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अनवरत



मै मांगती  हूँ 
तुम्हारी सफलता 
सूरज के उगने से बुझने तक 
करती हूँ 
तुम्हारा इंतजार 
परछाइयों के डूबने तक 
दिल के समंदर में 
उठती लहरों को 
 रहती हूँ थामे 
तुम्हारी आहट तक 
खाने में 
परोस के प्यार 
निहारती हूँ मुख 
 महकते शब्दों के आने तक 
समेटती हूँ  घर 
बिखेरती  हूँ  सपने 
दुलारती  हूँ  फूलों  को 
तुम्हारे  सोने  तक 
रात  को  खीच  कर   
खुद  में  भरती  हूँ  
नींद  के शामियाने में 
 सोती हूँ जग-जग के 
तुम्हारे उठने तक 
इस तरह 
पूरी होती है यात्रा 
प्रार्थना  से  चिन्तन  तक।    


कवियत्री- रचना श्रीवास्तव

कड़वी सुपारी है..


कड़वी सुपारी है!

आँखों की आरी से,
दो-दो दुधारी से,
तिल-तिल के,
छिल-छिल के,
काटी है बारी से...

बोलूँ क्या? तोलूँ क्या?
ग़म सारे खोलूँ क्या?
टुकड़ों की गठरी ये
पलकों की पटरी पे
जब से उतारी है,
धरती से, सख्ती से
किस्मत की तख्ती से
अश्कों की अलबेली
बरसात ज़ारी है..

आशिक कहे कैसे,
चुपचाप है भय से,
लेकिन ये सच है कि
चाहत की बेहद हीं
कीमत करारी है..

कड़्वी सुपारी है!

ओठों के कोठों पे
हर लम्हा सजती ये
हर लम्हा रजती ये
हर राग भजती है!
कोई न जाने कि
इसको चखे जो
सलाखों के पीछे
इतना धंसे वो
कि
दिल का मुचलका
जमा करने पर भी
तो
बाकी जमाने हीं
भर की उधारी है..

कैसा जुआरी है?

आँखों से पासे
जो फेंके अदा से,
उन्हीं में उलझ के
कहीं और मँझ के
किसी की हँसी पे
बिना सोचे रीझ के
ये मन की तिजोरी
से मुहरें गँवा दे..
तभी तो
कभी तो
बने ये भिखारी है..
आशिक भी यारों
बला का जुआरी है..

मानो, न मानो
पर सच तो यही है-
मोहब्बत बड़ी हीं
कड़वी सुपारी है..

-विश्व दीपक

इश्क उस से ही किया जाता है...........


मुहब्बत में जो खता होती है
उसकी खुशबू ही जुदा होती है

इश्क उस से ही किया जाता है
जिस से उम्मीदे वफ़ा होती है

मौत से जिस्म ही नहीं मरता
दिल से धड़कन भी जुदा होती है

सब्र करने से पता चलता है
दर्दे दिल की भी दवा होती है

उसकी कुदरत में एक शय है जो
मेरी चाहत पे फ़ना होती है

मौत ही है कि जो नहीं आती
जिन्दगी रोज़ खफा होती है

रिश्तों की एक पुड़िया मेरे पास है........


आओ फिर सादे कागज़ पर चांद लिखें,
आओ फिर आकाश उड़ा दें कागज़ को,
शाम हुई है, चांद को उगना होता है....

वो होंगे और जो दूरी पे रोया करते है,
हम तो थामते हैं तेरे लब अक्सर,
देखो फिर बज उठा मोबाईल मेरा...

रिश्तों की एक पुड़िया मेरे पास है
चाहो तो चख लो,रख लो या फेंको तुम
तुमको कैसा स्वाद लगा, बतलाओ तो

आसमां आज बहुत सफे़द-सा है,
इक कफ़न-सा शहर पे पसरा है
शहर की मौत पे अब जा के यकीं आया है....

मैं मुगालते मे ही रहा हूं, कई बरसों तक
कि जिंदा लाशें भी चलती हैं ज़मीं पर अक्सर,
आज आंखों से कुछ रिसा है तो यक़ीन हुआ

इतनी हसरत ही नहीं कि कभी पूजा जाऊं,
एक उम्मीद भर है कि कभी भूले से,
तुमको मिल जाऊं तो कह दो कि "जानती हूं इसे...."

--निखिल आनंद गिरि