काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - पहली कविता (भाग-3)
विषय-चयन - अवनीश गौतम
अंक - पंद्रह
माह - मई 2008
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पहली कविता के प्रकाशन के बाद बहुत से रोचक तथ्य खुलकर सामने आये हैं। हर कवि के लिए कविता लिखने का कारण अलग-अलग है। लेकिन कितना सुखद है कि कविमन का अत्यधिक संवेदनशील होना ही, उसमें कविता का बीज रोप पाया है! इस बार, एक कवयित्री मीनाक्षी धनवंतरि ने अपनी दो ऐसी प्रारम्भिक कविताएँ भेजीं कि हमारे लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो गया कि कौन सी प्रकाशित करें कौन नहीं। आखिरकार हमने भी पाठकों पर छोड़ दिया है।
इस बार हम काव्य-पल्लवन के प्रतिभागियों के लिए एक उद्घोषणा लेकर उपस्थित हैं। हैदराबाद से हिन्दी की एक साहित्यिक पत्रिका (छमाही) प्रकाशित होती है 'पुष्पक' जिसकी संपादिका हैं डॉ॰ अहिल्या मिश्रा और डॉ॰ रमा द्विवेदी। मई माह के काव्य-पल्लवन के इस विशेषांक में भाग लेने वाले ३० भाग्यशाली कवियों को इस पत्रिका के वर्ष 2007 (प्रथम) अंक की एक-एक प्रति भेंट की जायेगी। तो यदि अभी तक आप अपनी प्रथम कविता न भेज पायें हों तो कृपया जल्द से जल्द भेजें और अपने मित्र कवियों/कवयित्रियों को भी इसकी सूचना दें।
यदि हमारे पाठकों में से कोई अपनी पसंद की कोई साहित्यिक कृति प्रदान करना चाहे या आप किसी पत्रिका के संपादक हों, किसी पुस्तक के संपादक हों और अपनी कृति भेंट करना चाहें, तो कृपया hindyugm@gmail.com पर संपर्क करे।
अब तक 'काव्य-पल्लवन पहली कविता विशेषांक' के दो भाग प्रकाशित हो चुके हैं, जिन्हें निम्न सूत्रों ने पढ़ा जा सकता हैं-
आज http://merekaviimitra.blogspot.com को पहली कविता का रूप देने में अपना हुनर दिखाया है हमारे सहयोग प्रशेन क्यावाल ने अपनी कंपनी वेब एंड मीडिया लिमिटेड द्वारा। मुख-पृष्ठ का हेडर बनाया है राहुल पाठक ने।
शेष अच्छा-बुरा तो पाठकों की प्रतिक्रियाएँ बतायेंगी।
आपको यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतावें।
*** प्रतिभागी ***
| देवेंद्र पांडेय | डा. रमा द्विवेदी | अशरफ अली "रिंद" | ममता गुप्ता | रजत बख्शी |राजिंदर कुशवाहा | गरिमा तिवारी | विनय के जोशी | डा0 अनिल चड्डा | यश छाबड़ा | कवि कुलवंत सिंह |
| एस. कुमार शर्मा | मीनाक्षी धनवंतरि | शुभाशीष पाण्डेय | शिफ़ाली | पूजा अनिल | अविनाश वाचस्पति | निखिल सचन | सोमेश्वर पांडेय | सुनील कुमार सोनू
~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~
धर्मयुग-हिन्दुस्तान-कादम्बिनी पढ़ते-पढ़ते मैं कब कविता लिखने लगा मुझे नहीं पता । निश्चित रूप से मेरी पुरानी डायरी में जो कविताएं हैं वे १७-१८ वर्ष की उम्र से पहले की नहीं हैं। उसी समय की एक कविता भेज रहा हूँ जिसे आप पहली कविता मान सकते हैं।
चिड़िया
चूँ -- चूँ करती चिड़िया कहती
सूरज निकला चलो पकड़ने
तिनका-तिनका जुटा-जुटा कर
महल सजालें उसको रखने।
सर्दी--गर्मी सब सह लेती
उसकी मेहनत के क्या कहने
चूँ -- चूँ करती सो जाती है
शाम ढले नित रैन--बिछौने।
--देवेंद्र पांडेय
मैंने अपनी पहली कविता १९८७ में लिखी थी....
आधुनिक नारी के नाम
नारी तू जगजननी है,जगदात्री है,
तू दुर्गा है ,तू काली है,
तुझमें असीम शक्ति भंडार,
फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय,
याद कर अपने अतीत को,
तोड.कर रूढियों-
बंधनों एवं परम्पराओं को.
आंख खोल कर देख,
दुनिया का नक्शा ,
कुछ सीख ले,
वर्ना पछ्तायेगी,
तू सदियों पीछे,
पहुंचा दी जायेगी ।
तू क्यों पुरूष के हाथ की,
कथपुतली बन शोषित होती है?
तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन
तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है?
यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं,
सब तूने ही है दिया उसे,
वही तुझे आज शोषित कर,
अन्याय और अत्याचार कर,
तुझे विवश करता है,
अस्मिता बेचने के लिए,
और तू निर्बल बन,
घुटने टेक देती है
क्यों???
क्या तू इतनी निर्बल है?
अगर ऎसा है-
तो घर में ही बैठो,
बाहर निकलने की-
जरूरत नहीं,
पर यह मत भूलो कि-
घर में भी तेरा शोषण होगा ही
फर्क होगा सिर्फ़ ,
हथियारों के इस्तेमाल में ।
तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं-
किसके लिए?
अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की,
रक्षा के लिए,
या
दूसरो के लिए?
सोच ले तू कहां है?
सब कुछ देकर,
तेरे पास अपना,
क्या बचा है?
कुछ पाने के लिए संघर्ष कर ।
भौतिक सुखों को त्याग कर,
नर-पाश्विकता से जूझ कर,
स्वयं अपने पथ का निर्माण कर,
अपनी योग्यता से आगे बढ. ।
मत सह पुरूष के अत्याचार,
द्ढ. संकल्प लेकर,
बढ. जा जीवन पथ पर,
निराश न हो,
घबरा कर कर्म पथ से,
विचलित न हो,
तू अडिग रह, अटल रह,
अपने लक्ष्य पर,
तेरी विजय निश्चित है ।
तू अपनी "पहचान" को,
विवशता का रूप न दे,
वर्ना नर भेडि.ये तुझे,
समूचा ही निगल जाएंगे ।
खोकर अपनी अस्मिता को,
कुछ पा लेना ,
जीवन की सार्थकता नहीं,
आत्म ग्लानि तुझे,
नर्काग्नि में जलायेगी ।
इसलिए तू सजग हो जा,
तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी,
विजय लक्ष्मी बन,
कर्म में प्रवृत हो,
अपने लक्ष्य तक पहुंच ।
पुरूष के पशु को पराजित कर,
स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,
इसी में तेरे जीवन की,
सार्थकता है,
और
जीवन की महान उपलब्धि भी॥
--डा. रमा द्विवेदी
ये मैंने जनवरी २००३ में लिखी थी जब मैं एक संस्था के जरिये बार्ड्र पर एक टीचर की हैसियत से था...
वहाँ वहीं पर किसी फ़कीर से दोस्ती हो गई.. फ़िर बस मेडिटेशन करना शुरु हुआ और उसी दौरान ये कविता लिखी..
एक उर्दू पत्रिका में भेजी थी पर वापस लौटा दी गई..
मार के सिर मस्जिद और बुतखाने को हम
चले हैं आज फिर से तेरे मैखाने को हम.
सुना है तेरी मस्ती जाती नहीं कभी,
तिशनगी लिए आये हैं तुझे आजमाने को हम.
तू है की पल भर भी नहीं भूलता हमें,
यहाँ याद भी करते हैं दिल बहलाने हम.
बेरुखी मंजूर है तेरी और तेरा पर्दा भी,
तैयार हैं तेरे अहसास में होश गंवाने को हम.
रख लिए हैं हजारों नाम दुनिया ने,
खोज लेंगे हजारों बहाने तेरे क़रीब आने को हम.
बना ले "रिंद" हमें भी अपनी महफ़िल का,
दर जा के अब मिला है सर झुकाने को.
--अशरफ अली "रिंद"
किसी ने कहा था
दुर्घटना की प्रबल सम्भावना है
ध्यान रक्खो.....
मैं पगली, एक-एक कदम
फूँक-फूँक कर रखती रही
गाङी ध्यान से, चलाती रही
लेकिन.....
बेतहाशा भागते
मन की तरफ देखा तक नही
और आज वही मन
बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया है
लहूलुहान........
छटपटाता हुआ ..........
कोई भीङ नही जुटी
कोई सहानुभुति नही
कोई मुआवजा नही
फिर भी
दुर्घटना तो घटी ?
--ममता गुप्ता
खुशबू अपनों की
जो नही मिलती भागम भाग मैं
ठहरते है जब एक पल हम
त्ताब याद हम्हे सताती है
जब समय चक्र चल जाता है
टैब सोच बची रह जाती है
इक्छाएं ज्यादा होती है
पर समय गुजर जाता है
अफ़सोस और कुछ न कर पाते हम
भागमभाग की समीकरण का
हिस्सा बन रह जाते हम
जो सुलझ गया वो निकल गया
जो उलझ गया
वो बिखर गया !
--रजत बख्शी
खुदकुशी करनी है गर तो खुदकुशी कर लिजीए,
इल्तज़ा इतनी है लेकिन ज़हर सब को न दीजीए.
जिन्दगी कितनी हसीन, यह तुम समझ पायो नही,
आग नफरत की लगी है आपके दिल मे कहीं;
रोक लो नफरत की आंधी, कुछ रहम तो कीजीए--
प्यार की बरसात से यह आग बुझने दीजीए.
खुदकुशी करनी है गर तो खुदकुशी कर लिजीए,
क़िसकी यह ज़मीन है और किसका आसमान है?
इन सवालों का जवाब खुद से ही परेशान है;
फिर भी इनको अपना कह के, ज़हर यह न पीजीए.
मौत के व्यापार यह कहर तो न किजीए.
खुदकुशी करनी है गर तो खुदकुशी कर लिजीए,
किसका मज़हव अच्छा है, किसकी है यह कौम बडी?
सदीयों से पुरूखों ने भी इस मौज़ू पे है ज़न्ग लडी;
इन्सान तो सब एक है, आप नाम कुछ भी दीजीए;
बांट लो खेमों में "राजी", ज़ान तो न लीजीए.
खुदकुशी करनी है गर तो खुदकुशी कर लिजीए,
इल्तज़ा इतनी है लेकिन ज़हर सब को न दीजीए.
--राजिंदर कुशवाहा
तब मै कक्षा ६ की छात्रा थी। जो मैने अपने पापा जी को खत लिखा था वो १ साल तक घर वापस नही आए थे, इस से मै बहुत दुखी थी...वो क्या था कि मेरे तेज होने के कारण मेरा एड्मिशन सीधे कक्षा ३ से ६ मे कर दिया गया था, लेकिन असल मे दिमाग से कच्ची ही थी, मुझे हमेशा पापा जी की याद आती.. तब मैने उन्हे खत लिखके बुलाना चाहा था.. लेकिन पोस्ट-अफ़िस दुर था और मै छोटी सी... खत उनको तब मिला, जब वो वापस घर आये :), तब मुझे यह भी नही पता था कि मैने कविता लिखी है... ये तो पापा जी ने ही बताया कि अर्रे गुडिया ने तो कविता लिखी है|
पापा आप कब आओगे?
मेरी आँखे तरसी अब तो
बीत गये बरसो अब तो
सुखी धरती, सुखा सा मन
हमको कब हरषाओगे?
पापा आप कब आओगे?
भीगी पलके है मम्मी की
चुप-चुप सी वो रहती है
कई राते जगकर उनकी
आँखो-आँखो मे ही कटती है
दिन भर दादी की खिटपिट
मुझको सुननी पडती है,
रोता है मन, पुछ्ता है मन
पाप आप कब आओगे?
कहकर गये थे, कि
जल्दी आऊँगा, खुब खिलौने-
कपडे लाऊँगा
पर पापा आप यूँ ही आ जाओ
देर न करो, जल्दी आ जाओ
नही चाहिये, वो सारी चीजे
चाहिये बस प्यारे पापा
पापा आप कब आओगे?
स्टेशन पर जब भी कोई
गाडी सीटी बजाती है
लगता है जैसे, आपके
आने की खबर लाती है
बीत जाते है फ़िर घन्टे वैसे
सहपाठी मुझे चिढाते हैं
नही आयेंगे, पाप
कहकर मुझे रूलाते है...
पुछ रहा है दिल मेरा
लिख देना जल्दी से खत मे
पापा आप कब आओगे
कपडे खिलौने भले ना लाना
जल्दी से आप आ जाना....
--गरिमा तिवारी
घर से डांट खा, बस्ता उठा भूखे पेट, कक्षा की पिछली पंक्ति में बैठे, एक किशोर की एक हददर्द से नजर टकराने से अंकुरित हुई थी यह कविता | न जाने वह किशोर कहाँ खो गया | जब भी उसकी याद आती है आँख भर आती है|
जीवन
भीख में मिला
एक वस्त्र
जिसमे
धोखों के धागों से
टीसों के टांके लगे हैं
जख्मों से भरी जेब और
तन्हाईयों के तमगे लगे है
फ़िर भी
अनमोल है यह
समझ मेरी
कीमत न इसकी
आंक पाती है
क्यूंकि कभी कभी
नजर उनकी
सुई सी चुभती हुई
सुख का एक
बटन टांक जाती है |
--विनय के जोशी
मैं आपका आभारी हूँ कि आपके कारण मुझे अपनी पुरानी कविताओं को ढ़ूँढ निकालने की प्रेरणा मिली । निम्नलिखित कविता , जिसे मैंने शायद 14-15 वर्ष की उम्र में रचा था और जो मेरी पहली कविताओं में से एक है, को बड़े परिश्रम से ढ़ूँढ निकाला है । अपनी कविता मैं काव्यपल्लवन के 'पहली कविता' के विशेषांक के लिये प्रेषित कर रहा हूँ ।
"बोतल में !"
मृत्यु बंद है बोतल में,
ज़हर के रुप में !
जीवन बंद है बोतल में,
दवा के रूप में !
रिश्वत बंद है बोतल में,
शराब के रुप में !
बेईमानी बंद है बोतल में,
झूठे लेबल के रुप में !
पैसा बंद है बोतल में,
मिलावट के रुप में !
और तो और,
डेमोक्रेसी बंद है बोतल में,
वोट के रुप में !
-- डा0 अनिल चड्डा
यूं बनी कविता
दिल के किसी कोने से
उगते हैं कुछ विचार
चूजों की तरह
शब्दों का दाना चुगते हैं
स्याही का रस पीते हैं
मिल जाते हैं जब लय के पंख
ऊड़ जाते हैं खुले आकाश मे
कविता बन कर..
यश छाबड़ा
>
मैने देखा
किसी अनिष्ट की
आशंका से भयकंपित
मुट्ठी में बंद किए-
एक कागज का टुकड़ा;
लंबे-लंबे डग भरता
कोई दीन-हीन फटेहाल,
चला जा रहा था-
'मेडिकल स्टोर' की ओर ।
मैने देखा
तभी पुलिसमैन एक
कहीं से आया,
पहचान कर शिकार को
लपका उसकी ओर ।
बोला अबे उल्लू
लंबे-लंबे डग भरता है
जो नियमों के प्रतिकूल है ।
पथ शीघ्र तय करता है
अगर कहीं कुचला गया
किसी सवारी के नीचे,
तो क्रिया-कर्म तेरा
कौन करेगा
यह अपराध है,
कानून का उलंघन है।
मै तेरा 'चालान' कर दूंगा ।
"'चालान' शब्द सुनकर,
दुखिया ने हाथ जोड़ दिए,
पुलिसमैन के पांव पकड़ लिए।
कातर स्वर में बोला
"मेरी बूढ़ी माँ बीमार है,
सख्त बीमार है ।
उसका एक मात्र सहारा,
यह पुत्र, यह अभागा,
दवा लेने जा रहा है।
हाथ जोड़ता हूँ, पाँव पड़ता हूँ,
मुझे छोड़ दे, तेरा उपकार होगा।
"बचना चाहता है
अच्छा चल छोड़ दूंगा
मेरी दाईं हथेली पर
खुजली हो रही है,
उसको शांत कर दे ।
मेरा आशय समझा या समझाउँ तुझे
"तरेर कर आँखे पुलिसमैन बोला ।
"समझ गया माई बाप
मुट्ठी जोर से भींच कर बोला,
"लेकिन एक ही पचास का नोट है
मुट्ठी खोल कर दिखाते हुए बोला,
अगर आपको दे दिया,
तो ..तो.. दवा कहाँ से आयेगी
मेरी माँ मुझसे न छिन जायेगी
जिसे दवा की सख्त जरूरत है
कहते हुए वह कांप रहा था,
"आज छोड़ दे मेरे भाई, मेरे खुदा
फिर कभी ले लेना -
पचास के बदले सौ ।
पाँव पड़ता हूँ तेरे
"लेकिन वह पुलिसमैन
उसकी बात कहाँ सुन रहा था
वह तो जा चुका था
अपने हाथ की खुजली शांत करके,
उस दीन-हीन फटेहाल से
पचास का नोट छीन के ।
किसी अन्य शिकार की टोह में
मैने देखा
--कवि कुलवंत सिंह
स्वाभिमान
हीन भाव से ग्रसित जीव, उत्थान नहीं कर पाता है
हर लक्ष्य अस्संभव दिखता है, जब स्वाभिमान मर जाता है
स्वाभिमान है तेज पुंज, यदि कठिनाई है अन्धकार
यह औषधि है हर रोगों की, गहरा जितना भी हो विकार
यह शक्ति है जो है पकड़ती, छुटते धीरज के तार
यह दृष्टि है जो है दिखाती, नित नए मंजिल के द्वार
यह आन है, यह शान है, यह ज्ञान है, भगवान है
कुछ कर गुजरने की ज्योत है, हर चोटी का सोपान है
हां सर उठाकर जिंदगी, जीना ही स्वाभिमान है
गर मांग हो प्याले जहर, पीना ही स्वाभिमान है
यह है तो इस ब्रम्हाण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है
--एस. कुमार शर्मा
मेरे लिए निर्णय ले पाना कठिन है ... देखूँ आपका निर्णय ले पाते हैं.... हमने 1972 की पहली कविता और उसके बाद ..... 1995 की पहली कविता लिख भेजी है. इस बीच हमने कविता नहीं लिखी... हाँ 1995 के बाद लगातार लिख रहे हैं....
कैसे कहूँ कि 1972 में लिखी गई कविता पहली है जिसे पढ़कर हिन्दी टीचर ने मम्मी डैडी को बुला कर काउंसलर के पास जाने की सलाह दी क्योंकि चिड़िया के चहचहाने की तुलना बच्चों के हँसने की बजाय रोने से की गई थी. सातवीं कक्षा में हिन्दी टीचर ने कुछ शब्द (सुबह सवेरे, सूरज का उगना, चिड़िया की चहचहाट ) देकर कविता लिखने को कहा था और हमने यह कविता लिखी थी.
सुबह सवेरे सूरज उग जाता
चिड़िया का दाना चुग जाता.
चिड़िया रोती , चींचीं करती
देश के भूखे बच्चों सी लगती.
कहाँ से मैं दाना ले आऊँ
हर चिड़िया की भूख मिटाऊँ.
भूखे बच्चों को रोने न दूँगी
अपने हिस्से का खाना दूँगी.
1995 में दस साल का बेटा वरुण साउदी टी.वी. में हर तरफ फैले युद्ध की खबरें देख कर बेचैन हो जाया करता. दुनिया का नक्शा लेकर मेरे पास आकर हर रोज़ पूछता कि कौन सा देश है जहाँ सब लोग प्यार से रहते हैं...लड़ाई झगड़ा नहीं करते .हम वहीं जाकर रहेंगे...अपने आप को उत्तर देने में असमर्थ पाती थी. ..तब मेरी पहली कविता का जन्म हुआ था उससे पहले गद्य की विधा में ही लिखा करती थी.
प्रश्न चिन्ह
थकी थकी ठंडी होती धूप सी
मानवता शिथिल होती जा रही
मानव-मानव में दूरी बढ़ती जा रही
क्यों हुआ ; कब हुआ; कैसे हुआ ;
यह प्रश्न चिन्ह है लगा हुआ !!!!
क्या मानव का बढ़ता ज्ञान
क्या कदम बढ़ाता विज्ञान !
क्या बढ़ता ज्ञान और विज्ञान
मन से मन को दूर कर रहा !
यह प्रश्न चिन्ह है लगा हुआ !!!!
मानव में दानव कब आ बैठ गया
अनायास ही घर करता चला गया !
मानव के विवेक को निगलता गया
कब से दानव का साम्राज्य बढ़ता गया !
यह प्रश्न चिन्ह है लगा हुआ !!!!
कब मानव में प्रेम-पुष्प खिलेगा ?
कब दानव मानव-मन से डरेगा ?
कब ज्ञान विज्ञान हित हेतु मिलेगा ?
क्या उत्तर इस प्रश्न का मिलेगा ?
यह प्रश्न चिन्ह है लगा हुआ !!!!
--मीनाक्षी धनवंतरि
मैंने अपनी पहली कविता अपने बी.टेक द्वितीय वर्ष में अपने एक मित्र असित शुक्ला के कहने पे लिखी थी| इसके पहले मैं चार लाइनों को की तुकबंदी, अब उसे शेर कहें या मुक्तक, लिखा करता था| पर उसे शेर नहीं पसंद थे तो उसने मुझे वीर रस की कविता लिखने को कहा तब मैंने अपनी पहली कविता "जागो" लिखी थी
आज उसे ही यहाँ काव्य-पल्लवन के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ
जागो
क्यों बने हुए हो दीन-हीन,
क्यों मायूसी तुम पे छाई,
क्यों देख के यूँ डर जाते हो,
ख़ुद अपनी ही परछाई|
क्या भूल गए कि कौन हो तुम ,
या भूले अपने अंतर को,
तुम उस पूर्वज के वंसज हो,
जो पी गए सारे समन्दर को|
जीवन में दुःख को सहे बिना,
कौन बड़ा हैं बन पाया,
बिन अग्नि में तपे बिना,
क्या सोना कभी चमक पाया|
जग ने कब उनको पूछा है,
जो तकलीफें गिनते रहते हैं,
होते हैं फूलों में काटें भी,
पर वो काटें ही चुनते रहते हैं|
तुम राणा-शिवा के वंसज हो,
जो माने कभी भी हार नहीं,
वीरगति को प्राप्त हुए,
पर छोड़ी कभी तलवार नहीं|
अब तो छोडो ये मायूसी,
अब तो होश में आओ तुम,
पाने के लिए अपना लक्ष्य,
अब तो जान लगाओ तुम|
आज दिखा दो दुनिया को,
साहस की तुम में कमी नहीं,
हार रहे थे अब तक लेकिन,
अभी लड़ाई थमी नहीं|
हर एक लड़ाई जीतोगे,
आज ही ये संकल्प करो,
अपने न सही औरो के लिए,
संसार का काया-कल्प करो|
अपने पे अगर आजाओ तो,
आंधी में दीप जल जायेंगे,
मन में हो सच्ची लगन अगर,
पत्थर पे फूल खिल जायेंगे|
तो,
क्यों बने हुए हो दीन हीन,
क्यों छाई तुम पे ये मायूसी,
वीर को कैसे सुहा सकती है,
कायर सी ये खामोशी,
--शुभाशीष पाण्डेय(2003)
जगबीती भी है...आप बीती भी...कोई तीन साल पहले यूँ ही एक दिन...हर शाम काम से घर लौटकर अपनी देह से जाने कितनी निगाहों को निकालती एक कामकाजी लड़की के दर्द को जुबाँन देने की कोशिश की...ये जगबीती आप बीती भी है...अपनों ने कहा ये कविता है....मेरी पहली कविता...जो डायरी के पन्नों के संग उधड़ ही जाती...यहाँ दर्ज हो गई तो जी गई।
मैं जानती हूँ,
मेरे आँसूओं में हमेशा तुम्हे
कोई संदिग्ध दर्द नज़र आयेगा
मेरे चेहरे पर जमी उदासी पर
तुम लगाओगे अपनी अपनी तरह से
अनुमान,
मेरी हँसी
हमेशा से तुम्हारे लिये.
किसी को रिझा लेने का पर्याय ही रही है..
मैं अपनी दुनिया बदल भी लूँ
बदल लूँ ,
अपनी सोच और हालात,
लेकिन तुम कब तक
गर्त में पड़े रहोगे
और तुम्हारे ज़ेहन से आती रहेगी
सड़ाँध
घड़ी भर के लिये औरत बनकर देखो
जान जाओगे
कि तुम
कोख के अंधेरों से
बाहर ही नहीं आये हो
अब तक
--शिफाली
जब मैं १३ साल की थी और पापा की तबियत ख़राब होने की वजह से मम्मी पापा को मुम्बई जाकर रहना पड़ा था , तब उनकी बहुत याद आती थी , तो इस तरह से इस पहली कविता का जन्म हुआ
माँ के बिना घर अधूरा लगे , ये कमरा ये दर सूना सूना लगे .
लिपटना चाहें ये बाहें गले से माँ के ,
पर इन बाहों को कोई सहारा न मिले .
माँ के बिना घर......
दूर दूर होने लगे अपने, राहों में बिखरने लगे सपने,
इन सपनों को कोई संजो ना सके ,
माँ के बिना घर....
वो ममता भरी प्यार की बातें , बार बार जब याद आने लगें,
ये जग खोखला सा लगा हमें, आंखों से आंसू बहने लगे ,
माँ के बिना घर अधूरा लगे, ये कमरा ये दर सूना सूना लगे .
--पूजा अनिल
नवभारत टाइम्स हिन्दी दैनिक, नई दिल्ली के 21 मार्च 1976 के अंक में प्रकाशित। जहां तक मुझे याद है और तलाशने पर मिली है यही कविता मेरी पहली कविता है जो कि उस समय माया दीदी को भेजी थी, वे ही उस समय बच्चों के स्तंभ का संपादन करती थीं :-
चाय
चाय नहीं नींदमारक है यह
रोग नहीं रोगनाशक है यह
काम पल में बना देती है यह
सर्दी भी दूर भगा देती है यह
मित्रों को पास बुला देती है यह
क्योंकि -
यही चाय का प्रताप है
अब तो इम्तहान बहुत पास है।
--अविनाश वाचस्पति
एक गांव में ताज़ा बचपन
अमराई पे जुटता था
बौराई चटकी कलियों पे
पागलपन सा लुटता था.
चिकने पीले ढेले लाकर
उनकी हाट जमाता था
पौआ भर गुड़ से भी ज्यादा
उनका मोल लगाता था.
जब नमक लगी रोटी मुट्ठी में
भरकर मजे से खाता था..
तो फसल चाटती हर टिड्डी को
जमकर डांट लगाता था.
अमिया की लंगड़ी गुठली से
सीटी मस्त बजाता था
जब टीले पे बैठा राजा बन
सबपर हुकुम चलाता था.
तो कभी सूर्य तो कभी पवन को
मुर्गा मस्त बनाता था.
कोइ उसके बुढ्ढे चूल्हे में
जब बांसा स्वप्न पकाता था
वो गोबर लिपे चबूतर पे
कोइ ताज़ा स्वांग रचाता था .
एक गांव मे ताज़ा बचपन....
--निखिल सचन
यह कविता संभवत: मैंने सातवीं कक्षा में लिखी थी और यह मेरी सब से पहली कविता या यूं कहिये कुछ लिखने का पहला पर्यास है| पंक्तियाँ जैसीं थीं वैसी ही लिख रहा हूँ 'कविता' में भी बचपना आपको साफ झल्केगा :
दोस्ती
दोस्ती का इजहार करके गधे से भी काम निकलवाती है दोस्ती,
पर जो मरते हैं दोस्ती के लिए कहलाती है वही सच्ची दोस्ती ||
--सोमेश्वर पांडेय
ये हिन्दी गज़ल मैंने अपने कालेज के प्रोफेसर के लिये लिखी थी करीब ८ महीने पहले। क्योंकि वे ६५ वर्ष के होते हुए भी पूरी शक्ति के साथ पढ़ाते थे। वो आजीवन कर्मठ, तेज और संघर्षशील रहे हैं।मैं उनकी कार्यशैली से काफ़ी प्रभावित हुआ।
दर्द के दिन भी क्या बीते मजा आया न जीने में
सुख के अमृत भी जैसे जहर लगे पीने में
ज़िन्दगी का मर्म समझता था तब मैं पल पल
खून बहता था मिलके पसीने में
वो भी क्या दौर था किस्मत को चुनौती दिया करते थे
जोश जज़्बा रग रग बनके दौड़ती थी सीने में
न हाथ पाँव दुखते थे न दिल-दिमाग थकता था
झूमते गाते रहते थहे साल के पूरे महीने में
सुनील कुमार सोनू
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
46 कविताप्रेमियों का कहना है :
पहली कविता, पहला प्रयास, कुछ यादें आपने ताज़ा कर दी, आज इतने सालों बाद पढ़ कर बहुत ही अच्छा लग रहा है, विषय भी बहुत ही अच्छा चुना आपने, धन्यवाद - मैं अपने सभी कवि मित्रों को बधाई देता हूँ - सुरिन्दर रत्ती
aise to sari kavitayen achhi lagin par mujhe "प्रश्न चिन्ह" kavita bahut pasand aayi
ये जग खोखला सा लगा हमें, आंखों से आंसू बहने लगे ,
माँ के बिना घर अधूरा लगे, ये कमरा ये दर सूना सूना लगे .
बहुत सुंदर पूजा जी. माँ के प्रति आप का प्यार भी पूजा सरीखा ही है
| देवेंद्र पांडेय जी चिडिया की चू चू से दिन का उगना और ढलना अच्छा विचार |
2 डा. रमा द्विवेदी
तू क्यों पुरूष के हाथ की,
कथपुतली बन शोषित होती है?
3 अशरफ अली "रिंद" जी हिंद युग्म ने आपकी कविता स्वीकार कर जगह दी और हमे पसंद आई
| ४ ममता गुप्त
बेतहाशा भागते
मन की तरफ देखा तक नही
और आज वही मन
बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया है
लहूलुहान........
बहुत अच्छी पंक्तियाँ
५ रजत बख्शी जी पहली ही कविता इतनी प्रभावशाली है
|६ राजिंदर कुशवाहा
राजी जी आपकी यह ग़ज़ल मैंने पहले भी पढी ,दुबारा हिन्दयुग्म पर पढ़ना बहुत अच्छा लगा |
७. गरिमा तिवारी
जी आपकी कविता पढ़ कर मुझे वो गीत याद आ गया जो मई अक्सर गाती थी अपने पापा के लिए जब मेरे पापा हफ्ते बाद घर आते थे .....सात समंदर पार से ,गुदियो के बाज़ार से ,अच्छी सी गुडिया लाना ,गुडिया चाहे न लाना ,पापा जल्दी आ जाना .....|
८ विनय के जोशी जी
भीख में मिला
एक वस्त्र
जिसमे
धोखों के धागों से
टीसों के टांके लगे हैं
जख्मों से भरी जेब और
तन्हाईयों के तमगे लगे है
एक एक शब्द बोलता है |
९ डा0 अनिल चड्डा जी आपकी बाल अविताओ की भाँती ही यह कविता भी बड़ी प्यारी है |१० यश छाबड़ा जी
दिल के किसी कोने से
उगते हैं कुछ विचार
चूजों की तरह
शब्दों का दाना चुगते हैं
स्याही का रस पीते हैं
मिल जाते हैं जब लय के पंख
ऊड़ जाते हैं खुले आकाश मे
कविता बन कर..
मन को छू गई आपकी छोटी सी कविता |
समयाभाव के कारण बाकी कवितायें अभी नही पढ़ पाई हू ,जल्द ही पढूंगी | सभी कवियों /कवयित्रियों को पहली कविता के प्रकाशित होने पर बधाई.....सीमा सचदेव
काव्य पल्लवन में भाग लेने वाले सभी रचनाकारों को बधाई ,पहली रचना......, सभी के लिए वो एक खास रचना होती है जिसमें कविता का अंकुरण होता है , एक अद्भुत अनुभूति ,एक अनकही खुशी, कुछ साकार कर लेने का एहसास.... ,
सभी की रचनाएं बहुत अच्छी लगी .पुनः बधाई .
प्रशेन क्यावाल जी और राहुल पाठक जी को सुंदर हेडर देने के लिए धन्यवाद .
पुष्पक साहित्यिक पत्रिका का पत्रिका की प्रति भेंट करने का निर्णय स्वागत योग्य है .
हिंद युग्म को काव्य पल्लवन का आयोजन करने के लिए साधुवाद
^^पूजा अनिल
अनुपम प्रस्तुति है पहली कविता विश्व के लिए कवि की पहली भावान्जलि होती है.सभी रचनाये दिल को छू लेने वाली है.डा.रमा द्विवेदी जी की कविता मे नर को भेडिया कहना कितना उचित है. क्या उन्हे सभी नर ऐसे ही मिले है वे सच्चे मन से विचार कर ले. भेडियो मे भी सहायक और सहयोगी मिल जाते है.
वर्ना नर भेडि.ये तुझे,
समूचा ही निगल जाएंगे ।
खोकर अपनी अस्मिता को,
कुछ पा लेना ,
जीवन की सार्थकता नहीं,
आत्म ग्लानि तुझे,
नर्काग्नि में जलायेगी ।
अस्मिता को मजबूती भी नर-नारी मिलकर ही दे सकते है. -सन्तोष गौड राष्ट्प्रेमी
बहुत ही अच्छा संकलन है--कुछ कवितायें बहुत मासूम सी हैं--जैसे चिडियों पर या माँ पर या फ़िर ख़ुद पर और अविनाश जी ने तो चाय पर ही लिख डाली थी---डायरी के पुराने पन्नों से निकली ye सभी कवितायें अच्छी हैं..
सभी प्रतिभागियों को बधाई। कुछ कविताओं में मसूमियत थी तो कुछ इतनी परिपक्व कि लग ही नहीं रहा कि पहली कविता हो सकती है। आशा है कि जो लोग इस काव्यपल्लवन में भाग ले रहे हैं वे हिन्दयुग्म द्वारा कराई जाने वाली मासिक प्रतियोगिता में भी भाग लेंगे.
धन्यवाद
वाह !
खुशी की बात यह है कि रमा जी, गरिमा जी , कुलवंत जी जैसे दिग्गजों को एक साथ पर देख रहा हूँ |
बहुत सफल रहा यह अंक |
-- अवनीश तिवारी
बडा अच्छा लगा ये अंक पढ कर. सारी ही कविताएँ अच्छी हैं पर ममता जी की कविता बेतहाशा भागते
मन की तरफ देखा तक नही
और आज वही मन
बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया है
लहूलुहान........
और पूजा जी की कविता
माँ के बिना घर अधूरा लगे, ये कमरा ये दर सूना सूना लगे .
बहुत ही अच्छी हैं ।
मै पिछले ६-७ महीनो से हिन्द युग्म से जुडा हूँ, मई अंक(काव्य पल्लवन) से पहले मैने सिर्फ एक बार काव्य पल्लवन का अंक पढा था क्योकि एक विषय पर ३० या उससे अधिक कविता पढना काफी कठिन लगता है पर इस बार का विषय इतना अच्छा लगा कि मैने मई अंक के तीनो अंक पढे।
ग्राफिक के बारे मे आपने पिछले अंक मे पूछा था उस ग्राफिक से कविता पढते समय ध्यान भटक(ग्राफिक पर जा) रहा था।
सुमित भारद्वाज।
इस बार ग्राफिक अच्छा लग रहा है
कविता पढने मे कठिनाई नही हो रही
सभी को बधाई
सुमित भारद्वाज
पहली रचनाओं को पढना अपनी ही तरह का अनुभव है, हाँ तपन जी से भी सहमत हूँ कि पुछ रचनायें बेहद परिपक्व प्रतीत होती हैं।...। वैसे कैशोरावस्था के बाद कलम उठाने वाले बहुतायत कवि कच्ची रचनाओ के दौर से स्वत: बाहर होते हैं...
काव्यपल्लवन का यह अंक भी सफल रहा है..
***राजीव रंजन प्रसाद
11 कवि कुलवंत सिंह:-
वह तो जा चुका था
अपने हाथ की खुजली शांत करके,
उस दीन-हीन फटेहाल से
पचास का नोट छीन के ।
किसी अन्य शिकार की टोह में
12 एस. कुमार शर्मा :-हां सर उठाकर जिंदगी, जीना ही स्वाभिमान है
गर मांग हो प्याले जहर, पीना ही स्वाभिमान |
१३ मीनक्षी धनवंतरी जी बहुत ही अच्छा लगा यह पढ़कर की आपने इतनी चोटी आयु मी चिडिया की ची ची से रोमांचित न होकर उसकी कराह को महसूस किया ,तभी से ही आपके अन्दर एक कवि ह्रदय जागृत हो चुका था ,वरना आप सबसे अलग कैसे सोचती | १४ शुभाशीष पाण्डेय जी क्यों बने हुए हो दीन हीन,
क्यों छाई तुम पे ये मायूसी,
वीर को कैसे सुहा सकती है,
कायर सी ये खामोशी,
बहुत अच्छी पंक्तियाँ |१५ शिफ़ाली जी घड़ी भर के लिये औरत बनकर देखो
जान जाओगे
कि तुम
कोख के अंधेरों से
बाहर ही नहीं आये हो
अब तक
पहली ही कविता मी कमाल कर दिया | १६ पूजा अनिल जी लिपटना चाहें ये बाहें गले से माँ के ,
पर इन बाहों को कोई सहारा न मिले |कविता के माध्यम से पहली बार आपको पढ़ने का अवसर मिला और पहली ही कविता भावुक कर दिया की कहने को कोई शब्द ही नही रहे |अविनाश वाचस्पति जी :-चाय नहीं नींदमारक है यह
रोग नहीं रोगनाशक है यह
काम पल में बना देती है यह
सर्दी भी दूर भगा देती है यह
मित्रों को पास बुला देती है यह
क्योंकि -
यही चाय का प्रताप है
अब तो इम्तहान बहुत पास है।
क्या कड़क चाय है |१८ निखिल सचन जी गाव मी ताज़ा बचपन को पढ़कर हमे अपना बचपन याद आ गया जो हमने गाव मी बिताया था | १९ सोमेश्वर पांडेय जी दोस्ती की अच्छी परिभाषा दी है आपने |२० सुनील कुमार सोनुजी अपने गुरु के प्रति ऐसे भाव देखकर अच्छा लगा |
अंत मी हिंद युग्म और सभी कवि /कवयित्रियों को बहुत बहुत बधाई ....सीमा सचदेव
lदेवेन्द्र जी
अच्छा लिखा है.
रमा जी
विजय लक्ष्मी बन,
कर्म में प्रवृत हो,
अपने लक्ष्य तक पहुंच ।
पुरूष के पशु को पराजित कर,
स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,
इसी में तेरे जीवन की,
सार्थकता है,
और
जीवन की महान उपलब्धि भी॥
कमाल की कविता लिखी है
अश्रद अली जी
बेरुखी मंजूर है तेरी और तेरा पर्दा भी,
तैयार हैं तेरे अहसास में होश गंवाने को हम.
अच्छा लिखा है
ममताजी
किसी ने कहा था
दुर्घटना की प्रबल सम्भावना है
ध्यान रक्खो.....
मैं पगली, एक-एक कदम
फूँक-फूँक कर रखती रही
गाङी ध्यान से, चलाती रही
मज़ा आ गया. तुमने टू दिल खुश कर दिया.
rajat ji
खुशबू अपनों की
जो नही मिलती भागम भाग मैं
ठहरते है जब एक पल हम
त्ताब याद हम्हे सताती है
जब समय चक्र चल जाता है
बधाई
राजिन्दर जी
अच्छा लिखा है।
गरिमा जी
आपकी कविता में बचपन का भोलापन है। पढ़कर आनन्द आगया।
विनय जी
अनमोल है यह
समझ मेरी
कीमत न इसकी
आंक पाती है
क्यूंकि कभी कभी
नजर उनकी
सुई सी चुभती हुई
सुख का एक
बटन टांक जाती है |
बहुत ही सुन्दर और प्रभावी
अनिल जी
मृत्यु बंद है बोतल में,
ज़हर के रुप में !
जीवन बंद है बोतल में,
दवा के रूप में !
रिश्वत बंद है बोतल में,
बहुत ही सुन्दर और प्रभावी
यश जी
दिल के किसी कोने से
उगते हैं कुछ विचार
चूजों की तरह
शब्दों का दाना चुगते हैं
सुन्दर
कुलवन्त जी
लेकिन वह पुलिसमैन
उसकी बात कहाँ सुन रहा था
वह तो जा चुका था
अपने हाथ की खुजली शांत करके,
उस दीन-हीन फटेहाल से
पचास का नोट छीन के ।
किसी अन्य शिकार की टोह में
बहुत अच्छी कल्पना है।
एस कुमार जी
यह है तो इस ब्रम्हाण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है
बढ़िया लिखा है।
मीनाक्षी जी
कब मानव में प्रेम-पुष्प खिलेगा ?
कब दानव मानव-मन से डरेगा ?
कब ज्ञान विज्ञान हित हेतु मिलेगा ?
क्या उत्तर इस प्रश्न का मिलेगा ?
बेहद खूबसूरत कल्पना है।
शुभाशीष जी
आंधी में दीप जल जायेंगे,
मन में हो सच्ची लगन अगर,
पत्थर पे फूल खिल जायेंगे|
तो,
क्यों बने हुए हो दीन हीन,
क्यों छाई तुम पे ये मायूसी,
वीर को कैसे सुहा सकती है,
कायर सी ये खामोशी,
अच्छा लिखा है।
शिफाली जी
बदल लूँ ,
अपनी सोच और हालात,
लेकिन तुम कब तक
गर्त में पड़े रहोगे
और तुम्हारे ज़ेहन से आती रहेगी
सड़ाँध
घड़ी भर के लिये औरत बनकर देखो
सबसे अधिक प्रभावित किया आपने। बधाई
पूजा जी
वो ममता भरी प्यार की बातें , बार बार जब याद आने लगें,
ये जग खोखला सा लगा हमें, आंखों से आंसू बहने लगे ,
माँ के बिना घर अधूरा लगे, ये कमरा ये दर सूना सूना लगे .
बहुत ही खूभसूरत लिखा है।
अविनाश जी
चाय नहीं नींदमारक है यह
रोग नहीं रोगनाशक है यह
काम पल में बना देती है यह
सर्दी भी दूर भगा देती है यह
मित्रों को पास बुला देती है यह
बहुत सुन्दर
निखिल जी
एक गांव में ताज़ा बचपन
अमराई पे जुटता था
बौराई चटकी कलियों पे
पागलपन सा लुटता था.
चिकने पीले ढेले लाकर
प्रभावी लिखा है।
सोमेश्वर जी
दोस्ती पर अच्छा लिखा है।
राजिन्दर जी
अच्छा लिखा है।
गरिमा जी
आपकी कविता में बचपन का भोलापन है। पढ़कर आनन्द आगया।
विनय जी
अनमोल है यह
समझ मेरी
कीमत न इसकी
आंक पाती है
क्यूंकि कभी कभी
नजर उनकी
सुई सी चुभती हुई
सुख का एक
बटन टांक जाती है |
बहुत ही सुन्दर और प्रभावी
अनिल जी
मृत्यु बंद है बोतल में,
ज़हर के रुप में !
जीवन बंद है बोतल में,
दवा के रूप में !
रिश्वत बंद है बोतल में,
बहुत ही सुन्दर और प्रभावी
यश जी
दिल के किसी कोने से
उगते हैं कुछ विचार
चूजों की तरह
शब्दों का दाना चुगते हैं
सुन्दर
कुलवन्त जी
लेकिन वह पुलिसमैन
उसकी बात कहाँ सुन रहा था
वह तो जा चुका था
अपने हाथ की खुजली शांत करके,
उस दीन-हीन फटेहाल से
पचास का नोट छीन के ।
किसी अन्य शिकार की टोह में
बहुत अच्छी कल्पना है।
एस कुमार जी
यह है तो इस ब्रम्हाण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है
बढ़िया लिखा है।
मीनाक्षी जी
कब मानव में प्रेम-पुष्प खिलेगा ?
कब दानव मानव-मन से डरेगा ?
कब ज्ञान विज्ञान हित हेतु मिलेगा ?
क्या उत्तर इस प्रश्न का मिलेगा ?
बेहद खूबसूरत कल्पना है।
शुभाशीष जी
आंधी में दीप जल जायेंगे,
मन में हो सच्ची लगन अगर,
पत्थर पे फूल खिल जायेंगे|
तो,
क्यों बने हुए हो दीन हीन,
क्यों छाई तुम पे ये मायूसी,
वीर को कैसे सुहा सकती है,
कायर सी ये खामोशी,
अच्छा लिखा है।
शिफाली जी
बदल लूँ ,
अपनी सोच और हालात,
लेकिन तुम कब तक
गर्त में पड़े रहोगे
और तुम्हारे ज़ेहन से आती रहेगी
सड़ाँध
घड़ी भर के लिये औरत बनकर देखो
सबसे अधिक प्रभावित किया आपने। बधाई
पूजा जी
वो ममता भरी प्यार की बातें , बार बार जब याद आने लगें,
ये जग खोखला सा लगा हमें, आंखों से आंसू बहने लगे ,
माँ के बिना घर अधूरा लगे, ये कमरा ये दर सूना सूना लगे .
बहुत ही खूभसूरत लिखा है।
अविनाश जी
चाय नहीं नींदमारक है यह
रोग नहीं रोगनाशक है यह
काम पल में बना देती है यह
सर्दी भी दूर भगा देती है यह
मित्रों को पास बुला देती है यह
बहुत सुन्दर
निखिल जी
एक गांव में ताज़ा बचपन
अमराई पे जुटता था
बौराई चटकी कलियों पे
पागलपन सा लुटता था.
चिकने पीले ढेले लाकर
प्रभावी लिखा है।
सोमेश्वर जी
दोस्ती पर अच्छा लिखा है।
राजिन्दर जी
अच्छा लिखा है।
गरिमा जी
आपकी कविता में बचपन का भोलापन है। पढ़कर आनन्द आगया।
विनय जी
अनमोल है यह
समझ मेरी
कीमत न इसकी
आंक पाती है
क्यूंकि कभी कभी
नजर उनकी
सुई सी चुभती हुई
सुख का एक
बटन टांक जाती है |
बहुत ही सुन्दर और प्रभावी
अनिल जी
मृत्यु बंद है बोतल में,
ज़हर के रुप में !
जीवन बंद है बोतल में,
दवा के रूप में !
रिश्वत बंद है बोतल में,
बहुत ही सुन्दर और प्रभावी
यश जी
दिल के किसी कोने से
उगते हैं कुछ विचार
चूजों की तरह
शब्दों का दाना चुगते हैं
सुन्दर
कुलवन्त जी
लेकिन वह पुलिसमैन
उसकी बात कहाँ सुन रहा था
वह तो जा चुका था
अपने हाथ की खुजली शांत करके,
उस दीन-हीन फटेहाल से
पचास का नोट छीन के ।
किसी अन्य शिकार की टोह में
बहुत अच्छी कल्पना है।
एस कुमार जी
यह है तो इस ब्रम्हाण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है
बढ़िया लिखा है।
मीनाक्षी जी
कब मानव में प्रेम-पुष्प खिलेगा ?
कब दानव मानव-मन से डरेगा ?
कब ज्ञान विज्ञान हित हेतु मिलेगा ?
क्या उत्तर इस प्रश्न का मिलेगा ?
बेहद खूबसूरत कल्पना है।
शुभाशीष जी
आंधी में दीप जल जायेंगे,
मन में हो सच्ची लगन अगर,
पत्थर पे फूल खिल जायेंगे|
तो,
क्यों बने हुए हो दीन हीन,
क्यों छाई तुम पे ये मायूसी,
वीर को कैसे सुहा सकती है,
कायर सी ये खामोशी,
अच्छा लिखा है।
शिफाली जी
बदल लूँ ,
अपनी सोच और हालात,
लेकिन तुम कब तक
गर्त में पड़े रहोगे
और तुम्हारे ज़ेहन से आती रहेगी
सड़ाँध
घड़ी भर के लिये औरत बनकर देखो
सबसे अधिक प्रभावित किया आपने। बधाई
पूजा जी
वो ममता भरी प्यार की बातें , बार बार जब याद आने लगें,
ये जग खोखला सा लगा हमें, आंखों से आंसू बहने लगे ,
माँ के बिना घर अधूरा लगे, ये कमरा ये दर सूना सूना लगे .
बहुत ही खूभसूरत लिखा है।
अविनाश जी
चाय नहीं नींदमारक है यह
रोग नहीं रोगनाशक है यह
काम पल में बना देती है यह
सर्दी भी दूर भगा देती है यह
मित्रों को पास बुला देती है यह
बहुत सुन्दर
निखिल जी
एक गांव में ताज़ा बचपन
अमराई पे जुटता था
बौराई चटकी कलियों पे
पागलपन सा लुटता था.
चिकने पीले ढेले लाकर
प्रभावी लिखा है।
सोमेश्वर जी
दोस्ती पर अच्छा लिखा है।
सुनील जी
वो भी क्या दौर था किस्मत को चुनौती दिया करते थे
जोश जज़्बा रग रग बनके दौड़ती थी सीने में
न हाथ पाँव दुखते थे न दिल-दिमाग थकता था
झूमते गाते रहते थहे साल के पूरे महीने में
बहुत बढ़िया लिखा है।
प्रिय 'हिन्दयुगम के सम्पादाक गण' और पाठको,
मै हिन्दयुग्म का दिल से शुक्रगुज़ार हूं कि उन्होने मेरी यह गज़ल "खुदकुशी करनी है गर तो ख़ुदकुशी कर लिज़ीए--------" प्राकाशित की है. यह गज़ल मैने ९/११ घटना के बाद लिखी थी. सन २००१ की लिखी यह गज़ल है. यह सही में मेरी पहली कोशिश थी 'हिन्दोस्तानी' में लिखने की. 'हिन्दोस्तानी' से मेरे माने है 'देवनागरी' लिपि और हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, डोगरी, भोजपुरी व 'राज्स्थानी' भाषाओं की शब्दावली. मै आम तौर पे अन्ग्रेज़ी भाषा में लिखता था---मगर मुझे 'शयरो-शायरी' करने का शौक था---मैं बठिन्डा, पंजाब में कार्यरत था---९/११ के उपर मैने यह गज़ल जब सुनाई तो उन्होने लिखने को कहा---मैने इसे 'रोमन हिन्दी' में लिखा--फिर--देवनागरी में टाईप करवाया--बस यह सिलसिला चल पडा. मै उस बुजुर्ग दोस्त--जी एस भुल्लर---- उम्र लघभग ८५ साल--जिसने मुझे इसके लिये उकसाया था-- का बहुत ही बडा शुकक्रगुज़ार हूं------- वह अब भी बठिन्डा में ही है.
फिर 'सुलेखा' पे 'सीमा सच्चदेव' से मुलाकात हुई--वह तो हिन्दी मे बहुत ही अच्छा लिखती है--उन्होने मुझे 'हिन्दयुगम' आने के लिए प्रोत्साहित किया--और हमने भेज़ दी अपनी पहली कविता-आपको शायद यह अच्छी न लगे क्योंकि 'उर्दू' के बहुत सारे अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किये गए है. आज हालत यह है कि मै ने अन्ग्रेजी में लिखना तकरीबन बंद कर दिया है--बस हिन्दोस्तानी में ही लिखता हूं.मै 'सीमा जी'आपका और 'यश भाई' का बहुत शुक्रिया कर्ना चाह्ता हूं. आपने लिखने के लिए हौसला बढ़ाया--और 'यश भाई' ने हिन्दी में टाईप करने की बिधी सिखाई.
मै अपने सभी 'हिन्दयुगम' के दोस्तों से यह गुजारिश करूंगा कि हिन्दी को एक आम भाषा बनाने के लिए इसका 'संस्कृतीकरण' त्याग दे. सरल और आम बोल-चालकी भाषा का ज्यादा प्रयोग करें. मै अपनी कृतीयां भेजता रहूंगा--आशा करता हूं कि प्राकाशित होंगी
एक दफ़ा फिर धन्यावाद.
आपका मित्र
राजेन्द्र सिंह 'क़ुशवाहा' (राज़ी क़ुशवाहा)
कुशवाहा जी,
हिन्दयुग्म आपका स्वागत करता है। आप चाहें उर्दू में लिखें या हिन्दी में, 'युग्म' पर दोनों ही तरह की कवितायें, गज़ल इत्यादि प्रकाशित होते रहते हैं। तो आप जिस किसी में भी लिखना चाहें लिखिये। यहाँ कोई बंदिश नहीं, बल्कि यहाँ तो नेपाली में भी कवितायें प्रकाशित होती हैं। 'युग्म' का एक मकसद यह भी है कि वो हर भाषा के साहित्य को हिन्दी से जोड़े। इससे साहित्य का विकास ही होगा।
धन्यवाद।
आदरणीय महोदय/ महोदया जी,
सादर नमस्कार,
सबसे पहले मैं आपको इस सार्थक प्रयास के लिए बधाई देना चाहता हूँ. आपके इस कार्य से लोगों को अपनी लिखी कवितायें भेजने का मौका मिला. उनको दूसरो को पढाने का अवसर मिला.
मैंने सभी कविताओं को पढ़ा. मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया गरिमा जी और पूजा जी की कविताओं ने. इन कविताओं में कभी अपना बचपन भी नजर आया. आँखें द्रवित हो गई. आप दोनों को मेरी शुभ कामनाएं.
बाकी सभी कवियों की कविताओं ने आनंदित किया. क्योंकि, मैं समीक्षा करने की योग्यता नही रखता हूँ, गुणवत्ता पर टिप्पणी करने में असमर्थ हूँ.
पुनः सभी को शुभ कामनाओं के साथ,
रजनीश दीक्षित
E-mail : rajnish.com@gmail.com
कवि को कविता से प्रिय क्या
अपनी हो तो पूछना ही क्या
पहली हो-तो शेष क्या
छपी हो--वाह भाई वाह--वाह भाई वाह--वाह भाई वाह।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
devendra ji
सर्दी--गर्मी सब सह लेती
उसकी मेहनत के क्या कहने
चूँ -- चूँ करती सो जाती है
शाम ढले नित रैन--बिछौने।
bahut sundar ashavadi,bachpan yaad aagaya
ramaji
पुरूष के पशु को पराजित कर,
स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,
इसी में तेरे जीवन की,
सार्थकता है,
bahut sahi baat,sundar
ashraff ali ji
तू है की पल भर भी नहीं भूलता हमें,
यहाँ याद भी करते हैं दिल बहलाने हम.
बेरुखी मंजूर है तेरी और तेरा पर्दा भी,
तैयार हैं तेरे अहसास में होश गंवाने को हम.
bahut hi badhiya
mamta ji
मन की तरफ देखा तक नही
और आज वही मन
बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया है
लहूलुहान........
छटपटाता हुआ ..........
कोई भीङ नही जुटी
कोई सहानुभुति नही
कोई मुआवजा नही
फिर भी
दुर्घटना तो घटी ?
sahi hai mann par sayam hona chahiye
rajat ji
अफ़सोस और कुछ न कर पाते हम
भागमभाग की समीकरण का
हिस्सा बन रह जाते हम
जो सुलझ गया वो निकल गया
जो उलझ गया
वो बिखर गया !
sahi hai,jeevan yahi hai,badhai
rajindar ji
किसका मज़हव अच्छा है, किसकी है यह कौम बडी?
सदीयों से पुरूखों ने भी इस मौज़ू पे है ज़न्ग लडी;
इन्सान तो सब एक है, आप नाम कुछ भी दीजीए;
बांट लो खेमों में "राजी", ज़ान तो न लीजीए.
खुदकुशी करनी है गर तो खुदकुशी कर लिजीए,
इल्तज़ा इतनी है लेकिन ज़हर सब को न दीजीए.
bahut gehri baat kahi sundar
garimaji
लिख देना जल्दी से खत मे
पापा आप कब आओगे
कपडे खिलौने भले ना लाना
जल्दी से आप आ जाना....
papa ki gudiya ki kavita bahut pyari hai.
vinay ji
क्यूंकि कभी कभी
नजर उनकी
सुई सी चुभती हुई
सुख का एक
बटन टांक जाती है |
kuch hadse yaad mein reh jate hai bahut khub
dr.anil ji
मृत्यु बंद है बोतल में,
ज़हर के रुप में !
जीवन बंद है बोतल में,
दवा के रूप में !
bahut sahi chitran badhai
yash ji wah bahut badhiya
चूजों की तरह
शब्दों का दाना चुगते हैं
स्याही का रस पीते हैं
मिल जाते हैं जब लय के पंख
ऊड़ जाते हैं खुले आकाश मे
कविता बन कर..
kavi kulwant ji,vastavikta bayan karti sundar kavita
कहते हुए वह कांप रहा था,
"आज छोड़ दे मेरे भाई, मेरे खुदा
फिर कभी ले लेना -
पचास के बदले सौ ।
पाँव पड़ता हूँ तेरे
"लेकिन वह पुलिसमैन
उसकी बात कहाँ सुन रहा था
वह तो जा चुका था
अपने हाथ की खुजली शांत करके,
उस दीन-हीन फटेहाल से
पचास का नोट छीन के ।
किसी अन्य शिकार की टोह में
kumar sharma ji,wah sahi khari baat kahi
हां सर उठाकर जिंदगी, जीना ही स्वाभिमान है
गर मांग हो प्याले जहर, पीना ही स्वाभिमान है
यह है तो इस ब्रम्हाण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है
meenakshi ji,do no kavita kuch sochne ko majboor karti
यह प्रश्न चिन्ह है लगा हुआ !!!!
क्या मानव का बढ़ता ज्ञान
क्या कदम बढ़ाता विज्ञान !
क्या बढ़ता ज्ञान और विज्ञान
मन से मन को दूर कर रहा !
bahut hi badhiya
shubashish ji
साहस की तुम में कमी नहीं,
हार रहे थे अब तक लेकिन,
अभी लड़ाई थमी नहीं|
हर एक लड़ाई जीतोगे,
आज ही ये संकल्प करो,
अपने न सही औरो के लिए,
संसार का काया-कल्प करो|
bahut hi khubsurat aasha vadi
shaifali ji
bahut hi gehri baat kahi sahi hai
घड़ी भर के लिये औरत बनकर देखो
जान जाओगे
कि तुम
कोख के अंधेरों से
बाहर ही नहीं आये हो
अब तक
pooja ji bahut hi bhavuk kavita badhai,maa sa koi nahi duniya mein
दूर दूर होने लगे अपने, राहों में बिखरने लगे सपने,
इन सपनों को कोई संजो ना सके ,
माँ के बिना घर....
वो ममता भरी प्यार की बातें , बार बार जब याद आने लगें,
avinash ji,wah chai ke gunbahut khub kahe
काम पल में बना देती है यह
सर्दी भी दूर भगा देती है यह
मित्रों को पास बुला देती है यह
क्योंकि -
यही चाय का प्रताप है
अब तो इम्तहान बहुत पास है।
nikhil ji,kya kahu masum bachpan ki tasvir samne aagayi behad sundar
एक गांव में ताज़ा बचपन
अमराई पे जुटता था
बौराई चटकी कलियों पे
पागलपन सा लुटता था.
चिकने पीले ढेले लाकर
उनकी हाट जमाता था
पौआ भर गुड़ से भी ज्यादा
उनका मोल लगाता था.
someshwar ji bahut hi badhiya gazal
वो भी क्या दौर था किस्मत को चुनौती दिया करते थे
जोश जज़्बा रग रग बनके दौड़ती थी सीने में
न हाथ पाँव दुखते थे न दिल-दिमाग थकता था
झूमते गाते रहते थहे साल के पूरे महीने में
bahut badhai
sunil kumar ji,mafi chahungi aapki gazal par someshwar ji ka naam aagaya galti se
वो भी क्या दौर था किस्मत को चुनौती दिया करते थे
जोश जज़्बा रग रग बनके दौड़ती थी सीने में
न हाथ पाँव दुखते थे न दिल-दिमाग थकता था
झूमते गाते रहते थहे साल के पूरे महीने में
bahut hi khubsurat gazal hai aapki,sorry again.
someshwar ji choti si kavita mein kitn sacchi baat kahi,dosti ishwar ki nemat hai,bahut hi sundar
दोस्ती का इजहार करके गधे से भी काम निकलवाती है दोस्ती,
पर जो मरते हैं दोस्ती के लिए कहलाती है वही सच्ची दोस्ती ||
aapse bhi mafi chahungi galti se aapka naam dusre kavita par likh diya tha.
सर्व प्रथम हिन्दयुग्म काव्य्पल्ल्वन को सहृदय धन्यवाद करती हूँ जो उन्होंने "कवि की पहेली कविता" का विषय के रूप मे चयन किया है ऐसा करने से सभी कविमन उस पुराने से खुशबुओं से महकने वाली बगीचों मे भटक गए होंगे जहाँ से वापस आने का मन ही नही करता."पहला प्यार" "पहली कविता" "पहली सफलता" " पहला पुरस्कार" "पहली सहेली"...............बात ही कुछ और है.
मैत्रेयी
बचपन से ही नारी के विषय मे लेख व कवितायेँ पढ़ती आरही हूँ.पाठ्यपुस्तकों मे और अन्य पुस्तकों मे भी. आज फ़िर रमा जी की कविता को पढ़कर स्वयं से यानी नारी से परिचित होने का फ़िर एक बार मौका मिला .कविता मे विचारों को व्यक्त करने का ढंग बहुत सुंदर है
बहुत ही सुंदर संकलन है.. सभी कवितायें अलग अलग रूप रंग लिए हुए हैं..सभी कवियों को बधाई.
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