बनाया उसकी पूजा करते हैं ,
अब मेरा भरोसा टूट ना जाये डर लगता है !!
मुझमें ही मिल जायेगा वो ऐसा उसने बोला था ,,
बात कहीं ये झूँठ ना जाये डर लगता है !!
ये तन्हाई ,बेताबी और दौलत उनकी यादों की,,
अब कोई लुटेरा लूट ना जाये डर लगता है !!
--रवीन्द्र शाक्य
ऐ मौत!
मैं दरवाज़े पे खडा हूँ,
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
तुम आओ तो सही,
मैं भागूंगा नहीं.
कसम है मुझे उसकी,
जिसे
मैं सबसे ज्यादा प्यार करता हूँ,
और उसकी भी
जो मुझे सबसे ज्यादा प्यार करता है.
या शायद दोनों.....
एक ही हों.
एक ऐसा शख्स
या ऐसे दो शख्स......
जो आपस में गड्डमगड्ड हैं..
मगर जो भी हो
है तो प्यार से जुड़ा हुआ ही न.
वैसे भी...
गणित के हिसाब से
अ बराबर ब
और ब बराबर स
तो अ बराबर स ही हुआ न....
जो भी हो यार
मगर सच में
उन दोनों की कसम
उन दोनों की कसम, मैं भागूँगा नहीं.
कुछ लोग कहते हैं कि-
'जिंदगी से बड़ी सजा ही नहीं'
अरे
तो तुम तो इनाम हुई न
और भला इनाम से
क्यों कर मैं भागूंगा?
और फिर वो इनाम जो.....
आखिरी हो
सबसे बड़ा हो,
जिसके बाद किसी इनाम की जरूरत ही न रहे..
उससे भला मैं क्यों भागूंगा?
इसलिए
ऐ मौत....
तुम्हे
वास्ता है खुद का,
खुदा का
आओ तो सही
मैं भागूंगा नहीं.....
--दीपक 'मशाल'
प्रेम बेल महकती रहे मुरझाने के बाद
प्रेम महक उड़ती रहे उड़ जाने के बाद
प्रेम ग़ज़ल , प्रेम तन्हाई
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
प्रेम पहेली उलझती जाये सुलझाने के बाद .
प्रेम नशा इस जिन्दगी का
इसमें खुलें तो खुलें , बंद हो बंद होने के बाद .
प्रेम कविता
समझ में न ए समझ में आने के बाद
प्रेम महक उठे साँसों में घुले
सांस बन जाए फिर महकने के बाद .
प्रेम रंग
छुए तो मिटता नहीं जिन्दगी मिट जाने के बाद .
प्रेम बूँद ओस की
मोती बनाये जीवन को जीवन में आने के बाद .
प्रेम कहानी अनकही
पढ़ी जाये आँखों में प्रेम हो जाने के बाद .
प्रेम सफ़ेद चादर
छुपता नहीं फिर दाग , लग जाने के बाद .
प्रेम समर्पण , मर मिटने की भावना
धरती आकाश जलें प्रेमी मिल जाने के बाद .
--रेनू दीपक
ये दुनिया..आज कल क्यों मुझे
बदली बदली सी लग रही है
ये असमा,ये ज़मीन,ये हवा
ये चाँद और सूरज तो वही हैं
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
लगता जैसे अपने मान की बात इन्होने
पहेली बार मुझसे कही है
अब बदला है तो सिर्फ़ मेरा देखने का नज़रिया
सोचता हून शायद यही है असली दुनिया
सोचता हून कैसे दिखाऊँ तुम्हे ये दुनिया
समझना मुश्किल है इस दुनिया के नियम
कोई जिए खुशी से तो कोई लिए सैकड़ों गम
किसी को मिलता सब कुच्छ तो किसी को कुच्छ भी नही
क्या कोई बाथ्ेगा यहाँ क्या है ग़लत और क्या है सही
फिर एक आवाज़ आई कहीं अंदर से
क्यूँ ऐसा इस दुनिया मे होता है
कोई सोता सड़कों पे और
कोई मखमल पे सोता है
क्यों जिसके पास खोने को कुछ भी नही
वही हमेशा खोता है
अरे इस दुनिया मे हर इंसान
किसी इंसान की वजह से ही रोता है
अब बदला है तो सिर्फ़ मेरा समझने का नज़रिया
हर कोई क्यों बुन रहा है अपनी अलग दुनिया
क्योन्ना मिल कर रहे इस घर मे जिसे कहते है दुनिया
चलो एक कहानी आज मैं तुम्हे सुनता हून
दो इंसानों की जिंदगी तुम्हे दिखता हून
एक था आमिर बाप की संतान
तो दूसरे का पिता था ग़रीब
एक की थी खुशियों से दोस्ती
तो दूसरा था गम के करीब
एक जी भर के नहाता था शवर मे
तो दूसरे को पीने को भी ना था सॉफ पानी
एक के पास था विकल्प क्या खाऊँ आज
तो एक सोने की कोशिश कर रहा था सुन कर मया से कहानी
एक के घर रात होती ही नही थी
रोशनी से भरा था हर एक कोना
तो एक के घर मे दिन होता ही नही था
अंधेरे मे आँख खुले और अंधेरे मे ही सोना
खुशियाँ और गम अब पैसे देख कर किसी के होते हैं
पैसेवालों को मिलती खुशी और ग़रीब हमेशा रोते हैं
क्यों कोई तो करता आँख बंद करके
पानी,खाना और बिजली बर्बाद
क्यों किसी को ये मिलते ही नही
क्या किसी के पास है कोई जवाब?
क्यों ये आमिर नही समझते
की उनकी 1 साल की बर्बादी
किसी ग़रीब के परिवार की
कर सकती है आबादी
क्यों ये आँखों से देखकर भी
सोच पर बंदिश लगते हैं
भूखों को नही खिलाएँगे
मूर्तियों पर धन लूटतें हैं
कहाँ से आई ये सोच की भगवान
दूध से नहाने पर खुश होते हैं
कभी उन बच्चों के आनसून ना पोच्छो
जो ग़रीबी और भूख से रोते हैं.
क्या है मानव और पशु मे अंतर
जब एक दूसरे के लिए स्नेह नही अंदर
बाँटो अपनी खुशी और लेलो किसी के थोड़े गम
सिर्फ़ अपने लिए जीना छ्चोड़ो ,मैं नही कहो हम.
--अभिनव वाजपेयी
तुम हो विधाता की कृति,या गयी प्रकृति से बनायीं हो .
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
सत्य हो या की स्वप्न जो यूं क्षितिज पे छाई हो.
छुईमुई की लरज है तुममे
बिजली की सी लचक है तुममे
सावन की पहली बूंदों सी बरस
फिर स्वयं ही शरमाई हो
सत्य हो या स्वप्न हो ,जो यूं छितिज पे छाई हो
स्निग्ध कमल सा सौंदर्य तुम्हारा
गहरे सागर सा हृदय तुम्हारा
स्वयं के ही मद में बहक
मंद समीर सी अलसाई हो
सत्य हो या स्वप्न हो जो यूं छितिज पे छाई हो
--गौरव चतुर्वेदी
ये कविता मेने कुछ दिन पहले ही लिखी है ...वैसे ये मेरी पहली और स्वरचित कविता है....... जब मैं सुबह-२ सो के जागा था .. तब एक दम से मुझे मेरी प्यारी मोम पूजा अनिल जी जो मुझे अपना बेटा मानती हैं और अपनी प्यारी सी बहना पिंकी दीदी की याद आ रही थी ... तब ये कविता लिख डाली ....... दोनों मुझसे दूर रहते हैं लेकिन फिर भी मैं दोनों के दिल के करीब हूँ .........:):)
प्यार-------- कितने दूर फिर भी कितने पास
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
किसी से इतना प्यार करते,
फिर भी हम आज हम उनसे दूर रहते,
उफ़ ये दूरी,
हाय रे ये मजबूरी !!!
काश !!! हम भी उड़ती चिडिया होते
बस अपनी बाहें फैलाकर,
फुर्र करके उनके पास पहुँच जाते !!!
क्षितिज मेहता
मैं आज पुरानी बातों से कुछ बातें करने बैठी हूँ,
नेवीगेशन विकल्प
किरण राजपुरोहित
रामनिवास तिवारी
मयंक सिंह सचान
वशिनी शर्मा वर्जिनीया
नीरज पाल
सौरभ कुमार
कमलाकांत शुक्ल 'सूर्य'
सुमीता पी.केशवा
गोपालजी झा 'वत्स'
धर्मेन्द्र चतुर्वेदी 'धीर'
ओम प्रभाकर भारती
रवीन्द्र शाक्य
दीपक 'मशाल'
रेनू दीपक
अभिनव वाजपेयी
गौरव चतुर्वेदी
क्षितिज मेहता
अमरजीत कौंके
मनीषा रजनीश वर्मा
अपने विचार दें
फिर से पढ़ें
अपने इस एकाकीपन को कुछ दूर भागने बैठी हूँ .
उन यादों के गुलदस्ते से चुन चुन कर फूल निकालूँगी,
उन फूलों के कांटो की मैं वो चुभन मिटाने बैठी हूँ.
तुम भी आ जाना महकाने मेरी स्मृतियों के उपवन को,
मैं अपने उजडे गुलशन को खुशनुमा बनाने बैठी हूँ.
क्यों मुझको चाहा प्यार किया.?
विस्मित मेरा संसार किया.
क्यों पैदा कर दी नई ललक.?
जीवन जीने का सार दिया.
यह जीवन रण है प्रतिक्षण, मैं बैरागी मैं एकाकी.
यह बात तुम्हे मैं आज प्रिये सब साफ़ बताने बैठी हूँ.
मेरी कमजोरी ना बन के,अब मेरे प्रेरणा स्रोत बनो.
यह नम्र निवेदन तुमसे कर मैं आस लगाये बैठी हूँ.
मनीषा रजनीश वर्मा
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
22 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुंदर कविताओं का बेहतरीन संग्रह..
समस्त कविताएँ अत्यंत सुंदर है.
बधाई..हिंद युग्म!!
समय की तंगी के कारण नहीं पढ़ सकता इतनी सारी रचनाएं |
सभी को बधाई |
अवनीश तिवारी
सारी अनमोल कविताओं के प्रतिष्ठित रचनाकारों को प्रथम सोपान के लिए ,हिन्दयुग्म को बधाई .
again manju's comment like a child,,,....
and when mr tiwari you can not read then why to comment..........
lots of fool
पहली कविता के लिए बहुत बहुत बधाई, बहुत ही अच्छा संकलन
धन्याद
विमल कुमार हेडा
aapke iss prayaas ke liye dhnywaad
www.neerajkavi.blogspot.com
पहली कविताओं के दोहरे शतक के लिये हिन्द-युग्म को लाख-लाख बधाईयाँ । मेरी भी पहली कविता प्रकाशित करने के लिये हृदय से धन्यवाद । अन्य रचनाएं भी सराहनीय हैं - किरण राजपुरोहित तथा मनीषा वर्मा की कविताएँ विशेषत: प्रभावित करती हैं ।
वास्तव में आपका प्रयास बड़ा सार्थक रहा है. इससे नए रचनाकारों को एक सशक्त मंच मिल सकेगा. चरेवैति-चरेवैति.
-उमेश्वर दत्त"निशीथ"
यह कविता बहुत पसंद आई.
नहीं जानता मैं सुंदरता की परिभाषा
मैं तो समझता हूँ बस प्रेम की भाषा ।
खिले-खिले उपवन में वो फूलों का महकना
पलाश की डाली पर यूँ कोयल का कुहुकना
स्वत: ही मन के प्रणय द्वार खोल जाता है
नीरस, व्यथित मन में भी जीवन-रस घोल जाता है ।
सुंदरता तो जैसे बाहरी पहनावा है
मन-भ्रमित करने को मात्र एक छलावा है
वह तो मानो स्वर्ण पर बिखरी हुई धूप है
मानव की चिंतन शक्ति का ही प्रतिरूप है - जैसे...
मैं तुम्हें इसलिये चाहता हूँ, क्योंकि तुम सुंदर दिखती हो ... या ...
क्योंकि मैं तुम्हें चाहता हूँ, इसलिये तुम सुंदर दिखती हो ।
नहीं जानता मैं सुंदरता की परिभाषा
मैं तो समझता हूँ बस प्रेम की भाषा ।।
--मयंक सिंह सचान
इस कविता में शब्दों को बहुत अच्छे से पिरोया गया है.
पहाडों का मौसम
धुंध सी फैलीं वादियों में
एक मौसम आया है सर्दियों में
पहाडों पे खिलती कलियों ने
लौटाई है कहानी सदियों की !
कतार में खड़े पेरो से
निकल कर आती सतरंगी धूपों में
तुम नहाकर कितने रंगों से
आई हो छम से कितनो रूपों में !
सफ़ेद फूलों के सीने में
शबनमी सी ठंडी आग है
हर कली पे इठलाती हुई
नए मेघो का नया राग है !
पहाडों पे आया ये नया मौसम
झीलों पे इस कदर छाया है
की खनकती हुई तुम्हारी हंसी
बूंद बूंद में खिल निखर आया है !
--सौरभ कुमार
सूर्ये जी का अंदाज़ भी अच्छा लगा.
कभी-कभी सोचता हूं कि ये जिन्दगी क्या है,
ये है फूलों से सजी या है जंजीरों में फंसी,
सच है क्या................
ये डूबने की आस,
गहराता अहसास,
सिकुड़ती सी सांस,
मर्त्य का अहसास,
सच है क्या....................
ये रास्ते की ठोकर,
फिसलते अवसर,
उद्दीपित विकार,
पंगु सरकार,
सच है क्या..................
ये अनसुनी कोलाहल,
धूमिल अस्ताचल,
असह्य दर्पबल,
प्राणान्तक परमानुबल,
सच है क्या...................
चुकती सहनशीलता,
अक्षीय अपूर्णता,
प्रस्फुटित उद्विग्नता,
निर्विकार उदासीनता,
सच है क्या..................
ये स्वर कर्कश,
अनगिनत से अक्स,
अपरिपूर्ण भक्ष्य,
असंतुष्ट शख्स,
सच है क्या..........
गोपाल जी का सत्य बयान करने में मज़ा आ गया. बहुत सुन्दर.
ऐ मौत!
मैं दरवाज़े पे खडा हूँ,
तुम आओ तो सही,
मैं भागूंगा नहीं.
कसम है मुझे उसकी,
जिसे
मैं सबसे ज्यादा प्यार करता हूँ,
और उसकी भी
जो मुझे सबसे ज्यादा प्यार करता है.
या शायद दोनों.....
एक ही हों.
एक ऐसा शख्स
या ऐसे दो शख्स......
जो आपस में गड्डमगड्ड हैं..
दीपक जी का निडरता बयान करने का अंदाज़ पसंद आया.
अमरजीत जी की पहली कविता मुझे बहुत पसंद आई.
मैं उदास नहीं था
मेरी माँ की कोख उदास थी
मेरे जन्म के समय
मेरी आँखों में
बेचैनी के भाव थे
कहीं उसकी बाँझ कोख
उस की नस्ल का
दुःख ना उपज दे
आप भी अजीब हो
मुहँ से कफ़न हटा कर
दर्द की सीमा तय करते हो.....
रेनू जी क्या बात आपकी. बढ़िया ढंग से कहा है
प्रेम बेल महकती रहे मुरझाने के बाद
प्रेम महक उड़ती रहे उड़ जाने के बाद
प्रेम ग़ज़ल , प्रेम तन्हाई
प्रेम पहेली उलझती जाये सुलझाने के बाद .
प्रेम नशा इस जिन्दगी का
इसमें खुलें तो खुलें , बंद हो बंद होने के बाद .
प्रेम कविता
समझ में न ए समझ में आने के बाद
प्रेम महक उठे साँसों में घुले
सांस बन जाए फिर महकने के बाद .
प्रेम रंग
छुए तो मिटता नहीं जिन्दगी मिट जाने के बाद .
प्रेम बूँद ओस की
मोती बनाये जीवन को जीवन में आने के बाद .
प्रेम कहानी अनकही
पढ़ी जाये आँखों में प्रेम हो जाने के बाद .
प्रेम सफ़ेद चादर
छुपता नहीं फिर दाग , लग जाने के बाद .
प्रेम समर्पण , मर मिटने की भावना
धरती आकाश जलें प्रेमी मिल जाने के बाद
अभिनव जी की कविता कुछ लम्बी लगी लेकिन शुरुआत अच्छी लगी.
ये दुनिया..आज कल क्यों मुझे
बदली बदली सी लग रही है
ये असमा,ये ज़मीन,ये हवा
ये चाँद और सूरज तो वही हैं
गौरव जी क्या खूब कह दिया है.
तुम हो विधाता की कृति,या गयी प्रकृति से बनायीं हो .
सत्य हो या की स्वप्न जो यूं क्षितिज पे छाई हो.
छुईमुई की लरज है तुममे
बिजली की सी लचक है तुममे
सावन की पहली बूंदों सी बरस
फिर स्वयं ही शरमाई हो
सत्य हो या स्वप्न हो ,जो यूं छितिज पे छाई हो
स्निग्ध कमल सा सौंदर्य तुम्हारा
गहरे सागर सा हृदय तुम्हारा
स्वयं के ही मद में बहक
मंद समीर सी अलसाई हो
सत्य हो या स्वप्न हो जो यूं छितिज पे छाई हो
आपने बहुत कम शब्दों में अपनी बात कही. बहुत खूब
किसी से इतना प्यार करते,
फिर भी हम आज हम उनसे दूर रहते,
उफ़ ये दूरी,
हाय रे ये मजबूरी !!!
काश !!! हम भी उड़ती चिडिया होते
बस अपनी बाहें फैलाकर,
फुर्र करके उनके पास पहुँच जाते !!!
क्षितिज मेहता
कविता ठीक लगी लेकिन अगर शब्दों पर कुछ और ध्यान दिया गया होता तो बात कुछ और ही होती.
मैं आज पुरानी बातों से कुछ बातें करने बैठी हूँ,
अपने इस एकाकीपन को कुछ दूर भागने बैठी हूँ .
उन यादों के गुलदस्ते से चुन चुन कर फूल निकालूँगी,
उन फूलों के कांटो की मैं वो चुभन मिटाने बैठी हूँ.
तुम भी आ जाना महकाने मेरी स्मृतियों के उपवन को,
मैं अपने उजडे गुलशन को खुशनुमा बनाने बैठी हूँ.
क्यों मुझको चाहा प्यार किया.?
विस्मित मेरा संसार किया.
क्यों पैदा कर दी नई ललक.?
जीवन जीने का सार दिया.
यह जीवन रण है प्रतिक्षण, मैं बैरागी मैं एकाकी.
यह बात तुम्हे मैं आज प्रिये सब साफ़ बताने बैठी हूँ.
मेरी कमजोरी ना बन के,अब मेरे प्रेरणा स्रोत बनो.
यह नम्र निवेदन तुमसे कर मैं आस लगाये बैठी हूँ.
मनीषा रजनीश वर्मा
एक साथ इतनी बेहतरीन कविताओं का संकलन पढ़ने के बाद किसी एक या दो की सराहना करना दूसरी रचनाओं के साथ अन्याय सा होगा, सभी रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाई ।
सच कहा है वशिनी जी ने कि अहल्या आज भी जिन्दा है
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)