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Wednesday, April 28, 2010

वो सौदा करती है


मार्च महीने की यूनकवि प्रतियोगिता की दसवीं कविता की रचियता रेनू 'दीपक' पहली बार शीर्ष 10 में स्थान पा रही हैं। 7 दिसम्बर 1966 को हापुड़ (उ॰प्र॰) में जन्मी रेनू ने विज्ञान में परास्नातक तक की शिक्षा हासिल की है। वर्तमान में मेरठ में रह रहीं रेनू ने कॉलेज में पढने के दौरान 'हरिवंशराय बच्चन' जी की मधुशाला पढ़ी। इनके घर में इनके पापा को कविता व लघुनाटिका लिखने का शौक था| शायद इन्हीं सब ने कवयित्री को धीरे-धीरे अपना रंग दिखना शुरू किया और ये छोटी-छोटी कवितायें लिखने लगीं| तितली के जैसे रंग बिखरने लगे और लेखन ने भी अपना रूप लेना शुरू कर दिया| दैनिक समाचार पत्र से शुरू कर 'वूमन ऑन टॉप', वनीता, प्रोपर्टी एक्सपर्ट आदि मासिक पत्रिकाओं में भी लेख छपे व पसंद किये गए| भावों को शक्ल देना हमेशा सुखद रहा|


पुरस्कृत कविताः वो सौदा करती है ....

मजबूरी की आग में तप कर
खुद को निखारती है
फिर अपने जिस्म का सौदा करती है
वो जिस्म बेचती है|
उसके चन्दन से जिस्म से लिपटी
सर्प की कुंडलियों सी आँखें
उसे और भी विषाक्त बनाती है
और रेंगते हुए अदृश्य हाथ
हर रात उसे काटा करते हैं|
बदनाम सी गलियों में खुलती
आवारा खिड़कियों के दरवाजे से
चला आता है
एक बेईमान हवा का झोंका
और उसके जिस्म को
छू-छू कर देखा करता है
पालने में झूलते बच्चे की
सारी चांदनी छीनकर
बीमार अँधेरे में
जीने को मजबूर करता है|
उफ़ ये कैसी बेबसी है ...!
होंठ उदास हैं
पर उनकी लाली हँसती है
पलकों पे सपने अटके हैं
शायद राह भटके हैं
ख्वाहिशों का बाज़ार है
एक से बढकर एक
खरीदार है
अमीर बनने को या
पेट भरने को
अपने सीने पर पत्थर रखती है
और चाक जिगर की सीती है
तब अपने जिस्म का सौदा करती है
पर दरअसल, हर बार
वो अपनी रूह बेचा करती है|


पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।

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6 कविताप्रेमियों का कहना है :

M VERMA का कहना है कि -

पर दरअसल, हर बार
वो अपनी रूह बेचा करती है|

रूह का सौदा जिस्म के सौदे से भयावह नहीं है?
सुन्दर रचना, त्रासद

sujeet kuamr jalaj का कहना है कि -

कुछ भावनाए ऐसी होती है जिनके लिए सच में शब्द कम पड़ जाते हैं | वाकई एक सुन्दर रचना है आपकी |

Anonymous का कहना है कि -

उसके चन्दन से जिस्म से लिपटी
सर्प की कुंडलियों सी आँखें
उसे और भी विषाक्त बनाती है
सुन्दर अभिव्यक्ति...आपको बधाई!

दिपाली "आब" का कहना है कि -

bahut kuch kehti hai aapki yeh rachna..
kuch kehna iska apmaan hoga..
main sirf itna kahungi..
hatz off to you

अपूर्व का कहना है कि -

गहरी और ’पेनफ़ुल’ रचना..और खासकर यह बिंब कविता की आत्मा को और संघनित करता दिखता है..
उसके चन्दन से जिस्म से लिपटी
सर्प की कुंडलियों सी आँखें
उसे और भी विषाक्त बनाती है
और रेंगते हुए अदृश्य हाथ
हर रात उसे काटा करते हैं|

दिलफ़िगार मगर खूबसूरत..

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

उफ़ ये कैसी बेबसी है ...!
होंठ उदास हैं
पर उनकी लाली हँसती है
पलकों पे सपने अटके हैं
शायद राह भटके हैं
ख्वाहिशों का बाज़ार है
एक से बढकर एक
खरीदार है
अमीर बनने को या
पेट भरने को
अपने सीने पर पत्थर रखती है
और चाक जिगर की सीती है
तब अपने जिस्म का सौदा करती है
पर दरअसल, हर बार
वो अपनी रूह बेचा करती है|
अमीर बनने के लिये केवल जिस्म बिकता है, क्योकि रुह तो पहले ही मर चुकी होती है, पेट भरने के लिये ही रुह बिकती है जिसको बचाये जाने की आवश्यकता है तथा व्यवस्था को यह सुनिश्चित करना है कि श्रम बेचना ही पेट भरने के लिये पर्याप्त हो सके. भावो को सुन्दरता से उकेरा गया है.

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