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20 और पहली कविताएँ







काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन




विषय - पहली कविता (भाग-3)

विषय-चयन - अवनीश गौतम

अंक - पंद्रह

माह - मई 2008





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पहली कविता के प्रकाशन के बाद बहुत से रोचक तथ्य खुलकर सामने आये हैं। हर कवि के लिए कविता लिखने का कारण अलग-अलग है। लेकिन कितना सुखद है कि कविमन का अत्यधिक संवेदनशील होना ही, उसमें कविता का बीज रोप पाया है! इस बार, एक कवयित्री मीनाक्षी धनवंतरि ने अपनी दो ऐसी प्रारम्भिक कविताएँ भेजीं कि हमारे लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो गया कि कौन सी प्रकाशित करें कौन नहीं। आखिरकार हमने भी पाठकों पर छोड़ दिया है।

इस बार हम काव्य-पल्लवन के प्रतिभागियों के लिए एक उद्घोषणा लेकर उपस्थित हैं। हैदराबाद से हिन्दी की एक साहित्यिक पत्रिका (छमाही) प्रकाशित होती है 'पुष्पक' जिसकी संपादिका हैं डॉ॰ अहिल्या मिश्रा और डॉ॰ रमा द्विवेदीमई माह के काव्य-पल्लवन के इस विशेषांक में भाग लेने वाले ३० भाग्यशाली कवियों को इस पत्रिका के वर्ष 2007 (प्रथम) अंक की एक-एक प्रति भेंट की जायेगी। तो यदि अभी तक आप अपनी प्रथम कविता न भेज पायें हों तो कृपया जल्द से जल्द भेजें और अपने मित्र कवियों/कवयित्रियों को भी इसकी सूचना दें।

यदि हमारे पाठकों में से कोई अपनी पसंद की कोई साहित्यिक कृति प्रदान करना चाहे या आप किसी पत्रिका के संपादक हों, किसी पुस्तक के संपादक हों और अपनी कृति भेंट करना चाहें, तो कृपया hindyugm@gmail.com पर संपर्क करे।

अब तक 'काव्य-पल्लवन पहली कविता विशेषांक' के दो भाग प्रकाशित हो चुके हैं, जिन्हें निम्न सूत्रों ने पढ़ा जा सकता हैं-




आज http://merekaviimitra.blogspot.com को पहली कविता का रूप देने में अपना हुनर दिखाया है हमारे सहयोग प्रशेन क्यावाल ने अपनी कंपनी वेब एंड मीडिया लिमिटेड द्वारा। मुख-पृष्ठ का हेडर बनाया है राहुल पाठक ने।

शेष अच्छा-बुरा तो पाठकों की प्रतिक्रियाएँ बतायेंगी।

आपको यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतावें।

*** प्रतिभागी ***
| देवेंद्र पांडेय | डा. रमा द्विवेदी | अशरफ अली "रिंद" | ममता गुप्ता | रजत बख्शी |राजिंदर कुशवाहा | गरिमा तिवारी | विनय के जोशी | डा0 अनिल चड्डा | यश छाबड़ा | कवि कुलवंत सिंह |
| एस. कुमार शर्मा | मीनाक्षी धनवंतरि | शुभाशीष पाण्डेय | शिफ़ाली | पूजा अनिल | अविनाश वाचस्‍पति | निखिल सचन | सोमेश्वर पांडेय | सुनील कुमार सोनू


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धर्मयुग-हिन्दुस्तान-कादम्बिनी पढ़ते-पढ़ते मैं कब कविता लिखने लगा मुझे नहीं पता । निश्चित रूप से मेरी पुरानी डायरी में जो कविताएं हैं वे १७-१८ वर्ष की उम्र से पहले की नहीं हैं। उसी समय की एक कविता भेज रहा हूँ जिसे आप पहली कविता मान सकते हैं।

चिड़िया

चूँ -- चूँ करती चिड़िया कहती
सूरज निकला चलो पकड़ने
तिनका-तिनका जुटा-जुटा कर
महल सजालें उसको रखने।
सर्दी--गर्मी सब सह लेती
उसकी मेहनत के क्या कहने
चूँ -- चूँ करती सो जाती है
शाम ढले नित रैन--बिछौने।

--देवेंद्र पांडेय






मैंने अपनी पहली कविता १९८७ में लिखी थी....
आधुनिक नारी के नाम

नारी तू जगजननी है,जगदात्री है,
तू दुर्गा है ,तू काली है,
तुझमें असीम शक्ति भंडार,
फ़िर क्यों इतनी असहाय, निरूपाय,
याद कर अपने अतीत को,
तोड.कर रूढियों-
बंधनों एवं परम्पराओं को.
आंख खोल कर देख,
दुनिया का नक्शा ,
कुछ सीख ले,
वर्ना पछ्तायेगी,
तू सदियों पीछे,
पहुंचा दी जायेगी ।

तू क्यों पुरूष के हाथ की,
कथपुतली बन शोषित होती है?
तू दुर्गा बन, तू महालक्ष्मी बन
तू क्यों भोग्या समर्पिता बनती है?
यह पुरूष स्वयं में कुछ भी नहीं,
सब तूने ही है दिया उसे,
वही तुझे आज शोषित कर,
अन्याय और अत्याचार कर,
तुझे विवश करता है,
अस्मिता बेचने के लिए,
और तू निर्बल बन,
घुटने टेक देती है
क्यों???
क्या तू इतनी निर्बल है?
अगर ऎसा है-
तो घर में ही बैठो,
बाहर निकलने की-
जरूरत नहीं,
पर यह मत भूलो कि-
घर में भी तेरा शोषण होगा ही
फर्क होगा सिर्फ़ ,
हथियारों के इस्तेमाल में ।
तूने इतने त्याग- कष्ट सहे हैं-
किसके लिए?
अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की,
रक्षा के लिए,
या
दूसरो के लिए?
सोच ले तू कहां है?
सब कुछ देकर,
तेरे पास अपना,
क्या बचा है?
कुछ पाने के लिए संघर्ष कर ।
भौतिक सुखों को त्याग कर,
नर-पाश्विकता से जूझ कर,
स्वयं अपने पथ का निर्माण कर,
अपनी योग्यता से आगे बढ. ।
मत सह पुरूष के अत्याचार,
द्ढ. संकल्प लेकर,
बढ. जा जीवन पथ पर,
निराश न हो,
घबरा कर कर्म पथ से,
विचलित न हो,
तू अडिग रह, अटल रह,
अपने लक्ष्य पर,
तेरी विजय निश्चित है ।

तू अपनी "पहचान" को,
विवशता का रूप न दे,
वर्ना नर भेडि.ये तुझे,
समूचा ही निगल जाएंगे ।
खोकर अपनी अस्मिता को,
कुछ पा लेना ,
जीवन की सार्थकता नहीं,
आत्म ग्लानि तुझे,
नर्काग्नि में जलायेगी ।
इसलिए तू सजग हो जा,
तू इन्दिरा ,गार्गी, मैत्रेयी,
विजय लक्ष्मी बन,
कर्म में प्रवृत हो,
अपने लक्ष्य तक पहुंच ।
पुरूष के पशु को पराजित कर,
स्वयं की महत्ता उदघाटित कर,
इसी में तेरे जीवन की,
सार्थकता है,
और
जीवन की महान उपलब्धि भी॥

--डा. रमा द्विवेदी






ये मैंने जनवरी २००३ में लिखी थी जब मैं एक संस्था के जरिये बार्ड्र पर एक टीचर की हैसियत से था...
वहाँ वहीं पर किसी फ़कीर से दोस्ती हो गई.. फ़िर बस मेडिटेशन करना शुरु हुआ और उसी दौरान ये कविता लिखी..
एक उर्दू पत्रिका में भेजी थी पर वापस लौटा दी गई..

मार के सिर मस्जिद और बुतखाने को हम
चले हैं आज फिर से तेरे मैखाने को हम.

सुना है तेरी मस्ती जाती नहीं कभी,
तिशनगी लिए आये हैं तुझे आजमाने को हम.

तू है की पल भर भी नहीं भूलता हमें,
यहाँ याद भी करते हैं दिल बहलाने हम.

बेरुखी मंजूर है तेरी और तेरा पर्दा भी,
तैयार हैं तेरे अहसास में होश गंवाने को हम.

रख लिए हैं हजारों नाम दुनिया ने,
खोज लेंगे हजारों बहाने तेरे क़रीब आने को हम.

बना ले "रिंद" हमें भी अपनी महफ़िल का,
दर जा के अब मिला है सर झुकाने को.

--अशरफ अली "रिंद"





किसी ने कहा था
दुर्घटना की प्रबल सम्भावना है
ध्यान रक्खो.....
मैं पगली, एक-एक कदम
फूँक-फूँक कर रखती रही
गाङी ध्यान से, चलाती रही
लेकिन.....
बेतहाशा भागते
मन की तरफ देखा तक नही
और आज वही मन
बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया है
लहूलुहान........
छटपटाता हुआ ..........
कोई भीङ नही जुटी
कोई सहानुभुति नही
कोई मुआवजा नही
फिर भी
दुर्घटना तो घटी ?

--ममता गुप्ता






खुशबू अपनों की
जो नही मिलती भागम भाग मैं
ठहरते है जब एक पल हम
त्ताब याद हम्हे सताती है
जब समय चक्र चल जाता है
टैब सोच बची रह जाती है
इक्छाएं ज्यादा होती है
पर समय गुजर जाता है
अफ़सोस और कुछ न कर पाते हम
भागमभाग की समीकरण का
हिस्सा बन रह जाते हम
जो सुलझ गया वो निकल गया
जो उलझ गया
वो बिखर गया !

--रजत बख्शी






खुदकुशी करनी है गर तो खुदकुशी कर लिजीए,
इल्तज़ा इतनी है लेकिन ज़हर सब को न दीजीए.

जिन्दगी कितनी हसीन, यह तुम समझ पायो नही,
आग नफरत की लगी है आपके दिल मे कहीं;
रोक लो नफरत की आंधी, कुछ रहम तो कीजीए--
प्यार की बरसात से यह आग बुझने दीजीए.
खुदकुशी करनी है गर तो खुदकुशी कर लिजीए,

क़िसकी यह ज़मीन है और किसका आसमान है?
इन सवालों का जवाब खुद से ही परेशान है;
फिर भी इनको अपना कह के, ज़हर यह न पीजीए.
मौत के व्यापार यह कहर तो न किजीए.
खुदकुशी करनी है गर तो खुदकुशी कर लिजीए,

किसका मज़हव अच्छा है, किसकी है यह कौम बडी?
सदीयों से पुरूखों ने भी इस मौज़ू पे है ज़न्ग लडी;
इन्सान तो सब एक है, आप नाम कुछ भी दीजीए;
बांट लो खेमों में "राजी", ज़ान तो न लीजीए.
खुदकुशी करनी है गर तो खुदकुशी कर लिजीए,
इल्तज़ा इतनी है लेकिन ज़हर सब को न दीजीए.

--राजिंदर कुशवाहा






तब मै कक्षा ६ की छात्रा थी। जो मैने अपने पापा जी को खत लिखा था वो १ साल तक घर वापस नही आए थे, इस से मै बहुत दुखी थी...वो क्या था कि मेरे तेज होने के कारण मेरा एड्मिशन सीधे कक्षा ३ से ६ मे कर दिया गया था, लेकिन असल मे दिमाग से कच्ची ही थी, मुझे हमेशा पापा जी की याद आती.. तब मैने उन्हे खत लिखके बुलाना चाहा था.. लेकिन पोस्ट-अफ़िस दुर था और मै छोटी सी... खत उनको तब मिला, जब वो वापस घर आये :), तब मुझे यह भी नही पता था कि मैने कविता लिखी है... ये तो पापा जी ने ही बताया कि अर्रे गुडिया ने तो कविता लिखी है|

पापा आप कब आओगे?
मेरी आँखे तरसी अब तो
बीत गये बरसो अब तो
सुखी धरती, सुखा सा मन
हमको कब हरषाओगे?
पापा आप कब आओगे?
भीगी पलके है मम्मी की
चुप-चुप सी वो रहती है
कई राते जगकर उनकी
आँखो-आँखो मे ही कटती है
दिन भर दादी की खिटपिट
मुझको सुननी पडती है,
रोता है मन, पुछ्ता है मन
पाप आप कब आओगे?
कहकर गये थे, कि
जल्दी आऊँगा, खुब खिलौने-
कपडे लाऊँगा
पर पापा आप यूँ ही आ जाओ
देर न करो, जल्दी आ जाओ
नही चाहिये, वो सारी चीजे
चाहिये बस प्यारे पापा
पापा आप कब आओगे?
स्टेशन पर जब भी कोई
गाडी सीटी बजाती है
लगता है जैसे, आपके
आने की खबर लाती है
बीत जाते है फ़िर घन्टे वैसे
सहपाठी मुझे चिढाते हैं
नही आयेंगे, पाप
कहकर मुझे रूलाते है...
पुछ रहा है दिल मेरा
लिख देना जल्दी से खत मे
पापा आप कब आओगे
कपडे खिलौने भले ना लाना
जल्दी से आप आ जाना....

--गरिमा तिवारी






घर से डांट खा, बस्ता उठा भूखे पेट, कक्षा की पिछली पंक्ति में बैठे, एक किशोर की एक हददर्द से नजर टकराने से अंकुरित हुई थी यह कविता | न जाने वह किशोर कहाँ खो गया | जब भी उसकी याद आती है आँख भर आती है|

जीवन

भीख में मिला
एक वस्त्र
जिसमे
धोखों के धागों से
टीसों के टांके लगे हैं
जख्मों से भरी जेब और
तन्हाईयों के तमगे लगे है
फ़िर भी
अनमोल है यह
समझ मेरी
कीमत न इसकी
आंक पाती है
क्यूंकि कभी कभी
नजर उनकी
सुई सी चुभती हुई
सुख का एक
बटन टांक जाती है |

--विनय के जोशी





मैं आपका आभारी हूँ कि आपके कारण मुझे अपनी पुरानी कविताओं को ढ़ूँढ निकालने की प्रेरणा मिली । निम्नलिखित कविता , जिसे मैंने शायद 14-15 वर्ष की उम्र में रचा था और जो मेरी पहली कविताओं में से एक है, को बड़े परिश्रम से ढ़ूँढ निकाला है । अपनी कविता मैं काव्यपल्लवन के 'पहली कविता' के विशेषांक के लिये प्रेषित कर रहा हूँ ।

"बोतल में !"

मृत्यु बंद है बोतल में,
ज़हर के रुप में !
जीवन बंद है बोतल में,
दवा के रूप में !
रिश्वत बंद है बोतल में,
शराब के रुप में !
बेईमानी बंद है बोतल में,
झूठे लेबल के रुप में !
पैसा बंद है बोतल में,
मिलावट के रुप में !
और तो और,
डेमोक्रेसी बंद है बोतल में,
वोट के रुप में !

-- डा0 अनिल चड्डा






यूं बनी कविता

दिल के किसी कोने से
उगते हैं कुछ विचार
चूजों की तरह
शब्दों का दाना चुगते हैं
स्याही का रस पीते हैं
मिल जाते हैं जब लय के पंख
ऊड़ जाते हैं खुले आकाश मे
कविता बन कर..

यश छाबड़ा

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मैने देखा

किसी अनिष्ट की
आशंका से भयकंपित
मुट्ठी में बंद किए-
एक कागज का टुकड़ा;
लंबे-लंबे डग भरता
कोई दीन-हीन फटेहाल,
चला जा रहा था-
'मेडिकल स्टोर' की ओर ।

मैने देखा

तभी पुलिसमैन एक
कहीं से आया,
पहचान कर शिकार को
लपका उसकी ओर ।
बोला अबे उल्लू
लंबे-लंबे डग भरता है
जो नियमों के प्रतिकूल है ।
पथ शीघ्र तय करता है
अगर कहीं कुचला गया
किसी सवारी के नीचे,
तो क्रिया-कर्म तेरा
कौन करेगा

यह अपराध है,
कानून का उलंघन है।
मै तेरा 'चालान' कर दूंगा ।
"'चालान' शब्द सुनकर,
दुखिया ने हाथ जोड़ दिए,
पुलिसमैन के पांव पकड़ लिए।
कातर स्वर में बोला
"मेरी बूढ़ी माँ बीमार है,
सख्त बीमार है ।
उसका एक मात्र सहारा,
यह पुत्र, यह अभागा,
दवा लेने जा रहा है।
हाथ जोड़ता हूँ, पाँव पड़ता हूँ,
मुझे छोड़ दे, तेरा उपकार होगा।

"बचना चाहता है
अच्छा चल छोड़ दूंगा
मेरी दाईं हथेली पर
खुजली हो रही है,
उसको शांत कर दे ।
मेरा आशय समझा या समझाउँ तुझे
"तरेर कर आँखे पुलिसमैन बोला ।
"समझ गया माई बाप
मुट्ठी जोर से भींच कर बोला,
"लेकिन एक ही पचास का नोट है
मुट्ठी खोल कर दिखाते हुए बोला,
अगर आपको दे दिया,
तो ..तो.. दवा कहाँ से आयेगी
मेरी माँ मुझसे न छिन जायेगी
जिसे दवा की सख्त जरूरत है

कहते हुए वह कांप रहा था,
"आज छोड़ दे मेरे भाई, मेरे खुदा
फिर कभी ले लेना -
पचास के बदले सौ ।
पाँव पड़ता हूँ तेरे
"लेकिन वह पुलिसमैन
उसकी बात कहाँ सुन रहा था
वह तो जा चुका था
अपने हाथ की खुजली शांत करके,
उस दीन-हीन फटेहाल से
पचास का नोट छीन के ।
किसी अन्य शिकार की टोह में

मैने देखा

--कवि कुलवंत सिंह




स्वाभिमान
हीन भाव से ग्रसित जीव, उत्थान नहीं कर पाता है
हर लक्ष्य अस्संभव दिखता है, जब स्वाभिमान मर जाता है

स्वाभिमान है तेज पुंज, यदि कठिनाई है अन्धकार
यह औषधि है हर रोगों की, गहरा जितना भी हो विकार

यह शक्ति है जो है पकड़ती, छुटते धीरज के तार
यह दृष्टि है जो है दिखाती, नित नए मंजिल के द्वार

यह आन है, यह शान है, यह ज्ञान है, भगवान है
कुछ कर गुजरने की ज्योत है, हर चोटी का सोपान है

हां सर उठाकर जिंदगी, जीना ही स्वाभिमान है
गर मांग हो प्याले जहर, पीना ही स्वाभिमान है

यह है तो इस ब्रम्हाण्ड में, नर की अलग पहचान है
जो यह नहीं, नर - नर नहीं, पशु है, मृतक समान है

--एस. कुमार शर्मा





मेरे लिए निर्णय ले पाना कठिन है ... देखूँ आपका निर्णय ले पाते हैं.... हमने 1972 की पहली कविता और उसके बाद ..... 1995 की पहली कविता लिख भेजी है. इस बीच हमने कविता नहीं लिखी... हाँ 1995 के बाद लगातार लिख रहे हैं....

कैसे कहूँ कि 1972 में लिखी गई कविता पहली है जिसे पढ़कर हिन्दी टीचर ने मम्मी डैडी को बुला कर काउंसलर के पास जाने की सलाह दी क्योंकि चिड़िया के चहचहाने की तुलना बच्चों के हँसने की बजाय रोने से की गई थी. सातवीं कक्षा में हिन्दी टीचर ने कुछ शब्द (सुबह सवेरे, सूरज का उगना, चिड़िया की चहचहाट ) देकर कविता लिखने को कहा था और हमने यह कविता लिखी थी.


सुबह सवेरे सूरज उग जाता

चिड़िया का दाना चुग जाता.




चिड़िया रोती , चींचीं करती

देश के भूखे बच्चों सी लगती.


कहाँ से मैं दाना ले आऊँ

हर चिड़िया की भूख मिटाऊँ.



भूखे बच्चों को रोने न दूँगी

अपने हिस्से का खाना दूँगी.



1995 में दस साल का बेटा वरुण साउदी टी.वी. में हर तरफ फैले युद्ध की खबरें देख कर बेचैन हो जाया करता. दुनिया का नक्शा लेकर मेरे पास आकर हर रोज़ पूछता कि कौन सा देश है जहाँ सब लोग प्यार से रहते हैं...लड़ाई झगड़ा नहीं करते .हम वहीं जाकर रहेंगे...अपने आप को उत्तर देने में असमर्थ पाती थी. ..तब मेरी पहली कविता का जन्म हुआ था उससे पहले गद्य की विधा में ही लिखा करती थी.

प्रश्न चिन्ह

थकी थकी ठंडी होती धूप सी
मानवता शिथिल होती जा रही

मानव-मानव में दूरी बढ़ती जा रही
क्यों हुआ ; कब हुआ; कैसे हुआ ;

यह प्रश्न चिन्ह है लगा हुआ !!!!

क्या मानव का बढ़ता ज्ञान
क्या कदम बढ़ाता विज्ञान !

क्या बढ़ता ज्ञान और विज्ञान
मन से मन को दूर कर रहा !

यह प्रश्न चिन्ह है लगा हुआ !!!!

मानव में दानव कब आ बैठ गया
अनायास ही घर करता चला गया !

मानव के विवेक को निगलता गया
कब से दानव का साम्राज्य बढ़ता गया !

यह प्रश्न चिन्ह है लगा हुआ !!!!

कब मानव में प्रेम-पुष्प खिलेगा ?
कब दानव मानव-मन से डरेगा ?

कब ज्ञान विज्ञान हित हेतु मिलेगा ?
क्या उत्तर इस प्रश्न का मिलेगा ?

यह प्रश्न चिन्ह है लगा हुआ !!!!

--मीनाक्षी धनवंतरि





मैंने अपनी पहली कविता अपने बी.टेक द्वितीय वर्ष में अपने एक मित्र असित शुक्ला के कहने पे लिखी थी| इसके पहले मैं चार लाइनों को की तुकबंदी, अब उसे शेर कहें या मुक्तक, लिखा करता था| पर उसे शेर नहीं पसंद थे तो उसने मुझे वीर रस की कविता लिखने को कहा तब मैंने अपनी पहली कविता "जागो" लिखी थी
आज उसे ही यहाँ काव्य-पल्लवन के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ

जागो
क्यों बने हुए हो दीन-हीन,
क्यों मायूसी तुम पे छाई,
क्यों देख के यूँ डर जाते हो,
ख़ुद अपनी ही परछाई|
क्या भूल गए कि कौन हो तुम ,
या भूले अपने अंतर को,
तुम उस पूर्वज के वंसज हो,
जो पी गए सारे समन्दर को|
जीवन में दुःख को सहे बिना,
कौन बड़ा हैं बन पाया,
बिन अग्नि में तपे बिना,
क्या सोना कभी चमक पाया|
जग ने कब उनको पूछा है,
जो तकलीफें गिनते रहते हैं,
होते हैं फूलों में काटें भी,
पर वो काटें ही चुनते रहते हैं|
तुम राणा-शिवा के वंसज हो,
जो माने कभी भी हार नहीं,
वीरगति को प्राप्त हुए,
पर छोड़ी कभी तलवार नहीं|
अब तो छोडो ये मायूसी,
अब तो होश में आओ तुम,
पाने के लिए अपना लक्ष्य,
अब तो जान लगाओ तुम|
आज दिखा दो दुनिया को,
साहस की तुम में कमी नहीं,
हार रहे थे अब तक लेकिन,
अभी लड़ाई थमी नहीं|
हर एक लड़ाई जीतोगे,
आज ही ये संकल्प करो,
अपने न सही औरो के लिए,
संसार का काया-कल्प करो|
अपने पे अगर आजाओ तो,
आंधी में दीप जल जायेंगे,
मन में हो सच्ची लगन अगर,
पत्थर पे फूल खिल जायेंगे|
तो,
क्यों बने हुए हो दीन हीन,
क्यों छाई तुम पे ये मायूसी,
वीर को कैसे सुहा सकती है,
कायर सी ये खामोशी,

--शुभाशीष पाण्डेय(2003)






जगबीती भी है...आप बीती भी...कोई तीन साल पहले यूँ ही एक दिन...हर शाम काम से घर लौटकर अपनी देह से जाने कितनी निगाहों को निकालती एक कामकाजी लड़की के दर्द को जुबाँन देने की कोशिश की...ये जगबीती आप बीती भी है...अपनों ने कहा ये कविता है....मेरी पहली कविता...जो डायरी के पन्नों के संग उधड़ ही जाती...यहाँ दर्ज हो गई तो जी गई।

मैं जानती हूँ,
मेरे आँसूओं में हमेशा तुम्हे
कोई संदिग्ध दर्द नज़र आयेगा
मेरे चेहरे पर जमी उदासी पर
तुम लगाओगे अपनी अपनी तरह से
अनुमान,
मेरी हँसी
हमेशा से तुम्हारे लिये.
किसी को रिझा लेने का पर्याय ही रही है..
मैं अपनी दुनिया बदल भी लूँ
बदल लूँ ,
अपनी सोच और हालात,
लेकिन तुम कब तक
गर्त में पड़े रहोगे
और तुम्हारे ज़ेहन से आती रहेगी
सड़ाँध
घड़ी भर के लिये औरत बनकर देखो
जान जाओगे
कि तुम
कोख के अंधेरों से
बाहर ही नहीं आये हो
अब तक

--शिफाली





जब मैं १३ साल की थी और पापा की तबियत ख़राब होने की वजह से मम्मी पापा को मुम्बई जाकर रहना पड़ा था , तब उनकी बहुत याद आती थी , तो इस तरह से इस पहली कविता का जन्म हुआ
माँ के बिना घर अधूरा लगे , ये कमरा ये दर सूना सूना लगे .

लिपटना चाहें ये बाहें गले से माँ के ,
पर इन बाहों को कोई सहारा न मिले .
माँ के बिना घर......
दूर दूर होने लगे अपने, राहों में बिखरने लगे सपने,
इन सपनों को कोई संजो ना सके ,
माँ के बिना घर....
वो ममता भरी प्यार की बातें , बार बार जब याद आने लगें,
ये जग खोखला सा लगा हमें, आंखों से आंसू बहने लगे ,
माँ के बिना घर अधूरा लगे, ये कमरा ये दर सूना सूना लगे .

--पूजा अनिल






नवभारत टाइम्‍स हिन्‍दी दैनिक, नई दिल्‍ली के 21 मार्च 1976 के अंक में प्रकाशित। जहां तक मुझे याद है और तलाशने पर मिली है यही कविता मेरी पहली कविता है जो कि उस समय माया दीदी को भेजी थी, वे ही उस समय बच्‍चों के स्‍तंभ का संपादन करती थीं :-
चाय
चाय नहीं नींदमारक है यह
रोग नहीं रोगनाशक है यह
काम पल में बना देती है यह
सर्दी भी दूर भगा देती है यह
मित्रों को पास बुला देती है यह
क्‍योंकि -
यही चाय का प्रताप है
अब तो इम्‍तहान बहुत पास है।

--अविनाश वाचस्‍पति






एक गांव में ताज़ा बचपन
अमराई पे जुटता था
बौराई चटकी कलियों पे
पागलपन सा लुटता था.
चिकने पीले ढेले लाकर
उनकी हाट जमाता था
पौआ भर गुड़ से भी ज्यादा
उनका मोल लगाता था.
जब नमक लगी रोटी मुट्ठी में
भरकर मजे से खाता था..
तो फसल चाटती हर टिड्डी को
जमकर डांट लगाता था.
अमिया की लंगड़ी गुठली से
सीटी मस्त बजाता था
जब टीले पे बैठा राजा बन
सबपर हुकुम चलाता था.
तो कभी सूर्य तो कभी पवन को
मुर्गा मस्त बनाता था.
कोइ उसके बुढ्ढे चूल्हे में
जब बांसा स्वप्न पकाता था
वो गोबर लिपे चबूतर पे
कोइ ताज़ा स्वांग रचाता था .

एक गांव मे ताज़ा बचपन....
--निखिल सचन





यह कविता संभवत: मैंने सातवीं कक्षा में लिखी थी और यह मेरी सब से पहली कविता या यूं कहिये कुछ लिखने का पहला पर्यास है| पंक्तियाँ जैसीं थीं वैसी ही लिख रहा हूँ 'कविता' में भी बचपना आपको साफ झल्केगा :

दोस्ती

दोस्ती का इजहार करके गधे से भी काम निकलवाती है दोस्ती,
पर जो मरते हैं दोस्ती के लिए कहलाती है वही सच्ची दोस्ती ||

--सोमेश्वर पांडेय




ये हिन्दी गज़ल मैंने अपने कालेज के प्रोफेसर के लिये लिखी थी करीब ८ महीने पहले। क्योंकि वे ६५ वर्ष के होते हुए भी पूरी शक्ति के साथ पढ़ाते थे। वो आजीवन कर्मठ, तेज और संघर्षशील रहे हैं।मैं उनकी कार्यशैली से काफ़ी प्रभावित हुआ।

दर्द के दिन भी क्या बीते मजा आया न जीने में
सुख के अमृत भी जैसे जहर लगे पीने में

ज़िन्दगी का मर्म समझता था तब मैं पल पल
खून बहता था मिलके पसीने में

वो भी क्या दौर था किस्मत को चुनौती दिया करते थे
जोश जज़्बा रग रग बनके दौड़ती थी सीने में

न हाथ पाँव दुखते थे न दिल-दिमाग थकता था
झूमते गाते रहते थहे साल के पूरे महीने में

सुनील कुमार सोनू





20 कवियों का प्रथम प्यार (पहली कविता विशेषांक- भाग 1)







काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन




विषय - पहली कविता

विषय-चयन - अवनीश गौतम

अंक - पंद्रह

माह - मई 2008






कवि की पहली कविता जैसे किसी का पहला प्यार, दिल से जुडी बात, दिल से जुड़े शब्द। पहली कविता वो सुंदर अहसास है जो मन की नैसर्गिक अवस्थाओं से निकलता है। एक कवि के पहली कविता वे शुरूआती अक्षर हैं जिस पर वो संग्रहों का महल बनाता है। कवि के लिए पहली कविता उसके लेखन का संस्कार हो सकती है। हिन्द-युग्म ने सोचा कि इतना महत्वपूर्ण विषय आखिर अछूता कैसे रह गया। नामचीन से लेकर अनामी कवियों में से किसी ने भी अपनी पहली कविता को अहमियत न दी। न किसी प्रकाशक ने कोई पहल की। इसलिए हमने पहली कविता प्रकाशित करने का विचार बनाया। पाठकों ने जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ दी उससे हमारा आयोजन सफल हो गया। यह एक आश्वर्यजनक संयोग रहा कि बहुत से कवियों ने अपनी पहली कविता को बचाकर नहीं रखा, उन्होंने अपनी उपलब्ध कविताओं में से पहली कविता भेजी, यह मानकर कि यहाँ प्रकाशित कविता ही उनकी पहली कविता कहलायेगी।

जिस तरह की उम्मीद थी, हमें बहुत सी कविताएँ प्राप्त हुईं। इसलिए हमने इस संकलन को प्रत्येक वृहस्पतिवार को प्रकाशित करने का निर्णय लिया है। एक बार में हम मात्र २० कविताओं का प्रकाशन कर रहे हैं (जिस क्रम में ये हमें प्राप्त हुई हैं)। जिन कवियों ने अभी तक अपनी पहली कविता नहीं भेजी है, उनसे आग्रह है कि इसके आयोजन से जुड़ी सूचना यहाँ देखें और जल्द से जल्द अपनी पहली कविता और उससे जुड़ी बातें लिख भेजें। हिन्द-युग्म 'पहली कविता' की राह देख रहा है।

हिन्द-युग्म ने यह निर्णय लिया कि इस ख़ास मौके पर सबकुछ ख़ास होना चाहिए। इसलिए www.hindyugm.com और कविता पृष्ठ दोनों के हेडर-चित्र को भी पहली कवितामय बना दिया जाए। हमने अपनी ग्राफिक्स टीम से विशेष आग्रह किया और उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति से इसे ग्राफिक्समय भी किया। http://www.hindyugm.com का हेडर प्रशेन क्यावाल और http://merekavimitra.blogspot.com का हेडर पीयूष पण्डया ने बनाया है।

आपको यह प्रयास कैसा लग रहा है। टिप्पणी द्वारा अवश्य बतावें।

*** प्रतिभागी ***
| ममता पंडित | दिव्य प्रकाश दुबे | सुमित भारद्वाज | सीमा सचदेव | अजीत पांडेय |समीर गुप्ता | प्रेमचंद सहजवाला | पावस नीर | रचना श्रीवास्तव | लवली कुमारी | हरिहर झा |
| राहुल चौहान | सतपाल ख्याल | पीयूष तिवारी | आलोक सिंह "साहिल" | अर्चना शर्मा | रंजना भाटिया | सजीव सारथी | विपुल | कमलप्रीत सिंह


~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~





इस कविता को मेरी पहली कविता कहा जा सकता है।यह कविता मेरी दस साल पुरानी डायरी के पहले पन्ने पर लिखी हुई है। विचारों की श्रृंखला कब कविता बन गई पता नहीं चला और ये पहली ऐसी विचार श्रृंखला थी जिसे मैंने कलमबद्ध किया।

बड़े बड़े सुनहरे ख्वाब
और छोटी सी ये ज़िन्दगी
जैसे वह भी एक ख्वाब हो
न जाने कब कौन हमें जगा दे।
हमारी नींद कब टूटे
और सामने हो अंतिम सत्य।
हो इतना सशक्त कि
तोड़ डाले सारे भ्रम
सारे निश्चित कर्म
जो ले जाये हमें बहुत दूर।
जहाँ न कोई बँधन हो
न हो कोई दस्तूर।
बस शून्य में व्याप्त हो
एक अमिट शांति।
वो शांति जो चिरस्थायी
सम्पूर्ण होती है।
और सत्य की तलाश
जहाँ पूर्ण होती है।
इस सत्य को अगर हम
अभी समझ जायेंगे
जीवन हर बँधन से
मुक्त हो जी पायेंगे।
जीव मोक्ष के लिये
भटकते हैं दर दर
वो मोक्ष स्वयं में ही पायेंगे।

--ममता पंडित





क्या लिखूँ

कुछ जीत लिखू या हार लिखूँ
या दिल का सारा प्यार लिखूँ
कुछ अपनो के जज्बात लिखूँ या सपनो की सौगात लिखूँ
कुछ समझूँ या मैं समझाऊँ या सुन के चलता ही जाऊँ
पतझड़ सावन बरसात लिखूँ या ओस की बूँद की बात लिखूं
मै खिलता सूरज आज लिखूँ या चेहरा चाँद गुलाब लिखूँ
वो डूबते सुरज को देखूँ या उगते फूल की साँस लिखूँ
वो पल मे बीते साल लिखूँ या सादियो लम्बी रात लिखूँ
मै तुमको अपने पास लिखूँ या दूरी का ऐहसास लिखूँ
मै अन्धे के दिन मै झाँकू या आँखों की मै रात लिखूँ
मीरा की पायल को सुन लूँ या गौतम की मुस्कान लिखूँ
बचपन मे बच्चों से खेलूँ या जीवन की ढलती शाम लिखूँ
सागर सा गहरा हो जाऊँ या अम्बर का विस्तार लिखूँ
वो पहली -पाहली प्यास लिखूँ या निश्छल पहला प्यार लिखूँ
सावन कि बारिश मेँ भीगूँ या आन्खो की बरसात लिखूँ
गीता का अर्जुन हो जाऊँ या लंका रावण राम लिखूँ
मै हिन्दू मुस्लिम हो जाऊँ या बेबस इन्सान लिखूँ
मै ऎक ही मजहब को जी लूँ या मजहब की आँखें चार लिखूँ
कुछ जीत लिखूँ या हार लिखूँ या दिल का सारा प्यार लिखूँ

--दिव्य प्रकाश दुबे




वो जब हद से गुजर जाते हैं,
दिल से उतर कर निगाहो मे बस जाते है,
मुस्कुराओ तो होंटो पर भी वो ही नज़र आते है।
ना जाने किस राह पे जाता हूँ,
हर वक्त उनको ही साथ पाता हूँ।
वो मुझे हर जगह नज़र आते हैं,
फिर कैसे कह दूँ वो मेरा दिल दुखाते है।
अब तो मुझे हर पल उन्ही की याद आती है,
इस से ज्यादा क्या कहूँ वो ही मेरे सच्चे साथी है।
पर मैं ही नादाँ था उन्हे ना पहचान सका,
खुली आँखो से दुनिया को ना जान सका।
कुछ पल के लिए जो मुस्कुरा लिया,
ऐसा लगा उन्से दामन छुडा लिया,
पर उन्से जुदाई मुझे रास ना आई,
हर कदम पर मैने ठोकर ही खीई।
वो जो कभी मेरे दिल से निगाहो मे आए,
और होंटो पर भी नजर आये,
वो और कोई नही, वो है मेरे दर्द के साये।
अब इससे ज्यादा और कुछ नही कहना चाहता हूँ,
बस अपने सच्चे दोस्त के साथ ही रहना चाहता हूँ।
इसी के साथ अपनी कलम को विराम देता हूँ,
और उन्ही को दिल मे विश्राम देता हूँ।

--सुमित भारद्वाज





मेरे पास मेरी सबसे पहली कविता जो उपलब्ध है, वो है... "आज का दौर" यह कविता मैंने १९८८ में १३ साल की उम्र में लिखी थी | और भी बहुत सी कविताएँ इससे पहले लिखी और पहली कविता आठ-नौ साल की उम्र में लिखी थी |शीर्षक अभी भी याद है "नया पंजाब" लेकिन वो सब कविताएँ संजो कर नहीं रखी और गुम हो गई |हाँ पहली कविता की कुछ पन्क्तियाँ अभी भी दिमाग मे गूँज रही है....

आज का किसान ,पहनता है पैण्ट-कोट
घर मे चाहे कुछ न हो,जेब मे रखता है नोट
आज का किसान ,किसान नही नवाब है
पञ्जाब का जवाब नही, लाजवाब है

यह कविता "सीमा सचदेव" की नही "सीमा मिगलानी" की है | शादी के बाद लडकियो का नाम बदल जाता है , इस लिए अब सीमा सचदेव के नाम से लिखती हूँ |

आज का दौर

आजकल रहती है सबको ही टेंशन
बी पी लोअ हो जाता है, लगते हैं इंजेक्शन
कोई कहता लड़ना है मुझको इलेक्शन
कोई कहे लग जाएगी इस साल पेंशन
किसी को है ख़याल चला है कौन सा फैशन ?
कौन सी पहनू ड्रेस? लेते हैं सुजेशन
कोई कहता पहनूंगा मैं जूते एक्शन
किसी को है चिंता कैसे बनें रिएक्शन?
कोई रहे सोचों में, कैसे बनें रिलेशन?
कोई कहे किसको कितनी दी जाए डोनेशन?
कोई कहे इस वर्ष कैसे होगा एडमिशन?
और कोई कहे हमने तो पूरा करना है मिशन
पर मैं कहूँ सब ठीक ही है डोंट मेंशन

--सीमा सचदेव





यादो से तेरी दूर ना करे .....

वक़्त मुझे इतना भी मजबूर ना करे,
कम से कम यादो से तेरी दूर ना करे.
शोहरते बदल देती है रिश्तो के मायने,
मुकद्दर मुझे इतना भी मशहूर ना करे.
कम से कम यादो से तेरी दूर ना करे.
दौलत ,तरक्की या फिर कामयाबीया मेरी ,
ये वक़्त की ऊंचाईया मगरूर ना करे.
कम से कम यादो से तेरी दूर ना करे.
जुदाई भी दी है उन्होने तौफे में 'शफक' ,
कैसे भला कोई इसे मंजूर ना करे.
कम से कम यादो से तेरी दूर ना करे.

--अजीत पांडेय




एक लम्हा : अन्तिम सांस

अन्तिम सांसे जब ले -लेकर
मई याद कर रहा था हर पल ,
अच्छा या बुरा किया मैंने
वो सब हिसाब कर रहा था हल .
तब एक लम्हा मुझसे बोला ,
सब लेकर बाडों का चोला .
तुम आज नहीं मृत पहले थे ,
सब सच ,तुम झूठ अकेले थे .
सद् सत्य का नाश किया तुमने
तुम झूठ पाप के ठेले थे .
सत् जीवन व्यर्थ किया तुमने
हाँ कुत्सित अहम् के फूले थे .
उस पल की व्यथा का मई मारा ,
जीवन तृन -मूल लगा सारा .
सब देस धाम अब छूट गया
हाँ ! सब जीत गए बस मैं हारा .
......सब जीत गए बस मैं हारा .
.........सब जीत गए बस मैं हारा

--समीर गुप्ता




पत्थरों के बीच से बहती हुई एक नदी बन कर
तुम उतर गयी हो मेरे सीने में
एक तड़प की तरह
और मैं एक नाव बन कर
नदी के तट से जा लगा हूँ

एक लम्बी तपती दोपहरी
ठंडे जल का एक कुआं बन गई है
रात की झोली में एक सितारा गिर कर
चुम्बन बन गया है

मेरी आँखों से
एक जगमगाता शिकारा निकल कर
तैरने लगा है
उस प्यारे से समुद्र में
जो तुम ने रच डाला है
मेरी ज़िंदगी के सूने कैनवास पर

--प्रेमचंद सहजवाला




एक बन्दंरिया पहन घघरिया
धम से गिर गई बीच बजरिया
उधर से आये बन्दर मामा
ले गए उनको दवाखाना
दवाखाने में थे डॉक्टर भाई
उन्होंने दे दी बंदरिया को दवाई
और बोले मत खाना बैंगन आडू
न ही देना घर में झाडू
बैठे बैठे करना आराम
बन्दर से करवाना काम

१० साल की उम्र में लिखी कविता , प्रभात ख़बर में प्रकाशित (१९९७)
--पावस नीर.





मैंने यह कविता ६ साल की उम्र में अपनी बहन के लिए लिखी थी।

साईकिल साईकिल मेरा नाम
चलना रहता मेरा काम
चलूंगी चलाउनगी
बियुटी को घुमाउनगी
दुनिया उसे दिखाउनगी
बियुटी मुझपे बैठेगी
घूम घूम के लौटेगी
बियुटी मुझ पे बैठ के
पहुँच गई चिडिया घर
बन्दर कूदा पिजडे मे
बियुटी उछली साईकिल पर
मुझ पे बैठ के बिटिया
फ़िर लौटी आपने घर
चलते चलते थक गई
फिरभी भी मै न कंही रुकी
क्यों की साईकिल है मेरा नाम
चलना है बस मेरा काम

-रचना श्रीवास्तव






वह पौधा

वह पौधा सुख गया ,जैसे वह रिश्ता टूट गया
मैं उसे सुबह हल्की धुप मे रखती
दोपहर की कड़ी धुप से उसे बचाती,
फ़िर भी वह पौधा मर गया

मैं उसे ह्रदय मे स्थान देती
मैं उसे नाम और पहचान देती,
फ़िर भी वह रिश्ता टूट गया

मैंने उस पौधे को खाद पानी दिया
जैसे मैंने उस रिश्ते को पहचान दी
उस पौधे की बढ़ती पत्तियो को मैं रोज गिनती
जैसे उस रिश्ते के नये आयामों को मैं रोज देखती
फ़िर भी वह रिश्ता टूट गया
जैसे वह पौधा मर गया

मैंने इंतिज़ार किया इस पौधे मे फूल लगेंगे
जो इसकी काँटों वाली छवि को ढंक देंगे
जैसे मैंने इंतिज़ार किया इस रिश्ते की नई परिभाषा बनेगी
जो इसके सारे बुरे पहलुओं से परे होगी
फ़िर भी वह रिश्ता टूट गया
जैसे वह पौधा मर गया

मैंने उस पौधे मे भी अपनी छवि देखि, उस रिश्ते मे भी ख़ुद को देखना चाहा
मैं सोंचती हूँ शायद इसी अति अनुराग को कारण वह रिश्ता टुटा
जैसे बहुत सींचने के कारण जलजमाव से वह पौधा मर गया.

--लवली कुमारी






कविते !

हिमालय !
तू बह जा
इमारत !
तू ढह जा
गंगे !
तू बह जा
ऐसे ही
पांच सात
अटपटे
चटपटे
रसीले
मधुभरे
वाक्य मिल कर
कविते !
तू बन जा

- हरिहर झा




सरंक्षण समय की मांग है,
यह वैकल्पिक नही आवश्यक है|
सरंक्षण करो अपनी उर्जा का,
जो देती है हर क्षण शक्ति आगे बढ़ने की|
सरंक्षण करो इस धरती का
जिसका दोहन करते हो तुम अकूत|
सरंक्षण करो उस जल का,
जिसके बिना जीवन हो जायेगा मरुस्थल सा|
सरंक्षण करो अपने विचारों का,
जिन्हे लग रहा है दीमक अनैतिकता का|
सरंक्षण करो अपनी संस्कृति का,
जिसकी हो रही है क्षति हमारे कुंठित विचारों से|
सरंक्षण करो अपने राष्ट्रवाद का,
जो हो रहा है दास बाजारवाद का|
सरंक्षण करो लोकतंत्र का,
जो हो रहा है विघटित|
सरंक्षण करो अपनी भाषा का,
जो आस लगाये देख रही है तुम्हे अपने सम्मान के लिए|
सरंक्षण समय की मांग है,
क्योंकि घटता जा रहा है मानव जीवन का अभिप्राय|
सरंक्षण वैकल्पिक नही आवश्यक है|

--राहुल चौहान




लो चुप्पी साध ली माहौल ने सहमे शजर बाबा
किसी तूफ़ान की इन बस्तियों पर है नज़र बाबा.

है अब तो मौसमों में ज़हर खुलकर सांस कैसे लें
हवा है आजकल कैसी तुझे कुछ है खबर बाबा.

ये माथा घिस रहे हो जिस की चौखट पर बराबर तुम
उठा के सर जरा देखो है उस पर कुछ असर बाबा.

न है वो नीम, न बरगद, न है गोरी सी वो लड़्की
जिसे छोड़ा था कल मैने यही है वो नगर बाबा.

न कोई मील पत्थर है जो दूरी का पता दे दे
ये कैसी है डगर बाबा ये कैसा है सफ़र बाबा.

--सतपाल ख्याल





ज़िन्दगी कि दौड़

दिन भी मेरे रात से तन्हा यहा है !
फर्क इतना है कि सन्नाटे नही है !!

गूंजती है हर तरफ आवाज लेकिन !
दिल को छुले वो याहाँ बाते नही है !!

दिखते है हर रोज कितने ही चहरे !
पर नजर अपने कोई आते नही है !!

जमती है हर शाम कितनी ही महफ़िल !
दोस्तो कि वो मुलाकते नही है !!

खो गए है दिन मेरे अब सुकू के !
चेन से सोता था वो राते नही है !!

जिन्दगी कि दौड़ मे आगे हु इतना !
लोटतै रस्ते नजर आते नही है !!

फर्क इतना है कि सन्नाटे नही है !!!!

--पीयूष तिवारी







दसवीं में था परीक्षा चल रही थी,पागलपन का दौरा पड़ा और चल पड़ा कवि बनने
१९ मार्च २००२

बस चलता रहा

निर्झर पावन झरने की तरह
वह बहता गया,बहता ही गया
एक पल भी रुका ना वो तो कहीं
बस चलता गया,चलता ही गया
कहीं राह के पत्थर से भी भिंदा
कहीं गली के खड्डे भी यूं मिले
कि शाश्वत पथ पर न जाए
कहीं आग के शोले भी यूं मिले
की वापस फ़िर वो आ जाए
पर ना वो डिगा और ना ही डरा
बस आह भरा और चलता रहा
चलते चलते जैसे कि कहीं
आवाज यूं आयी सुन रे पथिक!
चिंता की लकीरें आ पहुंचीं
आवाज कहाँ से आयी पथिक
हर क्षण मचला हर क्षण विचला
आवाज कहाँ से आयी पथिक
चलता ही रहा उस मृग की तरह
कि काश कस्तूरी मिल जाए
पर न ही मिला कस्तूरी कहीं
बस लगता रहा है यहीं कहीं
वह जान सका ना अटल सत्य
कि वह कस्तूरी अपनी ही है
आवाज जो आई थी रे पथिक
वह कलरव ध्वनि भी अपनी ही है
मदमस्त नदी के ज्वारों सा
वह बहता गया साहिल की तरफ़
साहिल तो मिलेगा उसको कभी
इक आस भी था जो मन में यही
इस आस के चलते ही तो सदा
वह चलता रहा,चलता ही रहा
चलते चलते चलता ही रहा
बस चलता रहा और चलता रहा

--आलोक सिंह "साहिल"




अर्चना शर्मा : ये कविता इन्होंने तब लिखी जब इनकी शादी होने वाली थी.ये दोनों लगभग एक ही साथ लिखी थी, इसलिए इनके लिए यह कह पाना मुश्किल है कि कौन सी पहले लिखी।

1)
एक अनजाना सा एहसास ,
एक अजनबी का साथ ,
ज़िंदगी ले आई है ,
खुशीयों की सौगात ......

जून की हल्की बरसात ,
और मेरे मेहंदी वाले हाथ ,
वो छोटी सी मुलाक़ात ,
हकीक़त थी या ख्वाब ........

जान पाती मैं काश ,
की क्यों दिन और रात ,
मन मेरे रहती है ,
उसकी हर एक प्यारी बात .....

यो ही चलता रहे मेरे साथ ,
ये अनजाना एहसास ,
और वो अजनबी ,
कुछ अलग कुछ ख़ास ..........

2)

नए नए एहसासों में ,
घुलने लगी है ज़िंदगी ,
उस अजनबी की बातों में ,
मिलने लगी है अब खुशी .........

उस अजनबी अनजान से ,
होने लगी है पहचान ,
खुदा करे उसके होठों पे ,
सदा सजी रहे मुस्कान .......

उसी के ख्यालों में ,
उल्ज़ा रहे ये मन ,
छुटने लगा है आजकल,
इन हाथों से बचपन ..........

जुड़ रहा है उसके साथ ,
एक नया बंधन,
उसके ही रंगों में ,
ढलने लगा जीवन ..........

दिखता है जब वो ,
भविष्य का दर्पण ,
बातों -बातों में मुझे ,
आ जाती है शरम .........

यूहीं बजती रहे ,
ये खुशीयों के सरगम ,
सिलसिले ये खूबसूरत ,
कभी हो न खत्म ............







पहली कविता ..बहुत ही अच्छा विषय लिया है इस बार ,..कई यादे याद आ गई इस के बारे में सोचते हुए ...अब पहली कविता जब लिखी थी तब बहुत छोटी थी मैं तो शायद १० साल की ...माँ के जाने के बाद लिखी थी कुछ मौत पर ...फ़िर पापा के डर से फाड़ के फेंक दी ..उसके बाद भी जो लिखी वह कभी किसी कागज पर या स्कूल का होम वर्क करते हुए लिखती रहती थी फ़िर डर के मारे उसको फाड़ के फेंक देती थी ..फ़िर जब ११वी क्लास में आई तो एक लाल रंग की डायरी मिली
पापा की अलमारी से जिसके कवर पर फूल बने हुए थे और अन्दर हर पेज पर खूबसूरत कोटेंशन .वह उनसे मांग ली कि यह मुझे अच्छी लगी है मुझ दे दो उस में फ़िर छिप के लिखना शुरू किया वो डायरी आज भी मेरे पास है और उस पर लिखी पहली कविता ही समझ ले मेरी पहली कविता है ..पढ़ के ख़ुद ही हँसी आती है ..पर कभी कभी उसको पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है .उसके बाद कई डायरी भरी होंगी पर वह मेरे लिए आज भी बहुत खास है और इस में एक एक कविता जैसे किसी याद का लम्हा ..उस वक्त जो दिल कहता था वही लिखती थी ..करती तो आज भी वही हूँ :) उस वक्त न जाने क्या सोच के यह कविता लिखी थी ..कोई शीर्षक भी नही दिया है बस कविता जैसा कुछ लिखा हुआ है इस लाल डायरी के पहले पन्ने पर ..


जब देखो तुम चाँद को
तो याद मुझे मत करना
मगर जब देखो चाँदनी बिखरी हुई
तो उसकी हर याद को दिल में भर लेना

जब प्यार मिले किसी से भीख के रूप में
तो तुम उसको आंखो में मत रखना
मगर वही जब मिले हक से
तो उसका कतरा -कतरा बूंद -बूंद
अपने दिल में कर कोने में भर लेना

कभी मिले किसी दायरे में बंधा प्यार
तो उसको तुम मत छूना
पर जब मिले मुक्त गगन
विचरण करता प्यार भरा संसार
तो उस मीठे प्यार के झरने से
अपना तन मन भिगो लेना


चाँद सा प्यार उसकी तरह ही घटता बढता जायेगा
भीख में मिला प्यार दिल की धड़कन नही छू नही पायेगा
और बंधनों में बंधा प्यार हाथो से फिसल जायेगा
मगर चांदनी सा महकता प्यार
बूंद बूंद बरसता प्यार दिल में है ठंडक भरता जायेगा
हक से मिला प्यार कतरा कतरा ..
दिल की गहराई में बस जायेगा
और सभी दायरों से मुक्त प्यार और विश्वास
जीवन भर जीने का सहारा है बन जायेगा !!


-रंजना भाटिया





मुझे पहली बार कविता मिली थी जब २१ वर्ष की आयु में मुझे पहली बार घर से लंबे समय तक दूर जाकर रहना पड़ा था, उन शुरुवाती दिनों में जो अकेलापन खलता था तो माँ की बहुत याद आती थी, कविता की दृष्टि से नहीं कह सकता कितनी ठीक है, पर भाव बिल्कुल खरे सोने से सच्चे है, माँ को समर्पित मेरी इस पहली कविता में -

"माँ"

कितना छोटा मगर
कितना महान है ये लफ्ज़
इस लफ्ज़ में छुपी हैं
वो दो ऑंखें,
जो देखती हैं हमे हर पल,
जिनके सपनो में बसें है
हमीं पल पल ।
इस लफ्ज़ में छुपे हैं
दो हाथ ,
जिन्होंने थाम कर उंगली
चलना सिखाया,
भूख लगी जब निवाला खिलाया,
जब गिरे हम तो बढ कर उठाया,
रातों को थपथपाकर सुलाया,
इस लफ्ज़ में छुपा है बचपन,
ममता का आंगन,
निस्वार्थ प्रेम का दर्पण -
माँ ही तो है,
पूजा का दीप पावन -
माँ ही तो है।
बदनसीब हैं वो जिनसे ये दूर हुईं ,
पर उनकी किस्मत हाय
जो इनसे हुए पराये ।

-सजीव सारथी





इज़हार

सुनो ...मुझे कुछ कहना है..,
अब और नहीं रहा जाता..
दिल मे है बहुत कुछ,
अब और छुपाया नही जाता ।
मुझे प्यार है तुमसे ..
यही बोलना है ,
और आज तुमसे भी मुझे बस यही सुनना है।
जब से देखा ..बैचैन हूँ,
नींद नही आती है..
तुम्हारी ये काली आंखे..,
मुझ पर जादू कर जातीं हैं ।
ये लम्बे बाल..
इनकी छांव में ज़िन्दगी गुज़ार दूँ..
ये गुलाबी होंठ ...
जी करता है कि इनसे थोडी लाली उधार लूँ..
जब से देखा तुम्हे किसी और को नही देखा..
मेरे ह्रदय की स्वामिनी हो तुम.,
मेरे हाथ मे बनी प्रेम की रेखा... !
देखो.....
कल से छुट्टियाँ लग जायेंगी..
फिर में नही मिल पाऊंगा,
तुम्हारी याद सतायेगी...।
ज्वर से तप रहा हूँ मैं आज..
फिर भी आया...सोचा,
तुमसे शायद यह सब कह पाऊंगा ।
मुझे स्वीकार करो.....!
प्रिये ! यह प्रेम की भिक्षा ऐसी है..
जो देता है , वो धनवान हो जाता है..
और जो लेता है ,
उसका तो जनम ही तर जाता है ।
याचक हूँ ..पुकार सुनो..,
मैं तुम्हारा तुम मेरी
आँखें बन्द करके..
यह कल्पना करो..।
सन्नाटा....
वातावरण स्तब्ध,
मैं व्याकुल, अधीर ...
और वो निशब्द ।
उसकी आँखें नीचे झुकी ,
मेरी धड़कनें कुछ तेज़ चली..
ज़िन्दगी का फैसला,
ज़िन्दगी के हाथ ,
मेरी ज़िन्दगी की सबसे अहम घडी....
एक क्षण में फैसला हो जायेगा..
आगे से
संयोग-श्रंगार में डूबी कविता लिखूंगा ..
या फिर दुनिया में ,
एक और विरही कवि बढ जायेगा ।
शीघ्रता करो...
मेरी याचना को मौन नही..
सशब्द स्वीक्रती दो..।

अचानक...
उसके होठों से स्वर फूटे.. ,
पहली बार कुछ अरमाँ जागे थे..
हाय! आज वो भी टूटे..।
नहीं..
मैं ऐसा नहीं कर सकती...!
बकवास है यह प्यार-व्यार ,
फालतू बातों पर विश्वास नही करती ।
मैनें तो सोचा है ,
मुझे ज़िन्दगी भर शादी नहीं करना ,
और तुम भी सुन लो,
आज के बाद मुझसे बात नही करना ।
देखो...
ऐसा नहीं कि तुम "ना" करोगी,
तो मै कुछ आत्महत्या कर जाऊंगा..
बहुत ज़िम्मेदारियाँ है, निभाना होगा ,
पर यदि तुम साथ होगी
तो अच्छे से पूरा कर पाऊंगा ।
प्यार.. क्या होता है ..
एक दिन समझ जाओगी..,
तब मैं याद आऊंगा,
आज इंकार करने के लिये पछताओगी ।
तुम मेरी चाहत हो...
अरमान हो ..
मुझे ऐसे नही ठुकरा सकतीं ,
यह बात आज जान लो..।

कोई वजह कोई कारण नहीं ,
मेरे सपने क्यों टूटे ,
मुझे स्वयं मालूम नहीं ।
वो तो बात भी नही करती..
कोशिश पर मैं बराबर करता हूँ ,
दुनिया उम्मीद पर कायम है ,
सुन ! वो तेरी ज़रूर होगी..
सब्र कर
ऐसा अपने दिल से रोज़ कह्ता हूँ ।

--विपुल शुक्ला





वर्तमान

वर्तमान क्या है आखिर
कल की जुड़ी कुछ कड़ियों का एक सिलसिला सा
या फ़िर भविष्य के भाववाची
भावी क्षणों की कल्पना मात्र
क्यों न आज केवल आज हो
भूत एवम भविष्य के
विचारों से स्वतन्त्र सा !!!

-कमलप्रीत सिंह