काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - पहली कविता (भाग-4)
विषय-चयन - अवनीश गौतम
अंक - पंद्रह
माह - मई 2008
'पहली कविता' की यह चौथी खेप है। इस विशेषांक के तीसरे भाग में प्रकाशित एक कवि सुनील कुमार सोनू ने ईमेल करके माफी माँगी कि उन्होंने गलती से पहली कविता की जगह अपनी कोई और कविता भेज दी थी क्योंकि वो हमारी उद्घोषणा ठीक से समझ नहीं पाये थे। लेकिन हम तो इसी विश्वास के साथ इस विशेषांक का प्रकाशन कर रहे हैं कि कवि तो कम से कम सच लिखेगा। इस बार २० कविताएँ तो हैं ही, कविताओं की भूमिकाएँ बहुत ही रसमयी हैं। आशा है कि पाठकों को पसंद आयेंगी और उनमें उनकी पहली कविता भेजने का उत्साह भरेंगी।
इस बार http://merekavimitra.blogspot.com/ के हैडर को पहली कविता का रूप दिया है प्रशेन क्यावल ने अपनी कंपनी वेब एंड मीडिया लिमिटेड द्वारा।
'पहली कविता के अब तक के अंक निम्न सूत्रों पर पढ़े जा सकते हैं।
हम इस प्रयास को ज़ारी रखे हैं। आप भी अपनी पहली कविता और उससे जुड़ी यादों के साथ आ धमकिए। पूरी जानकारी यहाँ देखिए।
आपको यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतावें।
*** प्रतिभागी ***
| राकेश खंडेलवाल | सीमा गुप्ता | सतीश वाघमारे | संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी | ब्रह्मनाथ त्रिपाठी 'अंजान' |मैत्रेयी बनर्जी | सतीश सक्सेना | विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
| आशा जोगळेकर | राहुल गडेवाडिकर | मधुरिमा |
| कुसुम सिन्हा | महेंद्र भटनागर | शैलेश भारतवासी | मनीष वंदेमातरम | स्वाति पांडे | तपन शर्मा | गोविन्द शर्मा | डॉ॰ एस के मित्तल | राजीव तनेजा |
~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~
यह रचना लगभग १९६५-६६ की है. स्कूल के दिनों में भरतपुर ( राजस्थान ) में स्थित हिन्दी साहित्य समिति ने मासिक कवि सम्मेलन के लिये विषय दिया था-- दया धर्म ईमान - तब ही यह रचना लिखी थी. यद्यपि इससे पूर्व की भी आठ दस रचनायें थीं परन्तु कालान्तर में वह विलुप्त हो गईं.
मेरी बगिया में चर्चायें हैं पतझड़ी वीरान की
फिर कैसे उम्मेद करें हम दया, धर्म, ईमान की
वैभव बहरा हुआ दया कब द्वार दीन के आ पाई
तुम क्या साथ निभाओगे जब हुई पराई परछाई
जग ने भी डाली झोली में भीख सदा अपमान की
कागज़ के ये फूल कभी क्या खुश्बू दे सकते हैं
टूटे जिनके हाथ हमें आशीष न दे सकते है
आंगन की ही धूल बन गई जब माटी श्मशान की
फिर कैसे उम्मीद करें हम दया धर्म ईमान की
--राकेश खंडेलवाल
ये कविता मैंने तब लिखी जब १२वीं कक्षा के बाद मैं स्कूल छोड़ रही थी । अपने साथियों से बिछड़ने के दुख के कारण से पूरी भावनाओं के साथ ये कविता लिखी।
"यादें"
बहुत रुला जाती हैं , दिल को जला जातीं हैं ,
नीदों मे जगा जाती हैं , कितना तड़पा जातीं हैं ,
"यादें" जब भी आती है "
भीगे भीगे अल्फाजों को , लबों पर लाकर ,
दिल के जज्बातों को , फ़िर से दोहरा जाती हैं ,
"यादें जब भी आती हैं "
खाली अन्ध्यारे मन के , हर एक कोने मे ,
बीते लम्हों के टूटे मोती , बिखरा जाती हैं ,
"यादें जब भी आती है "
हम पे जो गुजरी थी , उन सारी तकलीफों के ,
दिल मे दबे हुए , शोलों को भड़का जाती हैं ,
"यादें जब भी आती हैं "
कितना सता जाती हैं , दीवाना बना जाती हैं ,
हर जख्म दुखा जाती हैं , फ़िर तन्हा कर जाती हैं ,
"यादें जब भी आती हैं "
--सीमा गुप्ता
यह पंक्तियाँ तीन साल पूर्व ( ४५ वर्ष की आयु में ) लिखी थी. प्रथम अभिव्यक्ति के जोश में रचना लगभग पूरी होनेपर भी उसे कहीं भूल गया था. यह बताना जरुरी होगा कि इसका अंतिम संस्करण पिछले साल ही हो पाया. इसके भाग्य से युग्म पर प्रकाशन का अवसर अब आया है. प्रतिभागी कविमित्रों को और इस आयोजन से जुड़े अन्य सभी को धन्यवाद, बधाइयां , और शुभकामनाएं. प्रथम सृजन की सुगंध और सौगंध के नाम......
तनहाईयाँ
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कुछ इस कदर बढ चुकी है तनहाईयोंकी आबादी
मुश्किल हो गया है पाना इनकी भीडसे आजादी
भीड हुई तो क्या , तनहाईयोंपे उसका जोर नहीं
भीडकी ही तो बहनें हैं, तनहाईयाँ कोई और नहीं
आने दो इन्हे, क्यूँ हो घबराते, ये कोई गैर नहीं
जाने कबसे हैं साथ, तनहाईयोंसे कोई बैर नही
आने दो इन्हें, ना दस्तक ना है कोई शोर कहीं
बेचारी तनहाईयाँ, इन्हें मेरे सिवा कोई और नही
तनहाईयाँभी क्या कभी अकेलापन सह पाती हैं ?
गर हाँ, तो क्यूँ बार-बार मेरे पास चली आती हैं?
तनहाईयाँ कबसे अकेलेपनसे कतराने लगीं ?
तनहा मुझेभी देख , करीब मेरे ये आने लगीं.
तनहाईयोंका इक दूसरेसे क्या रिश्ता होता है ?
तनहाईयोंकी यादमें क्या तनहा कोई रोता है ?
हमने सीखा है तनहाईयोंसेही यह अंदाजे-बयाँ,
इक टीस डेरा डाले है, गुफ्तगूँओंके दरमियाँ.
--सतीश वाघमारे
यद्यपि यह निर्धारित करना बहुत जटिल कार्य है कि मेरी पहली कविता कौन सी थी? क्योकि इस तरह कभी विचार ही नही किया था; तथापि हिन्द युग्म के पहली कविता कार्यक्रम से से प्रेरित होकर पहली कविता के बारे मे विचार किया तो स्मरण आया कि निम्नलिखित कविता पहली कविता होनी चाहिये-
आजादी
कान्टो की सेज पर सोया हुआ था वह,
थकान थी इसलिए नींद आ गयी,
नींद में देखा उसने एक सपना,
एक नई नवेली दुल्हन,
खड़ी है वरमाला लिए उसके सम्मुख,
कह रही है जागो आजाद,
मैं तुम्हारा वरण करूगी,
वीर नहीं जागा,
जाग गया उसका वीरत्व,
बोला नहीं, मुझे दुल्हन तो चाहिए,
पर उपहार में नहीं,
मैं स्वयंवर में ही तुम्हारा वरण करू¡गा
राष्ट्रप्रेमी को है अफसोस,
जब स्वयंवर रचा गया,
भारत की जनता की उपस्थिति में,
वरमाला लिए जो दुल्हन आई,
वह अपंग और अंग-भंग दी दिखाई,
स्वयंवर में थी आजाद की कुर्सी खाली भाई
आजाद के बिना आजादी की मिठाई खाई।
राष्ट्रप्रेमी ऐसी हमने आजादी पाई,
--संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
नवजोत से प्रज्जवल अखंड ये देश हमारा
मनमोहिनी शुभम् विस्मय
प्रकृति की वादियाँ है
अमरताल मे रसगान करती
बहती पावन नदियाँ है
चरणों मे लहराता सागर
बहती गंगा की अमृत धारा
नवजोत से प्रज्जवल अखंड ये देश हमारा
नव सभ्यता मे मिश्रित
पुरा सभ्यता की सादगी है
आसमां से बात करता
यहीं पर हिमाद्रि है
शान्ति सदभावना और प्रेम
जग को ये संदेश हमारा
नवजोत से प्रज्जवल अखंड ये देश हमारा
ब्रह्मनाथ त्रिपाठी 'अंजान'
मैंने जीवन मे कब से और कैसे लिखना शुरू किया मुझे ठीक से ध्यान भी नहीं, पर हाँ मैं बचपन से ही अपने विचारों को शब्दों मे पिरोती आई हूँ, कभी लेख के रूप में तो कभी कविता या कहानी के रूप में. आज अपनी पहली कविता भेजते हुए मुझे बेहद खुशी हो रही है.मेरी पहली कविता है
पेंसिल की कहानी
बच्चों मेरी अपनी कहानी,
सुनो तुम मेरी जुबानी.
आज ही ले गई दूकान से
मुझको - तुम्हारी गुड़िया सयानी
झट से काटा मेरा सिर, पर-मैं ना रोई
हुए अभी दो ही दिन-कि कट गए मेरे सारे शरीर
हाय; तड़प के मरी मैं.पर -
कोई ना मुझको बचाने आए.
यहीं हुआ मेरा अंत
तुमको क्या आया पसंद?
{प्यारे बच्चों,पेंसिल हाथ मे आने पर
उसकी कदर करना सीखें.}
मैत्रेयी बनर्जी
दिनांक ३०-१०-१९८९ में, मेरी ४ वर्षीया बेटी के नन्हें मुख से निकले शब्द कविता बन गए! इस कविता का एक-एक शब्द उस नन्हें मुख की जिद का सच्चा वर्णन है, यह बाल कविता पिता समान स्वर्गीय राधेश्याम "प्रगल्भ" को समर्पित की गई थी, जो की उस समय "बालमेला" नाम की पत्रिका का संपादन कर रहे थे ! उनसे मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला,
गुड़िया के मुख से !
पापा मुझको लंबा करदो
भइया भी तो लंबा है
झूले पे चढ़ जाता है
गुस्सा मुझको आता है
मन मेरा ललचाता है, पापा मुझको लंबा कर दो !
मेरी टांगे छोटी हैं
ऊपर टाफी रक्खी है
मुंह में पानी आता है
हाथ पहुँच नहि पाता है, पापा मुझको लंबा कर दो !
मुझको मां बहलाती हैं
खूब सा दूध पिलाती है
मीठी मीठी बातें कहकर
बुद्धू खूब बनाती है , पापा मुझको लंबा कर दो !
कहती लम्बी हो जाओगी
दूध जलेबी जब खाओगी
कब लम्बी हो पाऊँगी ?
झूले पै चढ़ पाऊँगी ? पापा मुझको लंबा कर दो !
पाउडर नहीं लगाने देती
रोटी नहीं बनाने देती
छत पर नहीं भागने देती
कहती तुम मर जाओगी, पापा मुझको लंबा करदो !
मुझे खिलौने नही चाहिये
मेरी इतनी बात मान लो
भइया जितना लंबा कर दो
और कुछ नहीं मांगूंगी, पापा मुझको लंबा करदो !
--सतीश सक्सेना
मेरी पहली कविता भेजने के लिये मुझे स्वयं उसे ढ़ूँढ़ना पड़ा .कानपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका वालण्टियर के अगस्त १९७९ अंक में प्रकाशित व संभवतः इंजीनियरिंग कालेज के दिनों में १९७८ लिखी गई निम्न कविता मेरी पहली काव्य कृति है . इससे पहले की तुकबंदियों को मैं अब कविता मानने में संकोच करता हूँ , ये और बात है कि उन दिनों उन्हीं को लिखकर बड़ा खुश होता था .तभी मैंने अपना पेन नेम भी स्वयं ही रख डाला था "विनम्र" , लीजिये प्रस्तुत है मेरी पहली कविता ....
जीवन का उद्देश्य अगर हो
दिशाहीन सागर को देखो
उमड़ घुमड़ करता क्रंदन
सीमायें उसकी हैं पर बालू के कच्चे बंधन
नदिया की धारा , पर
रोक सकें न पर्वत कानन
कैसे रोकें ? , है दिशा युक्त नदिया का जीवन
पार करती नित नई मंजिले
वह भाग रही आनन फानन
जीवन का उद्देश्य अगर हो सफलता मजबूर करती ,
चरण चुंबन !
--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
मेरी पहली कविता मैने १३ वर्ष के उम्र में लिखी थी। भैया को राखी भेजी थी तब उसके साथ ये कविता भी भेजी थी। और खूब आतुरता से जवाब का इंतजार भी किया था ।
चमचम करती राखी जैसा
भविष्य मेरे भैया का है
अपनी बहनो की रक्षा का
भार भी उसके शिरोधार है
भैया की ये सुघड़ कलाई
रेशम का राखी का धागा
बांध रही हूँ राखी देखो,
मिले इनाम मुझे मुँह मांगा
गहने, कपडे, और पैसों की
मुझको बिलकुल चाह नही है
मिल जाये छोटी सी कविता
सबसे बढ कर चाह यही है
चाह रही हूँ ऐसी कविता
जिसमें भरा हुआ हो प्यार
भाई-बहनों के रिश्ते का
सागर अथांग और अपार
--आशा जोगळेकर
मैं शुरू से ही काफ़ी संवेदनशील किस्म का व्यक्ति रहा हूँ, किंतु कविता करने की विशेष प्रतिभा भी मुझमें है इसका मुझे यह कविता लिखने के बाद ही अंदाजा हुआ। एक दिन जब मैं कुछ यूँही अपने चिंतन में खोया हुआ था, इत्तेफाक से मेरे हाथ में कलम और कागज़ दोनों ही थे और उसी समय मैंने पहली बार अपने अन्दर उबलते हुए विचारों को कविता का सशक्त माध्यम प्रदान किया। यह कविता लिखते समय मेरे अन्दर भावनाओं का ऊहापोह मचा हुआ था,मैं कहीं न कहीं ख़ुद को जानना चाहता था,अपने स्व से रूबरू होना चाहता था, और उसी आतंरिक कसमसाहट को कागज़ पे उतारता चला गया। यह कविता, काव्य-जगत में मेरा पहला कदम था।
आत्म-साक्षात्कार !!!
अहम् की गहराइयों में मै उतरता ही गया ,
"स्व" के अस्तित्व बोध को मैं खोजने निकल पड़ा ...
कौन हूँ मैं ,किसलिए हूँ प्रश्न करता ही गया ..
परत दर परत कई परते मैं खोलता ही चला !!!
यही पहला आत्म-साक्षात्कार था,
सूक्ष्म से स्थूल का वह मिलन साकार था !!
स्व को प्रकाशित करने का यह एक प्रकार था ,
ख़ुद को पहचानने का यही एक आधार था..!!!
आत्मिक आनंद में जितना डूब जाओगे,
गहरे समुन्दर मैं जितने गोते लगाओगे ,
अन्दर और अन्दर बढ़ते ही चले जाओगे ,
अंधेरे को चीरकर ख़ुद को जो बढाओगे ...
भेद सभी खुल कर प्रकट होंगे तुम्हे ,
अहम् से ब्रह्म तक सब कुछ जान पाओगे ..
अहम् से ब्रह्म तक सब कुछ जान पाओगे !!!!
--राहुल गडेवाडिकर
ये कविता हमने जब १५ साल पहले लिखी थी, जब हम प्रथम वर्ष में पढ़ा करते थे। हुआ यूँ कि हमारी हिंदी की क्लास थी, सर हमें कालिदास पढ़ा रहे थे। और उन्होंने बात-बात में सब को प्यार पर एक छोटी सी कविता लिखने को कहा। हमें कुछ सूझ नहीं रहा था। हम सुबह-सुबह घर पर कालेज जाने से पहले झाड़ू लगा रहे थे, मन तो बस विषय में ही उलझा था और अचानक ही इन पंक्तियों के साथ इस रचना का जन्म हुआ जिसे हमने उसे नवभारत जबलपुर दैनिक समाचार -पत्र में भेज दी और हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब वह उसमें प्रकाशित भी हो गई। हम आज भी वो दिन नहीं भूले हैं। बाद में कालेज की मैगज़ीन में उसे सर ने छपवाया और बहुत डाँट लगाई कि हमने उसे सर को क्यों नहीं दिखाया।
परिभाषा
अंतर-मन ने बाह्य-मन से पूछा ,
क्या होती है प्यार की परिभाषा ?
बाह्य-मन हंसकर यूँ बोला ,
प्यार एक महज आकर्षण,
एक दिल्लगी , इस दिल का मनोरंजन...!!
अंतर-मन पीड़ित हो बोला ,
प्यार पर न यूँ तोहमत लगाओ ,
यह तो है एक सच्चा समर्पण,
जिसमे प्रीतम है मूरत ,
प्यार मन-मंदिर की पूजा ,
यही है प्यार की परिभाषा...!!!
--मधुरिमा ’गुल’
मैंने ये कविता करीब सोलह वर्ष की उम्र में लिखी थी मुझे कविता पढने का शौक था और तभी एक दिन मैंने यह कविता लिखी थी वैसे दो-दो चार-चार लाइनें तो कई बार लिखी पर इस तरह कविता पहली बार लिखी मेरे भैया ने इसे पढा और बहुत खुश हुए वैसे मैंने अपनी डायरी बहुत छुपाकर रखी थी पर उन्होने पढ़ली और उसी समय जाकर एक डायरी खरीद कर ले आए थे। आजतक मैंने वो डायरी बहुत संभालकर रखी है। मेरे लिये वो एक बहुत कीमती चीज हैं
आली री दिल ना दुखाया कर
बात-बात में किसी का
नाम ना लिया कर
कल रात से उनकी
याद बहुत आती है
छेड-छेड कर तू मुझे यूं ना रुलाया कर
आली री दिल ना दुखाया कर
भंवरों से कलियों की
नोक-झोंक देख-देख
हूक उठे दिल में तो
यूं ना मुस्काया कर
आली री दिल ना दुखाया कर
गुन गुन गाती हवा
उनकी बात कहती है
हिलमिल करती हवा
उनको याद करती है
दुखी हू मैंबहुत
और ना सताया कर
आली री दिल ना दुखाया कर
हर पल प्रतीक्षा के
मुझको वर्ष लगते है
कोयल की कू कू भी
मन को तडपाती है
फूलों से मार मुझे
शूल ना चुभाया कर
आली री दिल ना दुखाया कर
बात बात में किसी का नाम ना लिया कर
पपीहे की पिहू-पिहू
हूक सी उठती है
बैरन बसन्त मन में
आग सी लगाती है
आली री दिल ना दुखाया कर
बात-बात में किसी का नाम ना लिया कर
--कुसुम सिन्हा
सन् १९४१ के लगभग अंत में; जब कवि १६वें वर्ष में प्रविष्ट हो चुका था और 'विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर' में इंटरमीडिएट-प्रथम-वर्ष का छात्र था।
सुख-दुख
सुख-दुख तो मानव-जीवन में बारी-बारी से आते हैं!
जो कम या कुछ अधिक क्षणों को मानव-मन पर छा जाते हैं!
मानव-जीवन के पथ पर तो संघर्ष निरन्तर होते हैं,
पर, गौरव उनका ही है जो किंचित धैर्य नहीं खोते हैं!
यह ज्ञात सभी को होता है, जीवन में दुख की ज्वाला है,
यह भास सभी को होता है, जीवन मधु-रस का प्याला है!
हैं सुख की उन्मुक्त तरंगें, तो दुख की भी भारी कड़ियाँ,
ऊँचे-ऊँचे महल कहीं तो, हैं पास वहीं ही झोंपड़ियाँ!
कितनी विपदाओं के झोंके आते और चले जाते हैं!
कितने ही सुख के मधु-सपने भी तो फिर आते-जाते हैं!
क्या छंदों में बाँध सकोगे जन-जन की मूक व्यथाओं को?
औ' सुख-सागर में उद्वेलित प्रतिपल पर नव-नव भावों को?
--महेंद्रभटनागर
सितम्बर २००२ में इंजीनियरिंग कॉलेज (GLAITM, मथुरा) में एडमिशन लेने के बाद एक दिन मुझे कविता लिखने की सूझी। मनीष वंदेमातरम् से अलग होने के बाद मैंने भी सोचा कि कुछ शब्दों के साथ हेर-फेर करूँ। लेकिन क्या लिखूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मनीष वंदेमातरम् की शुरूआती कविताओं के प्रभाव ने मुझे स्टाइल दिया। बात बिम्ब पर अटकी। २००१ में मैंने एक पुस्तक पढ़ी थी 'भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज'। इस पुस्तक में भगत सिंह के ढेरों पत्र संकलित थे जिसमें उन्होंने अपने क्रान्तिकारी दोस्तों के नाम और राष्ट्र के युवकों के संदेश लिखा था। उसकी भाषा और कलात्मकता कई कविताओं पर भारी पड़ती थी। मैंने कई बिम्ब वहाँ से और कुछ इधर-उधर से लेकर निम्न रचना रच डाली।
आ जाओ
प्रिये! मैं तुम्हारे प्यार में इस कदर डूब गया हूँ
कि दूर होकर के भी तुमसे अपने को
ज़ुदा महसूस नहीं करता।
होंठों की सुर्खियों की वह मिठास
आँखों के मय का वह नशा,
गालों के तिल, और बहता पसीना
मुझे लूटने को बेकरार हैं।
संगमरमरी हाथों का वह स्पर्श
सूरज से चमकते माथे की वह रोशनी
ज़ुल्फ़ों का वह घना अंधेरा
मुझे जीने नहीं देता।
हर पल तुम्हारी ही याद आती है।
जब-जब मैं साँस लेता हूँ
हवाओं में तुम्हारी मौज़ूदगी मससूस करता हूँ।
जब-जब मैं आँखें बंद करता हूँ,
सपनों की छाया तुम बन जाती हो।
यादों में भी तुम्हीं समायी हुई हो,
मैं कब तक तुम्हारा इंतज़ार करू?
अब मुझसे रहा नहीं जाता,
यह दर्द सहा नहीं जाता
मुझे अब ज़्यादा मत तरसाओ
दिल कहता है अब आ ही जाओ
आ जाओ।
लेखन-तिथि- ३० सितम्बर २००२ तद्नुसार विक्रम संवत् २०५९ आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी।
--शैलेश भारतवासी
उपन्यास लिखने के बाद मैंने कविता लिखने का मन बनाया और 'वो' नाम से ११ फरवरी २००२ को एक कविता लिखी, लेकिन उसमें मैंने फिल्मों से भी पंक्तियाँ और भाव चुराये। लगभग ७ महीने बाद ४ सितम्बर २००२ को मैं बहुत उदास था। बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद गाँव से दूर इलाहाबाद पढ़ने आ गया था। अपनी प्रेमिका की बहुत याद आ रही थी। उसी को महसूस करते यह कविता लिखी, जिसे मैं अपनी पहली कविता कहूँगा-
॰॰॰॰तो कितना अच्छा होता
आज डाकिया अभी-अभी
तुम्हारा खत दे गया है,
उससे पहले
बैठे-बैठे मैं
यही सोच रहा था
कि
तुम्हारे बिना
हर शै कितनी बेमतलब है
बेमक़सद है
बेतुकी है।
देखो
ये सूरज
आज वक़्त से पहले ही बेमतलब निकल आया है
ये परिंदे बेमक़सद ही शोर मचा रहे हैं
सूरज का यूँ बेवक़्त निकलने का सबब क्या है
पक्षियों के यूँ चहचहाने का मतलब क्या है
क्या इनको पता नहीं
कि तुम मेरे पास नहीं हो
देखो,
ये बेहया हवा तुम्हारे आँचल के लिए
इधर-उधर दौड़ रही है
बेचैन सी
इसको क्या पता इसकी तलाश बेकार है।
प्रिय,
तुम्हारे बिना
ये सबकुछ, बेमतलब है
बेमक़सद है
बेकार है।
फिर तुम्हारा खत पढ़ता हूँ
फिर॰॰॰फिर मुझे ऐसा लगता है कि
ये खत नहीं है
ये कोरे काग़ज़ पर छिटके
छोटे-छोटे हर्फ़ नहीं हैं
ये खुद तुम हो
खुद तुम
वो जहाँ तुमने प्रिय लिखा है
वहाँ तुम्हारा दिल है
वो जहाँ प्रणाम लिखा है
वहाँ दोनों वो संगमरमरी हाथ हैं
जहाँ- जहाँ प्यार लिखा है
वहाँ
वह तुम्हारा शर्माया हुआ चेहरा है
जिसमें
जमाने भर की
शराफ़त है
नज़ाकत है
मुहब्बत है
सबकुछ है
पर दिल है ये चाहता
तुम आ ही जाती
तो कितना अच्छा होता
आ जाओ
--मनीष वंदेमातरम
इस रचना से जुडी यादें भी बड़ी खुशनुमा हैं..इसे कविता कहा जाए या शब्द सरिता..आप ही बताइयेगा! खैर, तो हुआ यूँ की तब हम कॉलेज में थे,पढाई लिखाई में कम और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में ज्यादा ध्यान रहता था..हर नए इनाम के साथ और एक स्पर्धा जीत लेने की मंशा रहती थी! वहाँ तक तो सब ठीक ठाक था,अब जो हम क्लास से नदारद रहते तो नोट्स लेने के काम और लैब फाइल्स को कौन पूरा करे? कुछ लोग थे जिन्हें ये काम खूब आता था लेकिन अपने दिल की बात अपने प्रियतम/प्रेमिका तक कैसे कहें...उसमे जीरो थे| बस हम उन्हें कवितायें देते और वो हमारी फाइल्स पूरी करते...ये कविता १९८९ में लिखी गयी,उन्ही अन्यान्य कविताओं की शुरूआती कविता है! मेरी सखी को अपने मित्र के लिए चाहिए थी...वो उच्च कुलीन थी,घर के लोग शादी को नहीं मान रहे थे...मित्रवर बहुत दुखी थे...शायद इस कविता ने उस प्रेमी के मन पे मलहम का काम किया हो!!
"प्रेम-उजियाला!"
विछोह-कल्पना
कल्पना असहनीय
सहना कठिन
कठिनता जटिल
जटिलता सामाजिक
सामाजिक बंधन
बंधे हुए हम-तुम
हम-तुम साथी
साथी सहारे
सहारे ढूंढते
ढूंढते प्यार
प्यार आत्मिक
आत्मा है निर्मल
निर्मल नाते
नाते अर्धसाकार
अर्धसाकार स्वप्न
स्वप्न मोहक
मोहित धारित्री
धारित्री वरुण की
वरुण घनघोर
घनघोर छाया अँधेरा
अंधियारी राहें
राह-मानवता-पवित्रता-प्रेम
प्रेम-उजियाला सर्वोपरि
सर्वोपरि प्रेम-उजियाला!
१६ अक्टूबर १९८९
-- स्वाति पांडे
ये कविता मेरी पहली कविताओं में से एक है। जब मुझे पता चला कि पहली कवितायें प्रकाशित हो रहीं हैं मैंने अपनी कविता ढूँढना शुरू कर दिया। मेरी कविता लिखने की शुरुआत के लिये कुछ घटनायें जिम्मेवार हैं। थोड़ी लम्बी भूमिका हो जायेगी पर आशा करता हूँ आप धैर्य रखेंगे। कविता लिखने से पहले २-३ बार स्कूल और कालेज में लेख छप चुके थे। कालेज छूट चुका था और नौकरी कर रहा था। पहली घटना २००५ के शुरु की है। एक दिन कालेज का एक दोस्त रोहित मिला और उसने पूछा कि मेरा लेख लिखने का शौक कहाँ तक पहुँचा? मैं दंग रह गया कि मात्र १-२ लेखों ने ही रोहित पर असर किया और मैं ही अपनी इस ताकत को नहीं पहचान पाया। लेकिन तब भी मैंने लेख लिखना दोबारा शुरू नहीं किया। पर मेरे मन में ये बात घर कर चुकी थी।
दूसरी घटना और असरदार थी। मेरी पहली कम्पनी क्वार्क मैंने ३ दिसम्बर २००५ को छोड़ी। मेरे वहाँ बहुत अच्छे दोस्त बन चुके थे। क्योंकि वो मोहाली में है इसलिये मैं घर से बाहर रहता था। उन्हीं के साथ २४ घंटे गुजारने के कारण ही एक अलग लगाव बन चुका था। अभी इस घटना का असर ताज़ा ही था तब पता चला कि कालेज का ही एक और मित्र अमित शौकिया कवितायें लिखता है। बस फिर क्या था...उसके साथ कविताओं का आदान-प्रदान होने लगा। हम लोग एक दूसरे की कवितायें पढ़ते और कमियाँ बताते या तारीफ करते। घर में सभी को साहित्य से लगाव है। शायद उसका असर मेरे ऊपर भी दिखा। और मैं लगातार कवितायें लिखने लगा। पहली कविता लिखते हुए कभी सोचा ही नहीं था कि एक दिन ये शौक बन जायेगा और हिन्दयुग्म मिल जायेगा। आज हालत ये है कि कवितायें न पढ़ों या कुछ हफ्ते न लिखो तो अजीब सा लगता है। । मेरी पहले की ४-५ कवितायें १-२ दिन के ही फासले पर लिखी गईं इसलिये मेरे लिये पहली कविता ढूँढ पाना बहुत मुश्किल हो गया। मैं साप्टवेयर से हूँ तो कलम/डायरी मेरे पास कहाँ मिल पाती। लिहाजा कम्प्यूटर पर ही लिखा। यूनिकोड से परिचित नहीं था तब इसलिये रोमन में ही लिखा करता था।
निम्न कविता उन्हीं ४-५ में से एक है। इसकी तारीख याद नहीं है। शायद १५ दिसम्बर के आसपास।
खामोशी
बाग में चहलकदमी करते लोग,
पर पतझड़ में अब बाग सूख गया है,
पेड़ को भी सुनसान बाग की खामोशी अब सताने लगी है
खेत में सारे साल काम करते हैं किसान
पर अकाल में सूखी है ज़मीन, बंज़र है धरती
मायूस है किसान...निरुत्तर आकाश की खामोशी अब डराने लगी है
माँ की सूख गई हैं आँखें बेटे के इंतज़ार में
प्रेमिका की नज़र दरवाज़े से हट नहीं रही है
तरसी हैं आँखें...काली घर की खामोशी अब सताने लगी है
किसी के होने से कभी मुझे डर नहीं लगा
पर अब किसी के न होने से डर लग रहा है
दिल रो रहा है...कह रहा है
रे नादान... तुझे अब दिल की खामोशी डराने लगी है
--तपन शर्मा
दिल का दर्द
दिल का दर्द
टूटे हुए हृदय से निकलकर,
भावनाओं को छेदकर,
समस्त वासनाओं से दूर,
मन के कोने में अंधकार कर,
आत्मा की अथाह वेदना छेड़,
पुष्प की सुगन्ध को छीनकर,
नदियों के जल को सोखकर,
आशारूपी तन को निराशकर,
इन्द्रियों में मातम छोड़कर,
जीवन में दु:ख की धुन छेड़कर,
राहगीर को प्यासा छोड़कर,
प्रेमी के हृदय को तड़पाकर,
तीनों लोकों से थी बड़ी जिसकी हद,
वे कटु अनुभव था,
मेरे अलोकिक दिल का दर्द!!!
--गोविन्द शर्मा
'तेरी मेरी कहानी' रचना को मैं अपनी प्रथम रचना तो नहीं कह सकता क्योंकि ५६ वर्ष की अवस्था में कितने ही ऐसे मोड़ आये जब माँ सरस्वती की कृपा हुई। लेकिन मैं उन्हें संजोकर नहीं रख सका। अपनी उपलब्ध कविताओं में से पहली कविता यही है जिसे गत वर्ष नव वर्ष के आगमन पर मैंने अपने दोस्तों के लिए लिखी थी।
तेरी मेरी कहानी
मरें तुम्हारे दुश्मन तुम्हें तो जिंदा रहना है
वफ़ा तुमसे है तुम वफाई हो अरे..... क्या कहना है।
खुदा ने अदा की उम्र सदाकत से जीने के लिये
चिराग तेरे पास है सहर में उजाला करने के लिये।
जब दिन निकलता है, अँधेरा गुम जाता है
यारी से फुरसत नहीं, नफ़रतों से कहाँ नाता है।
तेरा मकसद साफ, इरादा नेक है
तेरे प्यार की कसम तेरी मेरी मंजिल एक है।
लैला-मजनूँ, शीरीं-फरहाद, हीर-रांझा आज फ़ना हो गए हैं
तेरी कसम, मिसालें दोस्ती की दुश्मनों की जबां पर छोड़ गए हैं।
आ आज इस नववर्ष के मौके पर एक अहद करे
तेरी मेरी दोस्ती परवान चढ़े, दोस्ती की मिसाल कायम करें।
न भूलें लोग लैला-मजनूँ, शीरीं-फरहाद, हीर-राँझा को, उनकी कुर्बानी को।
भूल जाएं झगड़ा दुश्मनी, नफरत और याद करें तेरी मेरी कहानी को।
--डा. श्री कृष्ण मित्तल
अब इसे कविता कहें या तुकबन्दी...? इस कविता के जन्म की भी एक कहानी है..दर असल मैं चाय बहुत पीता हूँ और एक दिन चाय पीते समय वो मुझे पसन्द नहीं आई और मैंने उसे छोड़ दिया। उसके बाद कुछ दिन तक यही हालत रही। चाय का प्याली मैं पीने के लिए उठाता था और फिर उसे बिन पिए या थोड़ी बहुत पीने के बाद छोड़ देता था। बस इसी चाय की प्याली के चक्कर में एक दिन कार चलाते चलाते मैं कुछ गुनगुनाने लगा...बस उन्हीं शब्दों को मैंने कागज़ पे उतार दिया...
"कुछ जतन करो मेरे भाई"
ना रहा अब दिन को चैन
ना रही अब रातों की नींद
सुख-चैन लुट गया है मेरा
कब-कब आओगे तुम रघुवीर
पढने वाले पढ-पढ रहे
समझ रहा ना कोई
कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई
पहले मैने इसे पिया
अब ये मुझे पीने लगी
ज़िन्दगी पहले सी कहाँ
बोझिल अब होने लगी
कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई
खुशी-खुशी मैँ इसे पीता था
हर गम भी सह-सह जाता था
बे-स्वाद बे-असर है अब
ना बचा इसमें कुछ बाकी है
कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई
क्यों जान इसी में अटकी है
क्यों तलवार गले पे लटकी है
समझ रहे मुझे किस जैसा
मैँ नहीं रहा कभी उन जैसा
कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई
सोच तुम्हारी है उल्ट-पुल्ट
बात है जबकि सीधी सच्ची
रास्ते हमारे अलग-अलग है
विचार हमेशा रहे जुदा-जुदा
कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई
बात सुरा की तुम करते हो
मैँ पान सुधा का करता हूँ
तुम विष का सेवन करते हो
अमृत का प्याला मैँ छकता हूँ
कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई
चाय की प्याली प्यारी मुझे
अद्धा-पव्वा है न्यारा तुम्हे
चाय को मन मेरा भटक रहा
पैग तुम्हारा अब छलक रहा
कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई
राधा-स्वामी नाम लिया है
जीवन उनके नाम किया है
छोड के तुम सारे व्य्सन
इष्ट का अपने जाप करो
कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई
--राजीव तनेजा
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28 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविताओं प्र टिप्पणी बाद में करूँगा पर पहले हिन्दयुग्म के हैडर के बारे में कहना चाहूँगा. मुझे अब तक का सबसे सुंदर हैडर लगा... इसमें जिस फ़ोंट का प्रयोग हुआ व "हिन्द युग्म" के आगे पीछे "।" लगाये गये हैं वो इस हैडर को अलग ही रूप दे रहे हैं..मैं प्रशेन क्यावाल जी को बधाई देना चाहूँगा..
धन्यवाद हिंदी युग्म का जिस ने रचना को आप तक पहुंचा कर मान बढाया
भारतवर्ष के प्रांगन में हिंदी युग्म का नारा
आओ साथियो हिंदी का प्रचार करे,
'हिंदी युग्म'
हर दिल पर राज करे
हिंदी की सेवा करे,
जो इस से जुडे उसका मान बढे
पुराण शास्त्र रामायण गीता
राम कृष्ण राधा सीता
वेद और उन्नत साहित्य हमारा
हर घर में पहुंचे हिंदी युग्म के द्वारा
हिंदीभाषी फलें फूलें बढे भाईचारा
............. शुभ कामनाएँ
सभी कविगणों को उनकी प्रथम कलम-चाप पर हार्दिक बधाई..
हैडर वाले भाई आपको भी बधाई
एक दम सुन्दर छवि बनाई
और कविताये साथ लिये अपनी अपनी कहानी
लगीं बहुत ही प्यारी सुकोमल व सुहानी
खुद भी लिखें दुसरों को भी लिखवाये..
पुनः हार्दिक शुभकामनायें..
सीमा जी, निम्न पंक्तियाँ ह्रदय को छू गई.
खाली अन्ध्यारे मन के , हर एक कोने मे ,
बीते लम्हों के टूटे मोती , बिखरा जाती हैं ,
सैलेश जी
आप की पहली कविता में ही खूब दम है तो आगे तो गज़ब ढा दिया होगा
जब-जब मैं साँस लेता हूँ
हवाओं में तुम्हारी मौज़ूदगी मससूस करता हूँ।
राकेशजी,
वैभव बहरा हुआ दया कब द्वार दीन के आ पाई
तुम क्या साथ निभाओगे जब हुई पराई परछाई
भव्य प्रासाद की नीव का पत्थर ऐसा ही होता है |
शैलेशजी,
सपनों की छाया तुम बन जाती हो।
....सपनो की छाया..... सुंदर शब्द समूह |
बहुत अच्छे | सभी को बधाई |
-- अवनीश तिवारी
राकेश खंडेलवाल जी
पहली पंक्तियाँ ही इतनी सुंदर | सीमा गुप्ता जी
वक़्त गुजर जाता है यादे रह जाती है ,बहत ही सुंदर
"यादें" जब भी आती है "
भीगे भीगे अल्फाजों को , लबों पर लाकर ,
दिल के जज्बातों को , फ़िर से दोहरा जाती हैं ,
| सतीश वाघमारे जी
कितनी सुंदर बात कह दी आपने
तनहाईयाँभी क्या कभी अकेलापन सह पाती हैं ?
गर हाँ, तो क्यूँ बार-बार मेरे पास चली आती हैं?| संतोष गौड़ जी बहुत सुंदर
स्वयंवर में थी आजाद की कुर्सी खाली भाई
आजाद के बिना आजादी की मिठाई खाई।
राष्ट्रप्रेमी ऐसी हमने आजादी पाई,
राष्ट्रप्रेमी | ब्रह्मनाथ त्रिपाठी 'अंजान' जी पहली कविता देश प्रेम पर पढ़कर बहुत अच्छा लगा
चरणों मे लहराता सागर
बहती गंगा की अमृत धारा
नवजोत से प्रज्जवल अखंड ये देश हमारा
|मैत्रेयी बनर्जी जी पेंसिल की कहानी के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया आपने | सतीश सक्सेना जी पूरी की पूरी कविता मुझे इतनी पसंद आई की ...क्या कहूँ ,पढ़कर सूरदास जी का श्रीकृष्ण बाल-साहित्य याद आ गया ...गुड़िया के मुख से !
पापा मुझको लंबा करदो
भइया भी तो लंबा है
झूले पे चढ़ जाता है
गुस्सा मुझको आता है
मन मेरा ललचाता है, पापा मुझको लंबा कर दो !
मेरी टांगे छोटी हैं
ऊपर टाफी रक्खी है
मुंह में पानी आता है
हाथ पहुँच नहि पाता है, पापा मुझको लंबा कर दो !
मुझको मां बहलाती हैं
खूब सा दूध पिलाती है
मीठी मीठी बातें कहकर
बुद्धू खूब बनाती है , पापा मुझको लंबा कर दो !
कहती लम्बी हो जाओगी
दूध जलेबी जब खाओगी
कब लम्बी हो पाऊँगी ?
झूले पै चढ़ पाऊँगी ? पापा मुझको लंबा कर दो !
पाउडर नहीं लगाने देती
रोटी नहीं बनाने देती
छत पर नहीं भागने देती
कहती तुम मर जाओगी, पापा मुझको लंबा करदो !
मुझे खिलौने नही चाहिये
मेरी इतनी बात मान लो
भइया जितना लंबा कर दो
और कुछ नहीं मांगूंगी, पापा मुझको लंबा करदो !
| विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"जी सठोत्री कविता का सुंदर भाव लिए सुंदर कविता
| आशा जोगळेकर जी आपकी कविता मी कितना प्यारा सुंदर कोमल सा छोटी सी आशा लिए भाव है ,बहुत अच्छे | राहुल गडेवाडिकर जी यही पहला आत्म-साक्षात्कार था,
अच्छा हुआ आपने अपने आप को पहचान लिया ,वरना हिन्दी जगत आपकी प्रतिभा से अछूता रह जाता
हिन्द युग्म का यह प्रयास संग्रहणीय हो गया है। काव्य पल्लवन में प्रस्तुत कई रचनायें एसी हैं जिसमें कवि के बनने की प्रकृया की झलक मिलती है कि कैसे तुकबंदी से आरंभ हो कर एक रचनाकार कथ्य पिरो पिरो कर कवि बन जाता है...
***राजीव रंजन प्रसाद
काफी समय से busy था इसलिए हिन्द युग्म पर आ नही सका
पहली कविता की चौथी कडी के लिए सभी को बधाई
सुमित भारद्वाज
हिंद युग्म पर पहली कविताओं ने धूम मचा रखी है , पहली कविता का इतना बड़ा संकलन शायद ही कहीं देखने को मिले , लगता है हिंद युग्म गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकॉर्ड में अपना नाम लिखा कर ही रहेगा ......!!!!! शुभकामनाएँ .
पहली कविता संस्करण की आशातीत सफलता के लिए हिंद युग्म को बहुत बहुत बधाई .
कल से कविताएँ पढ़ना शुरू किया था , आज ही ख़त्म कर पाई , सभी प्रतिभागियों की कविताएँ बहुत अच्छी हैं, यह तय कर पाना बहुत मुश्किल है कि ये पहली कविताएँ हैं या सभी प्रतिभा के धनी ही जन्मे हैं . हाँ , शैलेश जी ने सत्य बयान किया कि उन्होंने शब्द अपने मित्र की कविताओं से लिये थे , क्योंकि उनके मित्र की कविता भी "आ जाओ " पर ख़त्म हुई और स्वयम शैलेश जी की भी....!!!!!!
कुछ रचनाकारों ने बड़ी उम्र में लिखना शुरू किया , उनकी परिपक्वता रचना में झलकती है .
आशा जोगलेकर जी अपने भाई से कविता चाहती थी, क्या उनकी यह तमन्ना पूरी हुई ?
सतीश सक्सेना जी की गुडिया तो अब तक बहुत बड़ी हो गयी होगी , और अब अपनी उस बचपन की जिद को याद करके अवश्य हंसती होगी !!!!
मैत्रयी जी की पेंसिल की व्यथा कड़वा सत्य है . अन्य सभी रचनाएं भी प्रभाव छोड़ती हैं . सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई .
प्रशेन क्यावल जी द्वारा बनाए हेडर की प्रशंसा किए बिना टिप्पणी अधूरी रहेगी ,बेहद सुंदर एवम आकर्षित, शब्द और रंग संयोजन है. बधाई .
^^पूजा अनिल
मधुरिमा जी यह तो है एक सच्चा समर्पण,
जिसमे प्रीतम है मूरत ,
प्यार मन-मंदिर की पूजा ,
यही है प्यार की परिभाषा...!!!
कितनी आसानी से अपनी चोटी सी कविता मी आपने प्यार की परिभाषा बता दी |
| कुसुम सिन्हा जी आली री दिल ना दुखाया कर बहुत ही कोमल भाव है | महेंद्र भटनागर जी शायद हिन्दयुग्म पर सबसे पुरानी कविता आपकी ही आई है ,अच्छी लगी | शैलेश भारतवासी जी आपकी पहली कविता मी ही कमाल की परिपक्वता नज़र आती है | मनीष वंदेमातरम जी अल्हड़ उम्र के प्यार मे भावनाओं का आक्रोश और कोमलता साफ झलकते है | स्वाति पांडे जी प्रेम-उजियाला!" पढ़कर अच्छा लगा | तपन शर्मा जी माँ की सूख गई हैं आँखें बेटे के इंतज़ार में
प्रेमिका की नज़र दरवाज़े से हट नहीं रही है
तरसी हैं आँखें...काली घर की खामोशी अब सताने लगी है
बहुत ही भावुक पंक्तियाँ है | गोविन्द शर्मा जी दिल का दर्द आपने बड़े ही मार्मिक शब्दों मे बयान किया है | डॉ॰ एस के मित्तल जी बहुत अच्छे | राजीव तानेजा जी "कुछ जतन करो मेरे भाई"
आपका जतन रंग लाया ,जिसने आपको कवि बनाया |
पूजा जी ने सही कहा की पहली कविता के प्रकाशन मे हिन्दयुग्म गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकॉर्ड मे अपना नाम दर्ज करवाएगा | कविताओं के साथ जुड़े अनुभव भी पढ़ने मे मज़ा आया और हैडर की तारीफ किए बिना टिप्पणी अधूरी है |अंत मे सभी कवियों/कवयित्रियों को पहली कविता के प्रकाशन पर बधाई
sachmuch adhbuth hai yah manch . isshse hindi ko to badhawa mil hi raha hai saath hi saath kai eshe log jo apni bhawnao ko dil mai dabaaye baithe the ya duniya se kisi kaaran chupaaye baithe the aage aane ka mauka milaa apni baat kahne ka maukaa milaa waakai adhbuth hai .
पहली कविता की संख्या ८० हुई----वाह।
हिंद-युग्म की हिन्दी साहित्य को एक नायाब भेंट।
---देवेन्द्र पाण्डेय।
हर भाग की तरह यह कविता का भाग भी किसी खजाने से कम नही,हर कविता बहुत ही सुंदर,सभी को बहुत बधाई |समय कमी के कारन सब को अलग मुबारक बात नही दे पाए हम |
डा. रमा द्विवेदीsaid...
पहली कविता की चौथी लड़ी में सबकी कविताओं के रंग -विरंगे भाव पुष्प की जो माला पिरोई गई है वह सच में बहुत सुन्दर है। सभी प्रतिभागियों को मंगल कामनाएं व उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं....
शैलेश जी व सभी हिंद युग्म के प्रतिभागियों को हार्दिक बधाइयाँ! प्रयास बेहतरीन है! खासतौर पे ये ढूंढ़ निकालना कि जीवन के किस बसंत में भावनाओं का नामकरण हुआ और फिर किस तरह से उम्र परवान चढ़ते हुए किसी काव्यमय परिभाषा में बदल गयी...बहुत खूब! सभी को पुनः बधाइयाँ!
पहली कविता की चौथी कडी के लिए सभी को बधाई
अपनी नज़र http://bhulibisriyaaden.blogspot.com
पर भी डालें और हस्ताक्षर करें
............. शुभ कामनाएँ
is baar ka header bahut hi achcha hai...designer ko badhayee.
Pahli kavita'' vishank bahut pasand aa raha hai...
Hind yugm ka bahut hi safal prayas hai.
kisi ek kavita par kya tippani karen--pahli kavita apne aap mein bahut khaas hoti hai..
satish vaghmare ji ne to yah bata hi diya-ki pahli kavita likh ne ke liye Umar ki bandish nahin...
sabhi kaviyon ko unki anmol rachna ke liye badhayee
हिंद-युग्म वाह...!.....वाह...!!
KHAZANA खजाना पर है मिसफिट Misfit पर भी एक पोस्ट है-"हिन्दयुग्म का पड़ाव ...!! "शीर्षक से
सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं
link for "KHAZANA"
http://billoresblog.blogspot.com/2008/05/blog-post_29.html
Link for मिसफिट Misfit
""http://sanskaardhani.blogspot.com/2008/05/blog-post_29.html
apni vasatataa ke karan aaj dekha humne apni kavita yaha par atayant khusi hui..
Dhyanwad
hindi yugm ke ye aayojan prashanshaniya hai...
Madhurima
lekhak ke liye pehli kavita bahut mehatvapurn hoti hai, aur uske man ke nishchal bhaavon ko bhi darshaati hai
...
sabhi ke man ke maasoom se bhaav man ko chhuu gaye. sabhi ko bahut bahut badhaai.
swagat hai is nai pahal ka,yeh prayas jeevan aur sahitya ko anupranit karte hai, sadhuvaad shailesh ji ko ,sabhi sahyogi mitro ko.
Meri kavita ka number kab aayega bataiyega .
sader,
Dr.Bhoopendra
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