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माँ की दी चीजों से बतियाती है माँ


रिश्तों की
सिलवटों को खोल
धूप दिखाती है
आँगन में सूखते हैं वो
भीगती है माँ
पेड़ की फुनगी से
उतार कर
घर में बोती है भोर
पर मन के
अँधेरे कोने में
स्वयं बंद होती है माँ
उजाले की
एक- एक किरण
सबके नाम करती है
और साँझ को
आँचल के कोने में
गठिया लेती है माँ
चौखट से अहाते तक
बिखरी होती है
सभी की इच्छाएँ
रात अकेले में
अभिलाषाओं की गठरी
चुपके से खोलती है माँ
रिमोट छीनने की जद्दोजहद
टी वी पर
समाचार का शोर
तेज संगीत की चकाचौंध
इन सबसे अलग
रसोई में
लोकगीत गुनगुनाती है माँ
गैरों के ताने
बरसते हैं
वो भीगती नहीं
अपनों की उपेक्षा
उसे बहा ले जाती हैं
सभी से छुपा के
पोंछती है आँसू
और उठके
काम करने लगती है माँ
होता है समय सभी के पास
पर उसके लिए नहीं
झुर्रियों में
अपना यौवन तलाशने को
खोलती है
दहेज़ का बक्सा
सहलाती है शादी का जोड़ा
माँ की दी चीजों से बतियाती है माँ

कवयित्री- रचना श्रीवास्तव

माँ विषय पर संकलित ढेरों कविताएँ, कहानियाँ, बाल-रचनाएँ पढ़ने और ऑडियो-वीडियो सुनने-देखने के लिए यहाँ क्लिक करें।

एक उदास कविता...जैसे तुम


गांव सिर्फ खेत-खलिहान या भोलापन नहीं हैं,

गांव में एक उम्मीद भी है,

गांव में है शहर का रास्ता

और गांव में मां भी है...


शहर सिर्फ खो जाने के लिए नहीं है..

धुएं में, भीड़ में...

अपनी-अपनी खोह में...

शहर सब कुछ पा लेना है..

नौकरी, सपने, आज़ादी..


नौकरी सिर्फ वफादारी नहीं,

झूठ भी है, साज़िश भी...

उजले कागज़ पर सफेद झूठ...

और जी भरकर देह हो जाना भी..


देह बस देह नहीं है...

उम्र की मजबूरी है कहीं,

कहीं कोड़े बरसाने की लत है...

सच कहूं तो एक ज़रूरत है..


और सच, हा हा हा..

सच एक चुटकुला है....

भद्दा-सा, जो नहीं किया जाता

हर किसी से साझा...

बिल्कुल मौत की तरह,

उदास कविता की तरह....

और कविता...

...................

सिर्फ शब्दों की तह लगाना

नहीं है कविता,..

वाक्यों के बीच

छोड़ देना बहुत कुछ

होती है कविता...

जैसे तुम...

 
निखिल आनंद गिरि

चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...


तितर-बितर तारों के दम पर,
चमचम करता होगा रात का लश्कर,
चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...

एक दो कमरों का घर रहा होगा,
एक दरवाज़ा जिसकी सांकल अटकती होगी,
अधखुले दरवाज़े के बाहर घूमते होंगे पिता
लंबे-लंबे क़दमों से....
हो सकता है पिता न भी हों,
गए हों किसी रोज़मर्रा के काम से
नौकरी करने....
छोड़ गए हों मां को किसी की देखरेख में...
दरवाज़ा फिर भी अधखुला ही होगा...

मां तड़पती होगी बिस्तर पर,
एक बुढ़िया बैठी होगी कलाइयां भींचे....
बाहर खड़ा आदमी चौंकता होगा,
मां की हर चीख पर...

यूं पैदा हुए हम,
जलते गोएठे की गंध में...
यूं खोली आंखे हमने
अमावस की गोद में...
नींद में होगी दीदी,
नींद में होगा भईया..
रतजगा कर रही होगी मां,
मेरे साथ.....चुपचाप।।
चमचम करती होगी रात।।।

नहीं छपा होगा,
मेरे जन्म का प्रमाण पत्र...
नहीं लिए होंगे नर्स ने सौ-दो सौ,
पिता जब अगली सुबह लौटे होंगे घर,
पसीने से तर-बतर,
मुस्कुराएं होंगे मां को देखकर,
मुझे देखा भी होगा कि नहीं,
पंडित के फेर में,
सतइसे के फेर में....

हमारे घर में नहीं है अलबम,
मेरे सतइसे का,
मुंहजुठी का,
या फिर दीदी के साथ पहले रक्षाबंधन का....
फोटो खिंचाने का सुख पता नहीं था मां-बाप को,

मां को जन्मतिथि भी नहीं मालूम अपनी,
मां को नहीं मालूम,
कि अमावस की इस रात में,
मैं चूम रहा हूं एक मां-जैसी लड़की को...

उसकी हथेली मेरे कंधे पर है,
उसने पहन रखे है,
अधखुली बांह वाले कपड़े...
दिखती है उसकी बांह,
केहुनी से कांख तक,

एक टैटू भी है,
जो गुदवाया था उसने दिल्ली हाट में,
एक सौ पचास रुपए में,
ठीक उसी जगह,
मेरी बांह पर भी,
बड़े हो गए हैं जन्म वाले टीके के निशान,
मुझे या मां को नहीं मालूम,
टीके के दाम...

निखिल आनंद गिरि
(मेरा जन्मदिन भी है, मेरी कविता भी है....आपकी बधाई का इंतज़ार है....)

माँ के लिए एक ख़त


माँ!

कहने को इस शहर से रिश्ता
साल भर का हो गया है
अब तक तो इसे चलना सीख लेना था
पर जाने क्यूँ माँ
इसे बीमारी लग गई है, अकेलेपन की
और ये रिश्ता, अपाहिज हो गया है
सोचा था इस शहर के रिश्ते से
नए रिश्ते मिलेंगे, मगर
यहाँ रिश्ते मोबाइल में बंद रहते हैं
एसएसएस पर पलते हैं
कोई भूली-सी हँसी
या कोई फीकी-सी डाँट
बस इतनी-सी है अब तक की जमापूँजी माँ

दौड़ में शामिल हैं, या खुद से भागते हैं
इस शहर के लोग, जाने किस जल्दी में रहते हैं

बहुत तरसती हूँ माँ
फातिमा बुआ की डांट को, और पिंकी बुआ के दुलार को
कुच्हू की झगड़ने की आदत को
लवली दीदी के प्यार को
यहाँ पड़ोस में रिश्ते नहीं मिलते माँ
बस लोग हैं, जिन्हें कहने को पडोसी कहते हैं
यहाँ की रिश्ते तो जैसे सोये हुए रहते हैं

कुछ दिन हुए
शर्मा आंटी भी घर बदल गई
तुमसी बस वो ही थी
वो भी चली गई
डाँटी थी, तो बचपन याद आता था
और जब परांठे खिलते हुए, सर पे हाथ फेरती थी
मैं अपने सारे गम भूल जाती थी

याद है माँ
जब मैं रूठ जाती थी
तू मेरे लिए, खोये की बर्फी बनती थी
जाते जाते, शर्मा आंटी डिब्बा भर दे गई हैं
उन्हें खाती हूँ तो रोना आता है
मीठा इतना तीखा कभी नहीं लगा माँ

कहते हैं भगवान् हर जगह नहीं होता
तभी माँ होती है अपने बच्चों के पास
मेरे पास न तो तू है, न भगवान्...!!

तेरी बेटी।

कवयित्री- दीपाली आब

मेरे फेल होने का नतीजा मुझसे बेहतर जानती है माँ


हिन्द-युग्म के सभी पाठकों को मातृ दिवस की शुभकामनाएँ। आज हमने इस अवसर पर 40 से अधिक प्रविष्टियों का प्रकाशन किया है। यहाँ देखिए हमारा विशेष अंक। नये प्रकाशन के तौर आज हम युवा कवि विजय शंकर चतुर्वेदी की एक कविता 'माँ की नींद' प्रकाशित कर रहे हैं। विजय शंकर चतुर्वेदी जुलाई 2008 के यूनिकवि रह चुके हैं। इनकी कई कविताएँ हिन्द-युग्म पर पहले से ही संकलित है। हाल ही में इनका एक कविता संकलन राधाकृष्ण प्रकाशन से छपा है। हम फिर कभी इनके संकलन और उसकी कविताओं की चर्चा करेंगे। आज तो माँ के गुणगान का दिन है, उसकी महानता को महसूस करने का दिन है। ऐसे में हमें इनकी यह रचना उपयुक्त लगी-

माँ की नींद

किताब से उचट रहा है मेरा मन
और नींद में है माँ।
पिता तो सो जाते हैं बिस्तर पर गिरते ही,
लेकिन बहुत देर तक उसकुरपुसकुर करती रहती है वह
जैसे कि बहुत भारी हो गई हो उसकी नींद से लंबी रात।

अभी-अभी उसने नींद में ही मांज डाले हैं बर्तन,
फिर बाँध ली हैं मुटि्ठयाँ
जैसे बचने की कोशिश कर रही हो किसी प्रहार से।
मैं देख रहा हूँ उसे असहाय।

माँ जब तब बड़बड़ा उठती है नींद में
जैसे दबी हो अपने ही मलबे के नीचे
और ले रही हो साँस।
पकड़ में नहीं आते नींद में बोले उसके शब्द।
लगता है जैसे अपनी माँ से कर रही है कोई शिकायत।

बीच में ही उठकर वह साफ कराने लगती है मेरे दाँत
छुड़ाने लगती है पीठ का मैल नल के नीचे बैठकर।
कभी कंघी करने लगती है
कभी चमकाती है जूते।
बस्ता तैयार करके नींद में ही छोड़ने चल देती है स्कूल।
मैं किताबों में भी देख लेता हूँ उसे
सफों पर चलती रहती है अक्षर बनकर
जैसे चलती हैं बुशर्ट के भीतर चीटियाँ।

किताब से बड़ी हो गई है माँ
सावधान करती रहती है मुझे हर रोज़
जैसे कि हर सुबह उसे ही बैठना है इम्तिहान में
उसे ही हल करने हैं तमाम सवाल
और पास होना है अव्वल दर्ज़े में।
मेरे फेल होने का नतीजा
मुझसे बेहतर जानती है माँ

ख़ास वक्त है, रोना मना है...


आओ इक तारीख सहेजें,
आओ रख दें धो-पोंछ कर,
ख़ास वक्त है....
कलफ़ लगाकर, कंघी कर दें...
आओ मीठी खीर खिलाएं,
झूमे-गाएं..
लोग बधाई बांट रहे हैं,
चूम रहे हैं,चाट रहे हैं...
किसी बात की खुशी है शायद,
खुश रहने की वजह भी तय है,
वक्त मुकर्रर
9 अगस्त,
घड़ियां तय हैं
24 घंटे...

हा हा ही ही
हो हो हो हो
हंसते रहिए,
ख़ास वक्त है,
रोना मना है...

खुसुर-फुसुर लम्हे करते हैं,
बीते कल की बातें,
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा दिन बिखरे हैं,
रेशा-रेशा रातें....

उम्र की आड़ी-तिरछी गलियों का सूनापन,
बढ़ता है, बढ़ता जाता है...
एक गली की दीवारों पर नज़र रुकी है...
दीवारों पर चिपकी इक तारीख़ है ख़ास,
एक ख़ास तारीख पे कई पैबंद लगे हैं...
हूक उठ रही दीवारों से,
उम्र की लंबी सड़क चीख से गूंज रही है...

जश्न में झूम रहे लोगों की की चीख है शायद,
जबरन हंसते होठों की मजबूरी भी है,
उघड़े रिश्ते,भोले चेहरों का आईना,
कभी सिमट ना पाई जो, इक दूरी भी है...

वक्त खास है,
आओ चीखें-चिल्लाएं हम...
जश्न का मातम गहरा कर दें...
इसको-उसको बहरा कर दें...
आओ ग़म की पिचकारी से होली खेलें,
फुलझड़ियां छोड़ें...
आओ ना, क्यों इतनी दूर खड़े हो साथी,
सब खुशियों में लगा पलीता,
हम-तुम वक्त की मटकी फोड़ें...

ख़ास वक्त है,
इसे हाथ से जाने न देंगे,
जिन घड़ियों ने जान-बूझकर
कर ली हैं आंखें बंद,
उनकी यादें भी भूले से
आने न देंगे...

सांझ ढले तो याद दिलाना
आधा चम्मच काला चांद,
वक्त की ठुड्डी पर हल्का-सा,
टीका करेंगे...
तन्हा चीखों का तीखापन,
फीका करेंगे....

हा हा ही ही
हो हो हो हो
हंसते रहिए,
ख़ास वक्त है,
रोना मना है...

निखिल आनंद गिरि
(आज कवि का जन्मदिन भी है, तो आप बधाई दे सकते हैं...)

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....


जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....
अभी वक्त की मारामारी है,
कुछ सपनों की लाचारी है,
जगती आंखों के सपने हैं...
राशन, पानी के, कुर्सी के...
पल कहां हैं मातमपुर्सी के....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....

अभी वक्त पे काई जमी हुई,
अपनों में लड़ाई जमी हुई,
पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,
ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,
इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....
जब बांध.....

उम्र का क्या है, बढ़नी है,
चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...
घर में मां अकेली पड़नी है,
बाबूजी का क़द घटना है,
सोचूं तो कलेजा फटना है,
इक दिन टूटेगा......

उसने हद तक गद्दारी की,
हमने भी बेहद यारी की,
हंस-हंस कर पीछे वार किया,
हम हाथ थाम कर चलते रहे,
जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....
इक दिन...

जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,
सर्वस्व समर्पण करते रहे,
तुम मोल समझ पाए ही नहीं,
ख़ामोश इबादत जारी है,
हर सांस में याद तुम्हारी है...
इक दिन...

अभी और बदलना है ख़ुद को,
दुनिया में बने रहने के लिए,
अभी जड़ तक खोदी जानी है,
पहचान न बचने पाए कहीं,
आईना सच न दिखाए कहीं!
जब बांध ....

अभी रोज़ चिता में जलना है,
सब उम्र हवाले करनी है,
चकमक बाज़ार के सेठों को,
नज़रों से टटोला जाना है,
सिक्कों में तोला जाना है...
इक दिन....

इक दिन नीले आकाश तले,
हम घंटों साथ बिताएंगे,
बचपन की सूनी गलियों में,
हम मीलों चलते जाएंगे,
अभी वक्त की खिल्ली सहने दे...
जब बांध..

मां की पथरायी आंखों में,
इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,
मेरे आने की आस लिए..
उस उम्र का हर पल बोलेगा....

टूटे चावल को चुनती मां,
बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,
दिन भर का सारा बोझ उठा,
सूना कमरा, सिर धुनती मां....

टूटे ऐनक की लौटेगी
रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...
मां तेरे आंचल में सिर रख,
मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,
मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....

तू चूमेगी, पुचकारेगी,
तू मुझको खूब दुलारेगी...
इस झूठी जगमग से रौशन,
उस बोझिल प्यार से भी पावन,
जन्नत होगी, आंचल होगा....
मां! कितना सुनहरा कल होगा.....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....


निखिल आनंद गिरि

माँ नहीं है


माँ
नहीं है
बस मां की पेंटिंग है, पर
उसकी चश्मे से झाँकती
आँखें
देख रही हैं बेटे के दुख

बेटा
अपने ही घर में
अजनबी हो गया है।

वह
अल सुबह उठता है
पत्नी के खर्राटों के बीच
अपने दुखों
की कविताएं लिखता है
रसोई में
जाकर चाय बनाता है
तो मुन्डू आवाज सुनता है
कुनमुनाता है
फिर करवट बदल कर सो जाता है

जब तक
घर जागता है
बेटा शेव कर नहा चुका होता है

नौकर
ब्रेड और चाय का नाश्ता
टेबुल पर पटक जाता है क्योंकि
उसे जागे हुए घर को
बेड टी देनी है

बेड टी पीकर
बेटे की पत्नी नहीं?
घर की मालकिन उठती है।
हाय सुरू !
सुरेश भी नहीं
कह बाथरूम में घुस जाती है

मां सोचती है
वह तो हर सुबह उठकर
पति के पैर छूती थी
वे उन्नीदें से
उसे भींचते थे
चूमते थे फिर सो जाते थे
पर
उसके घर में, उसके बेटे के साथ
यह सब क्या हो रहा है

बेटा ब्रेड चबाता
काली चाय के लंबे घूंट भरता
तथा सफेद नीली-पीली तीन चार गोली
निगलता
अपना ब्रीफकेस उठाता है

कमरे से निकलते-निकलते
उसकी तस्वीर के पास खड़ा होता है
उसे प्रणाम करता है
और लपक कर कार में चला जाता है।

माँ की आंखें
कार में भी उसके साथ हैं
बेटे का सेल फोन मिमियाता है
माँ डर जाती है
क्योंकि रोज ही
ऐसा होता है
अब बेटे का एक हाथ स्टीयरिंग पर है
एक में सेल फोन है
एक कान सेलफोन
सुन रहा है
दूसरा ट्रेफिक की चिल्लियाँ,
एक आँख फोन
पर बोलते व्यक्ति को देख रही है
दूसरी ट्रेफिक पर लगी है
माँ डरती है
सड़क भीड़ भरी है।
कहीं कुछ अघटित न घट जाए?

पर शुक्र है
बेटा दफ्तर पहुँच जाता है
कोट उतार कर टाँगता है
टाई ढीली करता है
फाइलों के ढेर में डूब जाता है

उसकी सेक्रेटरी
बहुत सुन्दर लड़की है
वह कितनी ही बार बेटे के
केबिन में आती है
पर बेटा उसे नहीं देखता
फाइलों में डूबा हुआ बस सुनता है
कहता है, आंख ऊपर नहीं उठाता

मां की आंखें सब देख रही हैं
बेटे को क्या हो गया है?

बेटा दफ्तर की मीटिंग में जाता है,
तो उसका मुखौटा बदल जाता है
वह थकान औ ऊब उतार कर
नकली मुस्कान औढ़ लेता है;
बातें करते हुए
जान बूझ कर मुस्कराता है
फिर दफ्तर खत्म करके
घर लौट आता है।

पहले वह नियम से
क्लब जाता था
बेडमिंटन खेलता था
दारू पीता था
खिलखिलाता था
उसके घर जो पार्टियां होती थीं
उनमें जिन्दगी का शोर होता था

पार्टियां अब भी
होती हैं
पर जैसे कम्प्यूटर पर प्लान की गई हों।
चुप चाप
स्कॉच पीते मर्द, सोफ्ट ड्रिक्स लेती औरतें
बतियाते हैं मगर
जैसे नाटक में रटे रटाए संवाद बोल रहे हों
सब बेजान
सब नाटक, जिन्दगी नहीं

बेटा लौटकर टीवी खोलता है
खबर सुनता है
फिर
अकेला पैग लेकर बैठ जाता है

पत्नी
बाहर क्लब से लौटती है
हाय सुरू!
कहकर अपना मुखौटा तथा साज
सिंगार उतार कर
चोगे सा गाऊन पहन लेती है
पहले पत्नियाँ पति के लिए सजती
संवरती थी अब वे पति के सामने
लामाओं जैसी आती हैं
किस के लिए सज संवर कर
क्लब जाती हैं?
मां समझ नहीं पाती है

बेटा पैग और लेपटाप में डूबा है
खाना लग गया है
नौकर कहता है;
घर-डाइनिंग टेबुल पर आ जमा है
हाय डैडी! हाय पापा!
उसके बेटे के बेटी-बेटे मिनमिनाते हैं
और अपनी अपनी प्लेटों में डूब जाते हैं
बेटा बेमन से
कुछ निगलता है फिर
बिस्तर में आ घुसता है

कभी अखबार
कभी पत्रिका उलटता है

फिर दराज़ से
निकाल कर गोली खाता है
मुँह ढक कर सोने की कोशिश में जागता है
बेड के दूसरे कोने पर बहू-बेटे की पत्नी
के खर्राटे गूंजने लगते हैं

बेटा साइड लैंप जला कर
डायरी में
अपने दुख समेटने बैठ जाता है

मां नहीं है
उसकी पेंटिंग है
उस पेंटिंग के चश्मे के
पीछे से झांकती
मां की आंखे देख रही हैं
घर-घर नहीं
रहा है
होटल हो गया है
और उसका
अपना बेटा महज
एक अजनबी।

--श्याम सखा ‘श्याम'



माई गाइ लोरी लाड लाना याद आ गया


सभी पाठकों को मातृ-दिवस की बधाइयाँ। आज इस अवसर पर हम हिन्द-युग्म की यूनिकवि प्रतियोगिता के अप्रैल अंक की प्रतियोगिता से एक कविता प्रकाशित कर रहे हैं। इस कविता के रचनाकार प्रदीप कुमार पाण्डेय गंगा-यमुना और सरस्वती के किनारे इलाहाबाद के छोटे से गांव में पैदा हए। गांव के स्कूल से ही इनकी पढ़ाई हुई। इसी दौरान राजनीतिक गतिविधयों में रुचि बढ़ी। इविंग क्रिश्चियन कालेज से बी॰ए॰ करने के दौरान छात्र राजनीति में सक्रिय हुए। 2002 में छात्रसंघ महामंत्री पद का चुनाव लड़े, हार गये, लेकिन 2003 में पुनः लड़े और जीत भी गये। यहीं पत्रकारिता के कीड़े ने काटा और पहुँच गये बनारस हिंदू विवि (बीएचयू)। पत्रकारिता में एम॰ए॰ किया। 2005 में पढाई पूरी की और असल इम्तहान शुरू हुआ। 2005 से रोज इतिहास को समय के पन्नों में दर्ज कर रहे हैं। फिलहाल इंदौर में हैं और एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में सेवाएं दे रहे हैं।
इन्हें नहीं लगता कि ये कवि हैं। जो कुछ दिल से आवाज आई शब्दों की माला पिरो देते हैं। किसी को सुनाया तो उसने कहा कविता है।

संपर्क- pspandey26@gmail.com

आज इनकी कविता के साथ हिन्द-युग्म की चित्रकार स्मिता तिवारी का एक चित्र भी प्रकाशित रहे हैं।

कविता- दिल से....

आज भी जब मुझे नींद आती नहीं
गिन के तारे कटती हैं रातें मेरी,
दर्द मेरा जब कोई समझता नहीं
याद आती है मां बस तेरी-बस तेरी।

आज मुझे भूख लगी, नहीं मिला खाना जो तो
मुझको जमाना वो पुराना याद आ गया।
बाबू, अम्मा और चाचा-चाची की भी याद आई,
पापा वाला गोदी ले खिलाना याद आ गया।

क्षुधा पीर बार-बार आई जो रुलाई जात
माई काम काज छोड आना याद आ गया।
भइया, राजाबाबू, सुग्गू कह के बहलाना मुझे,
आंचल की गोद में पिलाना याद आ गया।

पूरब प्रभात धोई-पोछि मुख काजर लाई
माथे पे ढिठौने का लगाना याद आ गया।
दिन के मध्यान भानु धूल, धरि, धाई, धोई
धीरज धराई धमकाना याद आ गया।

रात-रात जागकर खुद भीषण गर्मी में
आंचल की हवा दे सुलाना याद आ गया।
बीच रात आंख मेरी खुली जो अगर कभी
थपकी दे के माई का सुलाना याद आ गया।
आज जब रातें सारी कट जाएं तारे गिन
माई गाइ लोरी लाड लाना याद आ गया।

छोटे-छोटे पांवों पर दौड़कर भागा मैं तो
मम्मी वाला पीछे-पीछे आना याद आ गया।
यहाँ-वहाँ दौड़ते जो भुंइयां पे गिरा मैं तो
गिरकर रोना और चिल्लाना याद आ गया।
लाड लो लगाई, लचकाई लो उठाई गोद,
माई मन मोद का मनाना याद आ गया।
गोदी में उठाके फिर छाती से लगा के मुझे,
आंसुओं का मरहम लगाना याद आ गया।

बीए की पढ़ाई पास, पढ़ा जो पुराना पाठ,
पापा धर लेखनी लिखाना याद आ गया।
आज बात चली जो 'प्रदीप' घर बसाने की तो
मिट्टी का घरौंदा वो बनाना याद आ गया।।


प्रथम चरण मिला स्थान- दसवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- बारहवाँ



माँ, माँ और माँ





आज मातृत्व दिवस है, हिन्द-युग्म के कवियों ने कई बार माँ को अपनी कविताओं से श्रद्धाँजलि दी है। इस बार 4 पाठक-कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति भेजी है। सभी को इस दिवस पर हार्दिक बधाइयाँ।


माँ

रोज की तरह आज भी
छत की मुंडेर पर धोती फैलाकर
किसी कोने में खुद को निचोड़ती
बच्चों की चिंता में
दिनभर
सूखती रहती है माँ।

हवा के झोंके से गिरकर
घर की बाहरी दीवार पर गड़
खूंटे से अटकी
धोती सी लहराती
बच्चों के प्यार में दिनभर
झूलती रहती है माँ।

शाम ढले
आसमान से उतर-कर धोती में लिपटते
अंधेरों को झाड़ती
तारों की पोटली बनाकर
सीड़ियाँ उतरती
देर तक हांफती रहती है माँ।


चुनती है जितना उतना ही रोती
गमों के सागर में यादों के मोती
जाने क्या बोलती न जागी न सोती
रातभर
भींगती रहती है माँ

-देवेन्द्र कुमार पाण्डेय, वाराणसी (उ॰ प्र॰)



माँ

जब धूप पसर जाती
रसोईघर के बाहर
मैं वहां बैठ
अ से अम्मा
लिखा करता
माँ धुएँ के कोहरे में
गुनगुनाती
आटा गूंथती
रोटियां बेलती
और साथ ही बनाती
आटे की छोटी-छोटी गोलियां
फिर उन्हें
आँगन में फैला देती
एक-दो-तीन
कई चिडियां आती
चहचहाती
गोलियां चुगती
सजीव हो जाते
बेलन, कलछी, चिमटा
अग्नि नृत्य करती
चूल्हे की मुंडेर पर
रसोईघर जलसाघर हो जाता
.
अब न घर में माँ हैं
न शहर में चिडियां
बस केवल
आटे की गोलियां बची है
जब कभी तन्हा होता हूँ
कुछ गोलियां बिखेर देता हूँ
और माँ
चिडियां बन
मन के आँगन में
उतर आती है

-विनय के जोशी, उदयपुर (राजस्थान)




माँ

तुम कहाँ हो?
क्या मेरी भी याद आती है
आज तुम जहाँ हो?

याद होगा तुम्हें
तवे पर की रोटी का खिलाना
सोते में मीठी लोरी का सुनाना
गुनगुनाना जगन्नाथ के गीत को
और मुसीबत में भी मुस्कराना

क्या याद है तुम्हें वो दिन
जब ठंड से ठिठुरते बालक के कपड़ों को
गोबर से सने हाथों से संवारती थी
याद है मुझे
मनमानी करने पर तुम गुस्सा हो जाती थी

कितना स्वाद था तुम्हारे हाथों से बने
खट्टी मीठी छाछ में
क्या वापस दिला पाएगा
वो सब सुख ये बेदर्दी ज़माना?

तब तुम जागती थी सारी रात
मेरे पेट में गुड़-गुड़ होने पर
क्या नींद आती होगी तुम्हें
वहाँ मखमली चादर पर सोने पर?

होने पर हताश
तुमने ही तो दिया था दिलासा
क्या भूल पाओगी एक पल को
वहाँ तारों के बीच होने पर?

आओ न माँ
फिर से एक बार आओ न
अपने नन्हें को
फिर से सुला जाओ न
सुना जाओ फिर से वही लोरी
ले आओ एक बार फिर से
दूध की कटोरी

खोटा हूँ तो क्या
बेटा तो तुम्हारा हूँ
कहने को सभी हैं
मगर बेसहारा हूँ मैं

कर लूंगा गुजारा
नहीं रहूंगा बेसहारा
तेरी गोद में आँचल से
सिर छिपा कर
सुख से सो जाऊंगा मैं

- नागेन्द्र पाठक, नई दिल्ली




प्रणाम करूँ तुझको माता

हे जननी जीवन दाता
प्रणाम करूँ तुझको माता
तू सुख समृद्धि से संपन्न
निर्मलपावन है तेरा मन
तुझसे ही तो है ये जीवन
तुझसे ही भाग्य लिखा जाता
प्रणाम करूँ तुझको माता

माँ की गोदि पावन-आसन
हम वार दें जिस पर तन मन धन
तू देती है शीतल छाया
जब थक कर पास तेरे आता
प्रणाम करूँ तुझको माता
इस विशाल भू मंडल पर
माँ ही तो दिखलाती है डगर
माँ ऐसी माँ होती न अगर
तो मानव थक कर ढह जाता
प्रणाम करूँ तुझको माता
हर जगह नहीं आ सकता था
भगवान हमारे दुख हरने
इस लिए तो माँ को बना दिया
जगजननी जग की सुख दाता
प्रणाम करूँ तुझको माता
धरती का स्वर्ग तो माँ ही है
इस माँ की ममता के आगे
बैकुण्ठ धाम, शिव लोक तो क्या
ब्रह्म लोक भी छोटा पड़ जाता
प्रणाम करूँ तुझको माता
ऐसी पावन सरला माँ का
इक पल भी नहीं चुका सकते
माँ की हृदयाशीष बिना
मानव मानव नहीं रह पाता
प्रणाम करूँ तुझको माता
क्यों मातृ दिवस इस माँ के लिए
इक दिन ही नाम किया हमने
इक दिन तो क्या इस जीवन में
इक पल भी न उसका दिया जाता
प्रणाम करूँ तुझको माता
माँ बच्चों की बच्चे माँ के
भूषण होते हैं सदा के लिए
न कोई अलग कर सकता है
ऐसा अटूट है ये नाता
प्रणाम करूँ तुझको माता
माँ को केवल इक दिन ही दें
भारत की ये सभ्यता न थी
माँ तो देवी मन मंदिर की
हर पल उसको पूजा जाता
प्रणाम करूँ तुझको माता
बच्चों के दर्द से रोता है
इतना कोमल माँ का दिल है
बच्चों की क्षुधा शांत करके
खाती है वही जो बच जाता
प्रणाम करूँ तुझको माता
सच्चे दिल से इस माता को
इक बार नमन करके देखो
माँ के आशीष से जीवन भी
सुख समृद्धि से भर जाता
प्रणाम करूँ तुझको माता

-सीमा सचदेव, बेंगलूरू (कर्नाटक)


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