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प्यार की तीखी टीस


प्यार की तीखी टीस
ज़मानों बाद टभकती है क्यों?
अश्क़ अम्ल हो जाते हैं
यूँ याद फफकती है क्यों?

पतझड़ के पत्तों के सरीखे
सीने में बिखरे जज़्बात
और इन उपलों पर पड़ती
दूर के सूरज-सी तेरी बात,
कुतर-कुतर स्वाहा कर पूछे,
अरे! आग भभकती है क्यों?

अश्क़ अम्ल हो जाते हैं,
तेरी याद फफकती है क्यों?

ठिठुर-ठिठुर के रात काटते
कंकालों-सा मेरा मन,
एक-आध कतरों से बुनकर
डाल रखा उस पर संयम,
हिचक-हिचक ना टूट पड़े....
तेरी आँख भटकती है क्यों?

अश्क़ अम्ल हो जाते हैं,
तेरी याद फफकती है क्यों?

उन्हीं चार लम्हों से लेकर
माटी, गारे, खप्पर, बाँस,
लुढक-ढुलक जोड़ी है मैंने
कई सदियों में थोड़ी आस,
आज मगर फिर तुझे सोच,
मेरी साँस टपकती है क्यों?

अश्क़ अम्ल हो जाते हैं,
तेरी याद फफकती है क्यों?

-विश्व दीपक

समय केले का छिलका है....


चाँद का पानी पीकर,
लोग कर रहे होंगे गरारे...
और झूम रही होगी
जब सारी दुनिया...

मशीन होते शहर में,
कुछ रोबोट-से लोग
ढूँढते होंगे,
ज़िंदा होने की गुंजाइश।

किसी बंद कमरे में,
बिना खाद-पानी के
लहलहा रहा होगा दुःख...

माँ के प्यार जितनी अथाह दुनिया के
बित्ते भर हिस्से में,
सिर्फ नाच-गाकर
बन सकता है कोई,
सदी का महानायक
फिर भी ताज्जुब नहीं होता।

प्यार ज़रूरी तो है
मगर,
एक पॉलिसी, लोन या स्कीम
कहीं ज़्यादा ज़रूरी हैं....

सिगरेट के धुँए से
उड़ते हैं दुःख के छल्ले
इस धुँध के पार है सच
देह का, मन का...

समय केले का छिलका है,
फिसल रहे हैं हम सब...
दुनिया प्रेमिका की तरह है,
एक दिन आपको भुला देगी...

निखिल आनंद गिरि

कड़वी सुपारी है..


कड़वी सुपारी है!

आँखों की आरी से,
दो-दो दुधारी से,
तिल-तिल के,
छिल-छिल के,
काटी है बारी से...

बोलूँ क्या? तोलूँ क्या?
ग़म सारे खोलूँ क्या?
टुकड़ों की गठरी ये
पलकों की पटरी पे
जब से उतारी है,
धरती से, सख्ती से
किस्मत की तख्ती से
अश्कों की अलबेली
बरसात ज़ारी है..

आशिक कहे कैसे,
चुपचाप है भय से,
लेकिन ये सच है कि
चाहत की बेहद हीं
कीमत करारी है..

कड़्वी सुपारी है!

ओठों के कोठों पे
हर लम्हा सजती ये
हर लम्हा रजती ये
हर राग भजती है!
कोई न जाने कि
इसको चखे जो
सलाखों के पीछे
इतना धंसे वो
कि
दिल का मुचलका
जमा करने पर भी
तो
बाकी जमाने हीं
भर की उधारी है..

कैसा जुआरी है?

आँखों से पासे
जो फेंके अदा से,
उन्हीं में उलझ के
कहीं और मँझ के
किसी की हँसी पे
बिना सोचे रीझ के
ये मन की तिजोरी
से मुहरें गँवा दे..
तभी तो
कभी तो
बने ये भिखारी है..
आशिक भी यारों
बला का जुआरी है..

मानो, न मानो
पर सच तो यही है-
मोहब्बत बड़ी हीं
कड़वी सुपारी है..

-विश्व दीपक

रुस्तम सौ, सोहराब हज़ारों रखती है.


आँखों में असबाब हज़ारों रखती है,
वो लड़की जो ख्वाब हज़ारों रखती है....

रोती है, जब चाँद सिकुड़ता थोड़ा भी,
पर खुद हीं आफ़ताब हज़ारों रखती है....

क्या जाने, क्यों होठों पे सौ रंग भरे,
जब उन में गुलाब हज़ारों रखती है..

मैं क्या हूँ! वो नाज़नीं अपने कदमों में
रुस्तम सौ, सोहराब हज़ारों रखती है..

वैसे तो गुमसुम रहती है लेकिन वो
हर आहट में आदाब हज़ारों रखती है..

-विश्व दीपक

सो ना हीं लूँ तो है सही..


नाम लिया तो बदनाम हो जाऊँगा..

सो ना हीं लूँ तो है सही..

क्योंकि
उसकी लटों से फ़ँसके मैं,
उसकी लतों से हँसके मैं
गुजरा अगर जो
सामने
दुनिया के,
उसको थामने
तो जानता हूँ
पाक़-साफ़
इस जहां की
तंग-सी हर एक गली मे
इश्क़ के मैं नाम पर
दुश्नाम(गाली) हो जाऊँगा.
बदनाम हो जाऊँगा........

ग़ालिबन
यह ठीक हो कि
ज़ौक की
शायरी का शौक ले
मैं
दाग़ के हर शेर पे
ढेर होता हीं रहूँ,
मीर के तुनीर से
निकले हुए हर तीर से
ज़ख्म खाके
आशिक़ी के ज़ेर (नीचे) होता हीं रहूँ,
या कि किसी साहिर की
राह का मुसाफ़िर हो
बह चलूं और
वादियों की आड़ में
खिल रहे गुलज़ार से
उड़्ती इन आब-ओ-हवा को
लूटने को
मेड़ होता हीं रहूँ..

जो भी हो
या
जो भी हो लूँ
लेकिन मैं यह जानता हूँ
ज्योंहिं मैने
नाम लेके
एक लफ़्ज़ भी कहा
तो बाखुदा
वो लफ़्ज़ हीं कलाम हो जाएगा...
कलाम क्या..
वो एक पूरा दीवान हो जाएगा..
और फिर
मजरूह मैं
बेकार सब
सौदाईयों का हमनाम हो जाऊँगा..
बदनाम हो जाऊँगा...

इसलिए यह सोचता हूँ कि
ना हीं लूँ तो है सही..

-विश्व दीपक

तेरी बेसबब हँसी


तेरी बेसबब हँसी
माहौल बन गई,
सारी बलाओं की
माखौल बन गई..

रूत उभरी तेरे गालों से
"डिंपल" खुदे गुलज़ारों से
रोगन-भरे कचनारों से
अधरों के दो रखवालों से...

रूत छाई तो कुछ यूँ हुआ,
हर सब्र हीं धूँ धूँ हुआ,
पतझड़ का सर कलम करके
दिल से अलग अलम करके
हम सहर नई जगा आए,
कलम वसंत की लगा आए....

तेरी बेसबब हँसी
एक ढब हो गई,
सज़दों से भी परे
मज़हब हो गई,
खुतबे न माँगे जो
ऐसा रब हो गई,
मेरे लिए मेरे होने का
मतलब हो गई.....

-विश्व दीपक

ये तेरे इशारे..


तेरे इशारों पर रात की रिहाई हो,
तेरे इशारों पर चाँद की जम्हाई हो,
तेरे इशारों पर तीरगी निखर जाए,
जैसे अमावस की खुलती कलाई हो।

तेरे इशारे इशारे नहीं हैं,
ये तिनके हैं बहते अथाह सागरों में
जहाँ आस जीने की ज़िंदा नहीं है
न साँसें बची है, न हीं हौसले हैं
न उम्मीद है कुछ, न जिद्द हीं कहीं है
मनु ने भी नाव उतारे नहीं हैं
जहाँ डूबी जाती है पूरी हीं सृष्टि
किसी को भी दिखते सहारे नहीं हैं,
तभी तेरी नज़रों से चलके ये तिनके
कहीं पुल कहीं बाँध बनने लगे हैं
ठिठक-से गए हैं ये सागर भी देखो
जो तिनके फ़लक एक जनने लगे हैं.,
ये तिनके जिन्हें सब इशारे कहे हैं,
इन्हीं से तो सारे नज़ारे हुए हैं,
नया एक जन्म जो मिला है सभी को
तभी तो ये सारे तुम्हारे हुए हैं।
तभी तो ये चंदा खिसकता नहीं है,
तभी तो कुहासे तुझे ढाँपते हैं,
तभी तो मुहाने पे आके सहर भी
बिना पूछे तुझसे उबरती नहीं है,
तुझे क्या बताऊँ असर तेरा क्या है
कि रब भी तेरे पीछे हीं बावला है
तभी तो न घटता है ये हुस्न तेरा
उमर भी ये तेरी तो बढती नहीं है।

मेरी बात सुन ले, मैं सच कह रहा हूँ,
ये तेरे इशारे इशारे नहीं है,
ये तुझमें दबे कुछ तिलिस्म है जिनको
समझने के साधन करारे नहीं हैं..
तभी तो मैं खुद भी इसी में पड़ा हूँ,
न फल जानता हूँ, न हल जानता हूँ,
पर मेरा मुकद्दर इन्हीं में कहीं है
और इस कारण हीं मैं तुझसे जुड़ा हूँ।

तेरे इशारे ये एकलौते शय हैं,
मुझे है पता ये बस तुझे हीं मिले हैं,
मुझे है पता...
मुझे है पता कि ये तेरे इशारे
हैं शबनम कभी, कभी है शरारे,
हैं मझधार खुद, खुद हीं हैं किनारे,
है ताज्जुब यही, इन्हें जो निहारे
हैं जीते वहीं, इन इशारों के मारे!
ये तेरे इशारे!!!

-विश्व दीपक

वह कुछ बहकी-बहकी-सी बातें करती है!


वह कुछ बहकी-बहकी-सी बातें करती है!
चाँदनी की छलनी लिए
रात का कालापन
छानती है पूरी शब..
नीम-नशा में लुढकती हवाओं को
खोंसती है
घास के नाखूनों में
और
बुहारकर चाँद का चेहरा
जमा करती है ओस के कुछ फ़ाहे-
शायद गढनी होती है उसे
एक चादर मीठी-सी
जिसे बिछा सके वो
घास की हड्डियों पर..।
बड़ी फिक्र है उसे
मेरे ख्वाबों की
जो हर बार हीं
लांघकर
अधखुली आँखों को
चल पड़ते हैं
सर्पीली पगडंडियों पर
शायद ढलने उसकी नींदों में।

वह
हर शब
चढाती है आसमान पर
जामुनी रंग का एक कैनवास
और छिड़क देती है
उसपर
दिन भर की उजली,खुशरंग यादे..
वह चाँद
यादों का बही-खाता है
और उसकी सोलह कलाएँ
यादों की जमापूँजी।

वह
कहती है-
चौरासी लाख योनियाँ
कुछ और नहीं
मेरे और उसके प्यार के
विभिन्न पड़ाव हैं
और मनुष्य योनि
हमारा मिलन......
उसकी माने तो
बस शबभर हीं
इंसान इंसान होता है
और दिन आते
उग आती है कीड़े-मकौड़ों की जमात!

वह
हर लम्हा जीती है
मेरे लिए
और हर शब
यूँ हीं बहकी-बहकी बातें करती है।
मैं
शायद नहीं चाहता उसे
या फिर कुछ नहीं चाहता
तभी तो नहीं बहकता उसकी बातों से।
वह
गिनती है
महीने में बस एक हीं अमावस
और मैं
रूह के तीस अमावस
और देह के शून्य अमावस
पर ज़िंदा हूँ।

वह
एक बहकी बातें करने वाली
सुलझी लड़्की
क्यूँ चाहती है मुझे...
क्या पता,
मैं तो उसे उसी तरह सुनता हूँ
जैसे सुनता हूँ अपनी ज़िदगी को।
दोनों इतने से ही खुश हैं शायद..............

-विश्व दीपक ’तन्हा’

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....


जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....
अभी वक्त की मारामारी है,
कुछ सपनों की लाचारी है,
जगती आंखों के सपने हैं...
राशन, पानी के, कुर्सी के...
पल कहां हैं मातमपुर्सी के....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....

अभी वक्त पे काई जमी हुई,
अपनों में लड़ाई जमी हुई,
पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,
ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,
इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....
जब बांध.....

उम्र का क्या है, बढ़नी है,
चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...
घर में मां अकेली पड़नी है,
बाबूजी का क़द घटना है,
सोचूं तो कलेजा फटना है,
इक दिन टूटेगा......

उसने हद तक गद्दारी की,
हमने भी बेहद यारी की,
हंस-हंस कर पीछे वार किया,
हम हाथ थाम कर चलते रहे,
जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....
इक दिन...

जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,
सर्वस्व समर्पण करते रहे,
तुम मोल समझ पाए ही नहीं,
ख़ामोश इबादत जारी है,
हर सांस में याद तुम्हारी है...
इक दिन...

अभी और बदलना है ख़ुद को,
दुनिया में बने रहने के लिए,
अभी जड़ तक खोदी जानी है,
पहचान न बचने पाए कहीं,
आईना सच न दिखाए कहीं!
जब बांध ....

अभी रोज़ चिता में जलना है,
सब उम्र हवाले करनी है,
चकमक बाज़ार के सेठों को,
नज़रों से टटोला जाना है,
सिक्कों में तोला जाना है...
इक दिन....

इक दिन नीले आकाश तले,
हम घंटों साथ बिताएंगे,
बचपन की सूनी गलियों में,
हम मीलों चलते जाएंगे,
अभी वक्त की खिल्ली सहने दे...
जब बांध..

मां की पथरायी आंखों में,
इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,
मेरे आने की आस लिए..
उस उम्र का हर पल बोलेगा....

टूटे चावल को चुनती मां,
बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,
दिन भर का सारा बोझ उठा,
सूना कमरा, सिर धुनती मां....

टूटे ऐनक की लौटेगी
रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...
मां तेरे आंचल में सिर रख,
मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,
मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....

तू चूमेगी, पुचकारेगी,
तू मुझको खूब दुलारेगी...
इस झूठी जगमग से रौशन,
उस बोझिल प्यार से भी पावन,
जन्नत होगी, आंचल होगा....
मां! कितना सुनहरा कल होगा.....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....


निखिल आनंद गिरि

प्यार ने पैदा किए हैं वैज्ञानिक


न चाहते हुए भी,
जब से मासूम पीठों पर,
किताबों का गट्ठर लदा होगा.....
मासूम चेहरों ने बना ली होगी,
बस्ते में अलबम रखने की जगह....

कई बार कच्चे रास्तों पर,
ढेला खाती होगी
आम की फुनगी,
और गिरते टिकोले बढ़ाते होंगे,
प्यार का वज़न...

बिना किसी वजह के,
जब डांट खाते होंगे
बड़े होते बेटे,
प्यार का अहसास,
पहली बार देता होगा थपकी.....

जब नहीं हुआ करते थे मोबाईल,
नहीं पढे जाते थे झटपट संदेश,
आंखें तब भी पढ़ लेती होंगी,
कि किससे होना है दो-चार...
और हो जाता होगा मौन प्यारयययय

ये भी संभव है कि,
अनपढ़ मांएं या बेबस बहनें,
अक्सर याद करती होंगी चेहरा,
तो रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे...

या फिर दाढ़ी बनाते पिता ही,
पानी या तौलिया मांगते वक्त,
अनजाने में पुकारते होंगे कोई ऐसा नाम,
जो शुरु नहीं होता,
मां के पहले अक्षर से....

एक सहज प्रक्रिया के लिए रची गयी रोज़ नयी तरकीबें,
प्यार ने पैदा किये हैं कितने वैज्ञानिक...

ये सरासर ग़लत है कि,
कवि,शायर या चित्रकार ही,
प्यार की बेहतर समझ रखते हैं.....

दरअसल,
जिसके पास मीठी उपमाएं नहीं होतीं
वो भी कर रहा होता है प्यार,
चुपके-चपके....

निखिल आनंद गिरि