काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - पहली कविता (भाग-6)
विषय-चयन - अवनीश गौतम
अंक - पंद्रह
माह - जून 2008
पिछले ही वृहस्पतिवार को 'पहली कविता' ने पहला शतक लगाया था और जैसे एक बल्लेबाज लम्बी पारी खेलने के लिए रन बनाने की गति कम कर देता है, थमकर खेलता है वैसे ही हम ज़रा थमकर इस बार मात्र १५ कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं।
चूँकि हम यह सप्ताह 'पिता सप्ताह' की तरह मना रहे हैं इसलिए हैडर को पितामय ही रहने दे रहे हैं। आज के बाद 'पहली कविता' ११५ की संख्या तक पहुँच गई है। अब तो हमें पूरा विश्वास है कि अभी तक जो कवि जो अपनी चुप्पी नहीं तोड़े हैं वे भी अब इस समर में कूदेंगे और अपनी पहली कविता भेजेंगे। पुरानी १०० कविताएँ पढ़ने के लिए नीचे का लिंक इस्तेमाल करें।
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आपको यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतावें।
*** प्रतिभागी ***
| आकांक्षा यादव | सी आर.राजश्री | निखिल आनंद गिरि | गीतिका भारद्वाज | मनीषा वर्मा |धर्म प्रकाश जैन | मीना जैन | अर्पित सिंह परिहार | प्रमेन्द्र प्रताप सिंह | श्रीमती पुष्पा राणा | उत्पल कान्त मिश्रा |
| विश्व दीपक 'तन्हा' | कुमार मुकुल | अवनीश गौतम | अनिता कुमार ।
~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~
यूँ ही डायरी में अपने मनोभावों को लिखना मेरा शगल रहा है। ऐसे ही किसी क्षण में इन मनोभावों ने कब कविता का रूप ले लिया, पता ही नहीं चला। पर यह शगल डायरी तक ही सीमित रहा, कभी इनके प्रकाशन की नहीं सोची। फिलहाल तो देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में मेरी कविताएं प्रकाशित हो रही हैं, पर मेरी प्रथम कविता कादिम्बनी पत्रिका में ``युवा बेटी`` शीर्षक `नये पत्ते` स्तम्भ के अन्तर्गत दिसम्बर 2005 में प्रकाशित हुई थी।
युवा बेटी
जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने
पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है
वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।
--आकांक्षा यादव
एक कवि चाहे कितनी भी कविता लिख ले वह अपनी पहली कविता को कभी नहीं भूल सकता जिसकी वजह से उसे काव्य-सृजन की प्रेरणा मिली है। आपने बिल्कुल ठीक कहा पहली कविता लिखने के बारे में मुझे भी जोश आ गया।
मेरे पिता जी मुझे कभी लड़की होने का एहसास नहीं होने दिया। मैंने अपनी पूरी पढ़ाई मध्य प्रदेश के भिलाई में की है। मेरे पिताजी मुझे हमेशा श्रीमती इंदिरा गांधी का उदाहरण दे कर मेरा हौसला बढ़ाते रहते और मैं भी उन्हीं को अपना रोल मॉडल मानती रही। जब उनकी मृत्यु हुई में बहुत रोई और सोचा कि मुझे अपने भावों को शब्दों में ढाल कर जरूर देखना चाहिए और मैंने उन्हीं पर अपनी पहली कविता लिखी जब में १९८५ में बारहवीं कक्षा में थी। वहीं से मेरे काव्य-सृजन की प्रक्रिया जारी है। मेरी कविता को मैंने कहीं नहीं छपवाया फ़िर कई छोटी-छोटी कवितायिएँ लिखी। जब मैं स्कूल में पढ़ा रही थी स्कूल मैगजीन के लिए प्रिंसिपल ने लिखने का आग्रह किया और मैंने भी अपनी पहली कविता दे दी और १९९१ को स्कूल मैगजीन में अपनी पहली कविता को देख कर बहुत अच्छा लगा। अपनी पहली कविता लिखने के अनुभव को प्रकट करने के लिए में हिंद युग्म की हृदय से सदैव आभारी रहूंगी।
इन्दिरा गाँधी
इन्दिरा गाँधी, इन्दिरा गाँधी,
तुम थी सब लोगों की प्यारी,
न केवल इस भारत देश में,
बल्कि सारे अन्य देश में।
जवाहर कमला की पुत्री बनकर,
पत्नी बड़ी लाड़ प्यार से,
रहती थी आनन्द महल में,
लिये भारत के प्रति जगह मन में।
जवाहर, गाँधी के बाद इन्दिरा आपने,
राह नई दिखाई हम सब को,
जो श्रद्धा भक्ति के दीप तुमने जलाये,
फर्ज हमारा उसे न कभी हम बुझाये।
इन्दिरा जी ने भारत के लिये अपने,
अमूल्य प्राण दिये,
इसलिये जब तक सूरज चाँद रहेगा
इन्दिरा जी आपका नाम रहेगा।
--सी आर.राजश्री
तीसरी क्लास में था तो एक बार "रेनी सीज़न' पर निबंध लिखना था....टीचर ने कॉपी पर लिखा "गुड, पोएटिक थौट्स..." शायद तभी से लगा कि थोड़ा सोच कर लिखने से सुकून भी मिलता है और तारीफ भी...फ़िर छठी या सातवीं में था तो झारखण्ड के अखबार "प्रभात ख़बर" ने कविता लिखो प्रतियोगिता शुरू की...दिए गए शब्द पर (हिन्दयुग्म के काव्य-पल्लवन जैसा) १६ पंक्तियों में कविता भेजनी होती थी और दिया गया शब्द शुरूआती पंक्ति में आना चाहिए .....उसमें जब भी भेजता, अक्सर कुछ न कुछ पुरस्कार जीत जाता...घरवाले तस्वीर देखकर खुश होते.... लेकिन मैं ही जानता हूँ कि कैसे सबसे छुपाकर कविता लिखी जाती थी और लिफाफा चुपके से, डर-डर कर,खरीदकर पोस्ट किया जाता था..आज भी अखबार की कटिंग्स सहेज कर रखी हैं.. देखता हूँ तो लगता है कि एक बार पीछे मुड़ कर हाथ बढाया तो शायद उन लम्हों में से कुछ हाथ में आ जाएँ...अखबार में भेजी गई पहली कविता थी "किलकारी" जो प्रकाशित नहीं हुई थी..
किलकारी
जब भी कोई किलकारी हूँ सुनता,
मंत्रमुग्ध मैं हो जाता हूँ,
उलटता हूँ अतीत के पन्ने,
उन्ही राहों में खो जाता हूँ...
मेरा एक बचपन था प्यारा,
गुज़रा था जो माँ की गोद में,
रोता था पहले पल में फ़िर,
अगला पल गुज़रता आमोद-प्रमोद में...
छोटे-छोटे दुःखडे होते थे,
सुख के फूल बिखरे होते थे,
भावुक इतना मन था मेरा,
पल-पल मेरे नैन रोते थे...
काश! कोई मेरा बचपन लौटा दे,
उससे जुड़ी मेरी सारी यादें,
खिलौने, गुडिया, मेरी गाड़ी प्यारी,
माँ की गोद में वो किलकारी...
--निखिल आनंद गिरि
लोग कहते है कि ना देखो तुन सपने,
पर मै कहती हूँ कि देखो तुम ये सपने
बडे सुन्दर थोडे अपने,
है चाह जो तेरे दिल मे और जज्बा है तुझमे
तो यकीनन ये होगे पूरे तेरे सपने
--गीतिका भारद्वाज
मैं १३ साल की थी जब मैंने यह कविता लिखी थी और तब से ही लिखती आ रही हूँ, पर कभी प्रकाशित नहीं की. पहली बार हिम्मत कर के अब कविता भेजी है.
बड़े बड़े शहरों की
छोटी छोटी गलियों में
ऊँचे ऊँचे महलों के साये में
कहीं गरीबी भी पलती है
बड़ी बड़ी इमारतों के नीचे
गरीब की झोंपड़ी में
भूख सोती है
अमीरों का जश्न जब गरीबों के
आँसुओं पर मनाया जाता है
उन छलकते जामों में
कहीं गरीब का खून सिसकता है
रोती कराहती गरीबी चीख पड़ती है
और एक गरीब की अर्थी पर दया का कफ़न पड़ता है
चिता की आग पर उधार का पानी सर चढता है
बेटी की इज़्ज़त बाज़ार में आँसू बहाती है
बेवा की चीखें ऊँचे महलों से उठते ठहाकों में
दब जाती है.
--मनीषा वर्मा
मैंने हिन्दी भाषा में पहली कविता 1970 में लिखी थी. आशा है आपको पसंद आयेगी।
निमंत्रणों में
निमंत्रणों में जीता मैं तेरी खुली बाहों के
तेरी मुस्कराहटों से मेरे पग बढ़ते हैं
निगाहों से कुछ एसी बातें होती
गीत लिखते तेरे होठों के थिरकने से
तेर मुलायम अलकों के झटकने से
मस्तिष्क का संत्रास हट जाता है
तुमने नहीं बाँधा इस जूड़े को क्यों
मेरा स्वर फिज़ाओं में बहक जाता है
कितना आशिकाना है तेरा मिज़ाज
चाहने वाले का प्याला भर देती हो
मदिरा मदिरा वह चिल्लाता है
मादकता से मग भर देती हो
तेरी खुली कलाई के व्युत्कृम घुमाव ने
तेरी गोरी बाहों ने सूनी निगाहों ने
मदहोश कर रखा है मन आशिक़ का
तन आशिक़ के बोल स्वर आशिक़ के
तेरे अंतर्मन की मधुर खुशबू ने
मायावी मन को भोला रूप दिया
धधकते हुए अंतर्द्वन्दित मानस को
शांत किया स्वसुबोध दिया
कितनी भंगिमाओं में मैं तुझको देखूँ
मदहोश नेत्र तुझे देख न पाये
समीप खड़ी सामने बैठी
ये नेत्र तुझे पहचान न पाये
मौन हुये हम बैठे रहे थे तब
अँधियारी रात्रि का होता था शोर
तुम तो मुस्काती थी मंद मंद
मुस्काती ओठों की कोर
रहस्यमयी बैठी रही तुम ,अव्यक्त
प्यार का कभी इज़हार न किया
प्याले पर प्याले भरे मदुरा के
प्याले का कभी स्वाद न लिया।
--धर्म प्रकाश जैन
यह कविता सन् १९६८ में लिखी गई थी ।सन् १९८० तक छिट-पुट लेखन चलता रहा। इसके बाद हिंदी में सक्रिय लेखन जारी है ।
मन करता है
मन करता है हर दिन
एक नई कल्पना लेकर
हृदय में एक नई भावना लेकर
हर दिन एक नई कविता लिखूँ
मन करता है हर दिन
नई-नई सी चित्रपटी पर
नई तूलिका नये रंग लेकर
हर दिन एक नई सी छवि बनाऊँ
मन करता है हर दिन
प्रीत की भावना मन में लेकर
नयनों में नूतन स्वप्न संजोकर
हर दिन नये-नये से मीत बनाऊँ
मन करता है हर दिन
नये- नये से स्वर संजोकर
नई सी ताल, एक नई धुन पर
हर दिन एक नया गीत गुनगुनाऊँ
मन करता है हर दिन
एक नई अभिलाषा लेकर
नई-नई सी आशा लेकर
हर दिन एक नया आदर्श सजाऊँ
मन करता है हर दिन
निज हृदय से कर स्नेह सिंचन
पावन मुस्कान से भर सूनापन
हर दिन अँधियारे पथ पर दीप जलाऊँ ।
--मीना जैन
ये मेरी पहली कविता तो नहीं, ये मैंने तब लिखी थी जब मैं १६ वर्ष का था..अभी मेरी आयु १९ वर्ष है..ये एक कवि और भगवान के बीच के संवाद को बतलाती एक रचना है.
नेता और भगवान
भगवान हमारी तपस्या से प्रसन्न हुए
हमारे सामने प्रकट हुए और बोले
माँग क्या माँगता है
मैंने कहा कितना अच्छा हो जाये
अगर देश के सभी नेता नष्ट हो जायें
भगवान ने उत्तर दिया, अगर ऐसा हो गया
तो तुम कवि भूखे मर जाओगे
अपनी कविताओं के लिये रोल माड्ल किसे बनाओगे
चमचागिरी करने वाले, न्यूज़ चैनल वाले, अखबार वाले
न जाने कितने बेकार हो जायेंगे
और देश में बेरोजगार की संख्या को और बढ़ायेंगे
मैंने कहा भगवान इस देश का क्या होगा
भगवान ने कहा जो होगा मंजूरे नेता होग
मैंने कहा ये जनता कहाँ जायेगी
आप ही हाथ झटक रहे हैं तो अपना दुखड़ा किसे सुनायेगी
भगवान ने कहा इस समस्या से मेरा कोई नाता नहीं
ये सब तुम्हारी ही देन है
कोई हिंदू कोई मुसलमान को सिख कोई ईसाई तो कोई जैन है
तुमन्हे इंसान, जमीन सबका बँटवारा कर दिया
ये हमार तो वो तुम्हारा कर दिया
अगर हुम तुम्हारी पहुँच से स्वर्ग नहीं बनाते
क्या मालूम तुम उस पर भी अतिक्रमण कर डालते
--अर्पित सिंह परिहार
पेड़ लगाओं पेड़ लगाओ
अपना जीवन और बढ़ाओ।
फिर धरती पर आयेगी हरियाली,
कहीं नही पड़ेगा सूखा।।
पेड़ हमें अन्न फूल फल देते,
फिर भी हम इन्हे काट देते।
पेड़ हमारे बहुत काम कें,
पेड़ लगाओं पेड़ लगाओं
जून, सन् 1993
--प्रमेन्द्र प्रताप सिंह
मैं बचपन में साधारण रुप से किसी नौकरी वाले के साथ शादी करना चाहती थी किन्तु मेरे घर वाले मेरी इस इच्छा को पूरी नहीं कर पाये. पारंपरिक रूप से मेरी शादी भी नहीं हो सकी. मेरे पिता ने अपने घर मेरे भाई की बहू लाने के लिये बदले मे मुझे माला पहनाकर भाई के साले को दे दिया, मैं उसके साथ वैवाहिक जीवन के कुछ ही दिन बिता पाई थी कि मेरे पति पेड़ से लकड़ी काटते समय पेड़ से गिर पड़े और रीड़ की हड्डी टूट गयी. मैंने उनकी सात वर्ष तक सेवा की. पति के देहावसान के बाद मैं भावनात्मक रूप से टूट चुकी थी और मुझे कोई सहारा नहीं दिखाई दे रहा था. अतः मैंने आश्रम में जीवनयापन करने का निश्चय किया. इसी दौरान मुझे एक ऐसा आदमी मिला जिसने बहन के रूप में जीवन भर सहारा देने का प्रस्ताव रखा, मेरी पढ़ाई प्रारम्भ करवाई. मुझे लगा कि इस तरह के रिश्ते में शायद साथ-साथ रहना संभव न हो सके. अतः हमने पति-पत्नी के रूप में ही साथ रहने को उचित समझा. किन्तु हम दोनों के स्वभाव में भिन्न्ताओं के कारण उसके साथ भी रहना सम्भव न हो सका. ओपन स्कूल से दसवीं व बारहवीं की और वर्तमान में राजकीय महाविद्यालय बडकोट जिला उत्तरकाशी उत्तराखण्ड से स्नातक द्वितीय वर्ष की नियमित छात्रा हूँ.
किसका था इन्तजार?
थी बसन्त की भोर
उर में मचा था शोर
दिल बहलाने निकली
जंगल की ओर
किसका था इन्तजार?
छिन्न-भिन्न हो रहे थे
स्मृतिओं के तार
पहाड़ी पर खिले थे बुरांश
झूम रहे थे नाच रहे थे मदमस्त
उठ गये मेरे हाथ
लगाने को वेणी में पुष्प
मना किया उसने हिलाकर माथ
अचानक हवा हो गयी बन्द
बादल आ गये चन्द
कविता के हों ज्यों छ्न्द
वर्षा की रिम-झिम से
तन भीगने लगा
स्मृतिओं के घन से
मन सीझने लगा
पेड झूमकर झांकने लगे
गुन-गुन करते भंवरे
मुझे आंकने लगे
चल पडी हवा धूप निकल आई
कोयल ने भी आवाज सुनाई
किसका था इन्तजार?
मैं समझ न पाई.
--श्रीमती पुष्पा राणा
भावों का संप्रेषण करने को एवं एकाकीपन के अहसास को भ्रिन्गुरित करने को कब कागज पर शब्दों को उकेरना शुरु किया ख़ुद को भी पता नहीं चल पाया। कुछ लोगों नें कहा यह कविता है तो भागा भागा परम पूजनीय पिता के पास पहुँचा। तब से शुरू हुई साहित्य सीखनें की क्रिया तो आज तक चल रही है। वर्तमान में दिल्ली में विपणन के कार्य में संलग्न।
जीवन संग्राम
हे रति
एक बार पुनश्च
तुझको नृत्य करना होगा
कमादग्नी का काम लास्य
तुझको फिर से धरना होगा
पिनाकिना का शक्ति उन्माद
नाग फनी सम करता निन्नाद
भग्न्मनोर्था हो रही सती फिर
काम देव का निकट विनाश
गर्वोन्मत्त शव का शिव हास
त्रिनेत्र किन्तु हा ! अंध भास
काम देव के दग्ध पुष्प वाण
जज्ज्वल, विदेह फिर तेरा नाथ
शक्ति धरती है विद्रूप रूप
यही मही का सत्य स्वरूप
तप ताप से विदग्ध धाम
पशुपति में करो प्रेम विधान
हे रति
गर्भित कर दो नृत्य प्रधान .......
अरी मेनका .....
धर लो सोलह श्रिंगार भाव
निर्निमेष हठधर्मी सम बैठा
चिदाकाश धारे विश्वामित्र अकेला
प्रीथ्वी की चिंता रेखाओं का
स्वर्ग लोक में वितान हुआ
हस्त कम्पन मैं वज्र हुआ
ऐरावत भी सहम रहा
शुक्र, गुरु स्तब्ध हुए
एक बार पुनश्च
भय का अवसान हुआ
री मेनका .....
याद तेरी अब आई
अरी वासना की व्याली
लास्य नृत्य मुद्रा वाली
रति मही पर सबको भाई
अहम्, शक्ति, भय, वासना
मोह, जीवन के आधार
भू धारा शमशान किया
सदियों से, क्या पाया ....
रे मानव .......
अब तो बुद्ध बनो ....... !!!!
--उत्पल कान्त मिश्रा
मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है कि मेरी पहली कविता कौन-सी है। एक पुरानी डायरी पड़ी है मेरे पास, इसलिए उसकी पहली कविता को हीं अपनी जिंदगी की पहली कविता मानने को विवश हूँ, जबकि मुझे ज्ञात है कि मैने इस कविता को लिखने से पहले लगभग ५०-६० कविताएँ लिख डाली थीं। अब यह अलग बात है कि वे सारी कविताएँ बालपन की कविताएँ है, जो मैने जूता, चप्पल, पेड़, पौधों पर लिखी थीं। वैसे जो कविता मैं प्रस्तुत करने जा रहा हूँ , वह भी एक बच्चों वाली हीं कविता है और शायद इसे मैने अपनी आठवीं कक्षा में लिखा था।
दीनता:एक अभिशाप
वातावरण था अत्यंत नम,
छाया चारों ओर था तम,
सभी घरों के बंद किंवाड़,
सड़कों पर व्यक्ति थे कम।
गिर रहे थे हिम-कण,
कर अतिशीत रूप धारण,
और उर भी काँप रहा था,
ठंढ उजागर या गोपन।
तभी कोने में दीख पड़ा वह,
ठंढक को रहा था सह,
वस्त्र भी थे फटे हुए,
जमे देह पर तुषार के तह।
उसकी ओर न किसी का ध्यान,
न दृष्टिधारी पूत पावन,
सूखे घासों को जलाकर,
किसी तरह बचाता जान।
पीठ से पेट था सटा हुआ,
था समाज से कटा हुआ,
लेकिन अधर्मी नहीं था वह,
धर्म पर था डँटा हुआ।
गली का कोना कक्ष-शयन,
झुके हुए थे उभय-नयन,
उसके समीप था एक श्वान,
जो भूख से करता क्रंदन।
चार शतक हीं देखा जीवन,
लेकिन नहीं थी आशा-किरण,
नीरव, अकेला पड़ा वह,
जैसे इंतजार करते भगवन।
मुख था मक्खियों का आलय,
पैर सिकुड़े ठंढ के भय,
कर भी साथ नहीं देते,
अवस्था थी पूर्ण दयनीय।
शरीर में जमने लगा रूधिर,
जैसे निर्दयी बना हो शिशिर,
इसकी अवस्था देख आज,
भगवन भी गए सिहर।
अंतत: दीन ने पाया परलोक,
कोई नहीं था, जो करे शोक,
कुछ उरधारी खोले किंवाड़,
पर ठंढ ने उनको दिया रोक।
--विश्व दीपक 'तन्हा'
मां सरस्वती
मां सरस्वती! वरदान दो
कि हम सदा फूलें-फलें
अज्ञान सारा दूर हो
और हम आगे बढ़ें
अंधकार के आकाश को
हम पारकर उपर उठें
अहंकार के इस पाश को
हम काट कर के मुक्त हों
क्रोध की अग्नि हमारी
शेष होकर राख हो
प्रेम की धारा मधुर
फिर से हृदय में बह चले
मां सरस्वती! वरदान दो
कि हम सदा फूलें-फलें!
मां सरस्वती - शुद्ध गद्य है - यह कविता कैसे हुई। एक प्रार्थना मात्र है।इसे गद्य की तरह पढ़ें। क्या गद्य को तोड़-तोड़कर मुद्रित कर देने से ही कविता हो जाती है मात्राएं भी सब पंक्तियों की एकसी नहीं हैं:15,13,14,12 - यह पहली चार पंक्तियों की मात्राएं हैं - छन्द भी ठीक नहीं - डॉ.प्रभाकर माचवे/3-1-88
.............. यह मेरी पहली कविता है , निराला की 'वर दे वीणा वादिणी वर दे' का असर था मन पर उसी को ध्यान में रख मैंने अपने ढंग से यह कविता लिखी थी जिस पर माचवे ने यह टिप्पणी की थी
--कुमार मुकुल
ये उन दिनों की बात है जब दूरदर्शन पर एक ऐसा सीरियल आता था जिसमें जहाँ तक मुझे याद है साहित्यकारों का बचपन दिखाया जाता था। इस कार्यक्रम का नाम अभी मैं भूल रहा हूँ। ५ दिसम्बर १९८९ को शायद सुकुमार राय (प्रसिद्ध बंगाली साहित्यकार) के बारे में बताया जा रहा था, उस सीरियल में सुकुमार राय को कक्षा के अध्यापक द्वारा कविता लिखकर लाने को कहा जाता है जोकि स्वयं की लिखी हो। सुकुमार बच्चा हैं, कैसे लिखें? समझ नहीं आता। उनके परिवार का कोई सदस्य कहता है कि जैसा तुम देखते हो वैसा ही लिख दो। उसी बात से प्रेरित होकर मैंने कविता लिखने की ठानी और उसी दिन कविताएँ लिखी, पहली आपकी नज़र कर रहा हूँ।
चित्र
सुना है-
चित्र समाज के दर्पण होते हैं
यथार्थ के लकीरों पे खिंचे हुए
मुझे भी एक चित्र बनाना है
चटकीले रंगों से सजाना है।
लेकिन यह क्या
मेर चटकीले रंग तो कहीं खो गये हैं
या फिर नफ़रत के धुएँ से काले हो गये हैं।
मेरी तूलिका में रह गये हैं
अंधकार को दर्शानेवाले
कुछ रक्तोच्छिष्ट रंग?
लेकिन
जानता हूँ मैं कि-
मेरी कृति लोकप्रिय होगी
क्योंकि
लोग नहीं चाहते हैं देखना
वही पुराने फीके
प्रेम
त्याग
सहिष्णुता
अहिंसा के रंग
अब उनकी बदली आँखों को अच्छे लगते हैं
साम्प्रादयिकता के
घृणा के
स्वार्थसिक्त हिंसा के
गढ़े गाढ़े उष्ण रंग
क्योंकि लो तो विभ्रान्त हैं
अरण्य के मरुस्थल की मृगतृष्णा में!
विराट सी मृगतृष्णा में!!
उन्हें नहीं मालूम
दूर से प्यारे लगने वाले ये रंग
कितनी अमा, विनष्टि और भयानकता किये हैं अंतर्मुक्त
क्योंकि
लोग तो स्वयं मृग हैं
और उन्हें यह भी नहीं मालूम
कि उनके हरे-भरे वन से उलझाकर
मृगतृष्णा में चाँदी का सा आभास देते
निर्जन, तपते मरुस्थल में
क्यों हाँका गया है
लेकिन जानता हूँ मैं
कि अब उस वन में
सफेद रंग से पुते बनेंगे काले भव्य अड्डे
उसी वन की छायांका हरीतिमा में
और मुझे यह सब दिखाना है
मुझे एक चित्र बनाना है।
--अवनीश गौतम
बहुत दिनों से हिन्द-युग्म से निमंत्रण आ रहा था कि अपनी पहली कविता भेजें। चाह कर भी हम ये निमंत्रण स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। हमने पहली कविता स्कूल के दिनों में लिखी थी शायद नौवीं क्लास में थे। कविता कहना भी उसे ठीक न होगा क्यों कि वो हमारे कोर्स में लगी सरोजनी नायडू की एक अंग्रेजी की कविता की पैरोडी थी, उसका शीर्षक था "राम रे राम, आई शैल डाई" अब ये तो याद नहीं कि सरोजनी नायडू ने ये शीर्षक अपनी कविता को क्यूँ दिया था लेकिन हमने इस कविता की तर्ज पर अपनी परीक्षा के डर को जाहिर किया था। खैर वो तो बात आयी गयी हो गयी। सब लोग खूब हंसे थे, बस इतना याद है। लेकिन जैसे-जैसे उम्र की सीढ़ियां चढ़ने लगे तो जैसे सबकी जिन्दगी में होता है हमारे साथ भी वही हो रहा था। हम अक्सर मन ही मन भगवान से बातें किया करते थे ( अब भी करते हैं ) तो उसी समय की हमारी पहली हिन्दी कविता यहां पेश है।
अस्तित्व
जब से तुमसे पहचान हुई है
मैं कुछ न कुछ मांगती आई हूँ
सभी मांगते हैं,
शर्म कैसी?
कभी तुम दे देते हो
कभी मुंह फ़ेर लेते हो
जब देते हो तो मैं
प्रथानुसार
धन्यवाद करने तेरे दर पर चली आती हूँ
जब नहीं देते तो?
तो ये सोच कर के मेरे मांगने में ही कमी थी
खुद को दोषी ठहरा देती हूँ
मगर ये बकवास है दिल की
वर्ना
दिमाग ये सोचत है
कि मांगने में भी क्या
कमी रह जाती है
जब हाथ फ़ैलाया है
तो फ़ैलाया है
चारों उंगलियां खोली हैं
और अजुंली बनायी है
बाकी तो तुम्हें रखना है
हथेली पर
इसमें कमी मांगने की हुई
या देने की?
पर जाने दो
तुम जगपिता हो
सर्वदाता
तुम्हें गलत कहने का
क्या अधिकार मुझे
कोई मायने भी नहीं रखता
फ़िर भी मेरी संस्मरणावली में
बचपन की कोई ऐसी कोई याद नहीं
जब मैने कुछ मांगा हो
और तुमने दिया हो
शायद! मैं एहसानफ़रामोश हूँ
मन भटकता है
आस्था कण कण कर टूटती है
फ़िर भी
ये इतनी बड़ी है कि
कण कण कर टूटे तो भी
मेरी जिन्दगी चुकने से पहले
इसका अस्तित्व न मिट पायेगा।
--अनिता कुमार
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
14 कविताप्रेमियों का कहना है :
वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।
aakanksha bahut sahi wo 21 wi sadi ki beti hai bahut sundar
जवाहर, गाँधी के बाद इन्दिरा आपने,
राह नई दिखाई हम सब को,
जो श्रद्धा भक्ति के दीप तुमने जलाये,
फर्ज हमारा उसे न कभी हम बुझाये।
rajeshri bahut khub,indara ji sabhi ka aadarh rahi hai badhai
मेरा एक बचपन था प्यारा,
गुज़रा था जो माँ की गोद में,
रोता था पहले पल में फ़िर,
अगला पल गुज़रता आमोद-प्रमोद में...
छोटे-छोटे दुःखडे होते थे,
सुख के फूल बिखरे होते थे,
wah nikhil ji sundar bachpan chitara hai badhai
गरीब की झोंपड़ी में
भूख सोती है
अमीरों का जश्न जब गरीबों के
आँसुओं पर मनाया जाता है
उन छलकते जामों में
कहीं गरीब का खून सिसकता है
manisha ek vastav vadi chitran,ek tis chod gaya dil mein magar ahi satya hai,badhai
गरीब की झोंपड़ी में
भूख सोती है
अमीरों का जश्न जब गरीबों के
आँसुओं पर मनाया जाता है
उन छलकते जामों में
कहीं गरीब का खून सिसकता है
gitika bilkul sahi sapne dekhne chahiye,wahi haqiqat ban jate hai koshish honi chahiye,sundar badhai
तेर मुलायम अलकों के झटकने से
मस्तिष्क का संत्रास हट जाता है
तुमने नहीं बाँधा इस जूड़े को क्यों
मेरा स्वर फिज़ाओं में बहक जाता है
dharam prakash ji wah kya baat hai julfon ka jadu sundar kavita badhai
मन करता है हर दिन
नई-नई सी चित्रपटी पर
नई तूलिका नये रंग लेकर
हर दिन एक नई सी छवि बनाऊँ
मन करता है हर दिन
प्रीत की भावना मन में लेकर
नयनों में नूतन स्वप्न संजोकर
हर दिन नये-नये से मीत बनाऊँ
geeta ji atisundar,man ki baat sach mein kar leni chahiye,awesome badhai
मैंने कहा कितना अच्छा हो जाये
अगर देश के सभी नेता नष्ट हो जायें
भगवान ने उत्तर दिया, अगर ऐसा हो गया
तो तुम कवि भूखे मर जाओगे
अपनी कविताओं के लिये रोल माड्ल किसे बनाओगे
चमचागिरी करने वाले, न्यूज़ चैनल वाले, अखबार वाले
न जाने कितने बेकार हो जायेंगे
और देश में बेरोजगार की संख्या को और बढ़ायेंगे
arpit ji aare wah kya khub baat kahi,bhagwan ka bhi lena dena nahi,ye sahi hai,insaan ne hi insaan ko baat rakha hai,vyang ke jariya sundar sandes badhai
पेड़ हमें अन्न फूल फल देते,
फिर भी हम इन्हे काट देते।
पेड़ हमारे बहुत काम कें,
पेड़ लगाओं पेड़ लगाओं
pramendra pratap ji,sahi hai greenery will make enviorment happy,nice poem congrates
वर्षा की रिम-झिम से
तन भीगने लगा
स्मृतिओं के घन से
मन सीझने लगा
पेड झूमकर झांकने लगे
गुन-गुन करते भंवरे
मुझे आंकने लगे
चल पडी हवा धूप निकल आई
कोयल ने भी आवाज सुनाई
किसका था इन्तजार?
मैं समझ न पाई.
pushpa aapki kavita ne man moh liya,khubsurat varnan badhai
हे रति
एक बार पुनश्च
तुझको नृत्य करना होगा
कमादग्नी का काम लास्य
तुझको फिर से धरना होगा
पिनाकिना का शक्ति उन्माद
नाग फनी सम करता निन्नाद
भग्न्मनोर्था हो रही सती फिर
ottpal kant ji shuruwat hi itani alankari aur khubsurat hai ki kya kahu sundar,aur aakhari mein buddha ban jane ka sandes aur bhi sarthak bana raha hai kavita badhai
पीठ से पेट था सटा हुआ,
था समाज से कटा हुआ,
लेकिन अधर्मी नहीं था वह,
धर्म पर था डँटा हुआ।
गली का कोना कक्ष-शयन,
झुके हुए थे उभय-नयन,
उसके समीप था एक श्वान,
जो भूख से करता क्रंदन।
deepak tanha ji,dinata ka sahi chitran,rula hi diya aapki kavita ne badhai
पीठ से पेट था सटा हुआ,
था समाज से कटा हुआ,
लेकिन अधर्मी नहीं था वह,
धर्म पर था डँटा हुआ।
गली का कोना कक्ष-शयन,
झुके हुए थे उभय-नयन,
उसके समीप था एक श्वान,
जो भूख से करता क्रंदन।
kumar mukul ji aapki prarthana mayi sundar rachana bahut hi sundar hai jaise aatma ka shuddhikaran ho isse padhkar badhai
लोग तो स्वयं मृग हैं
और उन्हें यह भी नहीं मालूम
कि उनके हरे-भरे वन से उलझाकर
मृगतृष्णा में चाँदी का सा आभास देते
निर्जन, तपते मरुस्थल में
क्यों हाँका गया है
लेकिन जानता हूँ मैं
कि अब उस वन में
सफेद रंग से पुते बनेंगे काले भव्य अड्डे
उसी वन की छायांका हरीतिमा में
और मुझे यह सब दिखाना है
मुझे एक चित्र बनाना है।
avinash ji bahut sundar,duniya ko uska asli roop dikhane ke liye is chitra ki bahut jarurat hai,badhai
दिमाग ये सोचत है
कि मांगने में भी क्या
कमी रह जाती है
जब हाथ फ़ैलाया है
तो फ़ैलाया है
चारों उंगलियां खोली हैं
और अजुंली बनायी है
बाकी तो तुम्हें रखना है
हथेली पर
इसमें कमी मांगने की हुई
या देने की?
पर जाने दो
तुम जगपिता हो
सर्वदाता
तुम्हें गलत कहने का
क्या अधिकार मुझे
anita ji man ke bhavon ka bahut achha chitran,hum kabhi kabhi haar jate hai,aur aur bhagwan mangne se bhi kuch nahi deta,vishwas dhudla ho jata hai,magar phir bhi dukh mein hum bhagwan ko hi yaad karte hai,aastha kum jarur hoti hai magar mit nahi sakti,sundar badhai
मनीषा जी बहुत ही भाबुक व सच्ची कविता लिखी है आपने
प्रथम कविता की बात ही निराली होती है। सभी कविताएं अच्छी लगी, विशेषकर सभी कविताओं पर महक जी की टिप्पणी
SABHI PRATIBHAGIYO KO MERA SALAAM!
MUJHE VSEVOLOD KEHTE HEI
MAIN RUSSIA KA VASI HU
SANYOGVASH HINDYUGM KE BARE ME JANKAR PEHLI KAVITA KI PRATIYOGITA ME BHAG LIYA
MERI KAVITAE SI LIKHNE ME MUJHE BAHUT HUSHI MILI
HALANKI ACCHI TARAH JANTA HU KI VE SAB BETARAH KI NIKALI
TIS PAR BHI MUJHE ASHA HE KI...
MUJHE HINDI ITNI ACCHI TARAH ATI NAHI JAYSA KI AAP AAP KO
SANKSHIPT ME HAR KISIKO MERA HARDIK SALAAM!!!
पहली कविता देख-देख हम दंग हो गये
पहले के चक्कर में सैकडों रंग हो गये
जब पहले ही कदम पर इतने रंगीले सपने
कैसा होगा हाल जब होंगें चर्म पे अपने
एक से बढकर एक मिली देखो कविताई ।
साहित्य प्रेमियों सभी को मेरे दिल से बधाई ॥
महक जी धन्यवाद
सभी कवियों /कवयित्रियों को हार्दिक बधाई और हिंद yugm के इस प्रयास की जितनी सराहना की jaae कम है | ऐसा mahaan kaary करने पर हिंद yugm को बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं
vesevolod ji , aage bhi aapki kavita ka intazaar rahega,u r from russia still write read and make poem in hindi,thats so nice and great,feeling haapy to see u on hindyugm.
thanks seema ji
geetika bhardwaj
जवानी आयी और बचपन विदा हो गया! पर जाते जाते बचपन कुछ कह गया! बचपन की जवानी को सीख, इस कविता में.
दुनिया-और-मैं
एक बच्चे की मासूम प्रार्थना! एक योगी की साधना यही प्रार्थना है
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