कड़वी सुपारी है!
आँखों की आरी से,
दो-दो दुधारी से,
तिल-तिल के,
छिल-छिल के,
काटी है बारी से...
बोलूँ क्या? तोलूँ क्या?
ग़म सारे खोलूँ क्या?
टुकड़ों की गठरी ये
पलकों की पटरी पे
जब से उतारी है,
धरती से, सख्ती से
किस्मत की तख्ती से
अश्कों की अलबेली
बरसात ज़ारी है..
आशिक कहे कैसे,
चुपचाप है भय से,
लेकिन ये सच है कि
चाहत की बेहद हीं
कीमत करारी है..
कड़्वी सुपारी है!
ओठों के कोठों पे
हर लम्हा सजती ये
हर लम्हा रजती ये
हर राग भजती है!
कोई न जाने कि
इसको चखे जो
सलाखों के पीछे
इतना धंसे वो
कि
दिल का मुचलका
जमा करने पर भी
तो
बाकी जमाने हीं
भर की उधारी है..
कैसा जुआरी है?
आँखों से पासे
जो फेंके अदा से,
उन्हीं में उलझ के
कहीं और मँझ के
किसी की हँसी पे
बिना सोचे रीझ के
ये मन की तिजोरी
से मुहरें गँवा दे..
तभी तो
कभी तो
बने ये भिखारी है..
आशिक भी यारों
बला का जुआरी है..
मानो, न मानो
पर सच तो यही है-
मोहब्बत बड़ी हीं
कड़वी सुपारी है..
-विश्व दीपक
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
मानो, न मानो
पर सच तो यही है-
मोहब्बत बड़ी हीं
कड़वी सुपारी है..
जो ना खाये वो भी पछताये
जो खाये सो भी पछताये
सुन्दर अभिव्यक्ति
बोलूँ क्या? तोलूँ क्या?
ग़म सारे खोलूँ क्या?
टुकड़ों की गठरी ये
पलकों की पटरी पे
जब से उतारी है,
धरती से, सख्ती से
किस्मत की तख्ती से
अश्कों की अलबेली
बरसात ज़ारी है..
सुन्दर रचना के लिए विश्व दीपक जी को बहुत बहुत बधाई धन्यवाद
विमल कुमार हेडा
सुन्दर रचना....
दीपक जी बधाई!
मानो ना मनो ..मुहब्बत बड़ी ही कडवी सुपारी है ...
वाह ...सुपारी नहीं खानी चाहिए ...आवाज़ बदल जाती है ...!!
behad umda rachna hai vishwa deepak ji ...waah ...alag sa swad hai is supari me
उफ़ विश्वदीपक साहब..आप शब्दों को रंग-बिरंगे कंचों की तरह छन-छन बिखेर देते हैं रचना मे..कि जो भी अंदर आने को पग धरता है..धड़ाम से गिरता है..इतना आसान नही आपकी कविताओं को बिना गुनगुनाये रह पाना...
रचना पसंद करने के लिए सभी मित्रों का तह-ए-दिल से आभार!!!
-विश्व दीपक
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