नहीं है सांझ अपनी औ सवेरा ।
न आया रास मुझको शहर तेरा ॥
वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा ।
वहाँ कस्बे में था आंगन लगा घर,
यहाँ सूरज न ही है चांद मेरा ।
यहाँ बसते हैं लगता चील कौवे,
हमेशा नोंचते हैं मांस मेरा ।
हुई है खत्म लगता जात आदम,
बना हर घर यहाँ भूतों का डेरा ।
जिधर देखो उधर हैवान दिखते,
कहाँ खोजूँ मैं इंसां का बसेरा ।
गुजारा हो नहीं सकता यहां पर,
मुझे लगता नही यह शहर मेरा ।
कवि कुलवंत सिंह
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
न छत है ,न आसमां है मेरा ,
कैसा है ये रैन बसेरा ,
कैसा है ये शहर तेरा ,
कैसा है शहर मेरा
गुजारा हो नहीं सकता यहां पर,
मुझे लगता नही यह शहर मेरा ।
बहुत खूब लिखते हैं आप
वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा ।
ये पंक्तियाँ मुझे बहुत सुंदर लगी. कवि कुलवंत जी को साधुवाद.
गजल पसंद आयी
जिधर देखो उधर हैवान दिखते,
कहाँ खोजूँ मैं इंसां का बसेरा ।
ये शे'र सबसे ज्यादा पसंद आया
सुमित भारद्वाज
यहाँ बसते हैं लगता चील कौवे,
हमेशा नोंचते हैं मांस मेरा ।
वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा ।
कुछ दिन बाद ये पंक्तियाँ ग़ज़लों का हिस्सा नहीं रह जायेंगी क्यूंकि बेहद आम हो जायेंगी....कड़वे सच को बढ़िया शब्दों में पिरोया है...एकाध शेर कम रखते तो भी भाव उतने ही गहरे रहते.....
यहाँ बसते हैं लगता चील कौवे,
हमेशा नोंचते हैं मांस मेरा ।
बहुत अच्छा लगा | आधुनिक महानगरीय जीवन के त्रासदी को बखूबी ब्यान किया है आपने ....सीमा सचदेव
Neelam Ji, Ranjana ji, Prem Chand Ji, sumit ji, Nikhil Ji, Seema Ji
..aap sabhi kaa hardik dhanyavaad...
वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा ।...
ये शे’र अधिक पसंद आया।
वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा ।
वहाँ कस्बे में था आंगन लगा घर,
यहाँ सूरज न ही है चांद मेरा ।
यहाँ बसते हैं लगता चील कौवे,
हमेशा नोंचते हैं मांस मेरा ।
थोड़े शब्दों में बहुत गहरे भावः क्या कहने बहुत सुंदर
सादर
रचना
वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा ।
'रूम' शब्द का प्रयोग बहुत अच्छा किया गया है कई बार आंग्ल भाषा के शब्दों का प्रयोग गजल के प्रवाह को रोकता है और बेमेल सा लगता है आपकी सोच इस शेर में कुछ और अच्छी गति से प्रवाहित हो रही है
शुभकामनायें
kavi kulwnt ji apki gazal achchhi lagi khaskr uska 1sher,wahan poora mohlla tha apna,yahan ek room kakona mera.... bahut achchha likhte hai aap..
"ghazal parh kr kavi kulwant ji ki
ghira hai aankh meiN baadal ghanera"
......jnaab ! bahot hi umdaa ghazal kahee hai aapne.. jiddat ka b.khoobi istemaal karte hue ghazal ki azmat ka bhi poora khayaal rakkha hai....aafreen .
वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा ।
वाह बहुत खूब लिखा है कुलवंत जी,सचमुच लाजवाब.
आलोक सिंह "साहिल"
कुलवंत जी,
आपकी पिछली रचना से यह रचना मुझे कई सारे मामलों में कमजोर लगी।
आपने मतले में "सवेरा-तेरा" को काफ़िया बना है, इस तरह "एरा" की बंदिश है। यह बंदिश दो शेर तक चली है, उसके बाद आपन इस काफ़िया को रदीफ़ बना दिया है और "चांद-मांस" की बंदिश डाल दी है, फिर आगे जाकर आप वापस वही काफ़िये पर लौटे हैं।
इस मामले में यह गज़ल(कथित गज़ल) स्तर तक नहीं पहुँच पाई है।
भाव अच्छे हैं,लेकिन गज़ल में शिल्प को नज़र-अंदाज नहीं किया जा सकता। ध्यान देंगे।
namaskaar! arz kr duuN k `tanhaaji` ki baat pr ghaur kreNge to aapke lekhan meiN aur zyada nikhaar aayega...ghazal kehte waqt radeef aur qaafiya ka bahot bareeqi se khyaal rakhnaa hota hai.3 sheroN meiN lgataar `mera` qaafiya aane se kuchh garhbarh si ho gayi hai..yooN lagne lga k `mera` ko aap radeef ke taur pr istemaal kr rahe haiN...koi baat nahee, jazbaat ki rau meiN beh jane se aisa ho jana mumkin hai..mujhe yaqeen hai aap khyaal rakheNge
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