हिन्द-युग्म के सभी पाठकों को मातृ दिवस की शुभकामनाएँ। आज हमने इस अवसर पर 40 से अधिक प्रविष्टियों का प्रकाशन किया है। यहाँ देखिए हमारा विशेष अंक। नये प्रकाशन के तौर आज हम युवा कवि विजय शंकर चतुर्वेदी की एक कविता 'माँ की नींद' प्रकाशित कर रहे हैं। विजय शंकर चतुर्वेदी जुलाई 2008 के यूनिकवि रह चुके हैं। इनकी कई कविताएँ हिन्द-युग्म पर पहले से ही संकलित है। हाल ही में इनका एक कविता संकलन राधाकृष्ण प्रकाशन से छपा है। हम फिर कभी इनके संकलन और उसकी कविताओं की चर्चा करेंगे। आज तो माँ के गुणगान का दिन है, उसकी महानता को महसूस करने का दिन है। ऐसे में हमें इनकी यह रचना उपयुक्त लगी-
माँ की नींद
किताब से उचट रहा है मेरा मन
और नींद में है माँ।
पिता तो सो जाते हैं बिस्तर पर गिरते ही,
लेकिन बहुत देर तक उसकुरपुसकुर करती रहती है वह
जैसे कि बहुत भारी हो गई हो उसकी नींद से लंबी रात।
अभी-अभी उसने नींद में ही मांज डाले हैं बर्तन,
फिर बाँध ली हैं मुटि्ठयाँ
जैसे बचने की कोशिश कर रही हो किसी प्रहार से।
मैं देख रहा हूँ उसे असहाय।
माँ जब तब बड़बड़ा उठती है नींद में
जैसे दबी हो अपने ही मलबे के नीचे
और ले रही हो साँस।
पकड़ में नहीं आते नींद में बोले उसके शब्द।
लगता है जैसे अपनी माँ से कर रही है कोई शिकायत।
बीच में ही उठकर वह साफ कराने लगती है मेरे दाँत
छुड़ाने लगती है पीठ का मैल नल के नीचे बैठकर।
कभी कंघी करने लगती है
कभी चमकाती है जूते।
बस्ता तैयार करके नींद में ही छोड़ने चल देती है स्कूल।
मैं किताबों में भी देख लेता हूँ उसे
सफों पर चलती रहती है अक्षर बनकर
जैसे चलती हैं बुशर्ट के भीतर चीटियाँ।
किताब से बड़ी हो गई है माँ
सावधान करती रहती है मुझे हर रोज़
जैसे कि हर सुबह उसे ही बैठना है इम्तिहान में
उसे ही हल करने हैं तमाम सवाल
और पास होना है अव्वल दर्ज़े में।
मेरे फेल होने का नतीजा
मुझसे बेहतर जानती है माँ
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
मेरे फेल होने का नतीजा
मुझसे बेहतर जानती है माँ
बहुत अच्छा सृजन ...एक अच्छी प्रस्तुति ..पढ़कर अच्छा लगा ...बस यही कहूँगा की ....दुनिया की हर माँ को मेरा शत-शत नमन
http://athaah.blogspot.com/
माँ पर लिखी आपकी इस कविता ने मुझे भी वापस बचपन में भेज दिया था.. माँ के स्नेह के तले गुज़रे बचपन के सारे क्षण याद आ गए, कईओं को आपने शब्द भी दिए यहाँ.. एक खूबसूरत कृति के लिए आभार..
साथ ही माँ को समर्पित मेरे भाव-
माँ
आज भी तेरी बेबसी
मेरी आँखों में घूमती है
तेरे अपने अरमानों की ख़ुदकुशी
मेरी आँखों में घूमती है..
तूने भेदे सारे चक्रव्यूह
कौन्तेयपुत्र से अधिक
जबकि नहीं जानती थी
निकलना बाहर
या शायद जानती थी
पर नहीं निकली हमारी खातिर
अपनी नहीं अपनों की खातिर
ओस सी होती थी
जो कभी होती तेरी नज़रों में नाराजगी
जो हमें छाया मिलती थी
वो तेरी छत्र के कारण थी
पर तू खुद तपती रही
गलती रहीं माँ
क्योंकि तेरी अपनी छत्र
तेरे अपने ऊपर नहीं थी
इसलिए
हाँ इसीलिए
दुनिया की हर ऊंचाई
तेरे कदम चूमती है
माँ
आज भी तेरी बेबसी
मेरी आँखों में घूमती है...
दीपक 'मशाल'
बहुत अच्छी कविता इस प्रसंग पर और भी अच्छी लगी।
मातृदिवस पर मा~ऒ को शत-शत प्रणाम और हिन्द-युग्म के प्रयास की सराहना।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
मेरे फेल होने का नतीजा
मुझसे बेहतर जानती है माँ
जी हाँ बेहतर जानती है
और फिर
हर इम्तहान में माँ तो बच्चे से पहले बहुत पहले बैठती है
माँ पर एक बहुत अच्छी कविता !
atyantya prabhavi kavita.badhai
सुंदर कविता बहुत बहुत बधाई।
माता का दर्जा सभी से ऊँचा होता है अतः हमें मदर्स डे की जगह माता पिता को समर्पित जीवन मनाया जाना चाहिये।
धन्यवाद
विमल कुमार हेड़ा।
mujhe apne fail hone ke din yaad aa gaye aur us par maa ka rona mere saath. uska mere saath jagna pareekshaon ke dino mein. aur nateeze wale din gale mein uske hook uthna. bahut achha pehlo chhua apne ma-aur bete ke beech. mubarsk aur shukriya is achhi nazm ke liye.
bahut khoobsurat kavita kahi hai. Behtareen se kam to kya kahun. Badhai
फिर बाँध ली हैं मुटि्ठयाँ
जैसे बचने की कोशिश कर रही हो किसी प्रहार से।
विजय जी,
पूरी रचना पसंद आई, लेकिन उपरोक्त पंक्तियों ने मुझे थोड़ा-सा परेशान कर दिया। आखिर किस प्रहार से माँ बचना चाह रही है। पिता के प्रहार से? अगर हाँ, तो मुझे निराशा होगी, क्योंकि ऐसा हर जगह नहीं होता... माँ को अच्छा बताने के लिए पिता को बुरा कहना सही नहीं। लेकिन अगर परिस्थितियों के प्रहार से बचने की बात है तो आप सौ फीसदी सही हैं, माँ अपने बच्चों के लिए बहुत सारी मुसीबतें सहती है।
आपको आगे भी पढना चाहूँगा।
-विश्व दीपक
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